श्री भीष्म कुकरेती

एक गढ़वाली कविता जो 103 साल बीत जाने के बाद भी प्रासंगिक है !

प्रस्तुति भीष्म कुकरेती

(यह वास्तव में कविता नहीं अपितु स्व भवानी दत्त थपलियाल कृत भक्त प्रह्लाद नाटक (1914 ) का एक डायलॉग है को कवित्व रूप में है। 100 साल बीत जाने के बाद भी ताज़ी , प्रासंगिक और चुभोती ही )

चपड़ासी - कै गाऊं को छई , क्या छ नाम ? कच्छेड़ी क्यों चढ़ी , क्या च काम ?घिमंडू - हिन्द को हिंदु छौं घिमंडू नाउ , खंड पाखंड को भुंडू गाऊं।

आपका न्याय का संख्या सूणो। सात बासौं मा औं कणि -कणी

सतयुग माँझ मिन दावा कयो। द्वापर त्रेता तातील गयो

कलिकाल मा खालि मुकरर होया। कल्प पुरो छ यो सबि त रोया ! खेल खौंल्युं कि तातील तुम्कू। दांदला को नि कैकुछ भि ह्मकु।

तीस मुकरर मी दौड़ी आयो। रोइ कच्छेड़ी कू खाली गयो !

चपड़ासी -ना रोवा ना रोवा मुस्तगीसो ! घट्ट मा जैका जनि तन्नि पीसो।

सारी कच्छेड़ी छ मेरा बस मा। सबका दावा कराई दींदु पल मा।

पेटपूजा जो तुम मेरा करयां। दावा तैं जीती घर कूच करियां।

घिमंडू - इन्नी जी तुम कर्द माथो हाथ। हम्मारा निकळि गयां बदरिनाथ।

लेवा जी लेवा तुम पहिले लेवा। कै कै कु क्या दीण सब बोलि देवा।

चपड़ासी -दावा तैं दूणी ल्हौ कोर्ट फीस। चौगुणी चैंद फौंदारि घूस।

रीडरी का दरी मूड़ धरियां। चुप चालीस से कम नि करियां।

अर्दली अहलमद बाकि रहंद। छक्क कै ऊंको बि हक्क चैंद।