ग़ज़ल - आजकल
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पसीने से वो तर तर कब हुआ
इंसान से वो जानवर कब हुआ।
जिस्म ही नोचता रहता दरिंदा
बेखबर, खुदा का डर कब हुआ।
यराना बहुत दिखाती है दुनिया
हमारी गली से गुजर कब हुआ।
एक महामारी की चाल तो देखो
अभी इधर ही था उधर कब हुआ।
थक हार के बैठता था छांव में
बिन पत्तों का ये शजर कब हुआ।
खुशगवार छोड़ गया था इसे
ख़ामोश बोलो ये शहर कब हुआ।
कोरॉना से कैद था 'सिंधवाल'
तो मुहब्बत का असर कब हुआ।