गढ़वाल की ऐतिहसिक पृष्ठभूमि

हिमालय के पाँच खण्डों में हरिद्वार से लेकर कैलाश पर्वत तक फैले वर्तमान गढ़वाल को पौराणिक समय में केदारखण्ड नाम से जाना जाता था। स्कन्द पुराण (केदारखण्ड) के अध्याय-40 में केदारखण्ड का विस्तार इस प्रकार दिया गया है :-

पंचशत् योजनायामं त्रिशद्योजनविस्तृतम्।

इदं वो स्वर्गगमनं न पृथ्वीं तां महा विभो ।। 27।।

गंगाद्वारमर्यादं श्वेतान्नं वरवर्णिनी।

तमसातटत: पूर्वभागे बौद्धाचलं शुभम् ।।28।।

केदारमंडलं ख्यातं भूम्यास् तद् भिन्नकं स्थलम्।

वात्सल्यात् तव देवेशि कथितं देशमुत्तमम्।। 29।।

पुराणों में केदारखण्ड को स्वर्गभूमि माना गया है। वैदिक काल में गढ़वाल क्षेत्र को हिमवन्त देश (यस्येमे हिमवंतो महित्वा- ऋग्वेद 10:121:4) तथा महाभारत में हिमवान नाम से जाना गया है। वेद, पुराण हों या रामायण अथवा महाभारत, इनमें वर्णित सार तथा रचना स्थलों के पुख्ता प्रमाण देखने से लगता है कि आदि हिंदू धर्म संस्कृति का क्षेत्र केदारखण्ड (गढ़वाल) ही रहा है।

वेदों के सम्बन्ध में मान्यता है कि ईश्वर की वाणी से निकले सूक्त पीढ़ी दर पीढ़ी कंठस्थ किए जाते रहे। इन्हें सर्वप्रथम गणेश जी ने लिपिबद्ध किया तथा व्यास जी ने शब्द रचना की। बदरीनाथ से आगे माणा गाँव के पास गणेश गुफा एवं व्यास गुफा वेदों, पुराणों व महाभारत की रचनास्थली होने का प्रमाण देती हैं।


ऋग्वेद 10:27:19 के अनुसार सप्त ऋषियों (मरीचि, अंगिरा, अत्रि, भृगु, अगस्त्य, वशिष्ठ व मनु) ने जल प्रलय के बाद बदरीनाथ से आगे माणा में ही अपनी रक्षा की थी। केदारखण्ड 61:36 में वर्णित है महाभारत की रचना व्यास व गणेश गुफा में हुई थी। व्यास जी ने अपने शिष्यों, पैल को ऋग्वेद, वैशंपायन को यजुर्वेद तथा मन्यु को अथर्ववेद की शिक्षा इसी गुफा में दी थी।


वैदिक कालीन संस्कृत वाङ्ममय का मूल स्वरूप गढ़वाल में दृष्टिगोचर होने तथा आज भी गढ़वाली में वैदिक शब्दों के प्रयुक्त किए जाने से यहां वैदिक सभ्यता होने की पुष्टि होती है। वेदों में वर्णित वनौषधियों से आज भी यहां के लोग इलाज करते हैं। सहस्र गढ़ों जिससे यहां का नाम गढ़ वाला क्षेत्र 'गढ़वाल' पड़ा, का उल्लेख भी यहां वैदिक काल की स्मृति संजोए है। वैदिक ऋषियों की तपस्थली आज भी तीर्थ यात्रा की दृष्टि से अपना महत्व रखती है।

मरीचि ऋषि के पुत्र कश्यप की तपोभूमि बदरीनाथ गंधमादन पर्वत पर होने का उल्लेख महाभारत के आदि पर्व 30:10 में है। आदि पर्व 70:21-29 में कोटद्वार के निकट मालिनी तट पर कण्व ऋषि का आश्रम होने का वर्णन है। मंदाकिनी के तट पर अगस्त्यमुनि नामक स्थान में ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा अगस्त्य ऋषि की तपस्या का उल्लेख केदारखण्ड 47:20 तथा 197:8 में मिलता है। महाभारत आदि पर्व 214:2 मै अगस्त्यवट (अगस्त्यमुनि) स्थान पर अर्जुन के आगमन का वर्णन है। ऋग्वेद नदीसूक्त 10:35:5 में भारतीय संस्कृति व सभ्यता का उदय गंगा, यमुना व सरस्वती तट पर से माना गया है। वैदिक ऋषि अत्रि का आश्रम गोपेश्वर के पास अनुसूया मंदिर से आगे, केदारनाथ के समीप भृगु मुनि का आश्रम, यमनोत्तरी में पाराशर कुटी तथा ऋषिकेश के निकट ब्रह्मपुरी में पतंजली मुनि का आश्रम आज भी वैदिक ऋषि-मुनियों की तपस्थली होने का प्रमाण देते हैं।

रामायण काल के अवशेष भी गढ़वाल में मिलते हैं। केदारखण्ड 188:88:89 में भगवान राम द्वारा कमलेश्वर मंदिर (श्रीनगर) में कमल पुष्पों से महादेव की पूजा का वर्णन है। भगवान राम के पूर्वज रघु के साथ यहां की प्राचीन जातियों किरात आदि के युद्ध का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों में है। पौड़ी के समीप सितोन्स्यूं में सीता जी की स्मृति में जुटने वाला मेला एवं वाल्मीकि आश्रम तथा यहीं देवलगाँव में लक्ष्मण मंदिर रामराज्य के बाद सीता वनवास व वाल्मीकि द्वारा महाकाव्य रामायण की रचना का आभास कराता है। मान्यता है कि सीता जी के इस वन में रहने से यहां का नाम सितोन्स्यूं पड़ा।

महाभारत में गढ़वाल के इतिहास की अति महत्वपूर्ण तथा प्रामाणिक सामग्री मिलती है। श्रीमद्भागवत 11:29:41 में भगवान कृष्ण उद्धव को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति हेतु बदरिकाश्रम यात्रा के दौरान कुलिंदराज सुबाहु के अतिथि रहे थे। राजा सुबाहु किरात, तंग, पुलिंद आदि जातियों का राजा था। राजा ने पांडवों का विधिवत पूजन भी किया था। राजा सुबाहु की राजधानी श्रीपुर (श्रीनगर गढ़वाल ) मानी जाती है।

किराततङणाकीर्णम् पुलिन्दशतसंकुलम्।

हिमवत्यमरैर्जुष्टं बह्वश्चर्य समाकुलम्।।

सुबाहुश्चापि तात् दृष्ट्वा पूजयाप्रत्यगृहणत्।।

(वन पर्व- 140:25)

वन पर्व 145:11-25 में पांडवों द्वारा बदरिकाश्रम यात्रा का वर्णन तथा यमनोत्तरी पर्वत पर पांडवों द्वारा विशाखयूप नामक वन में एक वर्ष तक रहने का उल्लेख वन पर्व 176:1:21 में है। ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं से परिपूर्ण गढ़वाल में आज भी नृत्य तथा उत्तरकाशी टोंस घाटी में दुर्योधन मंदिर पुष्टि करते हैं कि कौरव-पांडवों का यहां से अटूट सम्बन्ध रहा था। यमुना-रिखनाड़ नदी के संगम पर लाखामण्डल में पांडवों के अज्ञातवास की स्मृति तथा जोशीमठ-बदरीनाथ के बीच पाण्डुकेश्वर में राजा पाण्डु की तपस्या का वर्णन और पांडवों द्वारा अपने ही गोत्र हत्या के प्रायश्चित के लिए भृगुतुंग-केदारनाथ की यात्रा का वर्णन कतिपय पौराणिक ग्रंथों में मिलता है।

गढ़वाल की महिमा वैदिक ग्रंथों से लेकर पुराणों व महाभारत में वर्णित है। यहां के इतिहास के साहित्यिक साक्ष्य के रूप में धार्मिक ग्रंथों के अतिरिक्त कालिदास कृत रघुवंश, मेघदूत, कुमार संभव, अभिज्ञान शाकुंतलम्, बाण रचित हर्षचरित के अलावा यहां की लोकगाथाएँ, जागर, तंत्र-मंत्र, देशी-विदेशी यात्रियों के यात्रा वर्णन के साथ किसी राज्य (गढ़) या गाँव की वंशावलियाँ विशेष महत्व रखती हैं। पौराणिक धर्म ग्रंथों में इस क्षेत्र को ब्रह्मावर्त, आर्यावर्त, इलावर्त तथा हिमवान नामों से भी उद्धृत किया गया है।

(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल, वर्ष-2002)

क्रमश:...............