गौं गौं की लोककला

बुरसावा डांडा में एक बुसुड़ , कोटी -बनाल/काठ खुनी /काठ कन्नी शैली के मकान में काष्ठ कला, अलंकरण

सूचना व फोटो आभार : जग प्रसिद्ध पशु पक्षी फोटोग्राफर दिनेश कंडवाल

Copyright

Copyright @ Bhishma Kukreti , 2020

उत्तराखंड , हिमालय की भवन (तिबारी ) काष्ठ अंकन लोक कला ( तिबारी अंकन ) - 104

बुरसावा डांडा में एक बुसुड़ , कोटी -बनाल/काठ खुनी /काठ कन्नी शैली के मकान में काष्ठ कला, अलंकरण

उत्तराखंड में भवन (तिबारी, निमदारी , जंगलादार मकान , बाखई , खोली , काठ बुलन ) काष्ठ कला अलंकरण अंकन - 104

संकलन - भीष्म कुकरेती

जौनसार बाबर सैकड़ों सालों से गढ़वाल हेतु ऐतिहासिक , सांस्कृतिक व सामजिक विन्यास हेतु सदा ही है। घूमना से पूर्व में पूर्वी गढ़वाल के लिए जौनसार , बाबर व रवाईं रहस्यात्मक क्षेत्र भी रहा है। कला व सांस्कृतिक मामले में जौनसार रवाईं पूर्वी गढ़वाल से कई मामले में विशेष रहा है। ब्रिटिश काल से पहले व ब्रिटिश काल में भी जौनसार की भवन कला पूर्वी गढ़वाल की से अलग ही रही है।

आज बुरसावा डांडा (चकराता ) गाँव के जिस भवन की विवेचना जायेगी व कई मामले में पूर्वी गढ़वाल कमिश्नरी से बिलकुल अलग ही है।

अति शीत व भूकंप संवेदनशील क्षेत्र होने के कारण पूर्वी हिमाचल , उत्तर पश्चिम उत्तरकाशी व उत्तर पश्चिम देहरादून में भवन शैली का विकास कुछ विशेष तरह से हुआ जो इस भूभाग की भौगोलिक वा वानस्पतिक स्तिथि से मेल भी खाता है। कुछ ही प्राचीन समय पहले तक इस क्षेत्र में अधिकतर काष्ठ व पत्थर युक्त मकानों की प्रथा रही है। देवदारु वृक्ष उपलब्ध होने से इस भूभाग में कई मकान या काष्ठ -पत्थर मंदिर 900 साल पुराने बताये जाते हैं ।

भूभाग में काष्ठ -पाषाण के मकान शैली काठ खुनी , काठ की कन्नी (हिमाचल में ) व उत्तराखंड में कोटि बनाल नाम से प्र सिद्ध हैं।

काठ की खुनी /काठ कोना /काठ की कन्नी अथवा कोटि बनाल शैली की विशेषता है कि मकान की दीवार में काष्ठ कोना महत्वतपूर्ण होता है। मकान में नींव के ऊपर से ही दीवारें तीन स्तर की बनती हैं दोनों किनारों में लकड़ी की पट्टी /कड़ी होती है व बीच में बगैर मिटटी /मस्यट के रोड़ी या पत्थर भरे जाते हैं। मकान की मंजिलों के हिसाब से पत्थर का भार कम होता जाता है । चूँकि देवदारु भी टिकाऊ ( होता है व पत्थर भी टिकाऊ होते हैं तो मकान टिकाऊ होते हैं। कहते हैं देवदारु की लकड़ी १००० साल तक टिक सकती है।

मकान बनाने की विधि है कि नींव भरी जाती है व नींव को भूमि से एक या दो फ़ीट ऊपर उठाया जाता है व तब लकड़ी व पत्थर (बिना मिट्टी मस्यट के ) की दीवारों से भवन की चिनाई होती है। याने दो तह में लकड़ी व बीच में पत्थर। कोने में भी बाहर लकड़ी की तह। जैसे बुसड़ /अनाज भंडार के नीचे पाए उठे होते हैं वैसे ही इस क्षेत्र के मंदिरों व मकानों में आधार उठे रहते हैं जिससे जल भराव व भूकंप का असर न हो। आधार के ऊपर दोनों और लकड़ी की कड़ियों व बीच में रोड़ी पत्थर भरण से से मकान की दीवार बनती है व ऊंचाई बढ़ती जाती है। मंजिल में छज्जे बनाने हेतु भी लकड़ी की कड़ी बाहर की ओर बढ़ा दी जाती है. जिस मंजिल पर भी छत हो वह छत सिलेटी पत्थरों की ही होती है व ढलान वाली होती हैं।मंजिल के अनुसार भारी पत्थरों का प्रयोग कम होता जाता है। अधिकतर छत बुसड़ नुमा या पिरामिडनुमा होती है। लकड़ी में धातु कील आदि का प्रयोग नहीं होता था। केवल काष्ठ कील का ही उपयोग का रिवाज था।

अधिकतर यह देखा गैया है कि तल मंजिल में जानवरों को रखा जाता है व् ऊपर की मंजिलों में बसाहत होती है तो छज्जा व छज्जों में कला अलंकरण एक आवश्यकता है। छज्जा एक ओर भी हो सकता है व चारों ओर भी। तल मंजिल से पहली मंजिल व ऊपरी मंजिलों तक जाने अंदुरनी हेतु रास्ते होते हैं जिसका मुख्य प्रवेश द्वार /खोली तल मंजिल में होता है।

बुरसावा गाँव के कायस्थ मकान में काष्ठ कला व अलंकरण

बुरसावा (चकराता ) डांडा में स्थित प्रस्तुत मकान में पहला मंजिल व तल मंजिल व आधा मंजिल (दढैपुर या तिपुर ) हैं। इस मकान में भी तल मंजिल में गौशाला व अन्न भंडार है। वसाहत ऊपर के पहली मंजिल में होती है। तल मंजिल की दीवारें तो कोटि -बलन या कोटि बालन (काट खुनी /काट कन्नी ) हैली में हुआ है। तल मंजिल में पांच नक्कासीदार स्तम्भ हैं व चार खोला /खोली हैं। स्तम्भों के ऊपर मुरिन्ड /मोर में महराब निर्मित हैं। स्तम्भ के आधार में कुम्भी , कुम्भी के ऊपर

डीला /ड्युल फिर कमल दल जो कुम्भी जैसा ही दिखता है फिर ड्यूल , फिर उर्घ्वगामी कमल दल व फिर स्तम्भ की मोटाई कम होती है। इस दौरान स्तम्भ में पत्तीदार नक्कासी हुयी है। जहां स्तम्भ सबसे कम मोटा है वहां एक कमल दल व फिर ड्यूल व वहीं से एक और स्तम्भ सीधा पत्तियों से सजा नक्कासी दार थांत (bat blade type wood plate ) रूप में ऊपर छज्जे की निम्न कड़ी ( मथींड ) से मिलता है, दूसरी ओर यहीं से नक्कासीदार ट्यूडर नुमा मेहराब। arch /तोरण भी है व शनदार मेहराब बनता है। तल मंजिल में कुल चार तोरण /arch /चाप /मरहराब हैं। मेहराब पट्टिका में अलंकरण के धूमिल चिन्ह हैं । अधिकतर जौनसार व उत्तर पश्चमी गढ़वाल /उत्तरकाशी में की खोली/प्रवेश द्वार के सिंगाड़। स्तम्भ, मुरिन्ड / व दरवाजों में सुंदर कलाकृति उत्कीर्णित होती है। विवेच्य मकान के तल मंजिल की खोली में कला अलंकरण उत्कीर्णन के धूमिल चिन्ह दिखाई देते हैं।

पहली मंजिल की छज्जों में अलंकृत स्तम्भ /खम्बे है जो छज्जे से निकलकर ऊपर ढैपुर के लघु छज्जे से मिल जाते हैं।

इसमें संदेह नहीं है कि पहली मंजिल व ढैपुर में काष्ठ कला उत्कीर्णन के चिन्ह हैं किन्तु वे धूमिल हो गए हैं। छायाचित्र में पहली मंजिल व ढैपुर मंजिल में केवल ज्यामितीय कला दृष्टिगोचर हो रहे हैं

अब तक के कुमाऊं व गढ़वाल में 100 अधिक मकान विवेचित हो चुके हैं। इस दृष्टि से बुरसावा डांडा (चकराता, जौनसार ) के इस गाँव का मकान ,, पूर्वी उत्तराखंड के अन्य भागों के मकान से बिलकुल अलग है। इस मकान में संरचना कोटी -बलन , काष्ठ -पत्थर (बिन मिट्टी मस्यट के ) तकनीक से हुआ है व संरचना , शैली बुसुड़ नुमा /अनाज भंडार नुमा है। बुरसावा के मकान में गढ़वाल कुमाऊं की तुलना में तल मंजिल में कलाकृत स्तम्भ है। स्तम्भों की संरचना व कला शैली दृष्टि से गढ़वाल -कुमाऊं व जौनसार के इस मकान के स्तम्भ एक समान ही हैं। एक अंतर और है कि गढ़वाल कुमाऊं के दुसरे भागों में पहली मंजिल हो या ढैपुर हो में लकड़ी का इतना उपयोग नहीं होता जितना जौनसार में होता है।

सूचना व फोटो आभार : जग प्रसिद्ध पशु पक्षी फोटोग्राफर दिनेश कंडवाल

सूचना - मकान की विवेचना केवल कला हेतु की गयी है , मिल्कियत की सूचना श्रुति आधारित है अत; मिल्कियत की सूचना में अंतर हो सकता है व अंतर् के लिए संकलनकर्ता व सूचनादाता उत्तरदायी नहीं हैं Copyright @ Bhishma Kukreti, 2020