( फिलहाल संस्मरण -पर भविष्य में प्रकाशित होने वाले मेरे उपन्यास " नई भाभी जी " के कुछ अंश रोज आपके सम्मुख रखूंगा)

" नई भाभी जी"

मेरा एक बचपन का दोस्त था विजय सिंह । मैं ,राजेन्द्र अौर वह छठी से आठवीं कक्षा तक सरोजिनी नगर, दिल्ली में साथ ही पढते थे। उसके बाद विजय सिंह विज्ञान वर्ग, राजेन्द्र कला वर्ग अौर मैं कामर्स वर्ग की पढाई करने अलग अलग स्कूल में चले गये। हां, रोज सांयकाल को सरोजिनी नगर मार्किट में तफरी करते हुए अक्सर हमारी मुलाकात होती रहती थी।

विजय की माता जी का देहांत तब ही हो चुका था जब वह पांचवी कक्षा में था। वे तीन भाई अौर एक बहिन थे। बहिन सबसे बड़ी थी तो छोटी उम्र में ही गाँव में उसकी शादी हो चुकी थी। विजय के पिता आनंद सिंह सरकारी सेवा में थे । आनंद सिंह जी बहुत ही सज्जन पुरुष थे । बच्चों का लालन पालन बहुत मेहनत से कर रहे थे।कभी कभी जब भी हम भी विजय के घर जाते थे तो हमें भी परांठा चाय अपने बच्चों की तरह खिलाते थे।

विजय अौर उसके भाई पढने में अव्वल थे। खैर, अच्छा जीवन चल रहा था। विजय भी छह फिट लम्बा ,गौरा, खूबसूरत अौर तगड़ा जवान लड़का था। जितना पढने में होशियार उतना ही दादागिरी में भी था। उसके डर से ही हमें भी कोई कालोनी का लड़का छेड़ता भी नहीं था जैसा कि बचपन में अक्सर बच्चे आपस में झकड़ते ही हैं ।

विजय ने हायर सैकन्डरी की पास कर मिलिटरी पुलिस में भर्ती हो गया था। यह बात हमें भी उसके भाई से पता चली थी। जबकि हम दोनो ने आगे की पढाई के लिये कालेज में एडमिशन ले लिया था।

सब अपने अपने ढर्रे में व्यस्त हो गये। तीन साल में जीवन में बहुत परिवर्तन आए। विजय भी अपनी मिलिटरी पुलिस की नौकरी में कार्यरत था। इस दौरान विजय के पिताजी आनंद सिंह का भी हार्ट फेल होने से निधन हो गया। अब उसके छोटे दो भाईयों में से बड़े को पिताजी की जगह पर अनुकंपा के आधार पर सरकारी बाबू की नौकरी भी मिल गई थी। विजय ने मिलिटरी एजुकेशन कोर से ही स्नातक की डिग्री ले ली थी। होशियार तो वह था ही विभागीय परीक्षा पास करके इन्सपेक्टर बन गया था। 1983 में उसकी पोस्टिंग दिल्ली केंट में हो गई। अब हम तीनो दोस्तों का फिर से मिलना रोज ही जारी हो गया था। मैं भी आकाशवाणी में नौकरी में लग चुका था। राजेन्द्र किसी प्राइवेट फर्म में साऊथ एक्सटेंशन में नौकरी कर रहा था। मतलब हम तीनो ही अपना कमा खा रहे थे।

एक दिन विजय ने बताया कि वह शादी कर रहा है।

"यार एक भाई अभी पढ रहा है, दिक्कत तो हो रही है । हम दो भाई नौकरी करते हैं। घर में महिल तो यह सरकारी मकान घर लगेगा।" कृष्णा होटल में चाय की चुस्की लेते हुए विजय ने कहा।

" पर यार,मेरे पिताजी कहते हैं शादी जान पहचान या रिश्तेदारी में ही करनी चाहिए । अाजकल किसी का कुछ पता नहीं" मैने भी पिताजी से सुनी बातें उसके सामने परोस दी.

"देखो यार, न तो मेरा कोई रिश्तेदार है यहां अौर न मेरी कोई जानपहचान । गिन चुन के मेरी बहिन,जीजा जी अौर तुम दोनो। जीजा जी अौर दीदी को भी बताया था। तुम दोनो लफंगे अपनी ही शादी तो न कर पाये मेरी क्या करवा सकते हो " हंसते हुए उसने कहा।

"अच्छा बता, लड़की गढवाल से है या दिल्ली की? राजेन्द्र ने पूछा।

"यार तुमसे क्या छुपाना!दिल्ली की हीहै। यहीं लोधी रोड के पास रहते हैं " विजय बोला

"बहुत अच्छा ,पर रिश्ता कौन लाया?" मैने कहा।

"अरे भाई, अपने आप ही हो गया समझो" वह बोला

"अबे कैसी है देखने में?सुन्दर तो है न तेरी तरह भाभी जी!तू धर्मेन्द्र दिखता है तो वो हेमामालिनी से कम नहीं होनी चाहिए "राजेन्द्र ने मजे लेकर पूछ रहा था।

विजय इस दौरान कई विज्ञापनों में भी आ चुका था। उसकी परसनिलिटी धर्मेन्द्र से कम न थी अौर ऊपर से इन्सपेक्टर। गज़ब की परसनलिटी थी उसकी जैसे फिल्मी हीरो। शरीर से तगड़ा ।

कई बार तो वह अपराधियों को अपने आफिस में पीटने का नजार हमें भी दिखा चुका था।

"अब्बे! जो मेरे यहाँ पेपर डालते हैं न राम सिंह रावत जी, उन्हीं की लड़की है । खुद ही उन्होनें जिक्र छेड़ा तो मैने कहा कि देख लेते हैं। बहुत सुन्दर है, जैसा मैं ढूंढ रहा था। बस, मैने हाँ कर दी"। विजय सपनों में खोते मुस्कुराते हुये सुना रहा था।

विजय की शादी का दिन भी आ ही गया। विजय ने शादी के लिये सिर्फ एक दिन की छुट्टी ली थी। न्यूतेर(शादी के एक दिन पहले) गिनती के हम दस आदमी थे उसके घर मेँ। दीदी ने अौर हम दोनो नें ही खाना बनाया। खाते हुए मैंने छेड़ ही दिया।

"यार,विजय,तेरे पिताजी के जाने के बाद, आज खाना खाया तेरे घर पर। पर परसों से मजे आयेंगे जब नई भाभी के हाथ का खाना मिलेगा" ।

"अब्बे नई का क्या मतलब, सा. . । मेरी पुरानी पहले कौन सी थी"विजय ने मेरी पीठ पर मारा।

"अरे ,मेरे कहने का मतलब, अौर दूसरे दोस्तों की तो पुरानी हो गई। तेरी सबसे नई है। " मैने राजेन्द्र की तरफ देखते हुए कहा ताकि वह भी मेरा समर्थन करे।

"ठीक तो कह रहा है,विशु। हम तो छुट्टी के दिन तेरे घर ही आऐंगे हर संडे"राजेन्द्र ने कनखी से विजय से हामी की आशा की।

"कंजरों कल के बाद तुम इधर दिखना भी नहीं। तुम दोनो भी अपने बाप से शादी जल्दी करवाने को कहो अौर अब मेरे घर अपनी बीबी के साथ ही आना" विजय ने हंसते हुए हम दोनो की तरफ देखते हुए कहा।

"बस करो अब अपनी अपनी रागिनी । रात के 12 बज गये हैं। " जीजा जी बोले "अौर पतीले में छोले भिगा दो ,जो हलवाई ने नाश्ते में भटूरे के साथ के लिये लिखाया है, सवेरे कुछ महिलाएं भी आयेगी हल्दी स्नान के समय अौर देहरादून व गाँव से भी दो चार लोग पहुंच जायेंगे "।

साहब सोना किसने था। उसके छोटे भाई तो बहुत कम बोलते थे अौर अपनी अपनी किताब पकड़े चारपाइ पर बैठे थे। उनके आव -भाव से लग ही नहीं रहा था कि इनके बडे़ भाई की शादी है।जीजा जी का परिवार दूसरे कमरे में आराम करने चला गया। जून का महीना था,गर्मी के दिन तो ,हम तीनो वहीं मोटी दरी बिछाकर गप्पबाजी करते रहै।

परिवार में मां-बाप का होना कितना जरूरी है अौर विशेषतौर पर घर में किसी महिला का होना ।यह मुझे विजय के घर की हालात देख कर लग रहा था। लग ही नहीं रहा था की इस घर में आज विवाह कारज है। मां-बाप के जल्दी गुजरने से दोनो छोटे भाईयों की अजीब प्रकृति हो गई थी. समाज से अलग-थलग । विजय तो फोज में जा के थोड़ा ठीक था पर सिविल से अलग तो था ही वो भी। कोई भी चीज न सलीके से थी अौर न मिल रही थी. कड़ाई अौर कुक्कर का रंग ही बदला हुआ था। चाकू का हैंडल टूटा फूटा. बेलन का एक हत्था गायब। दोनो छोटे भाई बस समय बिता रहे थे। वो तो दीदी ने आके थोड़ा साफ सफाई करके बैठने लायक कर दिया था।

खैर दूसरे दिन बारात तैयार हो गई। विजय ने सिर्फ़ दस आदमी का सूरज बैंड नौरोजी नगर से कर रखा था अौर वहीं शर्मा ट्रेवल्स से सफेद टैक्सी। पगड़ी भी हम साधारण सी सौ रू किराये पर ले अाये थे। सिद्धांतवादी तो था विजय। झूठ अौर दिखावे से सख्त नफरत। लड़की वालों से पहले ही कह दिया था कि लड़की केवल एक साड़ी में विदा होगी।

दूल्हे की टैक्सी अौर एक मिनी बस में ठीक समय पर 8 बजे बारात लोधी रोड बारातघर में लग चुकी थी। हर काम समय पर होना है फौजी के हम दोनो को आदेश था। फिर भी राजेन्द्र के पिताजी से जानकारी लेकर हमने एक फलों की टोकरी, कुछ पैकेट ड्राइ फूरुटस,अौर दो किलो बर्फी के डिब्बे रख ही लिये थे।

बारात मुश्किल से कुल मिलाकर पैंतालीस के करीब थी।

हम तो काम मेा ही नाच रहे थे तो नाचने का मौका भी कम ही मिला पर विजय के फौजी दोस्तों ने अच्छी रौनक कर दी थी।

पंडित जी भी मेरी जानपहचान के ही थे नेताजी नगर से । बारात घर से थोड़ा पहले मेरी कमीज पकड़ के बोले, "अरे दो आदमी यह लगन पट्टा तो लेके तो जायें दुल्हन के घर"।

मैने विजय के चाचा अौर राजेन्द्र को लगनपट्टा ले के भेज दिया। राजेन्द्र को भेजना जरूरी था क्योंकि दुल्हन का बाप हम तीनो के सिवाय किसी को जानता नहीं था। विजय ने भी सगाई का झमेला पालने से मना कर दिया था कि उनपे बौझ पड़ेगा। बस जन्मपत्री भी लड़की वालों ने मिलायी थी।

खैर जैसा भी इंतज़ाम था खान-पान हुआ अौर लग्नानुसार विवाह कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।

फोटोग्राफर दुल्हन की फोटो लेने उनके कमरे में जाने की पूछ रहा था कि राजेन्द्र अौर मैं भी नई भाभी को देखने के लालच में साथ हो लिए ।

" अरे यार, विजय की तो लाटरी निकल गई, गजब! दुल्हन तो बिल्कुल ड्रीम गर्ल है। साला, तभी कुछ नहीं ले रहा। "अबे देख" राजेन्द्र मुझे भी आगे खींच कर नई भाभी की अोर दिखा रहा था।

"चल अच्छा है, तुझे भी दिला देता पर तू मुकरी है विजय की तरह धर्मेन्द्र नहीं" मैने उसकी दुखती रग को छेड़ दिया। राजेन्द्र की लम्बाई पांच फुट से भी कम थी पर था वह बहुत तेज।

राजेन्द्र ने मुंह फुला दिया था।" अब्बे चल, विजय ढूंढ रहा होगा। अब दुल्हन की तरह नखरे मत कर" मैं उसे मंडप की तरफ ले गया।

फेरे रात के ही थे तो नथ लग्न की पूजा शुरू हो गई।

"वाकई इन्सपेक्टर ,भाभी जी बहुत सुन्दर हैं । जोड़ी तुम दोनों की सुन्दर लगेगी"मै कह ही रहा था कि दो तीन लड़कियां दुल्हन को पूजा की तरफ कमरे में ला रही थी।

जैसे ही दुल्हन पूजा की चौकी पर बैठने लगी ,वह जोर से चिल्लाई ..

अौर बेहोश हो गई । दुल्हन को उठाकर एक कमरे में तख्त पर लिटा दिया गया । कुछ महिलायें उसके पैर की मालिश कर रही थी। दीदी भी थोड़ी देर मे बाहर आई तो विजय ने पूछा,क्या हुआ ?"

" कुछ नहीं ,कह रहे थे कि परसों संतोषी माता का फास्ट था उसका अौर कुछ दिन से धूप में शादी की खरीदारी में घूम रही थी तो ढंग से खाना पीना भी नहीं हो रहा था व कुछ दिन पहले उसको पीलिया भी हो गया था तो शायद कमजोरी हो गई हो इसीलिए चक्कर आ गया हो।" दीदी ने बताया।

अब विजय ठहरा पुलिस वाला तो शक की नज़र से हर चीज देखता था।

"अरे हटो, मैं देखता हूँ । कुछ अौर चक्कर तो नहीं । वह पगड़ी उतारने लगा। विजय जैसे ही खड़ा होने लगा तो जीजा जी ने रोक लिया ।

"साले सहाब, जब एक बार पूजा में बैठ गये तो फिर खड़े नहीं होते । ये तेरे दो सिपाई हैं तो ईन्क्वारी के लिए , इनको भेज दे"जीजा ने हम दोनो की तरफ देखते हुए कहा।

विजय ने आंख से हमें आगे के निर्देश दे दिये।

राजेन्द्र अौर मैं सीधे लड़की के पिताजी के सामने खड़े हो गये ।

"अंकल जी,क्या हुआ भाभी जी को?सब ठीक तो है न? लग्न का टाइम निकल रहा है।" राजेन्द्र ने सवाल दाग दिए।

" कुछ नहीं बेटे, कई दिन से इसकी तबियत ठीक नहीं थी। पीलिया हुआ था तो कमजोरी से चक्कर आ गये। अभी ठीक हो जायेगी दो मिनट में" रावत जी बोले। उनके चेहरे पर कोई चिंता का भाव नज़र नहीं आ रहा था

तभी मैने देखा दुल्हन कुछ हिलने डुलने लग गई थी।

"आप सब लोग मंडप में जायें। मैं अभी इसको लाती हूँ। "लड़की की मां ने बोला।

हम बाहर आये तो राजेन्द्र ने मेरे कान में कहा,"यार लड़की की मां के हाथ में एक दवाइ का पत्ता था"।

राजेन्द्र की नज़र बहुत तेज थी ।जासूस के पूरे गुण थे उसमें। हम उसे कहते थे जितना तू चार फिट ऊपर है उतना ही चार फुट नीचे है जमीन के अंदर । क्यों कि उसके करनामें ही कुछ ऐसे थे।

"अबे ! चुप रह, पीलिया की दवाई होगी । देने दे। विजय को मत बोलियो नहीं तो वो अभी पोस्टमार्टम कर देगा सबका" मैने भी उसके कान में यह हिदायत चुपके से दे दी।

खैर सहाब थोड़ी देर में विवाह संस्कार की पूजा शुरु हो गई।

लड़की के पिता ने पंडित से कहा "जरा फटाफट करना ।लड़की को कमजोरी है तो फिर कहीं चक्कर ना आ जाये "।

सुबह पांच बजे वगैर चाय पानी के दुल्हन एक सूटकेस में विदा हो गई।

घर पहुँच के हमने विजय से विदा ली क्यों कि बहुत थक चुके थे अौर नींद भी बहुत आ रही थी।

"ठीक है । फुरसत में आना। तुम्हारी पार्टी बाद में होगी" विजय ने हाथ मिला के हमें छुट्टी दे दी।

दस पन्द्रह दिन के दौरान न तो वह हमें मिला अौर न ही उसके भाई ही हमें मिले।

एक दिन रविवार को हम दोनो विजय के घर शाम को ठीक छह बजे दावत की आस में पहुँच गये। राजेन्द्र ने घर के दरवाजे की कुंडी बजाई। मैने आगे राजेन्द्र को ही खड़ा कर रखा था।

विजय ने ही दरवाजा खोला। बाल बिखरे,दाढ़ी बढी हुई ,मरीज का सा चेहरा जैसे हाल था उसका।मैने सोचा शायद दोपहर में आराम कर रहा होगा व अभी तक मुंह भी नहीं धोया होगा ।इसलिए सुस्त लग रहा होगा हीरो ।

"अौर जनाब, मना आये हनीमून। कैसी लग रही है? विवाहित जिंदगी ?" कहते हुए मैं अन्दर घुसने लगा।

"नौ दो ग्यारह हो जाआे दोनो के दोनों यहाँ से अभी के अभी"। साले अब आ रहे हो हालचाल पूछने। भात खा के खिसक लिये "विजय गुस्से में था।

"अबे ये पकड़ अपने बिल के पर्चे अौर बाकी पैंसे। साले तू समझ रहा होगा हम तेरे पैसे खा गये"राजेन्द्र ने जेब से पुरचे तथा पैंसे उसकी तरफ बढाये।"तभी गुस्से में है तू"।

विजय ने सारे पैसे अौर पुरचे बरामदे में ही फैंक कर बिखेर दिेए।

अब मै् समझ गया मामला कुछ गंभीर है। मैने राजेन्द्र को पीछे किया सारे बिल अौर पैसे उठाये । उसका मकान नीचे का था तो सामने वाले पड़ोसी सारा नजारा अपनी बालकोनी से देख रहे थे।

"चलो अंदर बैठ कर बात करते हैं "मैने उन दोनो को धक्का देकर दरवाजा बंद कर दिया।

कमरे में नया सौफा,दीवान,टेबल अौर टी०वी नजर आया।

" अबे ये कब आया? भाभी जी कहाँ हैं?"राजेन्द्र सवाल करते जा रहा था।

"तेरे बाप ने भिजवाया है दहेज में। साले,शादी से पहले अपने पैंसो से आर्डर दे दिया था मैने,कुत्ते ने चार दिन बाद भिजवाया। न ही भिजवाता तो अच्छा था" विजय का गुस्सा सातवें आसमान पर था अौर हां ,उस पगली का नाम भी मत लेना मेरे सामने"।

"क्या हुआ,विजय। सब ठीक तो है?मैने आहिस्ता से डरते हुए पूछा।

"अब्बे ड्रीम गर्ल नहीं । पगली निकली वो। उसके बाप ने धोखा दिया। आज से मेरा तुम गढ़वालियों से नाता खत्म। साला लड़की का बाप,वो पंडत, उसके पडोसी अौर हां वो सामने वाला नेगी जिसने उस अखबार वाले की लड़की से शादी करने की सिफारिश करी थी अौर तुम दोनो भी गढ़वाली, सबने मिलके मेरी जिंदगी बरबाद कर दी। विश्वास घात किया सबने मेरे साथ।" उसकी आंखे लाल हो गई थी।

"अौर राजेन्द्र के बच्चे,दीदी बता रही थी कि जब वो लड़की बेहोश हुई तो उसकी मां ने उसको दो गोलियाँ खिलाई थी जबकि तू भी वहीं पर था। साले वो पागलपन की दौरे की दवा थी। वो तो मुझे बाद में उसी पगली से पता लगी। "राजेन्द्र के बच्चे, तूने भी मुझे उसी टाइम क्यों नहीं बताया? मैं उसी टाइम लड़की को छोड़ देता। साले तूने भी धौखा दिया" वह राजेन्द्र को गुस्से से देख रहा था।

तब मुझे लगा राजेन्द्र ढोल की पोल खोल देगा क्यों कि वह चुप रहने वाला नहीं था। उसने तो दवाइ वाली बात मुझे तभी बता दी थी पर मैने ही उसे विजय को बताने से मन‍ा किया था।

राजेन्द्र मेरी तरफ मुड़ा अौर जैसे ही उसके मुंह से शब्द क्या निकलते तो मै बोल पड़ा,"भाई कसम से,हमने लड़की के बाप से पूछा था कि दवाइ किस चीज की है तो वो बोला कि पीलिया की। बोल ही रहे थे न कि पंद्रह दिन पहले उसे पीलिया हुआ था तो हम चुप हो गये "।

"चलो दुड़की हो जाअो दोनो के दोनो। हां , आज के बाद शक्ल भी मत दिखाना। मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो"कहते कहते वह खड़ा हो गया।

"यार,बाथरुम जाना है।"राजेन्द्र दूसरे कमरे की अोर टायलेट की तरफ लपका.

वापसी में वह दूसरे कमरे में भी झांक आया। घर में अौर कोई नहीं था। मैं भी इस बीच चुप ही रहा।

हम जाने के लिए खड़े हुए तो राजेन्द्र बोल पड़ा ,"चल ठीक है , हमसे गलती हो गई है। अगर अभी भी बात बन सकती है तो मैं अपने पिताजी को भेजूं उन लोगो से बातचीत के लिये कल"। राजेन्द्र का घर ज्यादा दूर नहीं था।

"कोई जरुरत नहीं । सब एक जैसे ही होते हैं। अोके " अौर विजय ने दरवाजा बंद करने के लिये हाथ बढा दिया।

हम दोनो मुंह लटकाये बाहर आ गये। विजय ने जोर से दरवाजा बंद कर दिया। यूं लगा जैसे दरवाजा भी दुखी मन से जोर से चिल्ला रहा हो।

हम दोनों अपने अपने घर बोल के आए थे कि खाना मत बनाना कि हम नई भाभी के हाथ का खाने की दावत में जा रहे हैं। अब भूखे तो रह नहीं सकते थे तो सोचा कुछ बाजार से ही खा के चलते हैं ।

" राजेन्द्र, यार क्या करें ! घर में तो खाना भी नहीं मिलेगा । ऐसा करते हैं वैसे भी खाने की इच्छा मर गई है ।चल कृष्णा रेस्टोरेंट में सादा दौसा अौर काफी पीते हैं " मैने कहा।

"ठीक है यार। पर पता तो लगाना ही होगा कि माजरा क्या है ? उसके भाई को पकड़गें किसी दिन" राजेन्द्र की खोपड़ी काम करने लगी." अरे देख, वो बलबीर आ रहा है विजय का छोटा भाई। उसको काफी का लालच दे के सबकुछ पता करते हैं । ये तो कुछ बता भी देगा पर बीच वाला तो घुन्ना है . बोलता ही नहीं" राजेन्द्र ने बलबीर को आवाज दी।

बलबीर ने हम दोनो को नमस्ते की।

"अौर जी. कहाँ तफरी हो रही है इस टाइम? "मैने बलबीर से पूछा।

"कहीं नहीं भाई जी। दोस्त के घर पढ रहे थे सब हम ,सी ब्लाक में"बलबीर बताया ।

"अच्छा बेटे चल. थक गया होगा ,तुझे काफी पिलाते हैं । हम लोग पिक्चर देख के आ रहे हैं चाणक्य से तो सोचा डो सा अौर काफी के मजे लेते हैं। विशु भाई पार्टी दे रहे हैं । इनका इन्क्रीमेंट लगा है न"। राजेन्द्र ने बलबीर के गले में हाथ डालते हुए उसके ना नुकुर करते हुए भी साथ ही खींच लिया। बाते करते -करते तब तक हम लोग कृष्णा रेस्टोरेंट के अंदर पहुंच चुके थे।

"भाई, आज विजय भी हमारी तरह छड़ा होता ,वो भी हमारे साथ पार्टी का मजा लेता" राजेन्द्र ने जानभूझकर विजय का जिक्र कर दिया।

मैने दो डोसे अौर तीन काफी का आर्डर दे दिया था। हम लोग जानबूझ कर आखिरी टेबल पर बैठे थे।

"अौर तेरे दूल्हे भाई सहाब आ गये हनिमून मना के?आना था कभी नई भाभी जी के हाथ का खाना खाने "राजेन्द्र ने सीधा सवाल बलबीर की तरफ फैंका।

"नहीं भैजी,दुल्हन तो दूसरे दिन ही भाग गई थी अपने घर। तब से तो बड़े भैया नौकरी पर भी नहीं गये अौर हम पर भी गुस्सा बहुत करने लग गये तभी तो मैं दोस्त के घर ही पढने जाता हूँ ." बलबीर ने बताना शुरु कर दिया जो हम जानकारी पता करना चाहते थे।

"क्यों अौर कैसे? बलबीर भाई " मैने पूछा।

"भैजी, दीदी लोग भी बारात वापसी के दिन ही दोपहर में चले गये थे क्योंकि जीजा जी को कहीं विदेश टूर पर जाना था । मामाजी व चाचा जी आप लोगों के जाते ही निकल गये थे देहरादून के लिये । फिर हम तीनो अौर भाभी जी अकेले रह गये थे घर में।

खाना दूल्हे भाई ने ही बनाया उस दिन रात को ।कहने लगे कि नई दुल्हन से पहले दिन क्या काम कराना"। बलबीर सुना ही रहा था कि तब तक वेटर हमारा डोसा अौर काफी ले आया था।

"तुम लोगो ने खाना खा लिया होगा, फिर क्या हुआ भाई बलबीर ,जल्दी बता "राजेन्द्र ने डोसे का टुकड़ा मुंह में डालते हुए पूछा।

"फिर खाने की मेज पर ही दुल्हन जोर -जोर से रोने लगी। तो भाई ने बहुत समझाया कि शायद घर की याद आ रही होगी, पर वो चुप ही नहीं हो रही थी। बस बार बार कह रही थी -घर जाना है. .घर जाना है"।

मै काफ़ी पी लूं ठण्डी हो रही है । बलबीर ने पूछा।

"हां ,हां काफ़ी भी पीता रह अौर बताता भी रह" राजेन्द्र ने बलबीर को काफ़ी पकड़ाते हुए कहा" फिर क्या हुआ ? "

"फिर होना क्या था, भाभी जी चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी। सारी रात हम चारों बैठक के कमरे में ही सोफे पर बैठे रहे अौर सुबह का इंतज़ार करने लगे ताकि कल भाभी जी को उनके मायके भाई ले के जायें" बलबीर काफ़ी पीते -पीते सुना रहा था।" सब सोफ़े पर ही कब सो गये पता ही नहीं चला"।

"फिर"मैंने पूछा।

"मैं सुबह जब उठा तो भाभी जी झाड़ू लगा रही थी। शादी की साड़ी में ही नंगे पैर बरामदे की तरफ झाड़ू लगाते- लगाते पहुँची। मुझसे बड़ा वाला दलबीर भाई दरवाजा खोलकर बरामदे में ही दांतुन कर रहा था।

भाभी बरामदे में पंहची अौर झाड़ू समेत नंगे पांव सरोजिनी नगर मार्केट की तरफ दौड़ लगाने लगी।

तभी दलबीर चिल्लाते हुए अन्दर आया ," अबे खड़ा हो' तेरी बीबी भाग गई"।

भैया,वहीं सोफे पर लेटे थे। बोले," किधर भागी?"

"पोस्ट आफिस वाली सड़क पर,जो लोधी रोड की तरफ जाती है"। दलबीर ने बताया।

भैया ने मोटर साईकिल में मुझे बिठाया व उस अोर दौड़ा दी। थोड़ी दूर जाकर हमने देखा कि भाभी झाड़ू समेत नंगे पांव पिलंजी गाँव के पास पहुँच चुकी थी। भैया ने मुझे उतारा तथा मोटरसाइकिल खड़ी करने को कहा।

भाग के भैया ने भाभी को पकड़ ही लिया ।‌ एक अाॅटो में मुझे व भाभी जी को घर चलने को कहा एंव खुद मोटरसाइकिल में पीछे-पीछे चलने लगे।

"फिर"राजेन्द्र ने कहा। इस बीच राजेन्द्र ने तीन काफ़ी का आर्डर फिर दे दिया था।

बलबीर दुखी मन से पूरा वृत्तांत सुनाये जा रहा था।

"फिर घर आकर भाभी की अटेची निकाली अौर कहने लगे," तुझे घर जाना है न। चल। रात भर से परेशान कर रखा है. बलबीर इसकी चप्पल ला दूसरे कमरे से , दलबीर तू टैक्सी ले आ स्टेंड से लोधी रोड के लिये" कह कर भैया दरवाजा बंद कर जूते पहनने लगे। थोड़ी देर में टैक्सी आ गई थी। भैया ने भाभी को टैक्सी में बिठाया अौर अटेची टैक्सी वाले को डिक्की में डालने को पकड़ा दी।

विजय टैक्सी से सीधे हेमा को लेकर लोधी रोड अपनी सुसराल पहुंच गया। रामा रुमी के बाद उसने सीधा अपने ससुर से कहा" आपकी बेटी ने परेशान कर दिया। कल से घर आने की रट लगा रखी थी। संभालो इसे। जब राजी हो जाये तो भेज देना ।" कह कर वह घर आ गया।

ये कहानी विजय ने मुझे काफी समय बाद सुनाई जब अचानक एक दिन संयोगबस उससे मुलाकत हो गई ।जैसा कि मैने पहले बताया था कि विजय ने हम लोगों से नाता ही तोड़ दिया था।

उसके बाद उसने मिलिटरी पुलिस से वी०अार० एस० ले ली थी। वह एक्स सर्विसमेन कोटे से केन्द्र सरक‍ार के गृह मंत्रालय के एक विभाग में अनुभाग अधिकारी चयनित हो गया था। उसका आफिस लोकनायक भवन ,खान मार्केट , लोधी रोड में था।

उन दिनो मैं केन्द्रीय सचिवालय हिंदी परिषद में कार्यालय मंत्री (अवैतनिक ) का कार्य देख रहा था। केन्द्रीय सचिवालय हिंदी परिषद का प्रतिनिधि सरकारी कार्यालय व मंत्रालय एंव विभाग की राजभाषा समिति की तिमाही बैठको में परिषद के प्रतिनिधि नामित सदस्य के रुप में भाग लेते थे। उस विभाग की बैठकों के लिए मुझे नामित किया गया था। एक दिन मैं तिमाही बैठक में भाग लेने पहुंचा तो दूसरे तल मैने एक आदमी,जो मेरे आगे -आगे चल रहा था, से पूछा," भाई सहाब ,सम्मेलन कक्ष किधर है?, जहां हिंदी सलाहकार समिति की बैठक हो रही है "।

उसने बगैर पीछे मुड़े जबाव दिया ," जी , मैं भी मीटिंग में ही जा रहा हूँ अाप मेरे साथ आइए, सामने ही है , बी-विंग के लास्ट मेंं "। विजय की आवाज मैं पहचान गया था, पर वह तेजी से सम्मेलन कक्ष में प्रवेश कर चुका था।

सम्मेलन कक्ष में मैं निर्धारित कुर्सी पर बैठ गया। प्रत्येक आमंत्रित सदस्य की नाम पट्टिका कुर्सी के आगे टेबल पर लगी हुई थी। विजय अपने विभाग के सदस्य की पीछे वाली कुर्सी पर बैठा हुआ था। मेरी नज़र बार-बार उस पर जा रही थी पर वह अनदेखा कर रहा था। खैर थोड़ी देर में विभाग के सचिव, जो समिति के अध्यक्ष भी थे, आये अौर ऐजेण्डा के हिसाब से बैठक आरंभ हो गई। मैने, जो निर्धारित सुझाव हिंदी के प्रसार अौर प्रगति के लिए जरूरी होती है, वह दिए अौर उनकी तिमाही रिपोर्ट में जो दो चार कमियाँ थी उन पर ध्यान देने का सुझाव दिया।

सच में , मीटिंग की चर्चा में भाग लेने का, मेरा मन नहीं कर रहा था बल्कि मैं सोच रहा था कि मीटिंग जल्दी खत्म हो तो मैं विजय को पकड़ूं।

जैसे ही मीटिंग खत्म हुई ,मैं विजय की तरफ भागा क्योंकि वह जल्दी से निकलने के चक्कर मे था।

"विजय, चाय नहीं पिलायेगा यार, सालों बाद मुलाकात हो रही है ?मैने उसका हाथ पकड़ कर कहा। पीछे उसके अधिकारी भी चल रहे थे तो वह मना नहीं कर पाया अौर बोला," ठीक है , चलो"। मैं उसके पीछे हो लिया।

कैंटीन में पहुंचकर , चाय समौसा का आर्डर देने के बाद विजय ने आगे की कहानी सुनाई ।

"कुछ दिनों बाद मैं हेमलता को लेने उसके घर पंहुचा तो नजारा अलग ही दूसरा था" वह बोला।

"कैसा अलग? मैने पूछा।

हेमा के मुंह पर कुछ चोट का सा निशान था ।वह बीमार सी लग रही थी। उसे पीछे केे छोटे कमरे में बंद कर रखा था। मैं एक दिन अचानक दोपहर के दो बजे ही पंहुच गया था।

"इसे क्या हुआ ?"जब मैने उसकी मां से पूछा तो वह बोलीं "बीमार है । तबियत ठीक नहीं है उसकी" ।

मैंने उसी वक्त उसे मोटरसाइकिल में विठाया अौर सीधे जोरबाग के प्रसिद्ध डॉ ० सेन के क्लिनिक में ले गया। डॉक्टर ने उस से कुछ बीमारी के बारे में पूछा तो उसने कहा कि वह कई सालों से दवाइयां खा रही है। डाक्टर ने वह पर्चिंया लाने को कहा। विजय सीधे उसके घर वापस आया। हेमा ने अपने केस की पूरी फाईल विजय को पकड़ा दी। विजय ने फाईल डाक्टर को दिखाई तो डॉ ० सेन बोले," आप इसे किसी बड़े अस्पताल के साईक्रेटिस्ट को दिखाएं, यह तो मानसिक रोगी हैं"।

विजय हेमा को उसके घर छोड़ कर सीधे सीधे आ गया था । इस बीच उसने सरोजिनी मार्केट में ही हेमा के फाइल की पूरी फोटो कापी कर ली थी।

अब उसने दुखी मन से सोचा कि पूरा ईलाज करवाने के बाद ही हेमा को वापस लायेगा। दूसरे दिन सुबह आठ बजे ही विजय अपने ससुराल पहुँच गया अौर दरवाजे से ही ससुर से हेमा को भेजने को कहा।

"ऐसे कैसे भेज देंगे हम लड़की को? बगैर किसी दिन बार के , अभी उसको बुखार है। "रावत जी ने कहा।

"अब ज्यादा ड्रामा करने की जरूरत नहीं समझे । बीमार है तो डाक्टर को दिखा के वापस यहीं छोड़ दूंगा।" विजय ने कहते हुए हेमा को आवाज दी," चलो, जल्दी करो। मैने डाक्टर से टाइम ले रखा है "!

हेमा की मां उसे लेकर बाहर आ गई। रावत जी ने भी विजय के गुस्से को देखते हुए चुप रहना ही ठीक समझा।

हमारा एक काॅमन दोस्त था जो एम्स में मानसिक रोगी चिकित्सक था , डॉ ० अनूप खेर । विजय हेमा को सीधे उसी के पास ले गया । हेमा के बीमारी के केस फ़ाइल की फोटो प्रति भी उसने रख ली थी।

डा० अनूप खेर ने विजय को मरीज के रजिस्ट्रेशन ‍‍‍ करवाकर पर्ची बनवाने भेज दिया व मरीज को अपने पास बिठा दिया लेकिन विजय को कह दिया था कि ,जब तक अर्दली बुलाते नहीं वह बाहर ही इंतज़ार करे क्यों कि उन्हें अकेले में मरीज की काऊंसिलिंग करनी है।"

एक घंटे के बाद डाक्टर खेर ने विजय को बुलाया अौर बताया," देख विजय ,"मैं तुझे दुख तो नहीं पहुंचाना चाहता लेकिन मरीज की पुरानी फाइल अौर काउंसिलिंग बाद मुझे यह केस बहुत पुराना व जटिल लगता है। हेमा ने बताया कि वह एक साल शाहदरा पागल खाने में भी रह चुकी हैं अौर भी कई काम्प्लिकेशन हैं तो, भैया ठीक होने में काफी वक्त लगेगा। तुम मिलिटरी अस्पताल में ही इसका इलाज करवा सकते हो " डा० खेर ने पर्ची पर कुछ दवाइयां लिखी अौर विजय को फाईल पकड़वाते हुए बोले," यार इतनी बड़ी बात तो लड़की वालों को तेरे से नहीं छुपानी चाहिए थी क्योंकि दौेरा पड़ने पर इस तरह के मरीज किसी पर भी घातक हमला कर सकते हैं ।"

विजय हेमा को लेकर सीधे ससुराल लोधी रोड़ छोड़ आया अौर सोचा कि चलो जब तक ठीक नहीं हो जाती वह उसका इलाज करायेगा।

"हेमा जब तक ठीक नहीं हो जाती यहीं रहेगी। मैं उसका इलाज करवाता रहूँगा "विजय ने निकलते हुए अपनी सास को कहकर घर वापस आ गया।

कुछ महीनों तक यही चलता रहा कि विजय हेमा को अस्पताल दिखाता व दवाई दिलाकर आ जाता।

इसी बीच लड़की वालों के दिल में शंका उत्पन्न हो गई क्योंकि सच्चाई तो लड़के को बताई नहीं तो सोचे कि कहीं विजय उनकी लड़की को छोड़ न दे । क्यों न उसको डरा धमकाकर पैसे ठगे जायें अौर विजय की आधी तनख्वाह हेमा के नाम करवाया जाये ।

किसी ने उनको भड़का दिया कि महिला मोर्चा वालों से नारेबाजी करवाई जाये कि विजय दहेज के चक्कर में उनकी लड़की को परेशान कर रहा है अौर इसीलिए हेमा को ले के भी नहीं जा रहा है ।

महिला मोर्चा की अध्यक्षा ने कुछ सौदा रावत जी से कर लिया अौर एक दिन रविवार को 20-25 महिलायें हाथ में बैनर लिए विजय के घर के सामने सुबह दस बजे ही नारेबाजी करने लगी।

विजय वैसे ही परेशान था । वह बाहर आकर लोगो को समझाने लगा पर वो लोग कहां मानते हल्ला अौर नारेबाजी करते रहे। तब तक तमाशबीनों की भीड़ भी जमा हो चुकी थी ।किसी ने दो पत्थर विजय के घर की खिड़कियों की तरफ मारे। जिनमें से एक विजय के छोटे भाई के सिर में लगा। बस फिर क्या था विजय को गुस्सा आ गया । उसने अपनी सर्विस रिवाल्वर से दो फायर आसमान में करके सबको भून डालने की धमकी दे डाली। सब डर के मारे दूसरे दिन पुलिस के साथ आने की धमके देते हुए भाग गये।

विजय ने थाने में जाकर इस घटना की खुद ही रावत जी के अौर महिला मोर्चे के खिलाफ लिखित कम्प्लेंट कर दी ताकि कल को उनकी नौकरी या जॅाान के खिलाफ कुछ अनहोनी न हो।

अब विजय का दिमाग खराब होना ही था।एक तो वह बीमार लड़की का इलाज करवा रहा था अौर ऊपर से लड़की वालों ने बीमारी भी छुपाई थी।

उसने वकील से हेमा के मानसिक रोगी प्रमाण पत्र के साथ ही तलाक का केस कोर्ट में दायर कर दिया। लड़की या लड़की के पिता कोई भी एक भी पेशी पर हाजिर न हुए । केस की। तारीख पर तारीख लगती रही। डेढ वर्ष के बाद विजय के पक्ष में फैसला हो गया।

विजय ने मिलिटरी पुलिस की नौकरी से भी वी०आर० एस० ले लिया था अौर बाद में केन्द्रीय सरकार के इस विभाग में पूर्व सैनिक कोटे के अनतर्गत गृह मंत्रालय के उस विभाग में अनुभाग अधिकारी नियुक्त हो गया था।

इतनी कहानी सुनने के बाद मैने विजय से पूछा," फिर तुमने दुबारा शादी नहीं की।

"मेरी अब ज्यादा हो गई, अपनी सुना। शादी तो हो गई ना ? तुम्हारे कितने बच्चे है?मुझसे विजय ने पूछा," अौर राजेन्द्र के क्या हाल हैं ।"

" हां! यार हो तो गई है , लैट मैरिज की। बहिनोें की करने के बाद, बच्चे नहीं हैं अभी। राजेन्द्र के पिताजी रिटायर हो गये थे। सरकारी मकान छोड़ दिया था, कहीं बुराड़ी की तरफ चले गये हैं वो लोग । काफी सालों से मुलाकात नहीं हुई उस से भी ." मैने बताया।

"फिर दूसरी शादी कर ले,अभी क्या बिगड़ा है "मैने फिर शादी का जिक्र छेड़ दिया ।

"क्या बताऊं यार। करी थी। लव मैरीज। गढ़वाली से नहीं क्योंकि तुम लोगों से मैं पहले से ही नाता तोड़ चुका हूं। बंगाली लड़की थी इसी अोफिस में। मैं भी भाईयों से अलग हो गया था। उसी के घर चितरंजन पार्क में रहता था। एक साल तक सब ठीक ठाक चला पर उसके बाद खट-पट शुरु हो गई। वो भी मेरे छोटे भाई बलबीर को लेकर।

क्यों कि बलबीर को मैं अपने साथ रखना चाहता था पर वो नहीं मानी। बस फिर मैं अलग हो गया अौर आजकल छोटे के साथ अार. के पुरम में रहता हूं। टाइप फोर सरकारी मकान मिला है। हां, तलाक नहीं हुआ अभी तेरी बंगाली भाभी से। कभी कभी पंहुच जाती है संडे या छुट्टी के दिन मुझे कार की सैर कराने। वह भी किसी एयरपोर्स आधिकारी की तलाकशुदा है मां-बाप की कोठी है दो मंहगी कार है अौर स्वतंत्र है अपनी तरह । अो.के. "। कहते हुए विजय सीधे ही निकल गया अौर उसने हाथ मिलाना तो दूर पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा । एक बार मुझे डाक्टर खेर मिले तो वह बता रहे थे कि वह कोलकाता ट्रांसफर हो गया था। पर तीस साल होने पर भी मुझे लगता है कि जैसे कल ही की बात हो । उस दिन के बाद मुझे विजय आज तक नजर नहीं अाया ।