गढ़वाल में भूकम्प त्रासदी और गोरखाओं का आक्रमण
8 सितम्बर सन् 1803 को गढ़वाल में भयंकर भूकम्प आया। भूकम्प से हजारों लोग हताहत हुए तथा करोड़ों रुपयों की संपत्ति नष्ट हुई। रेपर ने 1808 ई० में लिखा था कि- "श्रीनगर का शहर प्रायः सारा ध्वस्त हो गया। पांच में से एक घर में कोई रहता था। नहीं तो सारे घर खण्डहर हो गए थे। राजा का महल रहने लायक नहीं रह गया था। भूकम्प के झटके कई महीनों तक आते रहे। कहा जाता है कि कई धाराएँ सूख गई और कितने ही नये स्रोत निकल आए। " इस भूकम्प से कई गाँव धरती में समा गए थे। माना जाता है कि बीस प्रतिशत जनसंख्या बच सकी थी। जो बचे थे, उनमें भी अधिकांश घायलावस्था में थे।
इससे पूर्व इस क्षेत्र में भयानक अकाल पड़ा था। यह दुर्भिक्ष संवत् 1851-52 (सन् 1792-93) में आने से से इसे इतिहास में इकावनी-बावनी नाम से जाना जाता है। दुर्भिक्ष के बाद भूकम्प ने गढ़वाल को तहस-नहस कर दिया था। अभी भी गढ़वाल का संकट काल टला नहीं था। प्रद्युम्नशाह (1797-1804 ई०) के दरबार में कृपाराम डोभाल दीवान थे। नित्यानंद खण्डूड़ी भी दफ्तर के अधिकारी थे। कृपाराम व नित्यानंद एक-दूसरे के विरोधी थे। नित्यानंद के रिश्तेदार रामा तथा धरणी खण्डूड़ी दोनों भाई सेनापति थे। दोनों भाईयों ने कृपाराम को मारने के लिए देहरादून के फौजदार घमण्ड सिंह को बुलवाया तथा उसे मरवा दिया। घमण्ड सिंह के कारण रामा व धरणी का प्रभाव बढ़ता गया। राजकाज इन दोनों खण्डूड़ी बंधुओं द्वारा चलाया जाता था। राजा प्रद्युम्नशाह नाममात्र के राजा रह गये थे। गोरखा आक्रमण की संधि के समय यहां के कई लोगों को गोरखा सेना दास बनाकर ले गई थी। धरणी खूबसूरत जवान था। वह यहां के बंदी बनाए गए स्त्री-पुरुषों को मुक्त करवाने की फरियाद लेकर नेपाल के राजदरबार में गया। राजदरबार में राजगुरु की कन्या धरणी पर मुग्ध हो गई। धरणी का नेपाल की बैजू बामणी से विवाह हो गया।
रामा-धरणी के विरोधियों ने राजा के कान भरने शुरू कर दिए। षडयंत्रकारियों ने कुंवर पराक्रमशाह को राजगद्दी का लालच दिया और कहा कि जब तक रामा और धरणी जीवित हैं तब तक आपको यह सुअवसर नहीं मिल सकता। रामा व धरणी पर सोने का सिंहासन चोरी कर अल्मोड़ा पहुँचाने का आरोप लगाया गया। रामा उस समय पैनखण्डा गया था। वहां उसके साथ गये सैनिकों को प्रलोभन देकर घूनी-रामणी स्थान में रामा को मरवा दिया गया। श्रीनगर में धरणी को धोखे से बुलाकर अलकनंदा के किनारे मार डाला गया। रामा और धरणी की मृत्यु के बाद बैजू की बामणी (धरणी की पत्नी) जो नेपाली राजगुरु की पुत्री थी, रोती-बिलखती नेपाल पहुँची तथा रामा व धरणी के मारे जाने का हाल वहां सुनाया।
सन् 1800 ई० से नेपाल की राजनीति गोरखाणी रानी के हाथों में थी। कुमाऊँ गोरखों के अधीन 1790 ई० से ही था गढ़वाल पर आक्रमण का अनुकूल समय देख फरवरी 1803 ई० में गोरखा सेना अमर सिंह थापा और हस्तीदल चौतरिया के सेनापतित्व में गढ़वाल पर आक्रमण करने पहुँची। राजा प्रद्युम्नशाह को श्रीनगर महल छोड़कर भागना पड़ा। अंत में 14 मई, 1804 ई० को प्रद्युम्नशाह देहरादून के खुड़बुड़ा में गोरखों से लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए और पूरे गढ़वाल पर गोरखों का आधिपत्य हो गया। श्रीनगर राजधानी पूर्ववत रही। 1804 से 1815 ई० तक गढ़वाल का शासन हस्तीदल चौतरिया और भक्ति थापा के हाथों में रहा। गोरखाओं ने गढ़वाल की जनता पर बेमिसाल अत्याचार किए। इनकी आय का मुख्य स्रोत गढ़वाल तथा कुमाऊँ से दास-दासियों का क्रय-विक्रय था। हरिद्वार में हर की पैड़ी के पास ही 10 से 150 रुपए तक में दास-दासियाँ बिकती थीं। फ्रेजर ने तीन से तीस वर्ष तक की उम्र के लगभग दो लाख दास-दासियाँ गोरखाओं द्वारा बेचे जाने का अनुमान लगाया था। इस काल को गढ़वाल में गोरखाणी नाम से जाना जाता है।
साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल)