उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास भाग -14

उत्तराखंड के परिपेक्ष में मसूर दाल का इतिहासदालों /दलहन का उत्तराखंड के परिपेक्ष में इतिहास -भाग -3

उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --14

उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --14

दालों /दलहन का उत्तराखंड के परिपेक्ष में इतिहास -भाग -3

उत्तराखंड के परिपेक्ष में मसूर दाल का इतिहास

दालों /दलहन का उत्तराखंड के परिपेक्ष में इतिहास -भाग -3

उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --14

आलेख : भीष्म कुकरेती

मसूर का जन्म स्थान मध्य एसिया (टर्की ) व यूनान के दक्षिण को माना जाता है। फ्रांचथी गुफा (दक्षिण यूनान ) में 10000 BC पहले के मसूर के अवशेस मिले हैं।

हडप्पा संस्कृति में मसूर दाल के अवशेस मिले हैं किन्तु बाद की संस्कृति में नही । मसूर की खेती 7500 -8000 BC पहले गेंहू की खेती के साथ शुरू हुई। गंगा दोआब में मसूर की खेती 2000 BC से शुरू हो चुकी थी। महाराष्ट्र के2200 - 2000 बक्क पुरानी सावल्दा संस्कृति (दाइमाबाद , श्रीरामपुर , अहमदनगर ) के अवशेषों में मसूर दाल के अवशेष मिले हैं।

लेटिन में मसूर को लेंस याने लेंस नुमा दाल कहते हैं।

मसूर का संस्कृत में अर्थ होता है तकिया, मसूर का प्राचीन ईरानी नाम मर्जुनक है तो प्राचीन तुर्की भाषा में में मसूर को मर्सिनक कहते हैं और तीनो नाम एक दुसरे से मिलते जुलते हैं। संस्कृत में मसूर को मंगल्या (मंगल गृह ) भी है।

मसूर कृषि इतिहास

वेदों की टिप्पणी 'ब्रहदारणक्य' (5500 BC? ) में मसूर का वृत्तांत है , चरक संहिता (700 BC ) और सुश्रवा संहिता (400 BC ) में भी मसूर का वर्णन है. इसी तरह कौटिल्य (321 -296 BC ) ने भी मसूर का वर्णन किया है। किन्तु कश्यप (800 AD ) शास्त्र में मसूर का उल्लेख नहीं है।

कौटिल्य ने कृषि कैसी होती है का खाका भी दिया है और वैसे ही है जैसे अरहर या तुअर का है. ऐसा लगता है मसूर गेंहू के साथ साथ बोया जाता रहा है।

बाइबल में भी मसूर का उल्लेख कई बार मिला है. मसूर मांश का विकल्प माना गया है।

सुलतान युग साहित्य (1200 -1555 AD ) में लिखा गया है कि मसूर को गाय के गोबर के साथ बोने से फसल अच्छी होती है (नेने ,1999 ). इसी समय के साहित्य में यह भी लिखा है कि मसूर के बीजों में चिड़ियाओं के बीट मिलाने से फसल अधिक होती है।

मसूर का बाजार भाव

आइन -इ -अकबर (1590 ) में लिखा गया है कि मसूर का दाम गेंहू के बराबर है किन्तु मसूर की दाल का दाम गेंहू से एक तिहाई (33 %) अधिक है। वाट (1889 ) की सूचनानुसार सूखे खेतों में मसूर का उत्पादन 740 Kg प्रति हेक्टेयर और सिंचित भूमि में मसूर उत्पादन 1100 प्रति हेक्टेयर था.

मसूर के उपयोग

दाल के अतिरिक्त आयुर्वेद में भी मसूर दाल का उपयोग होता था। त्वचा के घाव दाग मिटाने के लिए मसूर दाल का पेस्ट (मस्यट ) प्रयोग में लाया जाता था। कई जातियां मसूर के लाल रंग के कारण मसूर उपयोग में नही लाते थे।

उत्तराखंड में मसूर का महत्व

पहाड़ी भूभाग में मसूर को ग्राम दाल के नाम से जाना जाता था /है । और इसका प्रयोग कम ही होता है। बहुत कम मात्रा में गेंहू के साथ मसूर बोई जाती है। यही कारण है कि डा डबराल ने जब उत्तराखंड इतिहास में जब भी दालों का जिक्र किया तब तब मूँद उड़द और दाल अदि लिखा है।

पाषाण युग में मसूर

कृषि आरम्भ अध्याय में डा डबराल ने जंगली खाद्य बीजों का नाम लिया है जिससे यह पता चलता है कि यह वनस्पति यहाँ उगती थी। जिन्हें गढ़वाल -कुमाओं का ज्ञान है , उन्हें मालूम है कि मसूर जैसी एक जंगली वनस्पति बंजर खेतों व उसी तरह के जंगलों में मिलती है। इससे अनुमान लग सकता है कि पत्थर युग में जंगली मूंग , उड़द के साथ जंगली मसूर भी उगती रही होगी। या हो सकता है कि मानव उत्तराखंड के पाषाण युग में मसूर भूनकर खाता रहा हो।

धातु युग में सीढ़ी नुमा खेत और मसूर

धातु युग में कोल मुंड जाती ने कृषि को अपना लिया था अत: अनुमान किया जा सकता है कि मसूर को बोना या मसूर के साथ अविष्कार भी उत्तराखंड में हुए होंगे। यदि पहाड़ों में कोल -मुंड जाती ने मसूर का तिरस्कार किया भी होगा तो भी तराई भाभर में किरात जाती ने मसूर को उगाया या जंगली मसूर को अवश्य अपनाया होगा.

परवर्ती वैदिक काल

इस काल में वैदिक मानव ने हिमाचल पहाड़ों के खसों , कॉल -मुंडों अथवा द्रविड़ों का नाश किया या उन्हें दास बनाने को मजबूर किया। वैदिक संस्कृति में मसूर का सन्दर्भ मिलता है अत: मसूर का उपयोग इस युग में भी होता होगा।

महाभारत में उत्तराखंड के वन सम्बन्धी वनस्पति का वर्णन अधिक है और खाद्य पदार्थ को अन्न नाम दिया गया है.

आगे काल /समय के हिसाब से जब खाद्य अनाज /कृषि पर विवेचना होगी तो मसूर के बारे में भी विवेचना होती रहेगी।