गढ़वाल में कत्यूरी राजवंश

कत्यूरी हिमालय का प्रथम राजवंश था। (हिमालय परिचय-1- राहुल, पृ०71) एटकिंसन ने कत्यूरी शब्द को कटोर शब्द के समतुल्य मानकर कत्यूरी वंश को काबुल और पश्चिमी हिमालय के ढलानों में बसी कटोर नामक आयुधजीवी जाति का वंशज माना है। (हिमालयन गजेटियर-2, एटकिंसन) डाॅ० शिव प्रसाद डबराल पाल नरेशों के अभिलेखों से प्रमाणित करते हुए कत्यूरियों को पंवार नरेशों के समकालीन मानते हैं तथा इन्हें खस ही लिखते हैं। (उत्तराखंड का इतिहास-१-डबराल, पृ० 422) प्राचीन समय में बाहर से आयी जातियों में स्थान के नाम पर उपजाति रखने की परंपरा थी। उसी प्रकार कार्तिकेयपुर राजधानी होने से इन शासकों का नाम कत्यूरी पड़ा। कार्तिकेयपुर राजधानी का नामकरण कुल देवता कार्तिकेय के नाम पर पड़ा। राहुल भी कत्यूर को कार्तिकेयपुर का अपभ्रंश मानते हैं। (हिमालय परिचय-1- राहुल, पृ०- 52)

कार्तिकेयपुर वर्तमान जोशीमठ को माना जाता है। डाॅ० कठोच ताम्रपत्रों के साक्ष्य तथा इन शासकों के कुल देवता कार्तिकस्वामी देवस्थल के सामीप्य के आधार पर कार्तिकेयपुर जोशीमठ के दक्षिण में अलकनंदा घाटी में स्थित कहीं अन्य जगह पर होने का उल्लेख करते हैं। (मध्य हिमालय-कठोच, पृ०110) हेलंग-विष्णुप्रयाग निर्माणाधीन मोटर मार्ग की खुदाई में मिले पुराने राज प्रासाद के अवशेषों से पता चलता है कि जोशीमठ ही प्राचीन कार्तिकेयपुर था तथा भूकंप या हिमस्खलन से यहां कत्यूरियों का राजप्रासाद नष्ट हो गया था। कत्यूरी काल की मूर्तियाँ वासुदेव मंदिर जोशीमठ में अभी भी सुरक्षित हैं। माना जाता है कि प्रकृतिक प्रकोपों से वासुदेव मंदिर वाला भू-भाग पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुआ था।

पाण्डुकेश्वर से प्राप्त ताम्र अभिलेखों में कत्यूरी शासकों की वंशावली तथा शासन व्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। ललितशूर, पद्मदेव व सुभिक्षराज द्वारा निर्मित अभिलेखों के आधार पर राहुल सांकृत्यायन ने इनका कार्यकाल 850 ई० से 1050 ई० तक माना है। (हिमालय परिचय-१ राहुल, पृ० 101) जनश्रुति के आधार पर कत्यूरी वंश प्रथम शासक वासुदेव था। अभिलेखों में प्रथम शासक वसंतनदेव है। संभवत: वसंतनदेव ही वासुदेव नाम से भी जाना जाता था। अंतिम शासक वीरदेव को माना जाता है। जबकि वीरदेव का नाम भी वंशावली में नहीं है। 14 कत्यूरी राजाओं का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। वसंतदेव, खर्परदेव, अधिधज देव, त्रिभुवनराज देव, निंबरदेव, इष्टगण देव, ललितशूर देव, भूदेव, सलोणादित्य, इच्छटदेव, देशटदेव, पद्मदेव, सुभिक्षराज देव।

कत्यूरी राजाओं की उपाधि परमभट्टारक महाराजाधिराज होती थी। कत्यूरी राजाओं के प्राप्त ताम्रपत्रों व शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इनके शासन काल में सैन्य संगठन तथा मंत्री पद भी होता था। राजा भूमि कर भी लेता था। कत्यूरी काल में यह क्षेत्र मंदिर व मूर्तिकला के उत्कर्ष पर था। इस काल में ही यहां भव्य मूर्तियाँ तथा मंदिरों का निर्माण हुआ था। कत्यूरी काल में निर्मित मंदिर तथा मूर्ति-शिल्प आज भी 'कत्यूरी शैली' के नाम से विख्यात है। वीरदेव को कत्यूरी वंश का अंतिम शासक माना जाता है। इनके पतन का कारण प्रजा पर अत्याचार तथा भोग-विलासता में लिप्त होना माना जाता है।

वाल्टन (हिमालयन गजेटियर- वाल्टन, 169-70) ने जनश्रुति के आधार पर लिखा है कि 'कत्यूरी शासक शिकार खेलने गया था। उसकी अनुपस्थिति में नृसिंह अवतार विष्णु जोगी रूप में महल में पधारे तथा रानी से भोजन मांगा। भोजन के बाद जोगी राजा की पलंग पर सो गया। इसी बीच जब राजा शिकार से लौटा तो किसी अपरिचित को अपनी पलंग पर लेटा देख क्रोधित होकर तलवार से जोगी की बांह काट दी। बांह से खून की जगह दूध निकलने लगा। राजा ने यह सब देख जोगी से क्षमा याचना की तथा अपना परिचय देने को कहा। जोगी ने कहा तुम अपनी परीक्षा में खरे नहीं उतरे जिससे तुम्हें यह पवित्र धाम छोड़ना पड़ेगा। मेरी प्रतिमा पर भी यह घाव दिखेगा तथा जब मूर्ति का यह भाग टूट जाएगा तो तुम्हारा वंश व महल भी नष्ट हो जाएगा। माना जाता है कि इस घटना के बाद कत्यूरी शासकों ने कार्तिकेयपुर से अपनी राजधानी बैजनाथ स्थानान्तरित कर दी। बाद में वहां भी उनकी संप्रभुता समाप्त हो गई थी।

डाॅ० डबराल का मत है कि हिमानी के खिसकने से कार्तिकेयपुर (जोशीमठ) को भयंकर क्षति हुई थी। हिमस्खलन के भय से ही सुभिक्षराज ने अपनी राजधानी परिवर्तित की थी। इस पर भी हिमानी स्खलन का भय दूर नहीं हुआ तो नृसिंह देव ने अपनी राजधानी बैजनाथ बनाई। नृसिंह देव का नाम भी कत्यूरी राजाओं की वंशावली में नहीं मिलता। गोपेश्वर तथा उत्तरकाशी के त्रिशूलाभिलेखों से पता चलता है कि 1191 में अशोक चल्ल, जो संभवतः नेपाल का था, ने इस क्षेत्र में अपना आधिपत्य जमा लिया था। इस पर्वतीय क्षेत्र में कत्यूरी वंश के इतिहास को इसके कला-कौशल, शासन-व्यवस्था तथा धार्मिक चेतना के लिए हमेशा याद किया जाएगा।

(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल, वर्ष-2002)

फोटो- नृसिंह मंदिर, जोशीमठ।