पकौड़े ने पूछा " समोसा क्यों नहीं खाया ? जूता क्यों नहीं पहना ? "

पकौड़े ने पूछा " समोसा क्यों नहीं खाया ? जूता क्यों नहीं पहना ? "

खव्वाबीर - भीष्म कुकरेती

एक समय देहरादून में समोसा संस्कृति थी (संक्षिप्त समोसा इतिहास की चटनी )

मोदी जी ने पकौड़ों में जान डाल दी है। कोई जल रहा है तो कोई जला रहा है। भाजपा -कॉंग्रेस के पास लकड़ी कम होने से या LPG मंहगी होने से उत्तराखंड फेसबुक संसार में पकौड़ों का तलना बंद हुआ पर श्री मनोज इष्टवाल और भीष्म कुकरेती फिर भी अपनी अपनी रसोई में कुछ न कुछ पका ही रहे हैं।

पकौड़ा रोजगार की खिल्ली उड़ाने वाले एक मेरे FB मित्र ने मेरी खिल्ली उड़ाई कि अब तो पकौड़ों की गरमाहट खत्म हो गयी है फिर मैं चटनी पर क्यों आ गया। मुझे खिन्न होकर उत्तर देने पड़ा कि भाई उनके ! हम सूंघने -चखने के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं और तभी FB सरीखे माध्यम में भोजन पर सबकी नजर पड़ती है , सदस्य पढ़ते हैं। मनोज इष्टवाल जी अवश्य मेरा साथ देंगे।

आज पकौड़ों से मुझे मेरा सबसे पसंदीदा शहर (तब का ) देहरादून याद आ गया जहां एक समय समोसा राज करते थे। चाय या मिठाईओं की दूकान की असली पहचान समोसे से होती थी। सन 72 -74 में कई चाय दुकानों ने अपने होटल में केवल चाय व समोसे तक सीमित कर दिया था और ग्राहक की पसंद के गाने रिकॉर्ड से सुनवाते थे व गाने के पैसे लेते थे। जनता टी स्टाल पलटन बजार (कॉंग्रेस नेता सुरेंद्र अग्रवाल की मिठाई की दुकान के बगल में ) व शायद जनता टी स्टाल ही नाम था चकरोता रोड डा चांदना के बगल में दो ही मेरे फेवरेट टी हाउस थे जहाँ तकरीबन रोज ही हम दोस्त लोग चाय समोसे के साथ दूसरों की पसंदीदा फ़िल्मी गानों का स्वाद लेते थे। जब मणि राम भाई याने मनी ऑर्डर आता था तो उस दिन या दो एक दिन में या तो नेपोलियन या क्वालिटी होटल में समोसा कॉफी पीनी जाते थे। हम क्वालिटी या नेपोलियन रेस्टोरेंट में समोसे का स्वाद लेने नहीं जाते थे अपितु देखने सीखने जाते थे कि सभ्रांत -सभ्य व कल्चर्ड लोग कैसे व्यवहार करते हैं। पर 80 प्रतिशत लोग हमारे जैसे सभ्यता सीखने ही आते थे इन दोनों होटलों में।

'मेहमानों का स्वागत समोसों से हो ' कई कारणों से ही चलती थी।

गढ़वाली जनानी तब समोसे घर में नहीं बनाती थीं। कारण साफ़ था कि गढ़वाली समोसा संस्कृति में पले बढ़े नहीं होते थे फिर समोसा तलने में कई ताम झाम करने पड़ते हैं तो समोसा आज भी (मिठाई ) दुकान से लेने में ही आर्थिक व परिश्रम बचत होती है।

मुंबई आने पर समोसा खाने की इच्छा कम ही हो गयी , यद्यपि घर में आज भी हर हफ्ते समोसे आते हैं किन्तु मैं कम ही खाता हूँ। मुझे सन 74 -75 में समोसों का वह स्वाद नहीं मिल सका जो देहरादून में था। हाँ गेलॉर्ड होटल (मंहगा ) चर्चगेट में मुझे वह स्वाद मिलता था। गेलॉर्ड में मटन समोसा बहुत ही स्वादिस्ट होता था। अब मुझे बटाटा बड़ा समोसे के मुकाबले अधिक भाता है। मतलब अब मैं सही माने में महाराष्ट्रियन हो चुका हूँ।

देहरादून या मुंबई में वास्तव में समोसा संस्कृति पंजाबी -सिंधियों ने प्रचारित -प्रसारित किया। जी हाँ इसमें दो राय नहीं सकती कि मुंबई में या देहरादून में समोसा संस्कृति प्रचार प्रसार में पंजाबी -सिंधियों का हाथ है। आज भी मुंबई के नजदीक उल्हासनगर जो सिंधियों का सबसे बड़ा शर है वहां समोसा संस्कृति व वही देहरादून वाला स्वाद बचा है. मैं जब भी व्यापारिक विजिट पर उल्हासनगर गया हूँ मेरे डीलर मित्रों ने मेरा स्वागत संसा -गुलाब जामन या आलू टिकिया से किया। सिंधी लोग भोजन के मामले में बड़े खव्वा बीर होते हैं व खातिरदारी भी बड़ी तबियत से करते हैं। पर अब कुछ बदल गया है अब उल्हासनगर व्यापरी मेरा स्वागत होटल में ले जाकर दिन में जिन व मटन चिकन कबाब से करते हैं।

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समोसे का भारत में इतिहास

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मुझे नहीं पता आज देहरादून में समोसा संस्कृति कितनी ज़िंदा है पर यह पता है कि समोसा भारत में नहीं जन्मे। पर हम जब भारत की कल्पना करते हैं तो हमें आज का भारत ही याद आता है। कभी भारत बहुत बड़ा क्षेत्र था।

कहा जाता है कि समोसे का जन्म मिडल ईस्ट में हुआ। बात में दम है समोसे में नमक कम है क्योंकि अमूनन आम भारतीय आज भी मैदे से दूर रहता है केवल विशेष पकवान छोड़कर।

कहा जाता है कि ईरान में यह पकवान 9 या 10 सदी में सम्बुसक , या सम्बोसाग के नाम से जानता जाता है। ईरानी साहित्य में संबोसग , संबोसाग , सम्बुसक का सबसे पहले संदर्भ 10 वीं सदी में मिलता है। ईरानी इतिहासकार की किताब 'तारीख -ए -बेयहागी ' ( दसवीं सदी ) में मिलता है। और माना जाता है कि घुमन्तु व्यापारियों ने इस तिकोने मीठे भोज्य पदार्थ को दुनिया के अन्य कोनों में पंहुचाया।

भारत में समोसा शायद 12 वीं या 13 वीं में व्यापारी या खानसामों द्वारा भारत में आय व सुल्तान के रसोई के शान बन गया। मोरोका यात्री इब्न बटाटा ने अपनी यात्रा वृत्तांत में लिखा है कि सुलतान बिन तुगलक के शाही भोजन गृह में उसे तिकोने सम्बुसक भोजन में दिए गए जिसके अंदर मस्यट , मटर , पिस्ता , बादाम व अन्य स्वादिस्ट पदार्थ भरे थे।

तेरवीं सदी में महान सूफी विद्वान् अमीर खुसरो ने लिखा है कि समोसा भद्र लोग खाते थे। मटन , मसालों व अन्य पदार्थों से समोसा बनता था।

अमीर खुसरों ने एक पहेली भी दी -

समोसा क्यों नहीं खाया ? जूता क्यों नहीं पहना ? ताला न था। (जूते के सोल ताला कहा जाता है )


अकबर के रत्न अबुल फजल ने 'आइना -ए -अकबरी में लिखा है कि बादशाह अकबर को समोसे पसंद थे।

ब्रिटिश या यूरोपियन लोगों को भी समोसा गया तो उन्होंने भी समोसे को गले नहीं लगाया अपितु गले में उतार दिया।

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गढ़वाल -कुमाऊं में समोसा

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गढ़वाल कुमाऊं इतिहास में समोसे का जिक्र नहीं मिलता है। हरिद्वार पर कभी इतिहास लिखा ही नहीं गया तो हमे हरिद्वार में समोसा विकास की कहानी नहीं पता है। मुझे लगता है कि यदि गढ़वाल कुमाऊं में समोसा आया भी होगा तो रोहिला ही दक्षिण उत्तराखंड में लूट के समय लाते होंगे और चूँकि वे जल्दीबाजी में रहे होंगे तो लोट समय समोसा नहीं पकाया गया होगा। यही कारण है कि समोसा गढ़वाल कुमाऊं का खाद्य पदार्थ ब्रिटिश काल से पहले नहीं बन सका होगा।

श्रीनगर में मुसलमान थे किन्तु गढ़वाल राजा केवल सर्यूळों के हाथ का बना भोजन खाते थे तो मुस्लिम खानसामों ने समोसा बनाये भी होंगे तो भी यह भोज्य पदार्थ जगह नहीं बना सका। फिर गढ़वाल कुमाऊं में स्वाळ संस्कृति विद्यमान थी तो समोसा संस्कृति पलने का सवाल ही पैदा नहीं होता।

श्री गुरु राम राय दरबार आने वाले यात्री भी शायद समोसे नहीं खाते थे तभी समोसा का जिक्र देहरादून के इतिहास में नहीं मिलता। सिख लुटेरे देहरादून व हरिद्वार को ऐसे लूटते थे जैसे रोहिला , इतिहास में उत्तराखंड के लुटेरे सिख समोसे खाते थे का जिक्र नहीं मिलता है।

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ब्रिटिश काल में उत्तराखंड में समोसा प्रवेश

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यदि समोसे ने उत्तराखंड में प्रवेश किया होगा तो ब्रिटिश शासन में ही प्रवेश किया होगा। हरिद्वार भी समोसे का प्रवेश द्वार हो सकता है। सबसे पहले देहरादून , मसूरी , नैनीताल या लैंसडाउन में समोसे बने होंगे। ब्रिटिश राज में समोसे में आलू ने प्रवेश किया।

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उत्तराखंड में पंजाबी -सिंधियों शरणार्थियों ने समोसा प्रचार -प्रसार किया

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इसमें इतिहास पुस्तकें खंगालने की आवश्यकता नहीं है कि स्वतंत्रता बाद उत्तराखंड में समोसा संस्कृति को पंजाबी -सिंधी मिठाई दुकानदारों ने सर्वाधिक पचार प्रसार किया ,

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आज समोसा उत्तराखंड ही नहीं पूरे भारत में फ़ैल चुका है। हाँ प्रत्येक क्षेत्र में समोसा बनाने की पद्धति व स्वाद अलग अलग है।