गौं गौं की लोककला

संकलन

भीष्म कुकरेती

गटकोट में रैजा सिंह की डंड्याळी में काष्ठ उत्कीर्ण कला व अलंकरण

सूचना व फोटो आभार : विवेका नंद जखमोला , गटकोट

Copyright @ Bhishma Kukreti , 2020

उत्तराखंड , हिमालय की भवन (तिबारी ) काष्ठ अंकन लोक कला ( तिबारी अंकन ) - 52

गटकोट में रैजा सिंह की डंड्याळी में काष्ठ उत्कीर्ण कला व अलंकरण

गटकोट (ढांगू ) गांव की लोक कलाएं काष्ठ उत्कीर्र्ण कलाएं - 5

ढांगू संदर्भ में गढ़वाल , हिमालय की तिबारियों/ निमदारियों / जंगलों पर काष्ठ अंकन कला -31

दक्षिण पश्चिम गढ़वाल (ढांगू , उदयपुर , डबराल स्यूं अजमेर , लंगूर , शीला पट्टियां ) तिबारियों , निमदारियों , डंड्यळियों में काष्ठ उत्कीर्णन कला /अलंकरण 31

गढ़वाल, उत्तराखंड , हिमालय की भवन (तिबारी, निमदारी , जंगलादार ) काष्ठ अंकन लोक कला ( तिबारी अंकन ) - 52

(लेख में जी श्री नहीं प्रयोग जिए गए हैं )

संकलन - भीष्म कुकरेती

गटकोट (गढ़ कोट या गढ़ी में किला ) खस समय अथवा गढ़ी शब्द प्रचलन काल का एक प्राचीन स्थल है व गोरखा काल में निकटवर्ती गाँव घनशा ली में गोरखा छवनी होने से भी प्रसिद्ध रहा है। यहां के गोर्ला रावत डबराल स्यूं व ढांगू के कमीण /सयाणा /थोकदार भी थे।

आज का विवेचना विषय है गटकोट में रैजा सिंह की डंड्यळी में काष्ठ उत्कीर्ण अलंकरण या कला दर्शन। गटकोट के विवेका नंद जखमोला ने सूचना भेजते समय इस मकान भाग को डड्यळी नाम दिया जबकि जसपुर -ग्वील - सौड़ (गटकोट से तीन मील दूर ) डंड्यळी लघु आकार की पहली मंजिल की बैठक (कम आयात /लघु आकार में स्त्रीलिंग होना ) को डंड्यळी कहते हैं व दो कमरों से बने बरामदे (ढके या अनढके ) को डंड्यळ कहते हैं। मैं विचारक अध्यापक विवेका नंद जखमोला का सम्मान करते हुए इस मकान भाग को डंड्यळी ही लिख रहा हूँ।

डंड्यळ व तिबारी में मानकीकृत शब्दावली में भी मतभेद है। साइकलवाड़ी -किमसार के दिनेश कंडवाल ने इसी तरह के अपने भवन भाग को तिबारी नाम दिया और पहाड़ी भवन काष्ठ कला विशेषज्ञ मनोज इष्टवाल ने कोई विरोध नहीं जताया जबकि अन्य मकान भागों में वे विरोध जताते दीखते भी हैं (तिबारी , निमदारी , डंड्यळ भेद ) कला विवेचक महेशा नंद ने भी कई बार इस विषय पर मुझे आगाह किया भी किन्तु फिर उन्होंने भी पूरा खुलासा नहीं किया कि वास्तव में मानकीकृत परिभाषा क्या हो (शायद उनके आने वाले शब्दभंडार शब्द कोष में खुलासा अवश्य होगा किन्तु तब तक मुंगरी पाकली पाकली पर तब तक म्यार संधि भूख चल जालो वाली स्थिति भी रहेगी ) मेरी महेशा नंद , मनोज इष्टवाल , डा डी आर पुरोहित , रमाकांत बेंजवाल आदि भाषा विद विशेषज्ञों से अनुरोध है कि यदि हो सके तो शीघ्र ही इन शब्दों की परिभाषाएं निश्चित कर दें। जिस तरह से मुझे गंगासलाण (सामन्य नाम ढांगू उदयपुर पर असलियत में लंगूर , ढांगू ,श्लीला , डबरालःस्यूं , अजमेर व उदयपुर पट्टियां ) व अन्य क्षेत्रों से सूचनाएं व फोटो मिल रहे हैं 100 से अधिक तिबारियों व उत्तराखंड से कम से कम 500 तिबारियों के फोटो आदि आने की पूरी आशा है। पाठकों व मेरे लिए भी सही है कि सुनिश्चित परभाषिक शब्दों का प्रयोग हो।

आज गटकोट के जिस डंड्यळ का जिक्र हो रहा है वः एक समय के धनी रैजा सिंह परिवार की है। आज भवन ध्वस्त होने के कगार पर है किन्तु कभी इस भवन से गटकोट व रैजा सिंह परिवार को इलाके में पहचान मिलती थी व अन्य लोग ऐसी तिबारी निर्माण के सपने भी देखते थे। मकान तिभित्या याने तीन भीत (एक कमरा आगे व एक कमरा पीछे ) का है व पहली मंजिल पर आगे के दो कमरों के मध्य दीवाल न रख तिबारी या डड्यळ या बरामदा या बैठक या सभागृह (?) में बदल दिया गया है।

डंड्यळ में चार स्तम्भ /सिंगाड़ हैं व चौखट रूप में हैं याने कोई मेहराब , तोरण /चाप /मंडल /arch न होने से स्तम्भ शीर्ष /मुण्डीर /मुरिन्ड भू समांतर ही में हैं व मुरिन्ड छत आधार से पट्टिका के बल पर से मिलता है।

स्तम्भ /सिंगाड़ चौकोर हैं , पाषाण देहरी /देळी पर ठीके हैं। प्रत्येक सिंगाड़ /स्तम्भ में वानस्पतिक व ज्यामितीय अलंकरण हुआ है जो नयनाभिरामी था। शीर्ष /मुरिन्ड /मुण्डीर में कोई कला अलंकरण दृष्टिगोचर हो हो रहा है।

भले ही आज व तब भी कला व अलंकरण दृष्टि से डंड्यळ वह अलंकरण न रहा हो जितनी आकांशा होती है किन्तु जब संसाधन अलप से अल्पमत हों तो इस तरह की डड्यळ /डड्यळयूं का निर्माण करवाना भी जिगर का काम था।

प्रश्न तो सदाबहार /यक्ष प्रश्न ही है कि किन्ही भौगोलोइक , राजनातिक कारणों से पहाड़ों का इतिहास गर्त हुआ किन्तु अब जब इस तरह के डंड्यळ /तिबारियों , निमदारियों का संरक्षण न होगा (ध्यान योग्य बात है कि मकान स्थल की भयंकर समस्या पहाड़ों में होती है ) व इस तरह की कलाओं का डौक्युमेंटेसन /प्रलेखन भी नहीं हो रहा है। आज कुछ नहीं तो एक जगह प्रलेखित साहित्य तो रखा जाय।

सूचना व फोटो आभार : विवेका नंद जखमोला , गटकोट

Copyright@ Bhishma Kukreti