" प्रसाद जब स्वयं भगवान श्री कृष्ण चट कर जाते थे"

किस्सा उस समय का है जब मैं ग्हारह-बारह बर्ष का रहा हूंगा। हम लोग सरोजिनी नगर दिल्ली में रहते थे। उस समय जन्माष्टमी के त्यौहार पर हर ब्लाक के ग्राउंड में झांकियाँ सजाने का प्रचलन था। मंदिरों की सजावट तो देखने लायक होती थी। इसके अतिरिक्त छोटे बच्चे भी अपने अपने घर की बालकोनी में कृष्ण लीला के झांकी सजाते थे। बच्चों में सबसे अच्छी झांकी सजाने की प्रतिस्पर्धा होती थी। कालोनी के लोग भी हर कृष्ण लीला की झांकी को रात बारह बजे तक घूम घूम कर देखते थे। चढावा भी चढाते थे। उस समय पांच रुपये भी बहुत होते थे।

हम लोग हफ्ते पहले ही जन्माष्टमी सजाने की तैयारी शुरु कर देते थे। सफेद चूना, लाल रेत , साधारण रेत व कोयला इकट्ठा करना होता था। फिर मिट्टी के पशु पक्षी, जानवर व अन्य खिलोने सजाने के लिए खरीद कर लाना होता था। सबसे विशेष होता था कृष्ण भगवान का झूला व काह्न की मूर्ति । अगर झांकी की सजावट देखने जाना हो अौर झूला न झुलाया तो फिर सब बेकार। झूला झुलाने के बाद ही लोग चढावा चढाते थे।

तो सहाब हम भाई बहिन भी मिलकर अपने घर की बालकोनी में कृष्ण जन्म की झांकी सजाते थे। पिताजी व चाचा जी से सारे सामान की व्यवस्था के लिए अच्छी रकम बसूल कर लेते थे। अगर मुझे कम लगती तो मैं अपनी बहनों को फुसलाकर दोनों के पीछे लगा देता था बस फिर बहिने रो रो कर चाचा जी व पिताजी से बसूल कर ही देते थे। मैं सबसे बड़ा था। मुझसे छोटी मेरी चचेरी बहिन बबली थी जो आजकल दिल्ली पुलिस में ए०सी०पी है, उससे छोटी जिप्पी, जो एक प्रतिष्ठित अस्पताल में प्रबंधक है अौर सबसे छोटा दीपू था जो आजकल कनाडा सरकार में वित्त नियंत्रक है। हमारी चार सिपाहियों की टीम थी सहाब। तो क्योंकि मैं सबसे बड़ा ग्हारह-बारह साल का तो मैं इनका लीडर था।

बाहर का सारा काम अौर कैश्यिर मैं बनता था। इनको मैं काम पर लगाया रखता था। चौक पीसने, रेत रंगने , ईंट लाने, पहाड़ बनाने के लिए मारकिन या सफेद कपड़ा लाने आदि । हाँ सजाने में इनको लगा देता था ताकि रंग से मेरे हाथ खराब न हों। हम लोगों का प्रयास होता था कि ब्लाक में सबसे सुंदर जन्माष्टमी की झांकी हमारी हो।

चाची जी से पंजरी का प्रसाद तैयार करवाकर छोटी तस्तरी में कुछ बतासे व बरफी भगवान जी के आगे रखा जाता। एक थाली में फूल व पिठाई रखी जाती। देखने वाले भी उसी में पैंसे डालते। रंग बिरंगी लाइट लगाने व पहाड़ बनाने में कभी कभी चाचा जी की मदद ली जाती।

जन्माष्टमी के दिन मैं पुजारी बनकर दरी बिछाकर वहीं बैठा रहता अौर भाई बहिनों को लोगो को बुलाने भेजता रहता। उसके दो कारण थे बीच बीच में चढावे के पैंसे मैं अपनी जेब में रखता रहता अौर बतासे बरफी पंजरी का आनंद भी लेता रहता। कभी किसी ने पुजारी बनने को कहा तो उसे समझा देता। देखो पंडित पुरुष ही होता है दीपू अभी छोटा ही था अौर मैं लीडर जो था सबका। मेरी धौंस काम कर जाती।

जन्माष्टमी के दिन रात बारह बजे कृष्ण जन्म के बाद ही व्रत तोड़ा जाता है। बच्चे लोग तो जल्दी खा ही लेते थे। अब ये सब मेरे पीछे पड़ते भाई प्रसाद तो बांट दो। मैं कहता बारह बजे से पहले किसी को प्रसाद नहीं मिलेगा। एक एक करके सब सो जाते। मैं सारा प्रसाद चट कर जाता। बस थोड़ा पिताजी ,चाचा जी च चाची के लिए चाची को पकड़ा कर मैं भी दस बजे तक सो जाता।

सुबह उठते ही ये सब प्रसाद मांगते। मैं कहता था रात को कृष्ण भगवान आये थे सारा प्रसाद खा गये। सब खतम। भगवान जी ने मुझे भी नहीं दिया। जबकि सारा प्रसाद मेरे पेट में अौर दक्षिणा मेरे स्कूल बैग में समा जाता था। हाँ कभी कभी दक्षिणा के पैसें से इनको चूसने वाली आरेंज आइसक्रीम खिला देता था। हर बार का किस्सा यही होता कि प्रसाद कृष्ण भगवान चट कर गये।