पाठक

"पापा, आपको मैं बीस साल से कागज काले करते देख रहा हूँ अौर अब कम्प्यूटर पर रात- रात भर आँखे फोड़ते हुए । क्या फ़ायदा?किसी भी अखबार, मैगज़ीन के संपादक ने आपकी एक भी कहानी, कविता छापी नहीं । हजार के करीब हो गई हैं सब रचनाएँ। रात के एक बज गये हैं" अजय अपने वृद्ध पिता राजशेखर जी पर चिल्ला रहा था। उसके पिता अपनी नई कविता को प्रकाशित कराने हेतु संपादक को ई- मेल करने में व्यस्त थे।

राजशेखर जी ने धीरे से गर्दन उठाई और कहा ," बेटा, मेरी हजार रचनाएँ वापस करने से पहले किसी न किसी संपादक या सहायक संपादक ने निरस्त करने के लिए पढी जरुर होंगी ।क्योंकि हर रचना को वापस करते हुए उसपर खेद प्रकट करने की टिप्पणी लिखी होती थी। इसका अर्थ हुआ कि मेरी रचना हजार पाठकों ने तो पढी जरुर। तो लेखक छपना क्यों चाहता है? पाठकों के लालच में! अगर छप जाये तो हजारों , न छपे तो हजार । कई लेखक इसी छपने की तृष्णा में मानसिक रोगी बन अवसाद के शिकार हो जाते हैं । पर मुझे मेरे हिस्से के हजार पाठक तो मिल गये अौर मेरा लेखन सफल ।"

" मान गये पिताजी । पाठक तो पाठक होता है। क्या फर्क सौ हों या हजार' कहते हुए अजय अपने पिता राजशेखर जी के गले लग गया।