गौं गौं की लोककला

ढांगू , हिमालय में बांस आधारित कलायें व कलाकार

ढांगू गढ़वाल की लोक कलाएं व लोक कलाकार श्रृंखला - 13

प्रस्तुति - भीष्म कुकरेती

बांस भारत की संस्कृति का अंग सदियों से रहा है। ढांगू (पौड़ी गढ़वाल ) हिमालय में भी बांस एक महत्वपूर्ण लकड़ी है जिसके दसियों उपयोग होते थे ा कई कलाओं में बांस का हाथ था. ढांगू , हिमालय में बांस आधारित कला अपने स्वयं के उपयोग हेतु व रोजगार या आय साधन में भी बांस आधारित कला का उपयोग सदियों से होता ा रहा है। अब ढांगू , हिमालय में बांस का उपयोग काम होता जा रहा है क्योंकि कृषि में कमी आने से कई कलाएं भी नष्ट होती जा रही हैं।

ढांगू (पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड )

हिमालय में बांस आधारित कलाएं व उपयोग निम्न तरह से था (कम से कम 1970 तक ) -

बाड़

खेतों की बाड़ या फियंसिंग हेतु बांस के लट्ठे ढांगू में सदियों से इस्तेमाल होते थे।

टाट

जब पशुओं को गोठ में बांधा जाता था तो पशुओं की रक्षा हेतु बांस के टाट बनाये जाते थे जो चलती फिरती बाड़ का काम कार्य करते थे। टाट बनाने हेतु बांस के लट्ठे को दोफाड़ कर खड़े व पड़े में चार पांच पंक्तियों में बांस डंडे उपयोग होते थे। बांस के इन फाड़े डंडों को बाँधने का कार्य माळु की रस्सी उपयोग की जाती थी। सर्यूळ ब्राह्मणों को छोड़ लगभग प्रत्येक मर्द टाट बनाने की कला जानता था। गोठ संस्कृति ह्रास होने से टाट संस्कृति भी समाप्ति के कगार पर है। सरकारी व्यवधान (बांस की कटाई मनाही थी ) से भी टाट संस्कृति को धक्का लगा है।

पल्ल व नकपलुणी निर्माण

ढांगू (हिमालय ) के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर सब जगह गोठ संस्कृति (मवेशियों को खेतों में बांधना /रखना न कि गोशालाओं में ) विद्यमान थी। गोठ के सुरक्षा व्यक्ति को गुठळ कहा जाता है। गुठळ पल्ल के नीचे सोता या विश्राम करता है व मवेशियों को पल्ल की बाड़ के अंदर बांधे जाते हैं। पल्ल याने चलता फिरता कैम्प। पल्ल दो होते हैं मुड़ेट (खेत की दीवाल पर खड़ा किया ) एक कम ऊंचाई का व आठ दस हाथ लम्बा होता है। मथेट पप्ल मुड़ेट पल के मुकाबले बड़ा होता है ( लम्बाई व ऊंचाई में भी ) और मथेट पल्ल को मुड़ेट पल के ऊपर रख कर टेम्पोरेरी कैम्प बनाया जाता है किनारे /साइड में नकपलुणी खड़ी की जाती है जो ऊंचाई में मुड़ेट पल्ल के बराबर होती है किन्तु लम्बाई कम होती है आधी। पल्ल बनाना भी एक कला है और तकरीबन प्रत्येक परिवार पल्ल बनाते थे। पल्ल का ढांचा /कंकाल बांस के आधे फाड़े डंडो को लिटाकर , खड़ा क्र बनाया जाता है जैसे टाट और संध्या स्थल में माळु की रस्सी से बाँधा जाता है। फिर तछिल व माळु के पत्तों से छाया जाता है।

दबल /दबली/नरळ (पेरू /पेरी )

अनाज भनगरीकरण हेतु ढांगू (हिमालय ) निवासी बांस के भंडार (दबल , दबली , पेरी , पेरू ) उपयोग में लाते थे। बांस के दबल या दबली बड़े बड़े व् छोटे छोटे होते थे। दबलों का ढांचा पंस की बारीक फट्टियों से बनाये जाते थे व गोबर व लाल मिटटी से लीपे जाते थे। दबल या दबली के ढक्क्न टोकरीनुमा होते थे व बांस के ही बनाये जाते थे। अधिकतर देखा गया था कि बांस के दबल निर्माता शिल्पकार परिवार के होते थे यद्यपि कोई पक्का नियम न था।

टोकरियां

विभिन्न साइज व आयत की टोकरियां /कंडी भी ढांगू, (हिमालय में निर्मित की जाती थीं वर्तमान में भी। कई टोकरियों में ढक्कन होते थे कोई बिन ढक्कन के होते थे। ढांगू , हिमालय में पीठ पर घास या लकड़ी लाने का रिवाज न था अतः पिट्ठू कंडी नहीं निर्मित होतीं थीं।

कंगल /कंघियां

बादी जाति परिवार वाले बांस की कंघियां /कंगल निर्माण के विशेषज्ञ होते थे। हालांकि अन्य बांस कला कलाकार भी कंघियां निर्मित कर लेते थे।

हुक्का

बांस से बंसथ्वळ (हुक्का ) भी निर्मित होते थे व कोई भी तकननीसियन हुक्का बना सकता था। हुक्के की नाई /नली भी बनाई जाती थी।

हिंगोड़

हॉकी नीमा खेल हिंगोड़ की स्टिक भी बांस से निर्मित होती है और जटिल कला नहीं है।

कलम

बांस व रिंगाळ से कलम बनाई जाती थीं व सभी इस कला के जानकार थे।

जल नल /water canal

कभी कभी जब कम पानी को किसी छोटे गधेरे से ले जाना हो तो दो धारों के मध्य बांस के नल से पानी ले जाया जाता था किन्तु कम ही। यह भी जटिल कला न थी। कभी धार की जगह बांस की नली से धार बनाया जाता था।

बांसुरी व पिम्परी

बांस से बांसुरी व पिम्परी जो शहनाई या मुश्कबाज में प्रयोग होती है भी ढांगू , हिमालय में बनतीं थीं। दोनों के निम्रं में विशेष कला व तकनीक की आवश्यकता पड़ती थी।

छट्टी /बारीक डंडी - बांस को छील कर बारीक डंडी बनाई जाती थी जो धान ताड़ने /rice thrashing के काम आती थी।

मुणुक - बारिश से बचने हेतु पहाड़ों में छाता बनाया जाता था जो पीठ पर लटकाया जाता था व आधुनिक छाता नुमा भी होते थे, जिन्हे मुणुक कहते हैं । दोनों के ढाँचे निर्माण में बांस की छट्टियाँ /पतली डंडी उपयोग में ली जातीं थी। और ऊपर से माळु के पत्तों से ढांचे को छाया जाता था व माळु से बनधने का काम होता था। कुशल कारीगर /कलाकार इन मुणकों को बनाते थे।

अर्थी

सारे भारत, नेपाल , श्रीलंका जैसे ही ढांगू , हिमालय में भी मृतक को बांस की अर्थी में श्मशान घाट ले जाया जाता है। अर्थी बनाने हेतु कच्चे बांस की डंडियां प्रयोग में आते हैं। प्रत्येक गांव में दो तीन अर्थी बनाने व मृतक शरीक को अर्थी में बाँधने के विशेषज्ञ होते ही है।

संसार के अन्य भागों की भांति ढांगू में बांस एक बहुपयोगी वनस्पति है व इसके कई उपयोग हैं जिसके वस्तु निर्माण हेतु ढांगू , हिमालय में विशेषज्ञ कलाकार हुआ करते थे।


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