म्यारा डांडा-कांठा की कविता

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(कुमाउनी कविता)


जैनोई न पिलखोई

अब त बघत भौते बदलि गो,

गौं गाड़क आदिम पछ्याणण नि मौय बल।

गढ़वाली कुमाउनी जौनसारी क्वे बूल्हानै नै,

मैंस अंग्रेज़ सैणी मेडम है गे बल।


पैली सबुलै छिलुक बाई बै पड़ौ,

जमानु बदलि पै कैल लम्फू लै द्यखौ बल।

आज लोग जाणि बूजि बै अनह्यर में खानि,

हमुकें क्या पत्त हो सैब उहै कैंडिल डिनर कनी बल।


गौंक लोग खुशिल म्वटू अनाज जो खेँ छि,

तबै दौड़ म्वट और तंदूरस्त रहैं छि बल।

अब चावमीन, ममोस, चखुली खाणु गिजि गि,

तब कनि बी पी, शुगर और कैक थाइराइड लै बढि गो बल।


खण पिणक लै अब अलगै मतलब हैगो,

वी खाणु जो हमुकें जवान धरौ बल।

पहाड़ी अनाज बस यक लिजि खोज में,

किलैकि मन्हु शुगर फ्रीहूँ,और गहत पथरी काटीं बल।


जनुल ज्यून धरी अपणि लोक संस्कृति,

उनुल होरी झ्वड़ धौंश्याल खूब गहई बल।

चैता की चैतवाल में हर जग भूतेव जै हैरे,

बस नाचि नाचि बै अपणि संस्कृति बचा में बल।


मेरि इजल कौ पाँच दिनकि ढांकर है छि,

घरक बिसौण मर्चुल कें छि बल।

आज हर चीज घर कें फोन परि ऐ जां,

तुमु कें लै पत्तु हुनल सैब इहें फ्री होम डिलिवरी कनी बल।


जैललगा बल गौं में हौव दन्याव,

वल आजि लै रमकट कमर बांधि रै बल।

आज राति दौड़ में कुकुरा दघड़ि,

मलि सुणौ सैब इहैं मोरनिग वाक कनी बल।


उतरणी पंचमी शिबरात हर्याव,

द्याप्त, आस्था और समर्पण क भाव हूँ छि बल।

कोर्ट कछरि में मुकर्दम खूब चलि रई,

पर करवा चौथाकु बर्त जरूर लिण चहयुं बल।


नि जाइनु पहाड़ अब येती है गु,

कुड़ी गुठ्यारम त रिवाड़ पडि गो बल।

द्वी नाव में खुट धरि रौ जैनोई जु पिलखोई जु ,

हम उत्तरखंडी न अब प्रवासी है गौं बल।