सादर नमस्कार प्रिय मित्रों..
पिछले दिनों सड़को पर हमें बहुत कारुण दृश्य देखने को मिले.. ज़ब मजदूर लोग पैदल ही शहरों से अपने गांवों की ओर दौड़ पड़े... उन्ही मजबूरियों पर प्रस्तुत है मेरी यह रचना...
"करोना और कर्मवीर "
"इस 'कोरोना' की मार ने,हमें कर दिया है दर बदर,
राह में तो निकल पड़े , हम क्या पहुंच पाएंगे घर?
कीड़े पड़ें तुझे चाइना, दुश्मन हुआ मानव का तू,
ख़ौफ़ उस ईश्वर से खा, क्यों लग गये हैं तुझपे पर?
हर शय पे हाहाकार है, इंसान हिम्मत हार है,
ऐ खुदा बंदो पे अपने, कुछ रहम अब तू ही कर!
देश यह प्यारा मेरा था, विश्व में आगे खड़ा,
इसकी तरक्की को न जाने, लग गई किसकी नजर!
फैक्ट्रियां तो बंद हैं, रोटी हमारी छिन गई,
कोई नहीं अब जानता , कैसे चलेगा अपना घर!
जा तो रहे हैं गांव हम, कर दो प्रभू हम पर रहम,
उजली सुबह जल्दी से ला, फिर लौट जाएं हम शहर !
राह में तो निकल पड़े, हम क्या पंहुच पाएंगे घर?
राह में तो निकल पड़े, हम क्या पहुंच पाएंगे घर !!