गौं गौं की लोककला

ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला - 3

झैड़ (तल्ला ढांगू ) की लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार

ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला - 3

झैड़ (तल्ला ढांगू ) की लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार

ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला - 3

(चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती, श्री व जी अपरिहार्य नहीं है )

संकलन - भीष्म कुकरेती

झैड़ तल्ला ढांगू का एक महत्वपूर्ण गाँव है जो मैठाणियों का गाँव से अधिक जाना जाता है। झैड़ की पूर्व व पश्चिम उत्तर सीमाएं क्रमश: चंद्रभागा व गंगा नदियों से घिरी हैं व मंजोखी , चैनपुर, नांद , कोयला , खैड़ा सीमा पर लगे गांव हैं।

अन्य गढ़वाल क्षेत्र की भाँति (बाबुलकर द्वारा विभाजित ) झैड़ में भी निम्न कलाएं व शिल्प बीसवीं सदी अंत तक विद्यमान थे. अब अंतर् आता दिख रहा है।

अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ

ब - शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प

स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट, गूढ़ भाषा वाचन (अनका ये , कनका क, मनका म ललका ला =कमला , जैसे ) या अय्यारी भाषा आदि

द - जीवकोपार्जन की पेशेवर की व्यवसायिक कलाएं या शिल्प व जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें

अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ

झैड़ , ढांगू में संस्कृति व सब्सकारों संबंधी कलाएं कुछ आज भी हैं कुछ समाप्ति हो गयी हैं - बच्चों के जन्म ,नामकरण , वर्षफल , छट्टी , जनेऊ , चुड़कारम संस्कार , विवाह संस्कार में कर्मकांडी अंकन । जन्मपत्री , चौकी , चौक्ला , दिवार , पूजन , धूळि अर्घ्य , व विवाह कर्मकांड में विशेष कलाएं वा नाट्य मंचन। मृत्यु संस्कार में कई तरह की कलाओं का प्रदर्शन होता है। झैड़ , ढांगू में संस्कृति के अंतर्गत देवी देवताओं की मूर्तियां या प्रतीक निमर्ण या थर्पण ; मंदिर , क्षेत्रपाल देव; व्रत त्यौहार , उत्स्व , मेलों , लोक नृत्य व संगीत, लोक नाट्य , लोकअभिन्य , बच्चों के खेलने के उपकरण निर्माण या खेल, भित्ति चित्र , गोबर, कमेड़ा या मिटटी से लिपाई मिटटी /गोबर मूर्ति निर्माण व थर्पण , मुखौटे विशेषतः रामलीला या लोक नाट्य उत्स्व (बादी , बदण कृत ) ; पत्तों के उपकरण (जैसे पत्तल , पुड़की निर्माण ) जंतर मंतर व तांत्रिक क्रियाएं आदि कलाएं , शिल्प मुख्य थे ।

जहां तक झैड़ का पंडिताई , ज्योतिष , कर्मकांड से संबंध है झैड़ में हर परिवार से पंडित , ज्योतिषी व वैद्य हुए हैं जगतराम मैठाणी , अनसूया प्रसाद मैठाणी , सच्चिदानंद मैठाणी प्रसिद्ध वैद्य थे व लीला नंद मैठाणी। शाश्तार्थ भी होते थे ब्रिटिश काल में भी।

पंडिताई में जगतराम मैठाणी ,गोकुल देव मैठाणी , Janardan maithani , श्रीनन्द मैठाणी, नरोत्तम प्रसाद , शंभु प्रसाद व कई कर्मकांडी पंडितों ने व्यास वृति (भागवत पाठ - भक्तदर्शन मैठाणी , मधुसुधन मैठाणी ) में अच्छा नाम कमाया था।

ब - शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प

विवाह अवसरों में हल्दी हाथ समय , वर वधु को उबटन , हल्दी लगाना ; वर वधु को सजाना , मेंहदी (लाइकेन को पीसकर ) लगाना, पैरों में अल्टा लगाना; हाथ , कान , नाक , हाथ व पैरों व कमर में विभिन्न धातु या वनस्पति अलंकार पहनने व निर्माण की वृति झैड़ , ढांगू में भी थी व है। शरीर गोदने की प्रथा कम थी। वैष्णवी तिलक लगाना या शैव्य त्रिपुण्ड लगाना , माथे पर , सिंगाड़ व ढोल पर पिठाई लगाना भी आम कला प्रदर्शन है। आभूषण हेतु शरीर अंग वेधन सामन्य कला तो नहीं है किन्तु आम संस्कृति भाग है। मुख पर मेक अप बीसवीं सदी में झैड़ , ढांगू में दुर्लभ ही था। आँखों पर सुरमा लगाना भी सामन्य था।

स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट आदि

झैड़ ढांगू में मैठाणी जाति को पंडिताई प्राचीन समय में (प्रथम वर्ग के ब्राह्मण ) , सर्यूळ ( फौड़ या सामूहिक भोजन बनाना ), जंतर -मंतर , झाड़खंडी कार्य हेतु बसाया गया था। झैड़ के मैठाणी बिछला ढांगू व तल्ला ढांगू में सर्यूळ कार्य भी करते थे।

ब्रिटिश काल में तो स्कूलों का निर्माण शुरू हो गया था। किन्तु पहले मैठाणी पंडित अपने बच्चों को घर पर ही संस्कृत सिखाते थे व ज्योतिष ज्ञान , कर्मकांड ज्ञान भी सिखाते थे। इसी तरह झाड़खंडी विद्या भी सिखाते थे। सूचना मिली है कि कर्मकांड व ज्योतिष की टीका बहुत पहले गढ़वाली में ही होती थी।

जब ब्रिटिश सरकार ने स्कूल शुरू किये तो कर्मकांडी ब्राह्मणों को ही अध्यापकी वृति दी गयी थी तो अवश्य ही झैड़ के पंडितों को अध्यापकी वृति मिली होगी ही। यही कारण है कि झैड़ में आज भी अध्यपक वृति की ओर हर परिवार का रुझान है शायद ब्रिटिश काल से अब तक कम से कम 50 अध्यापक तो झैड़ से हुए ही होंगे। एक बार लोक कहावत थी कि झैड़ में पत्थर उठाओ तो अध्यापक व वैद्य मिल जायेंगे।

द - जीवकोपार्जन की पेशेवर की व्यवसायिक कलाएं या शिल्प व जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें

बीसवीं सदी में निम्न शिल्प व कलाकार झैड़ , ढांगू में प्रसिद्ध हुए (जो जानकारी हासिल हुयी ) -

यह ध्यान रहे कि ढांगू में जाती प्रथा ु तरह जकड़न वाली ना थी जैसे भारत के मैदानों में अतः कई शिल्प जो मैदानों में ब्राह्मण व राजपूत नहीं अपनाते थे गढ़वाल में ब्राह्मण व राजपूत भी कई तरह के शिल्प प्रवीण थे।

दन्न , पंखी निर्माण, कंबल निर्माण - रामशरण मैठाणी

पर्या , परोठी , बरोळी निर्माण - बलदेव प्रसाद मैठाणी

ब्वान( गढ़वाली नाम बबूल घास का झाड़ू ) - अधिकतर हरेक परिवार स्वयं निर्माण करता था व कौंदा की मूळी माई व झैड़ इ ही शिल्पकारजैसे झाबा , भादु आदि निर्माण करते थे।

हळ -ज्यू - बहुत से मैठाणी व शिलकपकार शिल्पी

बढ़ई गिरी (मकान व अन्य विशेष काष्ठ वस्तुतएं - मूसा , भादु

भ्यूंळ की टोकरी , दबल तो हरेक परिवार स्वयं निर्मित करता था व इसी तरह कई शिल्प जैसे न्यार , चारपाई आदि वस्तुएं भी हर परिवार स्वयं इंतजाम करता था।

बांस के दबल , सूप , टोकरी , कंडी - दुसरे गाँव काटळ (बिछली ढांगू ) के थामेश्वर और झैड़ के आत्माराम मैठाणी। मंजोखि के शिल्पकार भी कई कार्य करते थे।

मकान निर्माण - झैड़ के भादु , हन्दा , झाबा आदि मंजोखी (बिछला ढांगू ) के कई शिल्प विशेषज्ञ झैड़ आकर मकान निर्माण करते थे।

छत पत्थर खनन व पत्थर कटान - मकान छत हेतु पटाळ (पत्थर ) खान झैड़ में ही थी व झैड़ के जतनी विशेषज्ञ थे।

उरख्यळ /ओखली , छज्जे के दास - ठंठोली गांव (मल्ला ढांगू ) पर निर्भर

छज्जा -पैडळस्यूं पर निर्भर

सोने चांदी के अलंकार हेतु झैड़ वाले जसपुर , पाली (मल्ला ढांगू ) पर अधिक निर्भर थे

झैड़ में लोहार भी थे किन्तु बड़ा काम बाहर ही होता था। पीतल , कांसे वर्त्तन या घांडी हेतु जसपुर पर निर्भर।

तांत्रिक , मांत्रिक , झाड़खंडी - गोकुलदेव मैठाणी , रामसरण मैठाणी , महानंद मैठाणी प्रसिद्ध थे।

घड्यळ /जागरी में गोकुलदेव मैठाणी , उरबी दत्त मैठाणी , ललिता प्रसाद मैठाणी, नाथूराम मैठाणी का नाम आज भी लिया जाता है.

नाथूराम मैठाणी व गोकुलदेव मैठाणी पुछेर /भविष्यवक्ता थे ,

नाथूराम मैठाणी नरसिंग जागर विशेषज्ञ थे।

हर परिवार गेंहू की टहनियों से टोकरी बनाते थे।

गंगा किनारे होने व घने जंगल निकट के कारण तैराकी , मच्छी मारना , मुर्गा फांसना, आखेट मनोरंजन कलाये सम्मलित थीं।

झैड़ में काष्ठ नकासियुक्त तिबारियां व पत्थर की तिबारियां भी थी जैसे भोला दत्त (गोकुलदेव , गोविंदराम मैठाणी ) की तिबारी। यह मकान मिट्टी के साथ उरद के मस्यटू (पीठ ) से भी चिना गया था।

भोला दत्त मैठाणी , चित्रमणि मैठाणी मकान की भी काष्ठ कलाओं सज्जित तिबारियां थीं जिसमे शहतीर (जो छत को बंधे रखता था में कई देवताओं जैसे गणेश व नजर न लगने वाला तांत्रिक आकृति , पशु पक्षी (हाथी , शेर , मोर , मिरग ) , फूल पत्ती (खड़े सिंगाड़ में कमल फूल व रेखा चित्र) दोहरी रेखाएं , कलस आकृति , गोल आकर आदि (सभी देवेंद्र मैठाणी सूचना अनुसार ) , थीं

बादी -बादण - बिजनी तल्ला ढांगू के हीरा बादी प्रसिद्ध थे। हीरा बादी लांग खेलते थे व नाटक स्वांग , गायन नाच का कार्य बखूबी करते थे।

ढोल बादक - दाबड़ (बिछला ढांगू ) के पीतांबर दास आदि आज इनके उत्तराधिकारी यह कार्य संभाले हुए हैं।

गोठ संस्कृति न होने से टाट -पल्ल कला नहीं थी।

तेल पिरोने हेतु पहले झैड़ में ही कुल्हड़ थे किन्तु बाद में नांद , कुला खैड़ा पर निर्भर थे।

जब तक सिंगटाळी पुल नहीं निर्मित हुआ था तो गंगा पार करने हेतु नाव चलती थीं किन्तु नाव या ठोपरी निर्माण व मल्लाह सिंगटाळी (टिहरी गढ़वाल ) के शिल्पी होते थे

प्राचीन काल में दीवारों की लिपाई हेतु लाल मिट्टी , गोबर व कमेड़ा प्रयोग होता था , प्रत्येक महिला पारंगत होती थी

भीड़ -पगार (खेतों की दीवारें ) हर व्यक्ति अपने आप चिनता था व बड़े कार्य हेतु व्यवसायिक शिल्पी (जाति भेद नहीं ) काम आते थे।

प्राचीन काल याने ब्रिटिश काल तक खेत जंगल को काटकर याने 'कटळ -खणन' विधि द्वारा तैयार किये जाते थे।

मेरे अनुभव में कविता अंताक्षरी के अच्छे ज्ञाता - मोहन लाल मैठाणी , व राजेंद्र मैठाणी थे तो देवन्द्र मैठाणी भी अच्छे कविता अंताक्षरी ज्ञाता थें

स्त्रियां गाएत मौसम में नाच गान करती थीं व स्वांग भी करते थे तथा वन व खेतों में गीत भी गातीं थीं। पहेलियाँ भी पूछीं जाती थीं।

(संदर्भ देवेंद्र मैठाणी (भू पू पोस्ट मास्टर ) की टेलीफोनिक सूचना )

Copyright @ Bhiashma Kukreti ,Dec . 2019