गढ़वाल में प्राचीन जातियाँ

शिव, उमा (नंदा), यक्ष, नाग, गंगा और न जाने कितने देवी-देवता, तीर्थ और धार्मिक भावनाएँ हमें अपने पूर्वजों से मिली हैं जो आर्यों के आने से पूर्व इस देश में बसे थे। (उत्तराखंड यात्रा दर्शन- शिव प्रसाद डबराल) राहुल सांकृत्यायन के अनुसार गढ़वाल की प्राचीन जातियों में कोल, किरात, पुलिंद, तंगण तथा खस प्रमुख हैं। केदार खस मण्डल से पूर्व किरात मण्डल था। किरात से भी प्राचीन यहां कोल जाति को माना जाता है। किरात मूल रूप में घुमंतू पशुचारक थे। महाभारत के वन पर्व 140:25 में यहां किरात, तंगण, पुलिंद जातियों का पाण्डवों की बदरिकाश्रम यात्रा के समय यहां रहने का वर्णन है। कश्यप संहिता में यमनोत्तरी घाटी, कलिंगड़ा, बैजनाथ आदि स्थानों में इनके गढ़ों का उल्लेख है।

प्राचीन काल में कोल जाति आखेट और कंद, मूल, फल आदि से अपना निर्वाह करती थी। पूर्व की ओर से लघु हिमालय के ढालों पर पशुचारण करती हुई किरात जाति ने हिमालय प्रदेश में प्रवेश किया था। धीरे-धीरे कोल जाति को बीहड़ क्षेत्रों की ओर धकेल कर या आत्मसात् कर यह जाति असम से नेपाल, कुमाऊँ, कांगड़ा होती हुई स्पीति, लाहुल और लद्दाख तक फैल गई। (उत्तराखंड का इतिहास- डबराल)

केदारखण्ड 206:4-5 में वर्णित है कि किरात जाति के लोग काले कंबल पहनते थे तथा धनुष-बाण लिए आखेट करते थे। महाभारत वन पर्व अध्याय-36 में उल्लेख है कि शिव ने किरात के वेष में अर्जुन से युद्ध किया था। शिव प्रसाद डबराल जी 'केदार' शब्द की उत्पत्ति उन अनगढ़ शिलाओं व शिखरों जहां शिव रहते हैं, से मानते हैं। किरात जाति को मंगोलों से सम्बन्धित माना जाता है। मंगोलों के समान वे चपटी मुखाकृति, चपटा भाल, पिचकी तथा छोटी नाक, कम मूंछ-दाढ़ी, हृष्ट-पुष्ट पीले या गेहुएँ रंग के होते हैं।

रामायण व महाभारत में इन प्राचीन जातियों का उल्लेख इस पर्वतीय क्षेत्र में होने से निश्चय ही ये जातियाँ महाकाव्य काल से पूर्व भी यहां निवास करती रही होंगी। इस क्षेत्र में मानव कब अस्तित्व में आया, इतिहास में स्पष्ट नहीं है। फिर भी अनुमान लगाया जा सकता है कि हिमालय में मानव का अस्तित्व काफी प्राचीन काल से है।

(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल, वर्ष- 2002)