गढ़वाल की ऐतिहसिक पृष्ठभूमि

साहित्यिक साक्ष्यों के अभाव में इस क्षेत्र के मंदिर, मूर्तियाँ, शिलालेख, त्रिशूल, ताम्रपत्र, स्मारक, मुद्राएं तथा अन्य प्राचीन कलाकृतियों से ही यहां के अतीत का पता चल सकता है। यहां के अधिकांश मंदिर छठी सदी से सोलहवीं सदी के बीच बने माने जाते हैं। मंदिरों की मूर्तियाँ मंदिरों से भी प्रचीन हैं। मंदिरों का प्राकृतिक आपदाओं से क्षतिग्रस्त हो जाने के कारण समय-समय पर जीर्णोद्धार हुआ है। आध्यात्मिक साधना की प्रतीति कराते यहां के प्राचीन मंदिर, दुर्लभ शिल्प का जादू बिखेरती मूर्तिकला तथा इतिहास उकेरते अभिलेख गढ़वाल की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर हैं। मंदिरों के सम्बन्ध में मान्यता है कि इन्हें आदिगुरु शंकराचार्य की प्रेरणा से बनवाया या प्राचीन क्षतिग्रस्त मंदिरों का जीर्णोद्धार किया गया है। यह एक अति महत्वपूर्ण शोध का विषय है कि इन भव्य मंदिरों एवं दुर्लभ मूर्तियों के शिल्पी, जिन्होंने अपना नाम, स्थान, अस्तित्व कुछ भी प्रकट होने नहीं दिया, आखिर कौन थे?

केरारखण्ड में उल्लेख है कि यह क्षेत्र शिव की क्रीड़ास्थली रही है यहां के अधिकांश शिव मंदिर इस बात की पुष्टि करते हैं। प्रमुख शिव मंदिरों में हिमालय का विशाल एवं प्राचीन मंदिर केदारनाथ, तुंगनाथ, मद्महेश्वर, (रुद्रनाथ एवं कल्पनाथ गुफा में), गोपीनाथ मंदिर गोपेश्वर, ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ, ज्योतिरीश्वर मंदिर जोशीमठ, कमलेश्वर मंदिर श्रीनगर गढ़वाल, भिल्ल केदार या बिल्व केदार, एकेश्वर, ताड़ासर, विनसर, कालेश्वर, किलकिलेश्वर, ऋषिकेश के पास नीलकंठ तथा देहरादून के यमुना रिखनाड़ पर लाखामंडल, उत्तरकाशी का विश्वनाथ मंदिर, हनोल का महासू देवता, टिहरी में बूढ़ा केदार, नलेश्वर आदि मंदिर हैं।

इसके अलावा आदिबदरी मंदिर समूह, बदरीनाथ मंदिर, ध्यान बदरी उर्गम, योग बदरी पांडुकेश्वर, अनुसूया मंदिर, सूर्य मंदिर पलेठी, यमुना घाटी में धरसाली का सोमेश्वर मंदिर, गंगाणी मंदिर, गुप्तकाशी के पास नारायणकोटी मंदिर समूह आज भी हिंदू आस्था की स्मृति संजोए हैं। सन 1882 में एटकिंसन ने हिमालयन गजेटियर भाग-2 में गढ़वाल में 350 शिव मंदिर, 61 वैष्णव मंदिर, 65 नागराजा मंदिर, 130 नागराजा मंदिर, 130 शक्ति मंदिर, 42 काली मंदिर होने की बात लिखी है।

देवमूर्तियों का निर्माण तथा उनके दर्शनों की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। उत्तर भारत के इतिहास में चौथी सदी से बारहवीं सदी तक का समय मंदिरों के निर्माण का युग रहा है। यह परम्परा सत्रहवीं सदी के मध्य तक भी थोड़ा-बहुत चलती रही और मंदिरों के विध्वंस का सिलसिला भी चला। कई मूर्तियों को गैर सनातनी धर्मावलम्बियों द्वारा तोड़ा गया। यहां के मंदिरों में रखी मूर्तियों के सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि- 'ऐसी भाव-भंगिमाओं को कागज पर भी अंकित करना कठिन है, उन्हें पाषाण पर मूर्ति रूप देना यहां के कलाकारों के आश्चर्यजनक कलाकौशल को व्यक्त करता है।

यहां के इतिहास के मुँह बोलते चित्र गोपेश्वर की चतुर्भुज लिंग मूर्ति, वीणाधर नटराज मूर्ति, बुद्ध प्रतिमा, ऊखीमठ ओंकारेश्वर मंदिर में मान्धाता, अनिरुद्ध, ऊषा, द्विभुज सूर्य मूर्ति, मुखलिंग, नटराज की पाषाण मूर्ति, कालीमठ की हर-गौरी मूर्ति, महिषमर्दिनी, गणेश प्रतिमा, रुद्रनाथ की अनंतशायी नारायण प्रतिमा, जोशीमठ वासुदेव मंदिर की वासुदेव मूर्ति, विष्णु त्रिविक्रम मूर्ति, हर-गौरी मूर्ति, गणेश प्रतिमा, नृसिंह मंदिर में नृसिंह मूर्ति, आदिबदरी की नारायण मूर्ति, रांयकुल की हर-गौरी मूर्ति, विलेश्वर मंदिर में उमा-महेश्वर मूर्ति, विनसर की एकमुख लिंग मूर्ति, वक्रतुण्ड गणपति, पलेठी की सूर्य मूर्ति आदि सैकड़ों दुर्लभ पाषाण प्रतिमाएँ अस्तव्यस्त एवं असुरक्षित पड़ी हैं।

गढ़वाल के अतीत का बखान करते यहां के अभिलेख छठी सदी बाद के ही मिलते हैं। प्रमुख अभिलेखों में गोपेश्वर का त्रिशूलाभिलेख, पांडुकेश्वर में ललितशूर पद्मदेव, सुभिक्षराज का ताम्रशासन, सिरोली में नरवर्मन का चट्टान अभिलेख, केदारनाथ मंदिर गर्भगृह के भित्ति लेख, उत्तरकाशी में गुह का त्रिशूलाभिलेख, कनकपाल का चाँदपुर गढ़ शिलालेख, लाखामंडल में ईश्वरा का शिलाभिलेख तथा यहां उपलब्ध प्राचीन मुद्राएँ आदि यहां की संस्कृति एवं इतिहास की प्रामाणिकता प्रस्तुत करते हैं।

गढ़वाल के कुछ मंदिर पुरातत्व विभाग के संरक्षण में तथा कुछ देस्थानम बोर्ड व मंदिर समिति के अंतर्गत और शेष स्थानीय समितियों, पुजारियों और ग्रामीणों के संरक्षण में हैं। अधिकांश मंदिरों की दुर्लभ मूर्तियाँ कमजोर संरक्षण के कारण चोरी हो गई हैं।

(साभार- गढ़वाल हिमालय-रमाकान्त बेंजवाल, वर्ष 2002) फोटो- इंटरनेट