गढ़वाल में प्राचीन जातियाँ

भाग-7


गढ़वाल में शंकराचार्य का आगमन

शंकराचार्य काल के बारे में विद्वान एकमत नहीं हैं।

कलौगते त्रिसाहस्रे वर्षाणां शंकरो यति:।

बौद्ध मीमांसकिमतं जेतुमाविर्बभूवह।

कलियुग के तीन हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर बौद्ध धर्म का विध्वंस करने वाले शंकर का जन्म होगा। आदिगुरु शंकराचार्य का आविर्भाव, उनके जीवन चरित्र तथा धार्मिक दिग्विजय का विस्तृत वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है। पुराणों में भी शंकर यति के जीवन की ओर संकेत मिलते हैं। मार्कण्डेय पुराण, स्कंदपुराण, कूर्म पुराण, सौर पुराण व शिव रहस्य में शंकर के साक्षात् शिवजी का अवतार होने के संकेत मिलते हैं। इन ग्रंथों में इन्हें ब्रह्मसूत्र का भाष्यकार भी माना गया है। (बदरीनाथ धाम दर्पण- शिवराज सिंह रावत, पृ० 108)

वर्तमान में अधिकांश विद्वान आदिगुरु शंकराचार्य का जन्म 788 ई० में दक्षिण मालावर के कालटी (कालड़ी) नामक ग्राम में मानते हैं। इनके पिता का नाम शिव गुरु तथा माता का नाम सती था। एक ग्रंथ का उद्धरण देकर पं० हरिकृष्ण रतूड़ी लिखते हैं कि शंकराचार्य 11 वर्ष की अवस्था में बदरिकाश्रम चले आये थे। पांच वर्ष बदरीवन में निवास कर इन्होंने यहां वेदों पर 16 भाष्य लिखे तथा ज्योतिर्मठ की स्थापना की। वे आठ वर्ष की अवस्था में चतुर्वेदी और बारह वर्ष की आयु में सर्वशास्त्र संपन्न हो चुके थे। उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था में भाष्य लिखे तथा 32 वर्ष में उनका देहावसान हो गया था। (गढ़वाल का इतिहास- रेहड़ी, पृ० 129-30)

शंकराचार्य के काल में भिन्नता का कारण इतिहास में एक से अधिक शंकराचार्यों का होना है। आदि शंकराचार्य एवं आदि गुरु शंकराचार्य अलग-अलग थे। शंकराचार्य, व्यास व कालिदास पदवी के रूप में विभूषित किए जाते थे। आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए चार मठों की स्थापना कर शिष्य परंपरा डाली थी तथा वे आदिगुरु के नाम से जाने गए। आदिगुरु का काल 8वीं-9वीं सदी के आसपास था। आदिगुरु से पूर्व भी शंकराचार्य हुए। आदिगुरु के पश्चात् भी चारों मठों (शारदा, गोवर्धन, ज्योतिर्मठ व शृंगेरीमठ) के मठाधीशों को शंकराचार्य ही कहा जाता है।

माना जाता है कि इस पर्वतीय क्षेत्र में भी बौद्धमत का कुछ प्रचार-प्रसार होने तथा बदरीनारायण की मूर्ति को वहीं नारदकुण्ड में फेंके जाने की सूचना से शंकराचार्य ने नारदकुंड की मूर्ति को निकालकर भगवान बदरीनारायण की पुनर्स्थापना की थी। श्रीनगर गढ़वाल में भी श्रीयंत्र पर नरबलि होते देखकर उन्होंने इस प्रथा को बंद करवाया था। (गढ़वाल एनशिऐंट एंड माॅडर्न- पातीराम, पृ० 157-58)

सनातन धर्म की रक्षा के लिए आदिगुरु ने चारों पीठों में शंकराचार्य अभिषिक्त किए थे। ज्योतिर्मठ में त्रोटकाचार्य को शंकराचार्य विभूषित किया था। इन मठों को अनुशासित करने के लिए उन्होंने महानुशासन तथा मठाम्नाय नाम से दो ग्रंथों की रचना की थी। ज्योतिर्मठ के आचार्य ही भगवान बदरीनारायण के प्रधान अर्चक हुआ करते थे। मान्यता है कि आदिगुरु ने 32 वर्ष की आयु में केदारनाथ में अपना शरीर त्यागा था। केदारनाथ मंदिर के पास वह स्थान वर्ष 2013 में आई आपदा में नष्ट हो गया। पुन: उस स्थल का पुनर्निर्माण किया जा रहा है।

(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल)