रूचि बहुगुणा उनियाल

एक रचना ___

तुम्हें प्रेम किया

तो कृष्ण बना कर रख लिया

मन मंदिर में

सारी सृष्टि भूलकर

स्वयं को मीरा कर लिया

संसार के सब भौतिक सुख

गौण लगने लगे!

मन के इकतारे पर

केवल बाँसुरी

की धुन गुंजित होने लगी!

कदाचित् प्रेम स्व को भूलकर

दूसरे को स्मरण

रखने की प्रक्रिया होती है

जहाँ अपना

अस्तित्व भुलाकर

प्रेम की चिर प्रज्जवलित दीपशिखा में

एक प्रकाश पुंज में

हम विलय हो जाते हैं!

मान और अपमान को भूलकर

मात्र प्रेम को

अपना धर्म बनाया है!

तुम हृद मंदिर में

प्रतिस्थापित देव हुए

ईश्वर प्रेम पगे

मन में वास करते हैं न!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२७_११_२०१९

उलाहना___

शायद तुम नहीं जानते

जितनी बार तुम मुझे

और मेरे

निश्छल मन को

ठगते गये

मेरे अंदर तुम

मुझे ही खत्म करते गये

छटपटाहट के बावजूद

होंठों पर

तुम्हारे लिए केवल

दुआओं का होना

मेरे सच्चे प्यार

और निष्कपट मन

का सबूत था

देखो कितने

खास थे तुम!

चुपके से छल करता

तुम्हारा ठग व्यवहार

और बार _बार

धोखा खाकर

क़तरा _क़तरा

मरती मेरी मोहब्बत

विश्वास की डोर

का आखिरी सिरा

पकड़कर खुद को बचाने

की नाकाम कोशिश

करती मेरी उम्मीद

उफ़्फ कैसा अनसुलझा

अनकहा था वो दर्द!

चलो…….

कुछ अल्फाज़ों का

सहारा लेकर

अब उलाहनों की

शक़्ल में रख

रही हूँ तुम्हारे लिए

ताकि तब तुम्हें सहारा मिले

जब शायद कभी तुम्हारे साथ भी

ऐसा कुछ बीते!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२५_११_२०१९

वह पुरूष है -

वह पुरूष है

कैसे दिखाए अपनी पीड़ा

इसलिए मौन रहता है

आरोप सहता है

कि उसमें भावनाएँ नहीं हैं!

वह पुरूष है

प्यार भी करे तो

संदेह के घेरे में रहता है

प्यार और स्नेह

के लिए ताने सुनता है

इसलिए निष्ठुर बने रहने का

भ्रम फैलाता है!

पत्नी, बेटी, बहन, माँ को

रख सके सुरक्षित हर परिस्थिति में

इसलिए खुद को

होम करता है

वह पुरूष है

हृदय में रखता है वेदना

बेटी, बहन की विदाई की

लेकिन कभी आँखें

नम नहीं होने देता!

क्रमशः........

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१९_११_२०१९

आप सभी को अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस की शुभकामनाएं 😊💐

एक रचना __

किसी रोज़

तुम अपनी जटाओं में

बांध लेना मुझे

जैसे कि रहती है गंगा

शिव की जटाओं में!


या सजा लेना

मुझे बांसुरी की तरह

अपने सुमधुर होंठों पर

छेड़ देना

कोई मीठी धुन!


ऐसा करना कि मुझे

मुक्त कर देना

कभी खोल कर

जटाएं अपनी

भेज देना मुझे

श्वेतालय में

बना कर निर्झर

निर्मल,, भागीरथी

स्वयं हो जाना

काशी विश्वनाथ!


बहा देना

एक तान बहती हुई हवा में

और रचना एक

नया सुर

बन जाना तुम कृष्ण!


लिख देना तुम मुझे

जैसे कि लिखी गयी हैं

ऋचाएँ वेदों में

और रख देना

शब्दों में बांधकर मुझे

अपने पास

या फिर रच लेना

नये श्लोक

और लिखना नये अर्थों की

गीता!


ऐसा करना

कि रख लेना मुझे

अँजुरी भर गंगाजल में

और कर देना

पावन अपने तन मन का

कोना _कोना!


मुझे देना तुम

नये आयाम

अक्षर_ अक्षर में

स्वरों की अनुगूंज में

किसी कविता के

अनुबंध रहित

छंद में तुम

और लिखना

प्रेम का स्वर्णिम साहित्य!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१५_११_२०१९

गली के कोने में खेल रहे हैं

गली के कोने में खेल रहे हैं

हमउम्र दो प्यारे बच्चे

फटेहाल भी राजा जैसे

लगते हैं ये प्यारे बच्चे

जेब फटी जो, धूप है भरती

इनकी मस्ती, चिंता हरती

खेलें टूटे गुड्डों से ये

देते हैं दुःख को भी गच्चे

गली के कोने में खेल रहे हैं

हमउम्र दो प्यारे बच्चे…..

खेल खिलौने, इनके न्यारे

किसी भी डर से, कभी न हारे

द्वेष भाव से, दूर ही रहते

देखो मन के, कितने सच्चे!

गली के कोने में खेल रहे हैं

हमउम्र दो प्यारे बच्चे……..

अभी ये हंसते, अभी ये रोयें

इनका ये बचपन, ना खोये

मुँह में पानी, भर जाए जैसे

डाल से लटके, आम हों कच्चे

गली के कोने में खेल रहे हैं

हमउम्र दो प्यारे बच्चे

फटेहाल भी राजा जैसे

लगते हैं ये प्यारे बच्चे!

(बाल दिवस की बधाई सभी को,, अपने मन में बच्चा बचाए रखना😊)

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१४_११_२०१९

बस यूँ ही _

ऐसा करो कि मुझे

किताब की तरह

पढ़ना शुरू कर दो!

और जब पढ़ते हुए

थक जाओ

तो वैसे ही रख लेना

अपने सीने पर

जैसे रखते हो अपनी किताब!

अब मैं आराम से

सोना चाहती हूँ

तुम्हारे सीने में

मुँह छिपाकर!

कुछ ज़ियादा तो

नहीं मांगा न???!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१३_११_२०१९

प्यार का गणित

प्यार का गणित

और अनाड़ी मैं!

तुम्हारे आने के पहले भी

मैं एक थी

तुमसे मिलकर

जब खुद को तुमसे जोड़ा

तब भी…..

दो की जगह एक ही रही

तुम्हारे जाने के बाद

खुद को घटाया तो

ना जाने क्यों

सिफ़र हो गयी?

क्या करूँ

बहुत पेचीदा है

इश़्क का हिसाब

समझ ही नहीं आता!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _११_११_२०१९

तुम्हें प्यार करने के

तुम्हें प्यार करने के

सिलसिले में

धीरे-धीरे मैं

खुद को

सिफ़र करती रही!


आजकल रिसते हुए

उघड़ आए ख़ाली

वज़ूद को

सर्दियों से बचा सकूँ

इसलिए कर रही हूँ

रफू ख़ुद को!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक __१०_११_२०१९


जब तुम्हें थी,, जरूरत…

उलाहना ___

जब तुम्हें थी,,

जरूरत…

एक कंधे की

जिसपर सर रख के

अपनी सारी परेशानियों

को भूल सको तुम

तब आये

तुम मेरे पास!

जब तुमने चाही

मोहलत….!

अपनी उलझनों से

तब ली तुमने

मेरी काकुलों की

पनाह!

कभी-कभी जब

रो लेना चाहते थे तुम

फूट _फूटकर

और बहा देना चाहते थे

सारे दर्द को

आँसुओं में ढालकर

तब तुमने

मोतियों सा पिरोकर

रखने के लिए अपने

आँसुओं को

चुना मेरा रेशमी

आँचल….!

और जब जरूरत थी

तुम्हें दुआओं की

और चाहे तुमने

अपनी नाकामियों के लिए

मन्नतों के धागे

तब तुमने छलने

के लिए चुना

मेरा प्यार!

अब मतलब का

रिश्ता पूरा हुआ

और आज़ाद हो तुम

फिर से

ताकि छल सको

और कोई मन

जो हो इतना ही साफ

निर्मल

और पवित्र!

लेकिन याद रखो

कि ऊपरवाला

अच्छे लोगों को

बार _बार

हमारे पास नहीं भेजता

इसलिए इस बार

छल छोड़ कर

मन से करना प्यार!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०६_११_२०१९

मैंने प्रेम को ईश्वर मान लिया

एक रचना __

मैंने प्रेम को ईश्वर मान लिया

और शब्दों को

समिधा!

जब प्रेम की आराधना

करनी चाही

तो कविता को रचा

और छंदों

व अलंकारों को

बनाया आहुति

लेखनी से रचा

एक वृहद हवन कुंड

और स्वयं को

भक्त सा समर्पित कर दिया

जो मात्र

करे भक्ति और

समर्पण!

जिसे ईश्वर स्वयं

जैसे चाहे वैसी स्थिति में

रखे परन्तु वह

भक्ति से न डिगे कदापि

व्याकरण और

भाषा से इतर

रची गई ये कविताएँ

पूर्ण रूप से सच्ची

कविताएँ थीं!

छद्म आवरणों से

अभिशापित संसार के

दुष्चक्र से

मुक्ति का मार्ग बनीं ये

वैतरणी स्वरूप रचनाएँ!

जिनसे मुझे प्रेम रूपी

ईश्वर का साक्षात्कार हुआ!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०४_११_२०१९

मन कितना उर्वर है न

एक रचना __

मन कितना उर्वर है न

आशाओं के उर्वरक से

उपजती हैं

स्मृतियों की फसलें

बनाता है सुख_दुःख

की वीथिकाएँ

कभी अश्रुधारा से तो

कभी मुस्कान की धूप से

सींचता है स्मृतियों की

नन्हीं पौध को

जब आती है निराशा

और एकांत की

पतझड़ सी ऋतु

तब मन करता है

पीड़ा के खरपतवार

को अलग आशा की

नन्हीं फौज से!

मन बचाकर रखता है

स्मृतियों की पोटली

ताकि समय जब कभी

मन का मौसम उदास करे

तब अंतर में फैलते हुए

मरूस्थल और उगती

नागफनियों को

मधुरिम् स्मृतियों की

पौध लगाकर फिर से

मन की बसंत ऋतु के

रूप में ढाल ले!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०१_११_२०१९

कितनी ही बार

बस यूँ ही __

कितनी ही बार

जब मैं लिख रही होती थी

कविताएँ तुम्हारे लिए

या पढ़ती रहती थी

कुछ पसंदीदा किताबों को

तुम चुपचाप

मेरी कुर्सी के पीछे से

आकर लिख जाते थे

मेरी पीठ पर कविताएँ

अपनी ख़ामोशी से

और मैं उनमें

कितने गहरे अर्थ

अक्सर ही ढूंढ लेती थी

अब भी कभी _कभी

पैरों में बँधी पायल में

उन कविताओं के

स्वर सुनाई दे जाते हैं !

जानते हो?

बिना किसी शब्द

के सहारे भी

वो विश्व की

सबसे बेहतरीन

कविताएँ हुआ करती थीं!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२४_१०_२०१९

आज घर आ रही है न?

जन्मदिन पर कुछ तो है जो कहना चाहती हूँ _

आज घर आ रही है न?

तुम दोनों का वर्षफल पूजन

साथ में करवा लूँगा!

उफ़्फ!..... क्या कहूँ

कितनी ही दुआएं मिलीं

बस आपका…..

"कितने साल दबाए?

काँख के नीचे!"

और फिर

जोर का ठहाका!

सुनने नहीं मिला!

जब भी जन्मदिन

आने वाला हो

आपकी रोजाना की

दो कॉल की जगह

तीन हो जाती थीं

"बेटा तू मेरे पास आ जा"

नहीं सुन पायी इस वर्ष

और आगे कभी

नहीं सुन पाऊँगी

जानती हूँ मैं!

पता है?......

सुबह से शाम हो गयी

लेकिन मुझे

किसी भी आवाज़ में

आपका प्यार नहीं मिला

और बस यही वजह है

कि मैं बेचैन हूँ

जन्मदिन पर भी!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक_ १८_१०_२०१९

चलो एक करार तो हुआ

उलाहना ___

चलो एक करार तो हुआ

मेरे तुम्हारे बीच

चुप्पियों का!

तुम्हें हमेशा से शिकायत थी न

कि मैं बहुत बोलती हूँ

जब मैं खामोश हो गयी

तब तुमने लिखा

एक ख़त!

मेरी ख़ामोशियों के नाम

और लिखी तुमने

उस ख़त में

मेरी चुप्पी!

क्या इतनी जरूरी थी

मेरी बातें?

लेकिन वो सब तो

बेमतलब हुआ करती थीं न

फिर क्यों लिखते हो?

दुनिया के सबसे समझदार

लोगों ने पढ़ा उस ख़त को

और उसमें महसूस किया

मेरे तुम्हारे बीच पसरी

चुप्पी को!

किसी _किसी को

नज़र आया उसमें

तुम्हारा दिया

मनगढ़ंत दिलासा

लौट आने का

और किसी_किसी

को मिली

तुम्हारे इंतिज़ार में

मेरी बेइंतहाँ तड़प!

कहीं कहीं ढूंढ लिए गये

मेरे नादान कच्चे सवालों पर

तुम्हारे पक्के झूठ!

सुनो तुम्हें ख़त

लिखना नहीं आता!

अल्फाज़ों को सलीक़े से

परोसने का हुनर

वो भी काग़ज़ की पीठ पर

तुम नहीं जानते

शायद इसीलिए

दुनिया ने वो भी पढ़ा

जो तुमने छुपाना चाहा था!

अरे......... !

लिखी गयी इन बातों में

अब फिर से

लोग पढ़ लेंगे

कि तुम्हें तो मन से

प्यार करना भी

नहीं आता न!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१२_१०_२०१९

कुछ बेपता ख़त

उलाहना __

कुछ बेपता ख़त

जिनमें लिखी गयी हैं

ज़माने भर की

तोहमतें!

रखे _रखे स्टडी टेबल

के दराज़ में

मारे बौखलाहट के

अधमरे और

अधमुंदे से

या क़े

ज़रा ज़ियादा ही

उदासी से पीले पड़

चुके हैं,,

तुम तक पहुँचने

की हसरत लिये!

उनमें लिखी

सारी शिकायतें

जिनकी कभी

सुनवाई न हो सकी!

बस तुम्हारे नाम

लिखी गयी थीं!

उफ़्फ!

तुम और तुम्हारी

ये ख़ानाबदोश आदतें…..

मेरे लंबे इंतिज़ार

का सबब बन

ख़तों की शक़्ल

में क़ैद होके

आज भी दराज़ से

बाहर छिटक पड़ने

की हसरत रखते हैं!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _८_१०_२०१९

कितने उदास लिफाफे

एक रचना की कुछ पंक्तियां __

कितने उदास लिफाफे

तरसते डाक टिकट

काश!

लौट आता वो ज़माना

जब लिफाफों में

भेजी जाती थीं

शिक़ायतें

जल्दी घर न लौटने की!

जब राखी पर करता था

जवान सीमा पर

इंतिज़ार राखी के साथ

रखी सियाही में पिरोए

शब्दों में लिपटी

हज़ारों दुआओं का!

जब महकते थे

डाकिये के हाथ

प्यार की खुशबू लिए

ख़तों के छूने पर!

कितनी ही बार होता था

उन चिठ्ठियों में

एक उलाहना

कभी कभी होती थीं

उछलकर चीख पड़ने की

खुशी सहेजे

कुछ खुशखबरीयाँ!

क्रमशः........

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०५_१०_२०१९

देखो मेरे पास है वो

एक रचना _

देखो मेरे पास है वो

रेशमी कागज़

जिसे दुनिया में

कोई कभी नहीं ढूंढ पाया

क्योंकि कागज़

कभी रेशमी नहीं हुआ करते

लेकिन जिस भी पन्ने पर

मैं हमारी प्यार की

क्षणिकाएं लिखती

वो अपने आप

रेशमी हो जाता!

ऐसे ही अब तक

ना जाने कितने ही

रेशमी काग़ज़ों की

दौलत इकट्ठा कर चुकी हूँ

मेरे पास दुनिया के

सबसे कंटीले कागज़ भी हैं !

सोच रहे हो न

कि कागज़ और कंटीला?

जितनी यादें भी

हमारे प्यार में आँसुओं में

डूबी हुयी थी

वो सब

काग़ज़ों पर उतरते ही

काँटों में बदल गयीं!

इस तरह से

मेरी नाजुक ऊँगलियां

लहुलुहान हो गयी

हर दफ़ा उनसे गुजरते हुए

प्यार में ऐसे तजुर्बे

बहुत मुश्किल से मिलते हैं न!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _३०_०९_२०१९

विश्वास ____


मेरा हाथ अपने

हाथों में लेकर

रख दिया था

आपने अपना

पूरा संसार मेरी

इन दो काँपती

हथेलियों में

उस छुअन के

साथ ही

मैं महसूस करती हूँ

आपका अनकहा

…… विश्वास…….!

जो हमारे संबंध

की मजबूत नींव है!

जब भी थोड़ा सा

रीत जाती हूँ

दुनिया जहान के

झंझटों में उलझकर

तो भर लेती हूँ

वो रीतापन

आपके दिये हुए

विश्वास की गर्माहट से!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२३_०९_२०१९

आपका प्यार

एक रचना ___

आपका प्यार

बस चार शब्दों में ही

तुम ठीक हो न?

और मेरा?

आप खुश रहो हमेशा!

क्या प्यार कभी

तीन अल्फाज़ों के

दायरे से बाहर हो

सकता है?

शायद दुनिया इसे सिरे से

ख़ारिज कर दे!

लेकिन मुझे और आपको

ये पता है

कि हमारा प्यार

इन्हीं चार शब्दों

के गिर्द है!

दुनिया के सारे पागल

प्रेमियों की चाहतों के इतर

बस समर्पण!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१६_०९_२०१९

मुक्ति का मार्ग

बस यूँ ही __

मुक्ति का मार्ग

ढूंढना सरल तो नहीं था

तो फिर तुम्हें प्रेम

चुनना चाहिए था न!

जब भी क्रोध के

ज्वालामुखी के

भीतर खौलता है

विनाश का लावा

तो प्यार की बयार उसे

शांत करती है!

प्रेम की एक बूँद भी

व्यर्थ नहीं

बस उसे माक़ूल

जगह मिले बरसने को!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१०_०९_२०१९

फुटपाथ पर

एक रचना ___

फुटपाथ पर

फटा तिरपाल ओढ़े

बैठे हैं

कुछ सहमे से बच्चे

बादल देखकर

उन्हें नहीं

होता रोमांच!

जब भी बरसते हैं

बादल

दुबककर बैठ जाते हैं

सब एक साथ!

गाड़ियों के शीशे

नहीं होंगे नीचे

जानकर नहीं जाते

दौड़कर सिग्नल पर!

जब भी आता है

बरसाती मौसम

डाल लेते हैं उससे

पहले हफ्तों तक

भूखे रहने की आदत!

वो बच्चे

जानते हैं हुनर

बचत का!

ताकि आड़े वक्त

के लिए बचा रहे

ज़िंदा रहने लायक

राशन!

क्रमशः.........

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०९_०९_२०१९

रचना नहीं संवाद___


पापा सब लोग कहते हैं

कि आपको याद न करूँ

आपको याद करने से

उन लोगों को तकलीफ होती है!

पर क्या ये लोग समझ पायेंगे?

कि मुझे कितनी तकलीफ होती है?

हरेक पल में आपको

याद करने की तो

मुझे आदत है न!

क्योंकि याद तो उसे किया जाता है

जिसे भूला हो मन कभी!

मुझे याद है जब मेरे बचपन में

कभी माँ बिमार होती थी

तो आप मेरे लंबे

बाल बनाते थे

घुटनों से जरा सा ऊपर तक

लंबे मेरे बालों की दो चोटी!

मैं बाल बनाना नहीं जानती थी

तब आप हाथों में कंघी लिये

मेरे बाल बनाते थे!

हालांकि कई बार आप बालों को

सुलझाने के बजाय

उलझा भी देते थे!

और मेरे कहने पे

कि" रहने दो पापा

मैं खुले बाल लेके

चली जाऊँगी स्कूल

आप परेशान मत होओ!

आप कहते थे

नहीं बेटा…… मैं बनाऊँगा तुम्हारे बाल

कभी भी तुम्हारे लिए

कुछ करने में मुझे

कोई परेशानी नहीं होती बेटा!

लोगों का कहना कितना अजीब है न?

कि आपको भूलने की कोशिश करूँ!

आज न वैसे बाल रहे, घुटनों तक लहराते

और आप भी छोड़कर चले गये

पर जब भी शीशे के आगे

बाल बनाती हूँ तो,,,,

बालों में हाथ लगाते ही

ऐसा लगता है कि आप मेरे बालों में

हाथ फेर रहे हैं और कह रहे हैं कि…

बेटा आराम से बनाना…., उलझे

तो तुम्‍हें दर्द होगा!

लोग कहते हैं कि आपको याद न करूँ

लेकिन मैं भूलूँ तो पहले

याद तो तभी करूँगी न!

घड़ी में नौ बजते हैं न सुबह

तो फोन देखती हूँ

और लगता है कि

अभी फोन बजेगा और

आपने क्या _क्या खाया

आप मुझे बताएंगे हमेशा की तरह!

लगता है कि आप अभी बुलाएंगे

कोई नया बहाना बनाकर मुझे

"मेरी तबीयत खराब है आ जाओ तुम लोग….

दवाई खत्म हो गई है लेकर आओ बेटा…!

और मैं उसी अधिकार से

फिर से भागी आती आपके पास!

गंगोत्री धाम दर्शन के बाद

सीढ़ियां उतरते हुए

आपने कहा था कि……

बेटा बद्रीनाथ जाना था मुझे

काश!

काश...

मैं समझ पाती कि

कहीं जाने की आपकी ये

आखिरी इच्छा है!

तो उसी वक्त

ले चलती आपको बद्रीनाथ!

अब जब पूजा करती हूँ न तो…

रामायण की चौपाई पढ़ते समय

वो लय नहीं आ पाती

जैसी आपके साथ पढ़ते हुए आती थी!

आपने मुझे पूरी रामायण

ज़ुबानी याद करवा दी थी!

रामायण तो आज भी याद है!

लेकिन…..

अब वो लय नहीं आ पाती

शायद वो लय

सिर्फ आपके साथ आ सकती थी!

लोग कहते हैं कि

आपकी तस्वीर देखकर उन्हें

आप याद आते हैं

मैं रोज़ पूजा करती हूँ

और रामायण पढ़ती हूँ तो

आपका हंसता चेहरा

मेरी पुतलियों में

नाचने लगता है

कैसे भूलूँ आपको?

कि याद करने की नौबत आए…….!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _६_०९_२०१९

एक चिठ्ठी!

उलाहना _

मैं तुम्हारे नाम लिख रही हूँ

एक चिठ्ठी!

और चिठ्ठी में

लिख रही हूँ

वो सारी कसमें

जो तुमने खायीं

मुझे प्यार पर यकीन

दिलाने के लिए

वो कसमें

जो कभी पूरी

नहीं की तुमने

उन कसमों के टूटे

हिस्से रखूँगी

काग़ज़ की मजबूत

ज़मीन पर!

और देखो

लिख रही हूँ वो इंतज़ार

जो मैंने किया

तुम्हारे आने की

राह देखते

जन्मों तक!

तुम आये तो ज़रूर

पर केवल मुझे

जताने के लिए

कि कितने ख़ास

थे तुम और तुम्हारा

ये इंतज़ार!

काग़ज़ के इस एक टुकड़े पर

रख दूँगी कुछ शब्दों में

पिरोकर अपने आँसुओं को

जो चुपचाप बहे अँधियारे

कोने में तुम्हें याद करते हुए

लिख रही हूँ

एक चिठ्ठी बिना

नाम लिए तुम्हारा!

और बिना तुम्हारे पते के

कुछ लापता होते रिश्ते

ऐसे भी जिलाए जाते हैं न!

और हाँ उलाहनों

की फेहरिस्त लिये

ये चिठ्ठी

तुम तक कभी

पहुँची भी तो

जवाब नहीं आयेगा

यक़ीन है मुझे!

क्योंकि.....

तुम काग़ज़ पर मिलते हो

और काग़ज़ पर ही

बिछड़ जाते हो न!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _३_०९_२०१९

देखो मैं थोड़ा_ थोड़ा

एक रचना __

देखो मैं थोड़ा_ थोड़ा

खुद को रख रही हूँ

इन दुआओं की पर्चियों

में बांधकर!

जब ऊपरवाला

मुझे ढूंढता हुआ

आएगा अपने साथ

ले जाने के लिए

तब खाली

मांस के लोथड़े

के सिवा और

कुछ नहीं मिलेगा!

मैं उन

दुआओं की पर्चियों,,,

मन्नतों के

रेशमी धागों से

लिपटी हुई

तुम्हारी "नजरिया"

बन रह जाऊँगी

तुम्हारे पास!

"नजरिए" की एक_ एक गांठ में

खुद को जरा _जरा

रखती रही हूँ मैं

ताकि बिछुड़ने के रवाज़

और दूर हो जाने की तकलीफ़

दोनों से….

हम दोनों हमेशा के लिए

आज़ाद हो जाएं! ❣️

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०२_०९_२०१९

कुछ बिखरे हुए अल्फाज़ _

कुछ बिखरे हुए अल्फाज़ _

कितना लिखा

कितना मिटाया

हर हर्फ में तुझे ढूंढा

पर हर बार

अधूरा ही पाया

सुफैद काग़ज़ों पर

हर दफ़ा

तुझे चाहा

और हर बार

काग़ज़ों पर ही

तेरा ख़ाब सजाया

क्या ये इश्क है

या कोई नज़्म?

इस सवाल का

जवाब दिल आज

भी नहीं ढूंढ पाया!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _३१_०८_२०१९

तुम्हारी प्रीत ने कितने बंधन तोड़े

एक रचना __

तुम्हारी प्रीत ने कितने बंधन तोड़े

और मुझे मुक्त किया

मृत्यु के भय से भी

मुझे स्वतंत्र कर दिया

शाश्वत है मृत्यु

और उसके तिलक के लिए

मैं अपनी देह से

मोह का त्याग कर सकी

मात्र तुम्हारे प्रेम के कारण

प्रेम देह से भी

विरक्त कर देता है न!

यहाँ तक कि

अर्थों की सीमाएं

और शब्दों की परिधि

सबकुछ बदल जाता है!

कल्पना और यथार्थ के

बीच का अन्तर

बहुत सूक्ष्म और

गूढ़ होकर भी

बहुत स्पष्ट हो जाता है!

प्रेम यदि व्याधि है तो

उसकी औषधि भी है

बहुत प्रयास करने पर भी

प्रेम कभी भेड़ चाल नहीं चला

और मैं विद्रोही घोषित

कर दी गयी!

दसों दिशाओं के

अस्तित्व को नकार

मैं तुम्हारे पीछे,

तुम्हारे पदचिन्हों पर चली

और कदाचित् प्रेम के

महाग्रंथ में

एक पृष्ठ हमारा भी अंकित हुआ!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२४_०८_२०१९

और मैं कृष्ण _कृष्ण हो गयी

एक रचना __

और मैं कृष्ण _कृष्ण हो गयी

________________________

एक सुर मुरली का धरा तुमने

मेरी रूनझुन पायल पर

और लहराते

एक_ एक ध्वन्यास संग

बज उठे मुरली के सुर!

सुनो......

मैं कृष्ण हो गयी!

तुम्हारे छू जाने से

शरीर अपना गौरवर्ण छोड़

श्यामल हो गया है

प्रेम की

श्यामल छटा अहा!

सुनो....

मैं कृष्ण हो गयी!

तुम्हारी चंचल और

बातूनी आँखों ने

भेजे कुछ सुगंधित संदेश

और मेरी खुली काकुलों से

फूटा इत्र

जैसे कि सुवासित हो

रोम रोम में

वैजयंती के पुष्प अनगिनत!

सुनो भी…..

मैं कृष्ण हो गयी!

तुमने धरा

उस योगेश्वर सा रूप

मनमोहक छलिया

और देखो

मैं रह गयी ठगी सी!

बन गयी गोपिका!

सुनो तो...

मैं स्वयं भी

कृष्ण _कृष्ण हो गयी!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२०_०८_२०१९

(चित्र साभार _मित्र करण बुटोला जी🙏)

कुछ अनमना

किसी के विशेष आग्रह पर यह रचना __

कुछ अनमना

सा था आज

"मन"

नहीं_ नहीं करते भी

शब्दों ने बगावत कर दी

मैं कलम से

दूर रहने की

कर रही थी कोशिश

"पुरज़ोर"

लेकिन खींच _खींच

शब्दों ने

कर दिया मजबूर

"पुरनम"

एहसासों से

भीगे अल्फाज़ों में

फूटा सब्ज़ा

कविताओं का!

आखिर कब तक

रखती काग़ज़

और सियाही को दूर

"एहतियातन"

लिख रही हूँ ये

"अनमनी कविता"!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१७_०८_२०१९

बंद ह्रदय द्वार पर

उलाहना ____

बंद ह्रदय द्वार पर

किसी की आहट

जैसे कि चुपचाप कोई

आकर रख जाए

द्वार पर

फूलों की टोकरी !

ओह!

ये तुम हो!

पर किवाड़ नहीं खोलूंगी मैं

तुम तो हो घुमक्कड़

बार- बार आकर

लिखते हो

ह्रदयपटल पर

नितांत उलझी हुई पहेलियाँ

और चले जाते हो

फिर से न जाने कहाँ !

मैं रह जाती हूँ उन पहेलियों में

उलझी सी

तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१३_०८_२०१९

स्पर्श की भाषा

एक रचना __

स्पर्श की भाषा

कितनी विचित्र

कुछ भी बोलने की

प्रतिबद्धता समाप्त!

मुँह से शब्दों का

आदान प्रदान किये बिना

सारा दुःख

सारी पीड़ा

समझ लेना!

जब तुम पकड़ लो

मेरी कलाई

और रख दो

कुछ शब्दों को

चुपचाप स्पर्श के साथ

या जैसे मैं

आ जाऊँ तुम्हें छूकर

और स्पर्श में अपने

रख आऊँ अबोले भाव

कितनी ही बातें

जिनके सामने

शब्द मौन

और बौने हो जाते हैं !

हो जाती हैं हम दोनों में

चुपचाप स्पर्श से ही!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _१०_८_२०१९

मैं स्त्री हूँ

एक रचना_

मैं स्त्री हूँ

डरती हूँ

अपनी ही वर्जनाओं से

इसलिए बचाती हूँ

पुरूषों से नजर

मैं स्त्री हूँ.......

स्तब्ध रह जाती हूँ

हर बार

पुरूषों के बनाये

नियमों के अलावा

खुद की सीमाओं

को आंककर.....

मैं स्त्री हूँ

और ताड़ लेती हूँ

पुरूषों की नज़रें

इसलिए झिझक जाती हूँ

समाज में पुरुषों के

सामने

सीना ताने चलने से!

थोड़ा सा

बच निकलती हूँ

चौराहों से

चीखों को दबा लेती हूँ

दांतों के बीच दबे

पल्लू के छोर संग!

पति के साथ ही बेटे से भी

भय रखती हूँ मन में!

बेटियों को सीखाती हूँ

पुरूषों से दूरी बनाए रखना!

और तुम?

.

.

.

.

मैं?

मैं पुरूष…

निरंकुश!

शासक!

जैसे चाहूँ रह सकने के लिए

स्वतंत्र!

तभी तो….

पहले परियाँ पसंद थी

फिर चिड़ियों के पर कतरे

आजकल…….

तितलियाँ हैं निशाने पर!

उड़ान भरते देखना

पसंद नहीं मुझे!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _९_८_२०१९

(दिन रात छोटी बच्चियों के साथ हो रहे अमानवीय कृत्यों से व्यथित होकर प्रस्फुटित रचना यह उन नर पिशाचों पर जो स्त्री को भोग्या समझते हैं)

सुनो अपने अपने

एक रचना __

सुनो अपने अपने

शहर और गाँव

के किनारे मिला कर

एक कर लेते हैं

अपने शहर और गाँव को

और जख्मी तितलियों

के घायल परों पर

लिख देते हैं कुछ प्यार के नग़मे

तुम्हारे शहर की

बड़ी बड़ी इमारतों के इतर

थोड़ी सी खाली जगह

बस वहीं किसी कोने में

रख लेंगे जलता हुआ दीया

हमारे प्यार का!

और जब कोई भी

पड़ जाए किसी के

सच्चे प्यार में

तो घर से निकलते हुए

घने अँधेरे में

उस दीये की रौशनी से

बचा लें हम उन्हें

राह की भटकन से!

सुनते हैं……..

कि कुछ राहें,,,,,

बड़ी भूलभुलैया होती हैं!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _८_८_२०१९

सुनो कश्मीर!

सुनो कश्मीर!

अब तुम वाकई में आज़ाद हो!

लहराओ अपनी

केसरिया छटा चहुंओर

अपनी बर्फीली शांत चोटियों पर

उगाओ केसर

और बन जाओ फिर से

जन्नत!

सुनो कश्मीर

अब रसीले सेब

तुम्हारे पूरे विश्व को

मिठास से भर देंगे

और तुम्हारी खूबसूरती

हमारी शान थी, है और रहेगी!

न रखना कोई मलाल मन में

तुम, तुम हो

सबसे अनमोल!

सबसे खूबसूरत!

हमारे सर का ताज!

बेखौफ हो जाओ

गुलमर्ग की जिन घाटियों में

बारूद भरा था

उनमें फिर से फूल खिलाओ!

सुनो तुम अब वाकई

आज़ाद हो कश्मीर!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _५_०८_२०१९

(हमारे क्रांतिकारी विचारों के मित्र Vijay Prakash Chaturvedi जी को टैगिया रहे हैं आज पहली बार बिना परमिशन😎😎😀)

तुम संग बीतता हर पल

एक रचना _

तुम संग बीतता हर पल

मेरे मन की सदाबहार

बासंती ऋतु बन जाता है

और मन

उतार फेंकता है

उदासियों का पीला

पतझड़ी चोला!

मन की कच्ची मिट्टी

तुम्हारे स्मरण से

पहली वर्षा से भीगी माटी सी

सौंधी महक लिए

मह -मह महकने लगती है!

और खिलते हैं

उसके आँगन में

पारिजात के सफेद फूल!

कुछ पल जो

हमारे संबंध की प्रगाढ़ता के

साक्षी होते हैं

वो मन में कभी

उदासी को घर नहीं करने देते!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _०१_०८_२०१९

सुनो प्रिय

बहुत ही ज्यादा खुशी को कैसे जताते हैं नहीं जानती मैं 💗

इसलिए कुछ शब्द ____


सुनो प्रिय

मेरा मौन आह्वाहन

जैसे नयन मूंद

प्रभु के समक्ष

की जाएं

मौन प्रार्थनाएं!

तुम उतर आओ

आँचल में

जैसे उतरते हैं

कुछ मीठे स्वप्न

सच हो जाने

के लिए पलकों के

रेशमी पर्दों पर

तुम साकार करने

मेरी कल्पनाओं का रूप

आ जाओ मेरी गोद में

भरो किलकारियाँ

और बिगाड़ दो

मेरी युगों से लंबी

और गहरी नींद

मुझे रातभर जगाकर

तुम चैन से सो जाओ

मेरी बाहों के झूले में

सुनो प्रिय मेरे

आज बालरूप धरकर

मेरी अँधियारी दुनिया

को अपने ओज और प्रकाश से

जगमगाहट दे दो!


©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२९_०७_२०१९

देखो कविता

एक रचना __

देखो कविता

कुछ भी नहीं

बस………

कुछ एहसासों को

ज़बान देने की

कोशिश भर है!

जैसे कि,,,

तिलिस्म हो शब्दों का

अनदेखा सा भ्रम!

कुछ शब्दों में

पिरोकर एहसासों को

तुम तक पहुँचाने

की कोशिश भर!

ताकि…….

तुम्हें याद रहे….

कि ,,,

ख़ामोशी को भी

गढ़ सकती हूँ मैं!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२८_०७_२०१९

कुछ यादों की मजबूत

एक रचना _

कुछ यादों की मजबूत

सिंखचों से

मन की मासूम तितली

का आजाद होना

कितना मुश्किल था ?

लेकिन तुमने एक

जरा सी लौ दिखाई

प्रेम की !

और पिघलते चले गये

मजबूत फंदे

उफ़्फ !!

क्या कमाल की कारीगरी है

प्यार की.....?

कड़वाहट को भी,,

घी बूरा कर दे मुआ प्यार!!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२४_०७_२०१९


तेरू जलम

तेरू जलम

नी होण कु रैबार

देद्या द्योरान

सौंणा मैना

बर्खदु रैंद थौ

अब तीसा रैग्यान

सैरा गाद गदेना

सैरा धारा मंगरा

तड़तड़ु घाम ल्हग्युं

बर्खण्यां मैनों

अँध्यार चौमासम

जेठा मैनों घाम ल्हग्युं

अर तचणीं छन

डोखरी, पुंगड़ी!

नौनी अर बरखा

न होंण सी

हर्चीगे

डेरों अर पुंगड़्युं की

रस्यांण…!

लठ्याळी……

नौनी तेरू

अर बरखा कु बी

कखी "नौ_ नी" बल!

©️®️रूचि बहुगुणा उनियाल

नरेंद्र नगर

दिनांक _२१_०७_२०१९