मेजर सोमनाथ शर्मा

प्रथम 'परमवीर चक्र' प्राप्तकर्ता – मेजर सोमनाथ शर्मा

मेजर सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी-कमांडर थे। उन्होंने अक्टूबर-नवम्बर, 1947 के भारत-पाक संघर्ष में अपनी वीरता से शत्रु के छक्के छुड़ा दिए। उन्हें भारत सरकार ने मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया। परमवीर चक्र पाने वाले ये प्रथम व्यक्ति थे।

“मैं अपने सामने आए कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ। यहाँ मौत का क्षणिक डर ज़रूर है, लेकिन जब मैं गीता में भगवान कृष्ण के वचन को याद करता हूँ, तो वह डर मिट जाता है। भगवान कृष्ण ने कहा था कि आत्मा अमर है, तो फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि शरीर है या नष्ट हो गया। पिताजी मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ, लेकिन मैं अगर मर गया, तो मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि मैं एक बहादुर सिपाही की मौत मरूँगा। मरते समय मुझे प्राण देने का कोई दु:ख नहीं होगा। ईश्वर आप सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।”

भारत के पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा ने दिसंबर 1941 में अपने माता-पिता को यह पत्र लिखा था!

सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के दध में हुआ था। उनके पिता अमर नाथ शर्मा भी एक सैन्य अधिकारी थे और आर्मी मेडिकल सर्विस के डायरेक्टर जनरल के पद से सेवामुक्त हुए थे।

उनके परिवार में फौजी संस्कृति एक परम्परा के रूप में चलती रही थी। इनके पिता यदि चाहते तो एक डॉक्टर के रूप में लाहौर में अपनी प्रैक्टिस जमा सकते थे, किंतु उन्होंने इच्छापूर्वक भारतीय सेनिकों की सेवा करना चुना। पिता के अतिरिक्त मेजर सोमनाथ पर अपने मामा की गहरी छाप पड़ी। उनके मामा लैफ्टिनेंट किशनदत्त वासुदेव 4/19 हैदराबादी बटालियन में थे तथा 1942 में मलाया में जापानियों से लड़ते शहीद हुए थे।

दोस्तों में ‘सोम’ के नाम से मशहूर सोमनाथ बचपन से ही अपने पिता और मामा से प्रभावित थे और शुरू से ही सेना में जाना उनके जीवन का लक्ष्य रहा! साथ ही बचपन में सोमनाथ भगवद गीता में कृष्ण और अर्जुन की शिक्षाओं से प्रभावित हुए थे, जो उनके दादा द्वारा उन्हें सिखाई गई थी।

शेरवुड कॉलेज, नैनीताल में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद सोमनाथ ने देहरादून के प्रिन्स ऑफ़ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज में दाखिला लिया।

22 फरवरी, 1942 को सोमनाथ ने चौथी कुमायूं रेजिमेंट में बतौर कमीशंड ऑफिसर प्रवेश लिया।

उनका फौजी कार्यकाल शुरू ही दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हुआ और वह मलाया के पास के रण में भेज दिये गये। पहले ही दौर में इन्होंने अपने पराक्रम के तेवर दिखाए और वह एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने जाने लगे।

22 अक्टूबर, 1947 को जब पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर पर आक्रमण किया तब हॉकी खेलते हुए बांया हाथ टूट जाने की वजह से सोमनाथ इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती थे। उन्हें जब पता चला कि चार कुमाऊं युद्ध के लिए कश्मीर जा रही है, तो उन्होंने उसका हिस्सा बनने की जिद शुरु कर दी। सीनियर अधिकारियों ने हैरानी जताते हुए कहा कि सोमनाथ तुम्हारे हाथ में प्लास्टर चढ़ा हुआ है, ऐसे में तुम्हारा जंग में जाना ठीक नहीं है। सीनियर अधिकारी अपनी जगह सही थें, पर सोमनाथ कहाँ मानने वाले थे।

अंतत: उन्हें सोमनाथ को अनुमति देनी ही पड़ी। अनुमति मिलते ही वे एयरपोर्ट पहुंचे और अपनी डेल्टा कंपनी में शामिल हो गए। सोमनाथ शर्मा इसी कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन की डेल्टा कंपनी के कंपनी कमांडर थे।

3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बदगाम मोर्चे पर जाने का हुकुम दिया गया।

3 नवम्बर को प्रकाश की पहली किरण फूटने से पहले मेजर सोमनाथ बदगाम जा पहुँचे!

उत्तरी दिशा में उन्होंने दिन के 11 बजे तक अपनी टुकड़ी तैनात कर दी। तभी दुश्मन की क़रीब 500 लोगों की सेना ने उनकी टुकड़ी को तीनों तरफ से घेरकर हमला किया और भारी गोला बारी से सोमनाथ के सैनिक हताहत होने लगे। अपनी दक्षता का परिचय देते हुए सोमनाथ ने अपने सैनिकों के साथ गोलियां बरसाते हुए दुश्मन को बढ़ने से रोके रखा। इस दौरान उन्होंने खुद को दुश्मन की गोली बारी के बीच बराबर खतरे में डाला और कपड़े की पट्टियों की मदद से हवाई जहाज को ठीक लक्ष्य की ओर पहुँचने में मदद की।

इस दौरान, सोमनाथ के बहुत से सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और सैनिकों की कमी महसूस की जा रही थी। सोमनाथ का बायाँ हाथ चोट खाया हुआ था और उस पर प्लास्टर बंधा था। इसके बावजूद सोमनाथ खुद मैग्जीन में गोलियां भरकर बंदूक धारी सैनिकों को देते जा रहे थे। तभी एक मोर्टार का निशाना ठीक वहीं पर लगा, जहाँ सोमनाथ मौजूद थे और इस विस्फोट में भारत का यह वीर जवान शहीद हो गया। सोमनाथ की प्राण त्यागने से बस कुछ ही पहले, अपने सैनिकों के लिए ललकार थी:-

“दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी, मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।”

सोमनाथ की शहादत ने उनके साथियों को प्रेरित किया और वह अंतिम सांस तक दुश्मन का मुँहतोड़ जवाब देते रहे।

इस मुकाबले में सोमनाथ अपने कई साथियोंं के साथ शहीद जरूर हो गए, लेकिन उन्होंने दुश्मन को आगे नहीं बढ़ने दिया। आखिरकार भारतीय सेना नवम्बर का महीना आते-आते दुश्मनों को घाटी से खदेड़ने में कामयाब रही।

मेजर सोमनाथ शर्मा को इस युद्ध में उनके रणकौशल के लिए मरणोपरान्त परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।

मेजर सोमनाथ जैसे वीर हर दिन हमारे देश की रक्षा में सीमा पर अपने प्राणों की आहुती देते हैं! हमारा कर्तव्य है कि हम इन वीरों को याद कर इनकी शहादत का मान रखें!