उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास भाग -9

उत्तराखंड में पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) -ध्रूम्र वर्तिका का प्रचलन इतिहास

उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --9

उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --9

उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --9

History of Gastronomy in Uttarakhand 9

आलेख : भीष्म कुकरेती

उत्तराखंड में सन सहत्तर तक पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) तम्बाकू पीने का प्रचलन बहुत था । बीडी , सिगरेट और माचिस प्रचलित होने से पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम ) का प्रचलन अब समाप्त हो गया है।

पतब्यड़ी का अर्थ है पत्तों की चिलम या धूम्रवर्तिका। बांज के दो पत्तों को बिछाकर तिकोन या शंकुनुमा मोड़ा जाता और यह आकार में बिलकुल चिलम दिखता है। फिर इसके निम्न तिकोन में एक छोटी सी गारी डाली जाती थी । फिर तम्बाकू से इस शंकु को भरा जाता है। इसके ऊपर कबासलू रुई या बुगुल के फूल चूर कर रखे जाते थे। फर अग्यलू (चकमक पत्थर व लोहा रगड़ यंत्र ) से आग सुलगाई जाती थी। फिर तम्बाकू के आने से तम्बाकू पत्ते या तम्बाकू चूरे के साथ शीरा मिलाकर तम्बाकू को पत्बयड़ी में भरकर धूम्रपान किया जाता था

जहां तक पतब्यडी से भांग जलाकर पीने का सवाल है पाणिनि काल में प्रचलन था।

तम्बाकू और चिलम का प्रचलन वास्तव में सत्तरहवीं या अट्ठारहवीं सदी में हुआ होगा। तब तक भारत में और उत्तराखंड में तम्बाकू पीने का प्रचलन नही था।

किन्तु धूम्रपान याने धुंये को पीने का रिवाज शायद महाभारत काल से पहले हो चुका था।

संस्कृत के महान विद्वान् अग्रवाल 'पाणिनि कालीन भारत वर्ष' में लिखते हैं कि परवर्ती कुलिंद जनपद (400 BC ) उत्तराखंड आदि स्थानों में धूम्रवर्तिका बनती थी. जड़ी बूटी पीसकर , उसे धूप बत्ती रूप देकर जलाकर सीधा धुंवा सूंघा या नाक के रास्ते निगला जाता था। याने कि पतब्यड़ी (पत्तों की चिलम )से औषधि धूम्र पान करने का रिवाज महभारत काल से पहले हो चुका होगा

भांग की डंठलों या तुअर (तोर ) की डंठलों में औषधि भरकर फिर आग लगाकर धूम्र पान करना एक आम रिवाज था। इन डंठलों में वही औषधि भरी जाती थी जो शीघ्र ज्वलित होती हो।

उत्तराखंड में बहुत सी औषधियां मिलती थीं और इन औषधियों का प्रयोग धूम्र पान के लिए किया जाता था।

डा अग्रवाल लिखते हैं कि उत्तराखंड में भ्रमण करने वाले भिक्षुओं (साधू , विद्यार्थी ) में धूम्रवर्तिका का सेवन अति प्रिय था। ( डा डबराल की पुस्तक से )