माँ की आगोश में"

पहाड़ की एक घाटीनुमा जंगलो के बीच में मेरा प्राइमरी स्कूल था I गाँव से 3-4 किलोमीटर की दूरी पर, रोज टेढ़ी-मेंढी पगडंडी, उँची-नीची पहाड़ियों, जंगलो के बीच से स्कूल आना -जाना पड़ता था I तीसरी कक्षा में पढ़ता था तब मैं , उम्र होगी कोई 7-8 वर्ष की I दिल्ली से जाके सीधे तीसरी कक्षा में भरती हुआ था, पहाड़ में रहने की आदत भी नहीं थी, 1966 में बिजली-पानी,मोटर-गाड़ी की बात तो पहाड़ में आप उस समय सोच भी नहीं सकते थे I दो दिन की पैदल यात्रा के बाद तो हम मोटर से उतरने के बाद अपने घर पहुँचते थे जब दिल्ली से पिताजी आते थे I रात तो क्या दिन में अगर घने काले बादल छा जायें तो वचपन में सुनी भूत की कहानियों की छवि नज़र आने लगती थी I स्कूल की छुट्टी के बाद घर लौट रहा था I आसमान में घने काले बादलों की गड़गड़ाहट के साथ -साथ बिजली कड़क रही थी I लग रहा था जैसे पूरा का पूरा आसमान धरती पर बिखर जाएगा I तो अचानक यह तूफान आ गया था I बड़े बच्चे दौड़ चुके थे तथा अन्य बच्चो के पिता-माँ अपने -अपने बच्चों को लेने जंगल के आधे रास्ते में आ चुके थे I मैं अकेले पगडंडी से रोते-रोते चल रहा था I याद कर रहा था काश मेरे पिता भी दिल्ली में नौकरी की बजाये यहीं होते तो मुझे लेने आ जाते I अचानक बड़े-बड़े औलो की बरसात शुरू हो गई I मेरे एक हाथ में तख़्ती थी और दूसरे हाथ में लकड़ी का बौखला( लकड़ीं का कटोरीनुमा दवात)I मैने औलो और मूसलाधार बरसात की मार से बचने का लिए तख़्ती को सिर पर रखा तो मेरे हाथ औलो की मार से लाल हो गये और तख़्ती पहाड़ी से नीचे नदी में दूर गिर गई I रो-रो के बुरा हाल,ठंड से शरीर कांप रहा था I जंगली जानवरो शेर,बाघ,भालू, लकड़बग्गा का डर सताने लगा I मेरे चाचा जो मेरा ध्यान रखते थे ,किसी काम से नानी के गाँव गये थे I चाचा बड़े दबंग थे मेरे, वो घर में होते तो सबसे पहले आते औरे मेरे साथ-साथ दोनो कंधो और दोनो हाथों पर चार बच्चो को गोदी में उठाकर ले जाते I चाचा पर भी गुस्सा के साथ-साथ मौजूद न होने पर रोना आ रहा था I याद आ रही थी उनकी भी I माँ-माँ करते हुए, मैं एक छोटी सी गुफा में दुबक गया, वो भी पानी से आधी भर चुकी थी और मैं आधी बेहोशी की हालत में सुबक़ रहा था I मेरी माँ, जो खेतो में कiम करने गई थी पूरे ग्राम में पूछा कि कोई उसके विशु को भी लाया तो सबने मना कर दिया I माँ रोते-रोते एक बोरी का टुकड़ा ओढकर मुझे ढूढ़ने स्कूल की रास्ते पर पगली सी दौड़ रही थी ,विशु-विशु चिल्ला रही थी I जैसे ही मेरे कानो में हल्की सी आवाज़ पड़ी मैंने न जाने पूरी ताक़त से माँ चिल्लाया और बेहोश हो गया I माँ ने मुझे गोदी में उठाकर अपने आगोश में ले लिया,उस प्यार ने ने मेरी बेहोशी और ठंड दूर कर दी , जीवित होने का अहसास होने लगा और पूछा “माँ तू अब तक कहाँ थी “?

आज मेरी माता जी की पुण्य तिथि है वो सन 2002 में स्वर्ग की यात्रा पर जा चुकी हैं परंतु हर 31 जनवरी को मुझे उनकी उस आगोश की मीठी याद आती है और प्रश्न उठता है "माँ अब तू कहाँ है ?