गढ़वाल में सरोला ब्राह्मण

जातियों पर लिखना सबसे अधिक संवेदनशील है। मैंने जितना पढ़ा उसे आपके साथ साझा कर रहा हूँ और आगे भी लिखूंगा। इसमें मेरा कोई भी अलग से मत नहीं है। जिसने जो लिखा उसे भी संदर्भ सहित लिखा जा रहा है। गढ़वाल में प्राचीन समय से ब्राह्मणों के तीन वर्ग हैं।इतिहासकारों ने ये नाम सरोला, निरोला (नानागोत्री या हसली) तथा गंगाड़ी दिए हैं। राहुल सांकृत्यायन यहां के ब्राह्मणों को सरोला, गंगाड़ी, दुमागी, व देवप्रयागी चार श्रेणियों में बांटते हैं।

सरोला ब्राह्मण

सरोला ब्राह्मण वे ब्राह्मण हैं जिन्हें प्राचीन समय में चाँदपुर गढ़ी के राजा ने रसोई के लिए नियुक्त किया था। डबराल जी लिखते हैं कि- 'सर' का सरोला 'गाड' का गंगाड़ी। इस उक्ति के अनुसार ऊँचे स्थानों पर रहने वाले ब्राह्मण सरोला तथा नदी घाटी के निवासी ब्राह्मणों को गंगाड़ी कहा जाने लगा। आरम्भ में सरोलों की 12 जातियाँ ही थीं। कहा जाता है कि नौटियालों का पूर्व पुरुष जो नौटी गाँव में बसा था, गढ़ नरेशों के पूर्वज कनकपाल के साथ गढ़वाल में आया था। सन् 1884 में एटकिंसन ने सरोलों की जातियां इस प्रकार बताई थीं- "गढ़वाल में सभी ब्राह्मण गंगाड़ी हैं लेकिन बेहतर वर्ग स्वयं को सरोला कहता है। सरोलों का उप विभाजन इस प्रकार है:-

कोठियाल, सेमवाल, गैरोला जो सामान्यत: रसोइए हैं, कन्यूरी (खण्डूड़ी) लोग राजा के नागरिक-प्रशासन से सम्बद्ध हैं, नौटियाल गुरु हैं, मैठाणी सेवक हैं, थपलियाल, रतूड़ी, डोभाल, चमोली, हटवाल, ड्यूंडी, मलगुड़ी, कर्याल, नौनी, सिमल्टी, बिजल्वाण, धुराणा, मनोड़ी, भट्टलवाली, महिण्या का जोशी और डिमरी भी रसोइए हैं। (नौटियाल, मैठाणी, कन्यूरी, रतूड़ी, गैरोला, चमोली और थपलियाल स्वयं को गौड़ ब्राह्मण बताते हैं।) जबकि डिमरी, सिमल्टी, हटवाल, कोठियाल, और लखेड़ा खुद को द्रविड़ कहते हैं जिनके पूर्वज बदरीनाथ का भोग तैयार करने यहां आए थे।" (हिमालयन गजेटियर - 3 एटकिंसन, अनुवाद -प्रकाश थपलियाल, पृ० 250-51)

सन् 1920 में रतूड़ी द्वारा प्रकाशित सरोलों की सूची में महिण्या का जोशी व धुराणा जाति का उल्लेख नहीं मिलता है तथा ग्यारह नई जातियाँ जैसाल, सिलोड़, मालीवाल, जसोला, कैलखोरा, नैनवाल, सती, लखेड़ा, पुजारी, भट्ट व चौकियाल सम्मिलित की गई हैं। इनके अतिरिक्त बधाणी, जोशी, मलगुड़ी, गजाल्डी, पल्याण व धम्माण ये 6 जातियाँ और थीं किंतु 1917 तक इनमें एक भी सरोला नहीं बचा था। (नरेन्द्र हिंदू लाॅ - रतूड़ी, पृ० 22)

गंगाड़ी तथा सरोला ब्राह्मणों में धार्मिक तथा लौकिक रिवाज एक ही हैं। केवल भेद इतना है कि सरोला ब्राह्मणों का का पकाया हुआ चावल-दाल सब जातियाँ खा लेती हैं। गंगाड़ी ब्राह्मणों का पकाया हुआ चावल-दाल उनकी रिश्तेदारी व कुछ राजपूत जातियाँ भी खा लेती हैं। इस भेद का कारण यह भी देखा गया है कि सरोला ब्राह्मणों के वे गाँव हैं जिनमें सर्वप्रथम उनके मूल पुरुष आकर बसे थे तथा ग्राम के नाम पर जाति संज्ञा बदल गई थी। ये सब गाँव चाँदपुर परगने में चाँदपुर गढ़ के इर्द-गिर्द थे। (गढ़वाल का इतिहास- रतूड़ी, पृ० 70) सरोला जाति में उत्तरोत्तर कमी होने से राजा को अधिक सरोला जातियों को समय-समय पर मान्यता देनी पड़ी थी। पहले चावल-दाल के साथ रोटी भी सरोला ब्राह्मणों द्वारा ही पकाई जाती थी। तिब्बत पर आक्रमण के समय सैनिकों के लिए भोजन पकाने वाले सरोलों की कमी पड़ गई थी। राजा महिपतिशाह (1639-46) ने सरोला ब्राह्मणों की कमी तथा ऊँचाई वाली पहाड़ियों में धोती व हल्के वस्त्रों में भोजन बनाने की कठिनाई को देखते हुए रोटी को शुचि की मान्यता दे दी थी।

सरोला ब्राह्मणों में कमी का कारण यह था कि यदि कोई सरोला गंगाड़ी ब्राह्मण की लड़की से शादी करता है तो उसकी संतान भी गंगाड़ी हो जाती थी लेकिन वह स्वयं खान-पान का भेद पूर्ववत बनाए रखे तो अपने आप सरोला ही बना रहता था।

सरोला ब्राह्मणों की जाति, पूर्व जाति, गाँव, कहां से आये तथा आने का संवत् इस प्रकार हैं :-

कण्डवाल- (बाद में सरोला बने)

कैलखोरा- ( बाद में सरोला बने)

कौट्याल- (गौड़, कोटी)

खण्डूड़ी- (गौड़, खण्डूड़ा, वीरभूमि, 945)

गैरोला- (आदि गौड़, गैरोली, 972)

चमोली- (द्रविड़, चमोला, विलहित, 982)

चाँदपुरी- (नौटियालों की शाखा)

चौक्याल- (बाद में)

जसोला- (बाद में)

जैस्वाल- (बाद में)

डिमरी- (द्रविड़,डिम्मर, कर्नाटक)

ड्योंडि- (ड्योंड)

थपल्याल- (आदि गौड़, थापली, गौड़ देश, 980)

धम्मवाल- (बाद में)

नऊनी- (सती, नऊन, गुजरात, 980)

नैन्याल- (बाद में)

नौटियाल- (गौड़, नौटी, धार मालवा, 945)

पल्याल- (नौटियालों की शाखा)

पुज्यारी- ( भट, दक्षिण, 1722)

बिजल्वाण- गौड़)

भट्ट-.(बाद में)

भदवाल- (बाद में)

मंजखोला-

मराडूड़ी- (मंडूड़)

मलगुड़ी- (बाद में)

मालीवाल- (बाद में)

मैट्वाणी- (आदि गौड़, मैट्वाणा, बंगाल, 975)

मैराव जोशी- (कनौजिया, कुमाऊँ, 1812)

रतूड़ी- (आदि गौड़, रतूड़ा, महाराष्ट्र, 980)

लखेड़ा- (आदि गौड़, वीरभूमि, 1117)

सत्ति- (सती, गुजरात)

सिरिगुरु- (वीरसेन)

सिलोड़ी- (बाद में)

सिमल्टी- (आदि गौड़, सेमल्टा, बंगाल, 965)

सेमवाल- (आदि गौड़, सेम, वीरभूमि, 980)

हटवाल- (गौड़, हाट, 1059)

उक्त सूची में रतूड़ी जी के अनुसार ढंगाण, पल्याल, मंजखोला, गजल्डी, चाँदपुरी व बौसोली ये 6 जातियाँ राजगुरु नौटियालों की ही शाखाएँ हैं। सरोला ब्राह्मणों की 12 गाँवों के 12 थानों में 12 जातियाँ थीं। इनके 12 थान (स्थान) नौटी, मैट्वाणा, खण्डूड़ा, रतूड़ा, थापली, चमोला, सेम, लखेड़ी, सेमल्टा, सिरगुरों, कोटी व डिम्मर थे। कोई सेमल्टा की जगह गैरोली भी बताते हैं। (गढ़वाल का इतिहास- रतूड़ी, पृ० 70) गांवों में वर्तमान में भी सरोला ब्राह्मणों में खानपान व शादी-ब्याह में सरोला प्रथा विद्यमान है। शहरों में रहने वाले कुछ सरोला इस भेद को नहीं मान रहे हैं। धीरे-धीरे यह प्रथा कम हो रही है लेकिन समाप्त नहीं हुई है।


(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल)