परवर्ती महाभारत कुलिंद जनपद (500 -400 BC )में कृषि , खाद्य यंत्र व भोजन इतिहास
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उत्तराखंड में कृषि व भोजन का इतिहास --11
History of Gastronomy in Uttarakhand 11
आलेख : भीष्म कुकरेती
कुलिंद जनपद का वर्णन महभारत में तो हुआ ही था। इसके अतिरिक्त अष्टाध्यायी , साहित्य व जैन साहित्य में कुलिंद जनपद का वर्णन मिलता है। अशोक से पहले कुलिंद जनपद (500 -400 BC ) समृद्ध जनपद था और फिर अशोक के पश्चात भी कुलिंद जनपद का अस्तित्व था. पाणिनि गन्थ में दो ग्रामों आयर पतांजलि ग्रन्थ में इस क्षेत्र (उत्तराखंड व सहारनपुर आदि ) के दो वर्णन मिलता है।
परवर्ती महाभारत कुलिंद जनपद (500 -400 में घरेलू सामग्री
-बैठने के स्थान - , पराल, मांदरा, चारपाई या चौपाई, चौकी , पीढ़े , कम्बल। पिंडार घाटी से रांकव कम्बल निर्यात होता था। जंगली व पालतू जानवरों के चरम भी बैठने या सोने बिछौने के आते थे ।
पात्र /वर्तन मुख्यतया मिट्टी , काष्ट , पत्थर व पत्तों के बनते थे।
अनादि रखने के लिए बड़ी बड़ी चाटियां (दबल ) होते थे।
सामग्री रखने के लिए खालों के थैले , लौकी की तुम्बी , आदि थे।
कांस्य व ताम्र पात्र उपयोग में आते थे।
अन्न पान
दूध , दही , घी , मांश आवश्यक भोजन अंग थे।
आयतित मसाले भी रहे होंगे क्योंकि मिर्च का यदि वर्णन है तो काली मिर्च लौंग रहा होगा।
अदरक , पीपल आदि मसालों का प्रयोग होता था।
दालचीनी या तमालपत्रम का उपयोग भी होता रहा होगा क्योंकि यह उत्तरी भारत का बहुत पुराना मसाला है।
सम्भवत: भंग , राई आदि का प्रयोग होता रहा होगा और धनिया या जंगली धनिया भी प्रयोग में आता होगा .
मधु मक्खी व शहद - पहाड़ी शहद की मैदानों में बड़ी मांग थॆ. शहद जंगली व मधु मक्खियों से मिलता था।
प्रयोग भोजन में होता था और नमक संभवत: तिब्बत से आयात होता होगा। .
कंद , मूल , फलों का ताजा व सुखाकर प्रयोग होता था। बनैले पत्तों का भी तेमन (साग -भाजी ) प्रयोग होता था. भिस की जडे बार जिक्र अप्पणजातक में मिलता है ।
यवागू या पतली खिचड़ी सभी को भाति थी।
मांडी , छाछयुक्त मांडी (लपसी , पलेऊ ) का भी प्रयोग होता था।
सत्तू सेवन आम बात थी
कच्चे या पके बालियों /फलियों को भुनकर खाने की व्यापक प्रथा थी। ऊमी संस्कृति सामन्य थी
भात , खीर , तिल सहित चावल -झंगोरा का रिवाज था
चावल -झंगोरा तरीदार साग, दालों , मांस मच्छी , दूध के साथ जाने का वर्णन साहित्यों में मिलता है।
फलों का रस व मदिरा पान भी सामान्य रिवाज था।
धूम्रवर्तिका (पतिब्यड़ी ) से औषधि या नशायुक्त औषधी का धुंवा पिया जाता था।.
उत्तराखंड की जड़ी -बूटियाँ प्रसिद्ध थीं
कृषि
आजीविका के साधन थे - कृषि , पशु चारण , आयुध -शस्त्र जीविका और व्यापार /ट्रेडिंग
अनाजों में मंडुवा , नीवार (झंगोरा ) , श्यामाक अनाज थे
जौ -गेंहू की खेती भी होती थी
दालों में मूंग , उड़द , तुअर थे
तिल , कपास व गन्ने का उत्पादन भी होता था।
पालतू पशु
गाय, भेड़ , बकरी , घोड़े , कुत्ते आदि। भोटान्तिक क्षेत्र में पालतू पशु था।
जनपद से बैल, भार्गवी घोड़े व उन दिनों निर्यात होते थे
निर्यात या व्यापार होने वाली वस्तुएं
अंजन , लवण , गुग्गल , मूंज , बाबड़ घास , देवदारु के फूल , उन , ऊनी वस्त्र , भांग व भांग -वस्त्र -रस्सियाँ , कम्बल , पशु खाल , लाख , चमड़े के थैले , दूध , दही , घी , ताम्बा , लौह व पशु
जड़ी बूटियाँ , विष , बांस -रिंगाल व उपकरण ; भोजपत्र , हाथीदांत , सुवर्ण चूर्ण , सुहागा , शहद , गंगाजल , लवण , टिमर आदि भी निर्यात होते थे।