आलेख :विवेकानंद जखमोला शैलेश

गटकोट सिलोगी पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड

फोटो क्रेडिट - श्री भीष्म कुकरेती जी से साभार

उत्तराखंड के जल स्रोत धारे,पंदेरे, मंगारे और नौलौं की #निर्माण शैली व पाषाण कला।

जल संचय जीवन संचय के लिए समर्पित इस श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत है

ग्राम ग्वील सिलोगी (द्वारीखाल) पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड की जल संवाहिकाओं की निर्माण शैली और पाषाण कला के बारे में।

आइए जानते हैं इसी क्रम में :-

1)मंगारे -ग्वील गांव में यों तो अथाह जल भंडार है। यहां पर गांव में दो मृदु जल के मंगारे हैं जो गौमुखी हैं। इन दोनों का मुख्य स्रोत गांव के उत्तर में स्थित गांव की ही चोटी के नीचे है जहां से जमीन के अंदर ही अंदर से यह शीतल मधुर जलधार इन मंगारौं तक पहुंचती है और इस क्षेत्र के लिए एक जीवन प्रवाह की भूमिका निभाती हैं । इनका जल शीतल और सुपाच्य है, इसलिए लोग सिंचाई स्नान करने आदि व्यवस्था में तो नल का पानी ही प्रयोग करते हैं परंतु पीने के लिए यहीं से भरकर ले जाते हैं।जैसे कि पिछले आलेख में कहा गया था कि भूमिगत स्रोतों की खासियत होती है कि सर्दियों में इनका जल गुनगुना और गर्मियों में एकदम शीतल होता है(बांज की जड़ वाले स्रोतों की स्थिति भिन्न है) , इस लिए भी यह लाभदायक और गुणकारी माना जाता है। पलायन की विभीषिका के कारण अन्य महीनों में तो यहां भी सीमित ही आवाजाही होती है लेकिन ग्रीष्मकालीन अवकाश के समय इन मंगारौं के शीतल मधुर जल का स्वाद चखने के लिए यहां भी लोगों का मेला सा लग जाता है। ये दोनों ही मंगारे गांव वासियों की प्यास बुझाने के लिए अपनी जलधार सतत रूप से प्रवाहित करते रहते हैं।

गांव के उत्तर पश्चिम में स्थित बिंदरातोक में अवस्थित सिलऽटि गदन घाटी में भी दो मंगारे हैं जो

भीषण गर्मी में पशुपालकों व उनके पशुओं , किसानों और पैदल राहगीरों के लिए जीवन संजीवनी का काम करते थे।आज भी कृषि कार्य के प्रति उदासीनता के चलते यहां अधिक चहल पहल तो नहीं है परंतु ग्वील के मूल ग्राम जसपुर के पशुओं और पशुपालकों के लिए तो यही मंगारे जीवन दाता की भूमिका निभाते हैं। इसलिए इन जलसंवाहिकाओं के संरक्षण के लिए ग्रामीणों का सहयोग अति आवश्यक है।

अब बात करते हैं इनकी निर्माण शैली के बारे में :जहां तक लेखक की जानकारी में है तो इन्हें स्थानीय शिल्पकार ही सुडौल सपाट लगभग डेढ़ हाथ लंंबी एक बालिश्त चौड़ी व दो बालिश्त ऊंची पत्थर की सिल्ली से बनाते थे। इसे बनाने में हथोड़ी और छेनी का प्रयोग किया जाता था।

इस क्षेत्र में ज्ञात सभी मंगारियों की निर्माण प्रक्रिया लगभग एक जैसी ही प्रतीत होती है। जिसमें पत्थर की सिल्ली के एक तरफ लगभग एक हाथ के करीब लंबा और 10 अंगुल गहरी हथोड़ी छेनी की सहायता से घनाकार सपाट नाली (ऊपरी भाग खुला) बनाई गई है और मुंह की तरफ 3 अंगुल छोड़कर पूरी सिल्ली पर यह नाली बनाई गई है तथा आगे की तरफ जलधारा निकालने के लिए एक 3 अंगुल व्यास का वृत्ताकार छेद नाली के मुंह पर छेनी से किया गया है। पत्थर की सिल्ली के अग्र भाग को हथोड़ी छेनी की सहायता से 🐮 गाय के मुख जैसा आकार देने की कोशिश की गई है जिसमें ऊपरी हिस्से में दोनों ओर आंख व कान भी उत्कीर्ण करने की कोशिश की गई है।

मंगारे मुख भाग से सपाट मुलायम व आकर्षक लगें इसके लिए उन्हें रेती (लोहा घिसने का औजार) से घिसा गया था। जहां तक इन्हें बनाने की प्रेरणा कैसे व क्यों रही होगी तो इस बारे में यही कहा जा सकता है कि प्राचीन काल से ही मनुष्य प्रकृति प्रेमी रहा है और पाषाण काल से ही मानव विकास आगे बढा है इसलिए स्थानीय उपलब्धता के आधार पर इस कला को अपनाया गया होगा।

आज आवश्यकता है कि हम अपने पूर्वजों की इस अमूल्य निधि का संरक्षण करने के लिए कृतसंकल्प हों ताकि प्रकृति का यह अद्भुत उपहार हमारी जीवन धारा को निरंतरता के साथ प्रवाहित करता रहे।

आलेख :विवेकानंद जखमोला

फोटो क्रेडिट - श्री भीष्म कुकरेती जी से साभार