आकुल गीत

जब वीरानी की आकुलता

लगाती है धाद मुझे

कुछ सपने बुनके कुछ अपनेपन से

कर लेती हूँ याद तुम्हें

ये कच्चे रस्ते पगडंडियां

अब खुद ही दूरीयां नाप रही

खड़ी चढ़ाई ढलती उतराई

अब खुद ही खुद में हाँप रही

कैसी गति से गति मिलाकर

सबने जाने की ठानी है

एकाकीपन से बुढ़ा गयी ये

युगों की तरुण जवानी है

मुखर मौन के सुख से है या

विषम परिस्थिति का विषाद मुझे

देवथानों की दशा दिशा देख

आ जाती है याद मुझे

देख योगनियों की कलित कलायें

अगम पथों पर, तुरंग मर्त्य यहाँ

विटप सघन से लड़ती वनितायें

और, जूझते जरठों का सामर्थ्य यहाँ

नहीं दिखेगी बंन्द कमरों से

घुमड़ती घटायें चौमास की

ईंटों के सघन से कैसे दिखेंगी

चपल छटाएं मधुमास की

यह ममता का मर्म है या

प्रेम का अवसाद मुझे

इस चमन का सूनापन देख

कर लेती हूँ याद तुम्हें

बांध गठरी निःसंकोच चले आना

माँ माटी की सुगंध लेने को

एक अपनापन ही बचा के रखा है

और कुछ नहीं है देने को

खातिरदारी को कोई नहीं है

सब अपने रस्ते निकल लिए

सैलानी बनकर मत आना लाड़ा

समय नहीं किसी को किसी के लिए

तुम्हारे जलड़े इस कोख से जन्मे

कोख प्रीत का प्रमाद मुझे

उन जलड़ों के कारुण्य कलरव से

आ जाती है याद मुझे

उतराई में इतनी समृद्धि दिखी

या सामर्थ्य को सुगम लगा

शहरों ने क्या कृश किया जो

फिर चढ़ना इतना दुर्गम लगा

देखा है इस मिट्टी में मैंने

मिट जाने वाला नेह यहाँ

कराल कष्ठों के तपन में हँसती

दमकती कंचन देह यहाँ

मरु बांझ नहीं संतति वती हूँ

है जननी का अहसास मुझे

भरे वक्षों से छलकता पय

दिलाता ममत्व की याद मुझे

कब तक विरह अट्टहास करेगी

इस अक्षुण अभिलाषा पर

क्यों संयम को संशय हो रहा है

तनमय तंद्रा आशा पर

क्या गुनाह किया जगदीश्वर ने

मेरी उपत्यकाओं की रचना कर

समझ से परे क्यों मतिमान मनुज

क्यों दुत्कार रहे हैं भर्त्सना कर

कल्पों से कितने आये और गए

नहीं तुमसे फरियाद मुझे

अपनी नहीं तुम्हारी पीड़ा से

आ जाती है याद मुझे।

धाद = आवाज लगाना

जलड़े = जड़ें

लाड़ा = लाडला

@ बलबीर राणा 'अड़िग'