आलेख :विवेकानंद जखमोला शैलेश

गटकोट सिलोगी पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड

फोटो क्रेडिट - श्री भीष्म कुकरेती जी से साभार

उत्तराखंड के जल स्रोत धारे,पंदेरे, मंगारे और नौलौं की #निर्माण शैली व पाषाण कला।

जल संचय जीवन संचय के लिए समर्पित इस श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत है

ग्राम गटकोट सिलोगी (द्वारीखाल) पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड की जलसंवाहिकाओं की निर्माण शैली व पाषाण कला का विवरण।

यह सनातन सत्य है कि "जल जीवन का आधार है"। इसी लिए जल को प्राण रक्षक देवता के रूप में पूजा जाता है। इसके कारण ही सृष्टि के नौ ग्रहों में से एक ग्रह हमारी पृथ्वी 🌏 की एक अलग व विशिष्ट पहचान है। जल ही वह कारक है जिसके कारण पृथ्वी पर जीवन संभव है।

उत्तराखंड देवभूमि को स्रष्टा ने इस जीवनदायिनी शक्ति से विशेष रूप से अलंकृत किया है। इसकी गगनचुंबी अट्टालिकाओं के गर्भ को चीर कर कल-कल निनादिनी सदानीरा नदियों का उद्गम होता है 🙏 जो उत्तराखंड ही नहीं पूरे भारतवर्ष की हृदय नलिकाओं को अभिसिंचित कर जीवन प्रवाह करते हैं।

आइए जानते हैं कि इस जीवन संचरण शक्ति के उत्तराखंड में क्या क्या रुप हैं। इसी क्रम में आज प्रस्तुत है मेरे मूल ग्राम गटकोट सिलोगी पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड की जल संचारिकाओं के विषय में :-

1)मंगारे-हमारे गांव में दो मृदु जल के मंगारे हैं जो गौमुखी हैं। इन दोनों का मुख्य स्रोत गटकोट के उत्तर में स्थित घनशाली गांव की सरहदी चोटी के नीचे है जहां से जमीन के अंदर ही अंदर से यह शीतल मधुर जलधार इन मंगारौं तक पहुंचती है और इस क्षेत्र के लिए एक जीवन प्रवाह की भूमिका निभाती हैं । इनका जल शीतल और सुपाच्य है, इसलिए लोग भोजन आदि व्यवस्था में तो नल का पानी प्रयोग करते हैं परंतु पीने के लिए एक गागर भरकर यहीँ से ले जाते हैं।

भूमिगत स्रोतों की खासियत होती है कि सर्दियों में इनका जल गुनगुना और गर्मियों में एकदम शीतल होता है, इस लिए भी यह लाभदायक और गुणकारी माना जाता है। पलायन की विभीषिका के कारण अन्य महीनों में तो यहां सीमित ही आवाजाही होती है क्योंकि गांव में स्थानीय गदेरे से एक पाइपलाइन बिछी है और वही गांव की जलापूर्ति करने के लिए पर्याप्त है परंतु मई जून में प्रवासियों के घर लौटने के बाद पाइपलाइन का पानी कम होने के कारण व इन मंगारौं के शीतल मधुर जल का स्वाद चखने के लिए भी यहां लोगों का मेला सा लग जाता है। ये दोनों ही मंगारे गटकोट के तीन तोकों की प्यास बुझाने के लिए अपनी जलधार सतत रूप से प्रवाहित करते रहते हैं।

इनकी निर्माण शैली व पाषाण कला के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए लेखक ने अपने गाँव के कुछ बुजुर्गों से पूछताछ की तो ज्ञात हुआ कि इन मंगारौं का निर्माण स्थानीय शिल्पकारों ने ही किया था। इसके लिए पत्थर की चौकोर (१-१/२हाथ लंबी, 2बालिश्त ऊंची व 1बालिश्त चौड़ी) सिल्ली का प्रयोग किया गया है जिसमें एक ओर लंबाई में सवा हाथ लंबी 8अंगुल चौड़ी व 10 अंगुल ऊंची नाली, हथोड़ी व छेनी की सहायता से बनाई गई है और अग्रभाग में ऊपर की ओर गाय 🐮 के मुख जैसा आकार निर्मित किया गया है और नीचे से जलधारा निकालने के लिए एक 3अंगुल करीब व्यास का एक छिद्र किया गया है। गौमुख को मुलायम व आकर्षक बनाने के लिए इन्हें रेती(लोहा घिसने का औजार) से घिसकर चमकाया गया है।

इसी तरह गांव के उत्तर में स्थित मोहारी गांव तोक में पहले बस्ती की पश्चिमी घाटी में एक नौला हुआ करता था जिसे बाद में आधुनिकीकरण के चलते सीमेंट से टैप कर टैंक में एकत्र करने का प्रयास किया गया था और शायद वह नौला अब तक सूख भी चुका है।

भीषण गर्मी में नदी स्रोत में जल स्तर कम होने या बरसात में बाढ या भूधंसाव के कारण पाइपलाइन क्षतिग्रस्त होने से जब जलापूर्ति बाधित हो जाती है तो यही मंगारे जलापूर्ति के स्रोत की भूमिका निभाते हैं। इसलिए इन जलसंवाहिकाओं का संरक्षण अति आवश्यक है।

आलेख :विवेकानंद जखमोला