उत्तराखंड के कलम वीर
मैं जब कविता में रचूंगा
ईजा का चेहरा
नदी लिखूंगा
चिड़ियाँ लिखूंगा
पेड़ लिखूंगा
खेत और नाज की बालियां लिखूंगा
पहाड़ के सबसे ऊँचे भीटे पे
मेमने को दूध पिलाती
घास चरती बकरियां लिखूंगा
मैं जब कविता में
रचूंगा ईजा
उसे चाहा की कटक लिखूंगा
भांग का नमक लिखूंगा
वन भवंरो का शहद लिखूंगा
मैं जब ईजा के बारे में लिखूंगा
गुपचुप की गयी प्रार्थनाओं के बारे में लिखूंगा
भरभाटी ,जू-घर में रखे
अशिका, उचैण
ख्रीज और चावल के दानों के बारे में लिखूंगा
धोती की गाँठ में छिपा के रखे
पैसों के बारे लिखूंगा
ईजा के बारे में लिखते हुए मैं
उदास मगर हँसने वाले चेहरे के बारे में लिखूंगा
खुरदुर कामगार हाथ
चीरे पड़े पैरों के साथ साथ
मोमबत्ती के लेप के बारे में लिखूंगा
ईजा के बारे में लिखते हुए मैं
काज बरियात के बाद
अपने ससुराल लौटने से पहले
देली पूजती
पिल पिल आँसू ढलकाती
गुपचुप सोचने वाली
बहनों के बारे में लिखूंगा
जब लिखूंगा ईजा के बारे में
उसे सैनिक बेटे की वर्दी पर
सीना उचकाते पिता की तरह नहीं
बल्कि बेरोजगार बेटे की
तारीफ में कहे दो शब्दों की तरह लिखूंगा
ईजा के बारे में लिखते हुए
अपनी बेरोजगारी लिखूंगा
अपनी बेरोजगारी लिखते हुए
लुटेरों की सरकार लिखूंगा
सरकार लिखते हुए
नारे लिखूंगा
और एक दिन ईजा
झल्ला के कहेगी
सरकार के घर आग लगे
बजर पड़े।
कविता: डॉ अनिल कार्की