उत्तराखंड परिपेक्ष में हलवा का इतिहास : हिल जाओगे

आलेख -भीष्म कुकरेती (वनस्पति व सांस्कृति शास्त्री )

हलुवा /हलवा /हलुआ के बगैर हिन्दुस्तानी हिन्दू कोई पूजा कार्य समझ ही नहीं सकता। जब पंडीजी गणेश (पूजा स्थल ) के सामने नैवेद्यम कहते हैं तो सबकी नजर हलवा पर जाती है। जब कथा या कीर्तन समाप्ति बाद पंडीजी कहते हैं " हां अब चरणामृत और प्रसाद बांटो " तो चरणामृत , आटा या सूजी की पंजरी , और सूजी का हलवा ही मतलब होता है। व्याह शादियों में पहले जीमण का अर्थ होता था पूरी परसाद।

हलवे पर न जाने कितने कहावतें मशहूर हैं धौं। एक कहावत मेरे चचा जी बहुत प्रयोग करे थे -" अफु स्यु उख हलवा पूरी खाणु अर इख बुबा लूंग लगैक पुटुक पळणु " (लूंग = न्यार बटण ) . हलवा पूरी खाएंगे खुसी व सम्पनता का सूचक है। पहाड़ियों में मृतक शोक तोडना याने बरजात तोड़ने पर भूड़ा और सूजी तो बनती ही है। आजकल कहावत भी चल पड़ी है --" एक मोदी तो क्रिकेट लूट करके लन्दन में हलवा खा रहा है , दूसरा बैंक लूट कर अमेरिका में हलवा खा रहा है और बेचारा नरेंद्र मोदी व्रत रख रहा है " .

याने हम हलवा बगैर जिंदगी समझ नहीं सकते हैं। हलवा याने किसी वस्तु को घी में भूनकर गुड़ /शक़्कर के साथ बाड़ी। आज दस से अधिक हलवा बनते हैं , खाये जाते हैं और नई नई किस्मे ईजाद हो रहे हैं

अनाज के आटे से बने हलवा

गेंहू , रवा /सूजी ; मकई , चावल , मंडुआ , जौ , मर्सू (चूहा , राजदाना , चौलाई ) , आदि

दालों से बगैर आटा बनाये बना हलवा

मूंग , अरहर व चना

सब्जियों से बना हलवा

गाजर , लौकी , आलू , जिमीकंद , चुकुन्दर आदि

फलों का हलवा

कच्चे पपीते का हलवा , कच्चे केले का हलवा , कद्दू को उबालकर हलवा , अनन्नास , आम , तरबूज , भुज्यल /पेठा , खजूर , कटहल को मिलाकर

अति स्थानीय हलवा

राजस्थान आदि में मिर्ची या हल्दी का हलवा

सूखे मेवों हलवा

नथ -बुलाक जैसे ही हलवा हिन्दुस्तानी नहीं है

सुनकर आपके हलक में हलवा फंस जाएगा कि जैसे नथ -बुलाक गहने हिन्दुस्तानी ओरिजिन के नहीं हैं वैसे ही हलवा का जन्म हिन्दुस्तान में नहीं हुआ। हवा संट हो जायेगी कई हिन्दुओं की जब जानेंगे कि हिंदुस्तान में हलवा सबसे पहले किसी हिन्दू पाकशाला में नहीं अपितु मुगल रसोई में बनी थी।

जी हाँ और इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। जरा तर्क से काम लें तो पाएंगे कि हमारे पुराने मंदिरों में हलवा नैवेद्य चढ़ाने की संस्कृति नहीं है , ना ही किसी ग्रह , नक्षत्र या राशि को प्रसन्न करने के लिए ज्योतिषी किसी विशेष हलवे की सिफारिश करते हैं । प्राचीन संस्कृत में हलवा शब्द ही नहीं है। जातक कथाओं , जैन कथाओं व आधुनिकतम पुराणों में हलवा जैसे भोजन का नाम नहीं आता है। लपसी का नाम सब जगह आता है।

गढ़वाल -कुमाऊं -हरिद्वार में ही देख लीजिये तो पाएंगे कि मंदिरों में अधिकतर भेली चढ़ाई जातीं हैं ना कि हलवा चढ़ाया जाता है। गढ़वाल -कुमाऊं में क्षेत्रीय देव पूजन में रोट काटा जाता है ना कि गुड़जोळी (आटे का हलवा ) या हलवा। डा हेमा उनियाल ने भी केदारखंड या मानसखंड में कहीं नहीं लिखा कि फलां मंदिर में हलवा ही चढ़ाया जाता है। यदि किसी मंदिर में हलवा चढ़ाया भी जाता है तो समझ लो यह मंदिर अभी अभी का है और पुजारी ने अपनी समझ से हलवा को महत्व दिया होगा। तो अब आप सत्य नारायण व्रत कथा की बात कर रहे हैं ? जी तो इस व्रत कथा का प्रचलन प्राचीन नहीं है जी। लगता है हलवा आने के बाद ही सत्य नारायण व्रत कथा का प्रचलन भारत में हुआ होगा।

तुर्की हलवे का जन्म दाता है

यद्यपि तुर्की के आस पास के कई अन्य देश भी तकरीर देते हैं कि हलवा उनके देश में जन्म किन्तु अधिसंख्य भोजन इतिहास कार तुर्की को होला का जन्मस्थल मानते हैं। इस्ताम्बुल वाले तो अभी भी ताल थोक कर कहते हैं हमने हलवाह का अविष्कार किया। कुछ कहते हैं कि हलवाह तो 5 000 साल पुराना खाद्य है। हो सकता है गोंद , गुड़ , आटे , तेल से बना कोई खाद्य पदार्थ रहा हो।

लिखित रूप में सबसे पहले तेरहवीं सदी में रचित 'किताब -अल -ताबीख ' में हलवाह की छह डिसेज का उल्लेख है। उसी काल की स्पेन की एक किताब में भी इसी तरह के खाद्य पदार्थ का किस्सा है।ऑटोमान के सुल्तान महान सुल्तान सुलेमान (1520 -1566 ) ने तो अपने किले के पास हलवाहन नामक किचन ही मिठाईयाँ पकाने के लिए बनाया और वहां कई मिष्ठान बनते थे।

लिली स्वर्ण 'डिफरेंट ट्रुथ ' में बताती हैं कि हलवाह सीरिया से चलकर अफगानिस्तान आया और फिर सोलहवीं सदी में मुगल बादशाओं की रसोई की शान बना और फिर सारे भारत गया। देखते देखते मिष्ठान निर्माता 'हलवाई ' बन बैठे। वैसे हलवाई को लाला भी कहा जाता है तभी तो तमिल में लाला को हलवा कहा जाता है। याने लाला लोग उत्तरी भारत से हलवा को दक्षिण भारत ले गए। आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही कारण होगा बल बंगलौर शहर में मिठाई व्यापार में अग्रवालों का एकाधिकार है।

हाँ किन्तु उत्तरी भारत के हलवाइयों को इतना भी गर्व नहीं करना चाहिए। केरल में हलवा प्राचीन अरबी व्यापारी लाये थे।

उत्तराखंड में हलवा

उत्तराखंड में हलवा ने यात्रीयों द्वारा प्रवेश किया होगा। यात्री अपने साथ या तो सूजी लाये होंगे और चट्टियों में बनवाया होगा या उत्तराखंडी हरिद्वार , बरेली , मुरादाबाद गए होंगे और इस मिष्ठान की बनाने की विधि सीख लिए होंगे। सूजी का प्रचलन तो सम्पनता के साथ ही आया होगा। सन 1960 तक तो सूजी भी जो कभी कभार बनती थी भी सौकारों का ही भोजन माना जाता था। हाँ अब ग्रामीण युवा पूछते हैं बल गुड़जोळी किस खाद्यान या पेय को कहते हैं।

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