केदारखण्ड में खस जाति

ऐतिहासिक दृष्टि से उत्तराखंड के गढ़वाल मण्डल को 'केदार खण्ड' तथा कुमाऊँ को 'मानस खण्ड' नाम से जाना जाता है। 'केदारे खस मण्डले' की उक्ति के अनुसार केदारखण्ड खस देश का पर्याय है। (राहुल सांकृत्यायन- हिमालय परिचय-भाग-1 पृष्ठ-52) शिव प्रसाद डबराल जी लिखते हैं कि खस जाति आर्य जाति के भारत में आगमन से सदियों पूर्व प्रविष्ट हुई और धीरे-धीरे कश्मीर से नेपाल तक सारे मध्य हिमालय पर तथा भारत के उत्तरी मैदान और दक्षिण के पठार तक छा गई। कश जाति को अपने जाति नाम कश-खस तथा अपने देव वाचक 'शू' शब्द से इतना प्रेम था कि हिमालय के विभिन्न भागों में सैकड़ों स्थानों के साथ 'कश-खस' या 'शू' जुड़े मिलते हैं।

खस एक शक्तिशाली जाति थी। ये लंबे कद, लंबी नाक, प्रचुर दाढ़ी-मूंछ युक्त, चौड़े वक्ष वाले हृष्ट-पुष्ट तथा गेहुएँ रंग के थे। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि तथा पशुपालन था। जिस प्रकार किरातों ने पुरानी जातियों- कोल आदि को खदेड़ा था, उसी प्रकार खसों ने यहां रह रही पुरानी जातियों को अपने अधीन किया तथा अपना दास बनाया था। धीरे-धीरे संगठित होकर छोटे-छोटे गढ़ बनने लगे। ऋग्वेद में यहां सहस्र गढ़ों का उल्लेख मिलता है। वेदों में खस शब्द प्रयुक्त न होने से लगता है कि वैदिक काल में खसों को खस न कहकर दस्यु कहा जाता था। (उत्तराखंड यात्रा दर्शन- डबराल पृष्ठ-6)

हिमशिखरों के पाद प्रदेश में और महानदियों के तटों पर पशुचारण करने वाली खस जाति इन शिखरों तथा नदियों में प्राचीन काल से ही देवत्व की कल्पना करने लगी थी। उसने इन शिखरों के पाद प्रदेश और नदी-घाटियों में यमनोत्तरी, उत्तरकाशी, गंगोत्तरी, बूढ़ा केदार, त्रियुगीनारायण, केदारनाथ, कालीमठ, विनसर, बदरीनाथ आदि तीर्थों की स्थापना की थी। इनमें से अनेक तीर्थों की पूजा आज भी खस जाति के हाथ में है। (उत्तराखंड यात्रा दर्शन- शिव प्रसाद डबराल- पृ० 7) डाॅ० एल० डी० जोशी की 'खस फेमली लाॅ' नामक शोध ग्रंथ खस जाति पर किया गया विस्तृत अध्ययन है।

खस जाति को वनाच्छादित तथा अगम्य पहाड़ी ढलानों पर जंगली जानवरों का भय हर समय बना रहता था। हिमखण्डों के टूटने, घने जंगलों के बीच वन्य जीवों तथा हवा-पानी के वेग से निकलने वाली किस्म-किस्म की आवाजों ने इन्हें किसी अदृश्य शक्ति को मानने की प्रेरणा दी। शिव प्रसाद डबराल जी ने लिखा है कि 'शकुंतला, जिसकी गाथा लेकर महाकवि कालिदास ने अपने अमर नाटक 'अभिज्ञानशाकुंतलम्' की रचना की थी तथा जिसके पुत्र भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा, गढ़वाल की खस बालिका थी। इसी प्रकार ऊषा जिसने श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का अपहरण किया था, भी खस बालिका ही थी। ऊषा के पिता वाणासुर की राजधानी रुद्रप्रयाग जनपद में गुप्तकाशी के पास बामसू में मानी जाती है। ऊषा के नाम पर ही बामसू के ठीक सामने मंदाकिनी के पार ऊखीमठ (ऊषा मठ) है। यहीं पर ओंकारेश्वर मंदिर में ऊषा ने अनिरुद्ध से गुप्त विवाह किया था। इनकी विवाह-वेदी मंदिर आहाते में ही अभी तक मानी जाती है।

खस जाति में टेक्वा विवाह (मृत पति के नाम पर दूसरे से संतानोत्पत्ति), देवर-भाभी विवाह, बहु पति-पत्नी विवाह, घर जवांई आदि प्रथाएँ प्रचलित थीं। आर्यों में बहु पति प्रथा संभवत: खसों का ही प्रभाव था।

वर्तमान में खसों की प्रथाएँ लगभग समाप्ति पर हैं। आज भी यहां कई खस जाति के लोग हैं, जिन्होंने अपनी उपजातियाँ बदल ली हैं। ये खस कहने में अपना अनादर समझते हैं। जबकि खस जाति परिश्रमी एवं वीर जाति थी।

(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल, वर्ष- 2002)