" भालू से मुलाकात "

बात बहुत पुरानी है। सन् 1969 के जुलाई के महीने की है। मेरी उम्र उस वक्त दस वर्ष की थी।यह किस्सा मेरे गाँव प्रवास के दौरान का ही है। मेरा गाँव उत्तराखण्ड के पौड़ी गढवाल जिले के लैंसडाउन तहसील के अंतर्गत आता है। मेरा गाँव चारो तरफ से पहाडियों से घिरा हुआ है। गाँव के ऊपर ही पीछे की तरफ चीड़, बाँज व काॅफल के पेड़ो का घना जंगल है।पहाड़ियों के बीच- बीच में छोटे मोटे बहते पानी के गधेरे भी काफी हैं कहीं -कहीं पेड़ो पर माॅलू की बेल सांप की तरह लिपटी रहती है, । गधेरे , झरनों की स्यूं स्यूं की डरावनी आवाज सरसराती रहती है। पर, हाँ भेड़- बकरियां , गाय- बैल चराने के लिये बहुत ही अच्छा हरा भरा चारागृह है । कभी कभी जब चाचा इधर उधर काम से कहीं दूसरे गाँव गये होते तो उस दिन मेरी ड्यूटी भेड़ बकरियों को जंगल चराने ले जाने की होती थी।

मैं आलसी तो बचपन से ही हूँ , तो आदतन उस दिन भी दस बजे के बाद ही मैं बैलों गाय व बकरियों को लेकर घने जंगल की तरफ अकेले ही चल पड़ा। गाँव के बाकी चरवाहे तो जल्दी ही पता नहीं कब दूसरी पहाड़ी की तरफ निकल चुके थे। उस दिन बरसात की झड़ी सुबह से ही थी।

हरियाली चारो तरफ खिलखिला रही थी। मैं भी अपने जानवरों को अच्छी खुराक के चक्कर में उस घने जंगल की तरफ ले गया था। भेड़- बकरियों अौर गाय - बैलों को चरने को छोड़कर मैं अपनी बड़ी सी छतरी अोढे एक ऊंचे ढैया ( पहाड़ पर ऊंचा स्थान) पर बैठ कर प्रकृति को निहार रहा था। बीच - बीच में रामलीला की चौपाई व गढवाली गाने मस्ती में जोर -जोर से गा रहा था।

बरसात में पहाड़ के जंगल की हरियाली छटा देखने लायक होती है।

अंदाजन दोपहर के तीन बजे का समय होगा। हल्का- हल्का कोहरा भी छाया हुआ था। तभी मैं देखता हूँ कि मैरे बैल व गाय फूं फूं करते हुए ऊपर की अोर भागने लगे। उनके पीछे बकरियां अौर भेड़े भी लाइन बनाकर दौड़ रही थी । मैं सोचने लगा कि अरे! इन्हे क्या हुआ । इतनी जल्दी ये सब घर के रस्ते की तरफ क्यों दौड़ लगाने लगे । मैं उन्हें अपनी भीमल की सोट ( छड़ी) से नीचे की अोर वापस जाने को मारने लगा पर वो सब तो पूंछ उठाकर घर का रस्ता पकड़ कर भाग रहे थे । मुझे गुस्सा आ रहा था कि इनको हरी भरी अच्छी घास के चारे के चक्कर में तो इस घने जंगल में लाया लेकिन ये घर भाग रहे हैं। सभी ने घर की दौड़ लगा ली। मैं ले,ले, म्यां म्यां चिल्लाकर उन्हें रोक रहा पर वो तो मुझे ही लताड़ने लगे।

तभी मैं ऊंचाई पर गया अौर एक दो बकरे जो पीछे थे उन्हें नाम से बुलाने लगा। वो भी मुझे भागते हुए नज़र आ गये। अरे बाप रे! यह क्या! मेरे तो काटो खून नहीं। मेरी नज़र एक बाॅंज के पेड़ पर पत्तों की झुरमुट के बीच काली छाया पर पड़ी। कड़गच , कड़गच की आवाज मुझे साफ सुनाई दे रही थी । अरे! मेरे तो होश ही उड़ गये। उस बाँज के पेड़ पर बड़े बड़े बाल वाला काला बड़ा भालू बंजक्वाल ( बाँज के फल) खा रहा था पर उसकी नज़र नीचे की अोर थी। जिस ढैया पर मैं बैठा था उस से भालू मुश्किल से कुछ मीटर दूर। था । जानवर मनुष्य से ज्यादा समझदार होते हैं। मेरे पालतू प्राणी खतरा भांप गये थे अौर मेरे बार- बार सोट से मारने पर ही खतरे की तरफ न जाकर घर की तरफ चल दिये थे। मैने अपने डंगर तेजी से गाँव की तरफ दौड़ाये अौर घर की पंहुच कर ही सांस ली। अगर मेरे पशु मुझे आगाह न करते तो मैं उस दिन भालू का शिकार बन गया था।उसके बाद मैं कभी भी अकेले उस जंगल की तरफ बकरियां चराने नहीं गया।