रम्माण :- विरासत उत्तराखंड की

मुखौटा नृत्य होते हैं रम्माण के आकर्षण

मुखौटा नृत्य रम्माण के मुख्य आकर्षण होते हैं। मुखौटे भोजपत्र और लकड़ी के बनाये जाते हैं। कलाकारों का मेकअप ऊन, शहद, आटा, तेल, हल्दी, सिंदूर, घ्यासू यानि कालिख आदि से किया जाता है। इसमें स्थानीय पेड़ पौधों और सब्जियों का उपयोग भी किया जाता है। हिन्दुओं में किसी भी धार्मिक कार्य की शुरुआत गणेश पूजन से होती है और रम्माण में भी मुखौटा नृत्य के शुरू में गणेश कालिका के नृत्य से होती है। गणेश के साथ ब्रह्मा की उत्पत्ति भी इसमें दिखायी जाती है। सूर्य भगवान के लिये भी नृत्य होता है जबकि स्थानीय लोग नारद के स्थानीय रूप बुढ़ देवा का बड़ा बेसब्री से इंतजार करते हैं। बुढ़ देवा अपने शरीर पर कंटीली घास चिपकाकर रखता है और फिर लोगों के बीच घुसता है। ढोल, दमाऊ और विभिन्न तरह के वाद्ययंत्रों पर कृष्ण और राधा का नृत्य मनमोहक होता है। इनके अलावा कई सामयिक मुखौटा नृत्य भी होते हैं। इनमें म्वार—म्वारिन का नृत्य भी जिसमें दिखाया जाता है कि चरवाहे अपने भैसों के झुंड को लेकर जंगल से गुजरते हैं और म्वार पर बाघ हमला करता है। आम आदमी की दैनिक समस्याओं को दर्शाने के लिये बनिया—बनियाइन का नृत्य होता है। इसके बाद ही रामायण की शुरुआत होती है जिसके कारण इसका नाम रम्माण पड़ा है। इसमें पूरी रामायण की कहानी स्थानीय जागरी कहता है जिस पर नर्तक प्रदर्शन करते हैं। रामायण से जुड़े इन नृत्यों के लिये 18 मुखौटे, 18 ताल, 12 ढोल, 12 दमाऊ और आठ भंकोरों (स्थानीय वाद्ययंत्र) का उपयोग किया जाता है। रामायण के गायन और उस पर नृत्य की शुरुआत राम जन्म से होती और यह राम लक्ष्मण का जनकपुर जाना, सीता स्वयंवर, राम वनवास, स्वर्ण मृग का वध, सीता हरण, हनुमान का सीता से मिलना, लंका दहन, राम रावण युद्ध और राजतिलक तक चलते हैं।

नृत्य के कलाकारों को तैयार करना भी आसान काम नहीं है। बाद में ये कलाकार आकर्षण का केंद्र होते हैं।

रम्माण महोत्सव में कुछ ऐतिहासिक पुट भी डाल दिये गये हैं जैसे कि गोर्खाओं का गढ़वाल पर आक्रमण। इस पर आधारित 'माल नृत्य' होता है। माल नृत्य के लिये चार कलाकारों का चयन किया जाता है। इनमें दो लाल और दो सफेद रंग की पोशाक पहने होते हैं। इसमें लाल पोशाक पहनने वाले एक कलाकार का सलूड़ गांव के कुंवर जाति का होना जरूरी है जबकि तीन अन्य का चयन गांव के पंच करते हैं। इनमें से लाल पोशाक पहनने वाला दूसरा माल डुंग्रा गांव का होता है जबकि सफेद पोशाक के लिये दोनों गांव से एक एक कलाकार का चयन किया जाता है। इसके साथ ही स्थानीय दंतकथाओं और लोक कथाओं पर आधारित ​नृत्य भी होते हैं। नृसिंह नृत्य और कूरजोगी नृत्य का भी अलग महत्व होता है। इस महोत्सव का समापन गांव में भोज से होता है जिसमें शुरू में प्रसाद बांटा जाता है। पहाड़ों में किसी भी धार्मिक कार्य में बकरे की बलि दी जाती है और रम्माण महोत्सव भी इससे अछूता नहीं है। बकरे की बलि भोज के लिये दी जाती है और बेहतर यही होगा कि इसे रम्माण जैसे पवित्र धार्मिक उत्सव नहीं जोड़ा जाए।

रम्माण के प्रति स्थानीय लोगों का उत्साह अब भी बना हुआ है। यूनेस्को से सम्मान मिलने के बाद लोग इस धरोहर को बनाये रखने के लिये प्रेरित हुए हैं लेकिन पलायन की मार का असर इस पर भी पड़ रहा है। सरकार ने पहले रम्माण को नजरअंदाज किया लेकिन अब उम्मीद जगी है कि इस परंपरा को कायम रखने के लिये राज्य सरकार उचित कदम उठायेगी।

यूनेस्को (UNESCO) ने “रम्माण” को विश्व धरोहर घोषित किया है, ये हम सभी उत्तराखंडियों के लिये गर्व की बात है।

यूनेस्को (UNESCO) ने “रम्माण” को विश्व धरोहर घोषित किया है, ये हम सभी उत्तराखंडियों के लिये गर्व की बात है।

आप में से कितने सुधि मित्र रम्माण के बारे में जानते हैं,इस बार यहाँ जाना था पर कोरोना महामारी के कारण यह उत्सव स्थगित सा हो गया है, ऐसा एक मित्र ने जोशीमठ से बताया है।यूनेस्को (UNESCO) ने “रम्माण” को विश्व धरोहर घोषित किया है, ये हम सभी उत्तराखंडियों के लिये गर्व की बात है।


रम्माण उत्सव

पैनखंडा क्षेत्र में आठवीं सदी से आयोजित हो रहे रम्माण मेले को वर्ष 2009 में यूनेस्को की ओर से विश्व धरोहर में शामिल किया गया। मेले का मुख्य आकर्षण यहां होने वाला मुखौटा नृत्य है। मुखौटा नृत्य के माध्यम से यहां लोक कलाकार ढोल की थाप पर 18 तालों में भगवान राम की लीलाओं का प्रदर्शन करते हैं। क्षेत्र में बैशाखी पर्व पर भूमियाल देवता की पूजा के साथ रम्माण का आयोजन किया जाता है, जिसके बाद भूमियाल देवता क्षेत्र में भ्रमण करते हैं। भ्रमण के दौरान गांव में प्रत्येक दिन रात्रि के समय मुखौटा नृत्य करते हैं। धार्मिक अनुष्ठान के अंतिम दिन रम्माण मेले का आयोजन होता है। मेले के संयोजक डा. कुशल सिंह भंडारी का कहना है कि मेले के माध्यम से क्षेत्र की इस पौराणिक सांस्कृतिक धरोहर को विश्व पटल पर पहचान मिली है। इस प्राचीन धार्मिक आयोजन में शामिल होने के लिए बाहरी क्षेत्रों से भी बड़ी संख्या में लोग सलूड़ गांव पहुंचते हैं।

रम्माण :- विरासत उत्तराखंड की

रम्माण के दौरान जिन ऐतिहासिक और काल्पनिक पात्रों द्वारा दर्शकों का मनोरंजन किया जाता है वे इस प्रकार है बण्यां-बण्यांण, मल्ल, कुरु-जोगी आदि। रम्माण उत्सव में बहुत से देवताओं के मुखोटे लगा कर नृत्य भी किया जाता है और जागर गीतों के माध्यम से उनका आह्वाहन किया जाता है।

“बैसाखी” शब्द बैशाख से जन्मा है, बैसाख यानि हिन्दू काल गणना के अनुसार वर्ष का द्वितीय माह। पवित्र बैसाख माह का सम्बन्ध फसल कटाई, देवी-देवताओं और धार्मिक परम्पराओं से है। उत्तराखंड में “बैसाखी” बिखोती नाम से प्रचलित है। “बिखोती” के अवसर पर उत्तराखंड के अनेक सुरम्य स्थानों पर धार्मिक अनुष्ठानों और मेलों का आयोजन करने की परंपरा रही है।

चमोली जिले के गाँव सलूड-डुंग्रा में बैसाखी पर आयोजित होने वाला “रम्माण” उत्सव उत्तराखंड की बहुरंगी कला और संस्कृति का परिचय पूरी दुनिया में करा रहा है। “रम्माण” में नृत्य नाटिका के द्वारा रामायण के विभिन्न प्रसंगों, पौराणिक और ऐतिहासिक गाथाओं का प्रदर्शन किया जाता है। यूनेस्को (UNESCO) ने “रम्माण” को विश्व धरोहर घोषित किया है, ये हम सभी उत्तराखंडियों के लिये गर्व की बात है।

सलूड-डुंग्रा गाँव में आयोजित होने वाले “रम्माण” उत्सव का सम्बन्ध उत्तराखंड के लोक देवता भूमियाल से है। भूमियाल देवता न्याय के देवता है। उत्तराखंड में फसल कटाई के दौरान भूमियाल देवता की पौराणिक काल से ही सामूहिक रूप से पूजा अर्चना आयोजित करने की परंपरा रही है। सलूड-डुंग्रा गाँव में भी “रम्माण” उत्सव से पूर्व, तीन दिनों तक भूमियाल देवता की परिवारों में पुरे विधि विधान से पूजा की जाती है।

बैसाखी से पूर्व रात्रि को गाँव के लोग एक स्थान पर एकत्र होते है और जागरण का आयोजन किया जाता है। स्थानीय भाषा में इस आयोजन को “स्युर्तु” कहते है। ढोल-दमाऊ, भंकोरा, मजीरे (उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्य यन्त्र) के सुर ताल में “रम्माण” उत्सव में सम्मिलित सभी लोग नृत्य करते है। “स्युर्तु” में वे सभी लोग भी होते है जो अगले दिन (बैसाखी) पर आयोजित होने वाली रम्माण नृत्य नाटिका में महत्वपूर्ण पात्रों की भूमिका निभाएंगे।

बैसाखी के दिन भूमियाल देवता को पूजा समाप्ति के पश्चात घर से बहार लाया जाता है। एक लंबे बांस के दंड के सिरे पर भूमियाल देवता की चाँदी के मूर्ति लगाई जाती है और इसे रंग बिरंगे कपड़ों, गाय की पूँछ के बालों से सजाया जाता है। स्थानीय लोग इसे “लवोटू” कहते है। गाँव के भूमियाल देवता मंदिर प्रांगण में रम्माण नृत्य नाटिका आयोजित की जाती है और रामायण के विभिन्न प्रसंगों का बड़े ही सुंदर और रोचक तरह से मंचन किया जाता है।

रामायण के प्रसंगों के मंचन के बीच बीच में पात्र जब आराम करते तो दूसरे काल्पनिक पात्र पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं के मंचन से दर्शकों का मनोरंजन करते है। एक व्यक्ति लवोटू को थामे रहता है और संगीत की मधुर ताल पर लवोटू को अपने साथ नृत्य भी कराता है। रम्माण के दौरान जिन ऐतिहासिक और काल्पनिक पात्रों द्वारा दर्शकों का मनोरंजन किया जाता है वे इस प्रकार है बण्यां-बण्यांण, मल्ल, कुरु-जोगी आदि। रम्माण उत्सव में बहुत से देवताओं के मुखोटे लगा कर नृत्य भी किया जाता है और जागर गीतों के माध्यम से उनका आह्वाहन किया जाता है।

संवाद विहीन रम्माण उत्सव में संगीत की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

विभिन्न संगीतमय ताल मेल और जागर (देवताओं के आह्वाहन गीत) के माध्यम से अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रसंगों को नृत्य के साथ दर्शकों के समक्ष रखा जाता है। रम्माण की प्रस्तुति में जिन लोक गायको का सहियोग लिया जाता है उन्हें यहाँ की स्थानीय भाषा में जागरिया और भल्ला कहा जाता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में अब रम्माण के लिए जागर गाने वाले लोक कलाकारों भी विलुप्ति की और बढ़ रहे है। सरकार और सामाजिक संस्थाओं को अब आगे आना होगा ताकि रम्माण उत्सव से जुड़े हर पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया जा सकें और उनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाये जा सकें।

रम्माण उत्सव उत्तराखंड की अमूल्य विरासत है। उत्तखंड के सभी नागरिकों का ये दायित्व बनाता है की अपनी इस विरासत को सहेजें और संवारे। आशा है, आप सभी उत्तराखंड के चमोली जिला के सलूड-डुंग्रा गाँव में रम्माण उत्सव में एक बार अवश्य आएंगे।

“प्रकृति से संस्कृति है, संरक्षित प्रकृति के साथ सभी नागरिको को संस्कृति को भी समृद्ध बनाना होगा तभी जाके सामाजिक जीवन विकसित और खुशाल कहलायेगा”


इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक शृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते है। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है।

हर साल अप्रैल माह के दूसरे पखवाड़े में भूमि क्षेत्रपाल यानि भूमियाल देवता (भूम्याल देवता) की पूजा के लिये रम्माण महोत्सव का आयोजन किया जाता है। रम्माण बैशाखी के बाद नौ से 11वें दिन पर शुरू होता है। इसमें रामायण का गायन होता है और रम्माण उसी का अपभ्रंश है। अंतर इतना है कि रम्माण का गायन गढ़वाली बोली में होता है। विभिन्न तरह के मुखौटा नृत्यों में कई तरह के नृत्य शामिल होते है। कहा जाता है कि इन गांवों में 1911 से रम्माण महोत्सव का हर साल आयोजन होता है। वैसे उत्तराखंड में मुखौटा नृत्यों की शुरुआत आदि शंकराचार्य के समय हो गयी थी। पहले बद्रीनाथ यात्रा के शुरू में जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में रम्माण महोत्सव होता था जिसमें रामायण गायन और मुखौटा नृत्य शामिल थे लेकिन अब यह मुख्य रूप से सलूड़ और डुंग्रा गांवों तक ही सीमित रह गया है। इन दोनों गांवों में यह परपंरा वर्षों से चली आ रही है और ये इसके आयोजक होते है। दोनों गांवों का प्रत्येक परिवार इसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाता है। इसमें सभी जातियों के लोग भाग लेते हैं और उनकी भूमिकाएं भी जाति के हिसाब से बांट दी जाती हैं।

रम्माण में जो युवा अपने कला और कौशल का प्रदर्शन करते हैं

उनका चयन दोनों गांवों के मुखिया और पंच मिलकर करते हैं। इन युवाओं को बाकायदा इसकी रिहर्सल दिलायी जाती है। किसी ब्राह्मण को पुजारी नियुक्त किया जाता है जो भूमियाल देवता के मंदिर में तमाम अनुष्ठान करता है दूसरी तरफ नृसिंह देवता का मुखौटा केवल सलूड़ गांव के भंडारी (राजपूत) ही पहन सकते हैं। किसी एक प्रमुख व्यक्ति को 'बारिस' नियुक्त कर दिया जाता है जो धन इकट्ठा करने से लेकर पूजा तक के आयोजन के लिये जिम्मेदार होता है। उसकी मदद के लिये 10 से 12 लोग ​होते हैं जिन्हें 'धारिस' कहा जाता है। पंच अगले साल के रम्माण महोत्सव के लिये भूमियाल देवता के निवास का भी चयन करते हैं। भूमियाल देवता एक साल के लिये जिस घर में रहता है उस परिवार के मुखिया को हर दिन इसकी पूजा करनी पड़ती है। बैशाखी के दिन भूमियाल देवता को पूरे गाजे बाजों के साथ मंदिर में लाया जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिर 200 साल पुराना है। दूसरे दिन देवता को हरियाली चढ़ायी जाती है और फिर हर दिन भूमियाल देवता गांवों का चक्कर लगाता है।