म्यारा डांडा-कांठा की कविता
सर्वाधिकार सुरक्षित © रमेश हितैषी
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(कुमाउनी कविता)
अब क्या कौं
खालि हैगों पहाड़,
भूलि अब क्या कौं।
इकलि हैगो पराणि,
भूलि कति जै जौं।।
भौतै हैगो अन्याड़,
भूलि कैहें कौं।
कैक सामणि मारूँ ड़ाड़,
भूली कैकें बतौं।।
धुरिम जामि गो झाड़,
भूलि अब क्या कौं।
रड़ि गो सारै गुठ्यार,
यौ कैकें दिखौं।।
नेतुल कै रें दस फाड़,
इनुकें कसिक जुडौं।
दारुल घाली ह्यालु खाड़,
अब कसिक उठूँ।।
डाक्टर है गई टाड़,
भूलि अब क्या कौं।
हलि गीं जरल हाड़,
पैदल कसिक हिटूँ।।
कसि हैरै हलाल,
कैकें कसिक दिखौं।
नि छ द्वी र्वटकू जुगाड़,
यौ कैकें बतौं।।
पुर गौं में छें द्वी चार,
भूलि अब क्या कौं।
म्वाड़ू रे जां भीतेर,
इकें कसिक फुकूँ।।
गध्यर हेगीं तिथाण,
को लकड़ फाड़ूँ।
टकि टकी है ग्ये ठाड़,
अब कसिक चडु।।
है गो सौल सुंगरु राज,
भूलि अब क्या कौं।
ग्वठ कूची रौ बाघ,
उकें कसिक दौड़ौ।।
कैकें लगौं धाद,
येती कैकें बुलौं।
हैगो जिया जंजाव,
यौ कसिक झेलूँ।।
को बसां पहाड़,
कैक उज्याणि चहुं।
को लौटूँ पहाड़,
कै परि भरवासू जतौं।।
बकरा चार टांग,
कैकें जै बाँटूँ।
गोंक पधान आठ,
कैक मंनकु जै कौं।।
रुवा में गुणी बनार,
मैं कसिक आंस सुकौं।
को कौं घेर बाड़,
कैक मुखडु चहूँ।।
को लगां सोलर फैशन,
कति यौ पत्तू लगूँ।
अब त उठो ठाड़,
कि छिलुक जगूँ।।