गढ़वाल में स्वतंत्रता आंदोलन से राज्य निर्माण तक

गोरखा शासन के खात्मे के बाद जब गढ़वाल में अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई तथा टिहरी रियासत में सुदर्शन शाह ने सत्ता संभाली थी तब यहां के लोगों में अंग्रेजों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी। गोरख्याणी शासन में गोरखों से पीड़ित यहां की जनता अंग्रेजों को अपना मुक्तिदाता समझती थी। यही कारण है कि गढ़वाल में स्वतंत्रता आंदोलन 20वीं सदी से ही शुरू हुआ।

सन् 1919 में मुकंदीलाल बैरिस्टर ने अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के साथ मिलकर गढ़वाल में राष्ट्रीय कांग्रेस की नींव डाली। कुली-बेगार, कुली-उतार, कुली-बर्दायश के खिलाफ संघर्ष तेज कर दिया गया। मथुरा प्रसाद नैथानी, भोलादत्त चंदोला, भैरव दत्त धूलिया, गोवर्धन बडोला, भोला दत्त डबराल आदि ने भी सत्याग्रह में बढ़-चढकर भाग लिया। इनकी प्रेरणा से लोगों ने बेगार देनी बंद कर दी। देश में चल रहा असहयोग आंदोलन सन् 1929 तक गढ़वाल में भी जोर पकड़ चुका था। 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में चन्द्रसिंह गढ़वाली ने निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर एक नया इतिहास रचा था। आजाद हिंद फौज में लगभग ढाई हजार (कुल फौज का 10 प्रतिशत) सैनिक गढ़वाली थे।

गढ़वाल में असहयोग आंदोलन की रणनीति बनाने वालों में रामप्रसाद नौटियाल, कृपाराम मिश्र 'मनहर' प्रताप सिंह नेगी, जगमोहन सिंह नेगी, देवकी नंदन ध्यानी आदि प्रमुख थे। 9 जून, 1930 को पौड़ी में कुमाऊँ परिषद का सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में सत्याग्रह समिति का गठन किया गया। समिति में जीवानंद डोभाल अध्यक्ष, भोलादत्त चंदोला मंत्री तथा प्रताप सिंह नेगी संचालक नियुक्त किये गये। जन-चेतना से गढ़वाल में भी सत्याग्रह तेज हो गया। इसी वर्ष समिति द्वारा दुगड्डा में एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें पं० जवाहर लाल नेहरू ने भी भाग लिया था। सन् 1930 में ही तत्कालीन कलक्टर इबटसन पर पत्थर फेंकने के जुर्म में भोलादत्त चंदोला, लोकानंद नौटियाल, महेशानंद थपलियाल, कोतवाल सिंह नेगी सहित डेढ़ दर्जन लोगों को गिरफ्तार कर तीन माह के लिए कारावास में डाल दिया गया था। 6 सितम्बर, 1932 को जयानंद भारतीय ने जब गवर्नर मैल्कम हेली को काले झंडे दिखाए तो उन्हें जेल में ठूंस दिया गया।

टिहरी रियासत में स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत भारत छोड़ो आंदोलन से ही हुई। यहां लोगों का गुस्सा टिहरी रियासत से भी था। सन् 1944 में श्रीदेव सुमन ने राजशाही के खिलाफ ऐतिहासिक भूख हड़ताल शुरू की। 84 दिन की भूख हड़ताल के पश्चात उन्होंने शहादत दी थी। टिहरी के स्वतंत्रता आंदोलन में दादा दौलतराम, कन्हैयालाल रांगड़, रतीराम मालदार, ध्यान सिंह पंवार, लक्ष्मी प्रसाद पैन्यूली, नत्था सिंह कश्यप आदि का विशेष योगदान रहा। 11 जनवरी, 1948 को नागेन्द्र सकलानी व मोलू भरदारी शहीद हो गए। इसी दिन टिहरी की जनता ने राजसत्ता को समाप्त कर लोकतंत्र की बहाली कर दी।

स्वतंत्रता के बाद-

स्वतंत्र भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में 24 फरवरी, 1960 को जिलों का पुनर्गठन हुआ। चमोली व उत्तरकाशी तहसीलों को उच्चीकृत कर सीमांत जनपद का दर्जा दिया गया। उ० प्र० शासन ने 1968 में पुन: पर्वतीय जनपदों का पुनर्गठन कर 1969 में गढ़वाल को कुमाऊँ से पृथक कर कमिश्नरी बनाया। सन् 1997 में चमोली जनपद के ऊखीमठ व अगस्त्यमुनि विकास खण्ड, टिहरी जिले की जखोली उप तहसील, पौड़ी में खिर्सू की कुछ ग्राम सभाएँ, चमोली में कर्णप्रयाग व पोखरी विकास खण्ड की एक व दो न्याय पंचायतों को मिलाकर रुद्रप्रयाग जनपद का सृजन किया गया।

1 अगस्त, 2000 को लोकसभा में पारित उत्तरांचल राज्य पुनर्गठन विधेयक अनुसार मौजूदा 13 जिलों को मिलाकर उ० प्र० से पृथक 27वें राज्य उत्तरांचल बनाने की मंजूरी मिली। पारित बिल के अनुसार इस क्षेत्र के निर्वाचित 22 विधान सभा के तथा 9 विधान परिषद के सदस्यों को मिलाकर 31 विधायकों द्वारा उत्तरांचल की अंतरिम विधान सभा का गठन किया गया।

9 नवम्बर, 2000 को उत्तरांचल राज्य अस्तित्व में आया। लोक सभा की 5 तथा राज्य सभा की 3 सीटों वाले इस राज्य में बिना विधान परिषद के विधान सभा की 70 सीटें हैं। एक सीट स्थानीय ऐंग्लो इंडियन का मनोनयन भी किया जाता है। भारत सरकार की अधिसूचना संख्या 612 दिनांक 29 दिसम्बर, 2006 के द्वारा उत्तरांचल का नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया।

(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल)