गौं गौं की लोककला

लाखामंडल (देहरादून ) शिव मंदिर व गढ़वाल में तिबारी काष्ठ सिंगाड़ कला की लगुली

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Copyright @ Bhishma Kukreti , 2020

उत्तराखंड , हिमालय की भवन (तिबारी ) काष्ठ अंकन लोक कला ( तिबारी अंकन ) - 160

लाखामंडल (देहरादून ) शिव मंदिर व गढ़वाल में तिबारी काष्ठ सिंगाड़ कला की लगुली

गढ़वाल, उत्तराखंड , हिमालय की भवन (तिबारी, निमदारी , जंगलादार , बखाली , कोटि बनाल , खोली , मोरी ) में काष्ठ अंकन लोक कला अलंकरण, नक्कासी - 160

संकलन - भीष्म कुकरेती

मंदिर में पाषाण या काष्ठ कला, अलंकरण इस श्रृंखला का कोई अंग नहीं है। फिर भी तिबारी, बाखली , निमदारी , कोटि बलान , खोली , मोरियों में काष्ठ कला शैली व अलंकरण शैली का उद्भव , प्रचार -प्रसार हेतु प्राचीन मन्दिरों की कला को समझना भी आवश्यक हो जाता है (फिर भी यह लेखक मंदिरों में नहीं उलझना चाहता है व अपने को केवल मकानों तक ही सीमित रखना चाहता है ) ।

जौनसार , रवाईं की गृह काष्ठ कला ने सभी कला विदों को आकर्षित किया है और लाखामंडल के मंदिर में संभवतया सत्रहवीं सदी के जीर्णोद्धार हुआ व लकड़ी के काम में बदलाव आया हो। शिव मंदिर जैसे वास्तु से गढ़वाल में तिबारियों में स्तम्भ के कड़ी/link मिल जाते हैं व कई परतें आगे जाकर खोलने में सक्षम होगा।

लाखामंडल के पांचवे छठे सदी के नागर शैली का शिव मंदिर जिसका जीर्णोद्धार सम्भवतया 17 वीं सदी में हुआ होगा में काष्ठ कला समझने हेतु निम्न केंद्रों पर टक्क लगाना आवश्यक है - तल मंजिल में स्तम्भ व मेहराब या तोरण , पहली मंजिल में स्तम्भ व तीसरी मंजिल में स्तम्भों में

लाखामंडल के इस मंदिर ( मंदिर में सम्भवतया 400 साल पुराना लकड़ी का काम हुआ होगा ) के शिव मंदिर के तल मंजिल में दो पत्थर स्तम्भ हैं व तीन काष्ठ स्तम्भ (लखड़ का सिंगाड़ ) हैं व तीनों सिंगाड़ दो प्रवेश द्वार /ख्वाळ बनाते हैं। स्तम्भ के आधार में कुम्भी उलटे कमल से बना है , इसके ऊपर ड्यूल है , उसके ऊपर सीधा कमल दल है व उसके ऊपर स्तम्भ लौकी की शक्ल अख्तियार करता है व जब स्तम्भ की सबसे कम मोटाई होती है वहीं से स्तम्भ थांत (cricket bat blade type ) की शक्ल परिवर्तित कर लेता है। यहीं से स्तम्भ से मेहराब का अर्द्ध चाप निकलता है जो दूसरे स्तम्भ के अर्ध चाप से पूर्ण मेहराब बना लेता है।

मेहराब द्विजा (ओगी ogee ) शैली में निर्मित हुआ है।

तल मंजिल व पहली मंजिल के संधि भाग मोटी कड़ी से निर्मित है ह।

पहली मंजिल में सामने (नदी की ओर ) पांच स्तम्भ हैं व अगल बगल में एक एक स्तम्भ हैं याने सात स्तम्भ पहली मंजिल पर हैं। सभी स्तम्भ तल मंजिलों के स्तम्भों से हू बहू मिलते हैं। पहली मंजिल के छत से एक पट्टी नीचे लटकी है जिस पर झालर लगे हैं। यहीं पट्टिका के केंद्र या छत के मुण्डीर / मुंडळ के नीचे सूर्य नुमा देव प्रतीक लगा है। पट्टिका पर सर्पिल आकृति की लता अंकन हुआ है।

दुसरे मंजिल में एक बुर्ज नुमा मंदिर शीर्ष आकृति है जिसमे चार काष्ठ स्तम्भ लगे हैं। तीसरे मंजिल के मंदिर शीर्ष में भी छह लकड़ी के सिंगाड़ लगे हैं जो शैली व कला दृष्टि से तल मंजिल के सिंगाड़ों /स्तम्भों का ही रूप हैं।

चूँकि इस लेखक का उद्देश्य मंदिर काष्ठ कला नहीं है अपितु मंदिरों में प्रयुक्त स्तम्भों में रूचि थी। यदि पांचवीं सदी में निर्मित मंदिर का जीर्णोद्धार सत्रहवीं सदी के आस पास हुआ या 18 सदी में भी हुआ तो भी कहा जा सकता है बल गढ़वाली -कुमाउँनी ,यहां तक कि नेपाल सीमा के धारचुला क्षेत्र के भवन स्तम्भ शैली में पिछले तीन - चार सौ सालों में कोई अंतर नहीं आया है। और यदि मंदिर में कायस्थ कार्य ब्रिटिश कल में हुआ है तो भी यह दर्शाता है कि तिबारी स्तम्भ मामले में यमुना के पूर्वी भाग व काली नदी के पश्चमी भाग में सर्वत्र स्तम्भों में कला , शैली अलंकरण एक ही रहा है।

मंदिर में जीर्णोद्धार लकड़ी का काम 400 साल पहले हुआ होगा केवल अनुमान है, सत्यता से दूर हो सकता है ।

Copyright @ Bhishma Kukreti, 2020