गढ़वाल में प्राचीन जातियाँ

भाग-6



गढ़वाल में बौद्धमत

गढ़वाल में बौद्धमत का प्रचार-प्रसार खस काल में माना जाता है। 372 ई० में चीन से कोरिया में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। वहां से 552 ई० जापान तथा छठी सदी में नेपाल और 632 ई० में तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार प्रारम्भ हुआ। इसी बीच छठी-सातवीं सदी में धर्म प्रचार करते बौद्ध इस क्षेत्र में पहुँचे तथा बौद्ध मत का प्रचार-प्रसार किया। (गढ़वाल का इतिहास- हरिकृष्ण रतूड़ी, पृ० 127)

गढ़वाल में बौद्धमत नेपाल से होकर आया था। यही कारण है कि इस भू-भाग का नाम उन दिनों बौद्धायन (बौद्ध+आयन) अर्थात बौद्ध आए पड़ा। जिसका अपभ्रंश आज बधाण है। (कनकवंश महाकाव्ये-2 बालकृष्ण भट्ट, पृ० 10-11) आज भी इन मंदिरों में यहां बौद्ध प्रतिमाएँ मिलना तथा कुछ मंदिरों में मंदिर किसी देवता का तथा मूर्ति किसी अन्य देवता की पूजी जानी, बौद्धौं द्वारा प्राचीन मूर्तियों को नष्ट कर बुद्ध प्रतिमा स्थापित करने के प्रमाण हैं।

राहुल सांकृत्यायन ने बदरीनाथ में विष्णु तथा उत्तरकाशी में दत्तात्रेय नाम से पूजी जाने वाली मूर्तियों को बौद्ध प्रतिमा ही कहा है। (हिमालय परिचय-1-राहुल, 474-475) इसकी विस्तृत जानकारी बदरीनाथ में दी जाएगी।

नेपाल तथा तिब्बत में बौद्धमत होने से यह क्षेत्र भी बौद्धमत के प्रचार से अछूता नहीं रहा। अनुमानतः यहां के कुछ गढ़पतियों ने बौद्धमत स्वीकार किया तथा अधिकांश ने इस मत को नहीं माना था। चीनी यात्री ह्वेनसांग जो सातवीं सदी में यहां भ्रमण पर आया था, ने भी इस बात का उल्लेख अपने यात्रा वृतांत में किया था। डाॅ० रणवीर सिंह चौहान ने भी बदरीनाथ का नामकरण बौद्धरूप से बौद्धरू तथा बाद में बाद में बदरी बताया है। (उत्तराखंड के वीर भड़- चौहान, पृ०35)


(साभार- गढ़वाल हिमालय- रमाकान्त बेंजवाल, वर्ष- 2002)