कब बगलि उल्टी गंग,
कब आळौ पहाड़म रंग।
कब अपणि ताई खोलला,
कब जागलि नइ उमंग।
सोचि सोची बै मैं छोङ दंग,
ताई कूची पर लागि गो जंग।
नेता देहरादून स्येईं छें,
मलि करि रै नींन भंग।
तुमुल बदलि दि जीणक ढंग,
मैं कै दि छन खुटुक अपंग।
जैकें कसम दि बै रुका,
वी रंगि गो तुमर रंग।
एकल को तुम बुतौ भंग,
खरीदणि छौं मैं तुमर संग।
उ लै अब बौं हड़ पड़ि छें,
बांकि पैलियै हैरें दुरंग।
जवान उड़ में जस पतंग,
छन कपड़ु हैरें नंग धड़ंग।
बचि कूची ठ्यक में पूजि गई,
सुकि पाकि बै हैगी भांगुल डंग।
सर्वाधिकार सुरक्षित © रमेश हितैषी