गौं गौं की लोककला

ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की लोक कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला - 6

तैड़ी ( बिछला ढांगू ) की लोक कला , शिल्प व भूले बिसरे लोक कलाकार

ढांगू संदर्भ में गढ़वाल की लोक कलाएं व भूले बिसरे कलाकार श्रृंखला - 6

(मछली मार कला पर विशेष )

(चूँकि आलेख अन्य पुरुष में है तो श्रीमती , श्री व जी शब्द नहीं जोड़े गए है )

संकलन - भीष्म कुकरेती

ढांगू में तैड़ी को ' सट्टी वळ गाँव ' के नाम से भी पहचाना जाता है। नयार नदी तट पर तैड़ी बसा गांव का विशिष्ठ महत्व है। किनसुर , कांडी , धुनारों बागी , गूम , कौंदा , क्यार की सीमाओं से तैड़ी गाँव घिरा है और चौरस धरती वाला गाँव है।

अन्य गढ़वाल क्षेत्र की भाँति (बाबुलकर द्वारा विभाजित ) तैड़ी में भी निम्न कलाएं व शिल्प बीसवीं सदी अंत तक विद्यमान थे. अब अंतर् आता दिख रहा है।

अ - संस्कृति संस्कारों से संबंधित कलाभ्यक्तियाँ

ब - शरीर अंकन व अलंकरण कलाएं व शिल्प

स -फुटकर। कला /शिल्प जैसे भोजन बनाना , अध्यापकी , खेल कलाएं , आखेट, गूढ़ भाषा वाचन (अनका ये , कनका क, मनका म ललका ला =कमला , जैसे ) या अय्यारी भाषा आदि

द - जीवकोपार्जन की पेशेवर की व्यवसायिक कलाएं या शिल्प व जीवनोपयोगी शिल्प व कलायें

कृषि कला शिल्प - सभी कास्तकार थे तो प्रत्येक व्यक्ति कृषि कला में पारंगत था ही।

स्योळ /न्यार /म्वाळ निर्माण में पुरुष आगे होते थे। खटला बनाना , न्यार की चौकी बनाई जाती थी।

भोजन कला - महिलाओं के अतिरिक्त पुरुष भी भोजन पकाने में माहरात हासिल हुए थे विशेषतः जो फौड़/( सामूहिक भोजन ) में भोजन बनाते थे।

लोक गीत , नृत्य - गीत महीनों में महिलाएं लोक गीत गातीं थीं व नृत्य करने के अलावा स्वांग भी भरतीं थीं कई युवा भी पारंगत थे। व्यवसायिक गीत -नृत्य -स्वांग हेतु बादी आते थे (हीरा बादी ). घड्यळ , मंडाण में धार्मिक नृत्य , संगीत सामन्य था।

पंडिताई - नारायण दत्त रियाल , रामदयाल , रामनाथ रियाल , श्रीनन्द वर्तमान में चक्रधर रियाल अतः कर्मकांड में अपायी जाने वाली सभी कलाएं तैड़ी में फलती फूलती रही हैं वर्तमान में भी।

सभी तैड़ी वालों के पंडित बणेलस्यूं सिलसू के दिस्वाल ब्राह्मण होते थे केवल तैड़ी में बसे देवप्रयागि ध्यानियों के पंडित देवप्रयाग से पूजा हेतु आते थे.

मंदिर - ढंकलेश्वर जिसमे लौह सांप , लौह त्रिशूल , ताम्बे के प्रतीक आज भी नए मंदिर में विद्यमान हैं। मंडित आम एक उबरा मकान जैसा था जिसकी छत सिलेटी पत्तरों की थी।

वैद्य - पिछले पचास सालों से शिव प्रसाद रियाल।

झाड़खंडी - रामनाथ रियाल - छाया , आदि पूजन में उपयोग होती सभी कलाओं का प्रयोग। आवश्यकता पड़ती थी तो गडमोला , नैरुळ के झड़खंडियों को भी बुलाया जाता था।

जागरी कैन्डूळ के घुत्ती

मसुकबाजी - हथनुड़ के

ढोल बादक - किनसुर के गुरखा दास , शिवलाल

लोहार - घूरा

टमटा गिरी - विचत्ति या बणेल स्यूं पर निर्भर

ओड - बाहर के जैसे किनसुर के दिगंबर । पहले 1960 से पहले के अधिकाँश मकान टिहरी गढ़वाल (गंगपुर्या ) से आये मकान शिल्पियों ने निर्मित किये हैं।

तिबारी - नारायण दत्त , राम दयाल रियाल की

मिट्टी के बर्तन - हथनूड़

ढांगू में मच्छी मारने की कला विशेषज्ञ तैड़ी गाँव वाले

नयार तट व अपना बड़ा गदन होने के कारण तैड़ी गाँव वाले मच्छी मारने में भी कुशल थे व जंगल से घिरे होने के कारण मृग , काखड़ , सौलू मारने , मुर्गा शिकार हेतु भी उस्ताद थे।

अतः तैड़ी गाँव में निम्न कलाएं बिकसित हुईं थीं

विभिन्न प्रकार के जिवळ (स्योळु का जाल जिसमे घ्वीड़ मिरग , सूअर सौलू आदि फंसाये जाते थे।

मच्छी मारने के जाल , फट्यळ , छ्युंछर ,बाद में नायलोन का जाल , बांस की अन्य मच्छी फाँसो उपकरण

मच्छी , घ्वी , काखड़ पकाने के विशेषज्ञ स्वयं विकसित हो जाते थे

मच्छी पकड़ने के कई तरीके जैसे हाथ से पकड़ना , पत्थर में घण लगाकर चोट से मच्छियों को बहरा कर , Night रत में टॉर्च मारकर मछलियों को अँधा कर हाथ से पकड़ना , लंग्वाळ विधि ( पानी के कैनाल / स्रोत्र बंद कर या मोड़कर ) , जाळ , फट्याळ आदि। कारतूस फेंकर, 1970 के बाद डीडीटी आदि भी प्रयोग हुए हैं

( सूचना आभार -मदन बड़थ्वाल )

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