आलेख :विवेकानंद जखमोला शैलेश

गटकोट सिलोगी पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड

फोटो साभार :

सूचना सहयोग एवं फोटो साभार :श्री नरेश चंद्र उनियाल जी द्वारा।


उत्तराखंड के जल स्रोत धारे,पंदेरे, मंगारे और नौलौं की निर्माण शैली

जल संचय जीवन संचय के लिए समर्पित इस श्रृंखला के अंतर्गत आज प्रस्तुत है ग्राम जल्ठा(डबरालस्यूं) द्वारीखाल पौड़ी गढ़वाल उत्तराखंड की जल संवाहिका (धारे) की निर्माण शैली और पाषाण कला के बारे में।

विकासखंड द्वारीखाल, जल्ठा गांव के जंगल में

विकासखंड द्वारीखाल, जल्ठा गांव के जंगल में उत्तर पूर्वी दिशा में स्थित है धरणी के गर्भ से निःसृत यह शीतल मधुर जलधारा। जो इस क्षेत्र के लिए एक जीवन संचारक की भूमिका निभाती हैं । इसका जल शीतल और सुपाच्य है, इसलिए लोग पीने के लिए इसे ही प्रयोग करते हैं। भूमिगत स्रोतों की स्वाभाविक प्रकृति प्रदत्त गुणों के कारण सर्दियो में गुनगुने और गर्मियों में शीतलता लिए इस धारे का जल गींठी की जड़ों से निकलने और अन्य जड़ी बूटियों के मिल जाने से अत्यंत लाभदायक और गुणकारी माना जाता है, गींठी की जड़ों से निकलने वाली इस जलधारा को #गिंठ्वल़ी #का #पाणी तथा पत्थर के प्राकृतिक छेद से बहने के कारण #छिद्दर#पाणी भी कहा जाता है। पलायन की विभीषिका के कारण अन्य महीनों में तो यहां भी सीमित ही आवाजाही होती है लेकिन ग्रीष्मकालीन अवकाश के समय प्रवासियों के आने के बाद शीतल मधुर जल का स्वाद चखने के लिए यहां भी लोगों का मेला सा लग जाता है। गौरतलब है कि गांव बसने के साथ ही निर्मित किया गया यह धारा गांव वासियों की प्यास बुझाने के लिए अपनी जलधार सतत रूप से प्रवाहित करता आ रहा है।

भले ही भीषण गर्मी में पशुपालकों व उनके पशुओं , किसानों और पैदल राहगीरों के लिए जीवन संजीवनी का काम करने वाला यह धारा आज पलायन और आधुनिकीकरण के चलते हाशिये पर चला गया हो या कृषि कार्य के प्रति उदासीनता के चलते यहां अधिक चहल पहल तो नहीं परंतु गांव में निवासरत ग्रामीणों के लिए तो जीवन दाता की भूमिका निभाता यह धारा सतत रूप से प्रवाहित हो रहा है। इसलिए प्राणोदक स्वरूप इस जलसंवाहिका के संरक्षण के लिए ग्रामीणों का सहयोग अति आवश्यक है।

अब बात करते हैं इसकी निर्माण शैली के बारे में :- स्थानीय ग्रामीण व सामाजिक विकास के लिए समर्पित शिक्षक श्री नरेशचंद्र उनियाल जी से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस जल स्रोत का निर्माण प्रकृति ने सदियों पूर्व ही गांव के बसने से पहले कर दिया था। सीधी ढाल वाले पत्थर के छिद्र से निकलने के कारण लगता है कि इस पर पत्थर का धारा या मंगारा लगाना संभव नहीं हो पाया होगा इसलिए स्थानीय लोगों ने बांस के मोटे तने को चीरकर व छेनी से गांठों को सपाट कर इसे वैकल्पिक धारे का स्वरुप दिया होगा और आज भी पारंपरिक रूप से यह धारा ऐसे ही बनाया जा रहा है ।

जहां तक इसे ऐसे बनाने की प्रेरणा कैसे व क्यों रही होगी तो इस बारे में यही कहा जा सकता है कि प्राचीन काल से ही मनुष्य प्रकृति प्रेमी रहा है और पुरातन काल से ही प्रकृति के सानिध्य में ही मानव विकास गतिमान हुआ है इसलिए स्थानीय उपलब्धता के आधार पर इस कला को अपनाया गया होगा।

आज आवश्यकता है कि हम अपने पूर्वजों की इस अमूल्य निधि का संरक्षण करने के लिए कृतसंकल्प हों ताकि प्रकृति का यह अद्भुत उपहार हमारी जीवन धारा को निरंतरता के साथ प्रवाहमान बनाये रखने में मदद करता रहे ।

आलेख :विवेकानंद जखमोला

सूचना सहयोग एवं फोटो साभार :श्री नरेश चंद्र उनियाल जी द्वारा।