क्रान्ति कीजिए, क्रान्ति कीजिए।
प्रभु त्रिभुवन में, क्रान्ति कीजिए।।
जल में, थल में और गगन में, क्रान्ति कीजिए।
अन्तरिक्ष में, अग्नि पवन में, क्रान्ति कीजिए।।
औषधि वनस्पति, वन उपवन में, क्रान्ति कीजिए।
सकल विश्व के, जड़ चेतन में, क्रान्ति कीजिए।।
क्रान्ति विश्व, निर्माण सृजन में, क्रान्ति कीजिए।
नगर-ग्राम में, और भवन में, क्रान्ति कीजिए।।
जीव मात्र के, तन में-मन में, क्रान्ति कीजिए।
और जगत के, हर कण-कण में, क्रान्ति कीजिए।।
May There Be Kranti (Transformation-Revolution) In Whole Universe.
1. ॐ द्यौ: क्रान्तिरन्तरिक्ष ग्वं क्रान्ति: पृथिवी क्रान्तिराप: क्रान्तिरोषधय: क्रान्ति: । वनस्पतय: क्रान्तिर्विश्वे देवा: क्रान्तिर्ब्रह्म क्रान्ति: सर्व ग्वं क्रान्ति: क्रान्तिरेव क्रान्ति: सा मा क्रान्तिरेधि ॥ ॐ क्रान्ति: क्रान्ति: क्रान्ति: ॥ सर्वारिष्टासुक्रान्तिर्भवतु ॥
2. ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मामृतंगमय ॥ ॐ क्रान्ति: क्रान्ति: क्रान्ति: ॥
विश्व चेतना का उद्घोष दसों दिशाओं में गूँज रहा है। उसी की लालिमा का आभास अंतरिक्ष के हर प्रकोष्ठ में परिलक्षित हो रहा है। न जाने किसका पाञ्चजन्य बज रहा है और एक ही ध्वनि नि:सृत कर रहा है-बदलाव! बदलाव!! बदलाव!!! उच्चस्तरीय बदलाव-समग्र बदलाव। यही होगी अगले समय की प्रकृति और नियति। मनुष्यों में से जिनमें भी मनुष्यता जीवित होगी, वे यही सोचेंगे-यही करेंगे।
-समस्याएँ आज की, समाधान कल के - पृ.सं.-२८
क्रान्ति के बीज किसी महान् विचारक के दिमाग में जमते हैं। वहाँ से फूल-फ ल कर क्रान्तिधर्मी-साहित्य के रूप में बाहर आते हैं और संक्रामक रोग की तरह अन्य दिमागों में उपजकर बढ़ते हैं। सिलसिला जारी रहता है। क्रान्ति की उमंगों की बाढ़ आती है। सब ओर क्रान्ति का पर्व मनने लगता है। चिनगारी से आग और आग से दावानल बन जाता है। बुरे-भले सब तरह के लोग उसके प्रभाव में आते हैं। कीचड़ और दलदली क्षेत्र में भी आग लग जाती है।
नियति का नियंत्रण करने वाली अदृश्य सत्ता परिवर्तन के क्रान्तिकारी आवेग से भरी प्रतीत होती है। तोपों की गरज, फौजों के कदमों के धमाके, बड़े-बड़े सत्ताधीशों के अध:पतन और समूचे विश्व में व्यापक उथल-पुथल के शोरगुल से भरे ये क्रान्ति के समारोह हर ओर तीव्र विनाश और सशक्त सृजन की बाढ़ ला देते हैं। क्रान्ति के इस पर्व में दुनिया को गलाने वाली कढ़ाई में डाल दिया जाता है और वह नया रूप, नया आकार लेकर निकल आती है। महाक्रान्ति के इस पर्व में ऐसा बहुत कुछ घटित होता है, जिसे देखकर बुद्धिमानों की बुद्धिमत्ता चकरा जाती है और प्राज्ञों की प्रज्ञा हास्यास्पद बन जाती है।
वर्तमान युग में विचार-क्रान्ति के बीजों के चमत्कारी प्रभावों से क्रान्ति की केसरिया फसल लहलहा उठी है। परिवर्तन की ज्वालाएँ धधकने लगी हैं। क्रान्ति के महापर्व की उमंगों की थिरकन चहुँ ओर फैल रही है। ये वही महान् क्षण हैं, जब विश्वमाता अपनी ही संतानों के असंख्य आघातों को सहते हुए असह्य वेदना और आँखों में आँसू लिए अपना नवल सृजन करने को कटिबद्ध है।
-अखण्ड ज्योति, क्रांति विशेषांक, सितम्बर -१९९७, पृ.सं. १