उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
कैसा शुभ-अवतरण रहा होगा वह, जिस दिन भगवती सरस्वती ने अवतरण लिया होगा इस धरती पर। भगवती सरस्वती को हम देखते हैं—प्रकृति के अन्तर्गत वसन्त के रूप में। पदार्थों में एक उल्लास आता है, उमंगें आती हैं, पत्ते झड़ते हैं एवं फूल खिलते हैं। बच्चों मेंहम देखते हैं कि वसन्त किस तरीके से हँसता और मुसकराता है। कोयल में देखते हैं, भौंरों में देखते हैं, दूसरे प्राणी में देखते हैं, थिरकन और पुलकन किस प्रकार दिखाई पड़ता है?
वसन्त के दिनों में हर प्राणी में एक उल्लास एवं उमंग दिखाई पड़ती है। सृष्टि का सृजनक्रम इन दिनों ज्यादा होता है। गर्भधारण, प्राणियों से लेकर वनस्पतियों तक में इस अवसर पर अधिक होता है। मनुष्यों में भी बसन्त पर्व इस प्रकार आता है कि उमंग औरउत्फुल्लता पैदा होती है। इसी रूप में भगवती सरस्वती ने इस धरती पर अपने खुशी की, उत्साह की तरंगें पैदा की हैं। आज से बहुत दिन पहले कैसा शुभ-दिन रहा होगा, जिसे हम भगवती सरस्वती के अवतरण का दिन, ज्ञान के अवतरण का दिन कहते हैं। मनुष्य केअन्दर सरस्वती आयी होगी ज्ञान के रूप में। मनुष्य कभी असभ्य रहा होगा, वनमानुष की तरह रहा होगा, नर-वानर की तरह घूमता होगा, दूसरे प्राणियों से कहीं कमजोर और दुर्बल रहा होगा। वह कुत्ते की तरह से दौड़ नहीं लगा सकता, हिरण की तरह कुलाँचे नहीं भरसकता, पक्षियों की तरह से उड़ान नहीं भर सकता, मछली की तरह तैर भी नहीं सकता। इस तरह की सामर्थ्य उसमें उसमें नहीं है। आदमी बहुत कमजोर है। इतना कमजोर होते हुए भी वह विकसित होता चला गया तथा सारी सृष्टि का मुकुटमणि हो गया। आज तोप्राणियों का नहीं, सृष्टि का भी स्वामी होने का वह दावा करता है। मनुष्य यह कैसे हो गया? यह उसकी बुद्धि का चमत्कार, विचारों का चमत्कार का प्रतिफल है।
कैसा वह सौभाग्य का दिन रहा होगा, जब अन्य प्राणियों की तुलना में बुद्धि विकसित हुई होगी, जिसकी हम खुशी मनाते हैं। आनन्द मनाते हैं कि हमें वनमानुष से आदमी बनाने का यह वसन्त बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। भगवती सरस्वती की कृपा से हमें भावना-विचारणाप्राप्त हुई। इसे दूसरे नामों से भी पुकारते हैं—विद्या-शिक्षा भी कहते हैं। यह खुशी का दिन हम हर साल मनाते हैं। हर शिक्षण-संस्थान में मनाते हैं। वहाँ सरस्वती की वन्दना करते हैं। यह परम्परा बहुत दिनों से चली आ रही है। हम भी उसके अन्तर्गत यह पर्व मनाते हैं—ज्ञान-प्रेमी के तरीके से, विद्या-प्रेमी तरीके से, लेकिन अपने वसन्त पर्व की कुछ विशेषता है।
हमारे व्यक्तिगत जीवन में एक वसन्त आया था, आज से लगभग ५५ वर्ष पूर्व। जिसमें सामान्य पतझड़ जैसे, एक ठूँठ जैसे इनसान में नवीन पल्लव आ गये, नया उत्साह आ गया। एक छोटे-से देहात में रहने वाले लड़के के समक्ष वसन्त के दिन एक दैवी शक्तिआयी, उससे बातचीत हुई। उस दैवी-शक्ति ने कहा तुमसे हमें कुछ काम कराने हैं, बड़े काम कराने हैं, तुम्हें समर्थ बनाना है। हमने कहा-आप बनाइये। मजबूत बनने के लिए, ताकतवर बनने के लिए हम तैयार हैं। समर्थ बनने के लिए ताकतवर आदमी की आवश्यकतापड़ती है। आप हमें इस योग्य बनाइये।
उनके साथ बातचीत शुरू हो गयी। जिन्हें मैं बॉस, मार्गदर्शक, गुरु कहता हूँ—ठीक वे वसन्त पर्व के दिन आये थे, एक छोटे-से कमरे में। तब हमारी उम्र १५ वर्ष की रही होगी। हमने पूछा—आप क्या सहायता करेंगे? उन्होंने कहा—हम एक ही सहायता करेंगे, तुम्हारीकामनाओं को भावनाओं में बदल देंगे। कामनाएँ किसे कहते हैं? कामनाएँ उसे कहते हैं, जिसके बारे में हम कह रहे थे। यह दो हैं। एक है पेट की भूख, जो पेण्डुलम की घड़ी के तरीके से खट-खट चलती रहती है। यह रोटी माँगती है। रोटी की भूख का परिष्कृत रूप वह है, जिसे ‘लोभ’ कहते हैं। लोभ का इच्छुक प्राणी इकट्ठा करना चाहता है, बड़ा आदमी बनना चाहता है, सेठ बनना चाहता है। अन्य प्राणी पेट भरना चाहते हैं।
दूसरी वृत्ति प्राणियों में यह होती है कि वह जोड़े के साथ रहना चाहता है। इनसान में उसका रूप कुछ विकसित हो गया है। विकसित रूप यह है कि वह विवाह-शादियों की बात करता है। दूसरे प्राणियों में यह बात नहीं बनती। वहाँ सिर्फ चयन होता है। चयन के बाद मिलन।दोनों के मिलन से बच्चे पैदा होने लगते हैं। दोनों की मोहब्बत बच्चों को मिलने लगती है, तत्पश्चात् कोई भी उनसे अलग रहना पसन्द नहीं करता। इसे ‘मोह’ कहते हैं।
मित्रो! प्रत्येक प्राणी के भीतर लोभ-मोह विकसित होते चले जा रहे हैं। प्रकृति की दी हुई प्रत्येक प्राणी के भीतर दो ही चीजें हैं, जिसे हम लोभ और मोह कहते हैं। जानवरों के अन्दर उसे पेट भरने तथा प्रजनन कह सकते हैं। आदमी चूँकि समझदार है, अतः पेट और प्रजननका विकसित लोभ एवं मोह है। इन्हें ही ‘कामना’ कहते हैं। इन कामनाओं की लोग तरह-तरह की गुत्थियाँ बुनते रहते हैं। कामनाओं के स्थान पर दूसरी चीजों की जरूरत है, अगर आदमी अपने आपको विकसित बनाना चाहता हो तब। बड़ा आदमी होना चाहता हो, सुसंस्कृत होना चाहता हो, मजबूत होना चाहता हो, देवता बनना चाहता हो, तो उसे पात्रता सिद्ध करनी होगी। उसे अपनी कामना को बदल करके भावना में विकसित करना होगा। कामना वह होती है, जो शरीर से ताल्लुक रखती हैै।
मित्रो! मैं आपसे लोभ-मोह यानि वासना-तृष्णा का जिक्र कर रहा था। ये चीजें आदमी के शरीर से सम्बन्ध रखती है तो उसके अन्दर दूसरे तरह की भूख उत्पन्न हो जाती है। वह भूख जीवात्मा की नहीं होती है। जीवात्मा की जो भूख है, उसे हम ‘भावना’ कहते हैं। हमारेगुरु ने कहा कि तुम्हें भावना के क्षेत्र में प्रवेश तथा विकसित होना चाहिए तथा कामनाओं से ऊँचा उठना चाहिए।
कामनाओं को छोटा नहीं कहा जा सकता, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि हमारे पास शरीर है। शरीर को जिन्दा रखने केक लिए दूसरी चीजों की भी जरूरत, कुटुम्ब परिवार की सेवा की भी जरूरत है। पेट भरने के लिए रोटी कमाने की भी जरूरत है, लेकिन हरचीज की एक मात्रा है। पेट भरने के लिए मुट्ठी भर अनाज चाहिए। मनुष्य कम खर्चे में भी अपने कुटुम्ब को सुसंस्कारी बना सकता है। नहीं, हम अपने बच्चों को सुसंस्कारी बनाने के लिए पब्लिक स्कूल में भर्ती करना चाहते है। कितने बच्चे है आपके ?? तीन बच्चे हैं।आपको २५०० रुपए देना चाहिए। आपकी बात भी ठीक हो सकती है, परन्तु अगर हमारे अन्दर सुसंस्कारिता हो, तो हम कम पैसे में भी काम चला सकते हैं, विनोबा की माँ की तरह से। विनोबा की माँ का मन था कि उसके बच्चे सुयोग्य तथा सुसंस्कारी बनें। बच्चों कोआगे बढ़ाने तथा पढ़ाने के लिए पैसों की जरूर पड़ती है? नहीं, पैसों की नहीं, सुसंस्कारों की आवश्यकता पड़ती है, जिसका नाम भावना है। अगर सुसंस्कार हो, तो कोई महिला, कम पढ़ी-लिखी भी पहिला अपने बच्चों को ब्रह्मज्ञानी बना सकती है। विनोबा की माँसुसंस्कारी थी, अतः उसने तीन बच्चों को पैदा किया तथा तीनों को महान बना दिया। एक का नाम था विनोबा, दूसरे का नाम वाल्कोबा, तीसरे का विठोबा। तीनों बच्चे ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मचारी सन्त बन गये तथा समाज के काम आ गये। क्यों साहब पैसे की जरूरत पड़ी? नहीं भाईसाहब, पैसों की जरूरत नहीं पड़ती है।
शकुन्तला जब कण्व ऋषि के आश्रम में पाली-पोसी गई थी। तो कण्व ऋषि के पास कितना पैसा था? नहीं भाईसाहब, कुछ नहीं था। शकुन्तला को सुसंस्कार का वातावरण मिला था, जिसके द्वारा उसने अपने बच्चे को ‘भरत’ बना दिया। सीता के लव-कुश पैदा हुए थे, तो सीता बाल्मीकि के आश्रम में थी। वहाँ क्या-क्या सुविधाएँ थीं-आप बता सकते हैं ? नहीं, कोई सुविधा नहीं थी। इनसान को विकसित करने के लिए भावना की जरूरत है। शरीर को पोषण देने, सुन्दर बनाने, सुखी बनाने के लिए कामनाओं की जरूरत भी हो सकती है, जिसको आप दौलत कह सकते हैं, सुविधा कह सकते हैं, लेकिन आत्मा को विकसित करने के लिए दौलत की कोई खास जरूरत नहीं है। हम ऋषियों के तरीके से, सन्तों के तरीके से कुटुम्ब का पालन करते हुए बड़ी आसानी से जी सकते हैं लेकिन हम क्या करें ?? एकहविश हमारे ऊपर ऐसी हावी हो गयी है, जिसको हम एक तरह का ‘नशा’ कह सकते हैं। हम नशे में धुत्त आदमी की तरह से घूमते रहते हैं। यह कामनाएँ हैं। कामनाओं को दूसरे शब्दों में एक तरह से नशा कह सकते हैं, जिसकी न जरूरत है, न आवश्यकता। यह जब हमारेदिमाग पर हावी होती है, तो बुरी तरह से जकड़ लेती है, हाथ-पाँव को पकड़ लेती है, चप्पे-चप्पे को पकड़ लेती है। आज वसन्त के दिन, जिसे मैं अपने सौभाग्य का दिन मानता हूँ, हमारे गुरू ने कहा-तुम्हें अपने आपको कामनाओं की दिशा से मोड़कर दूसरी दिशा में बढ़ानाचाहिए। तुम्हें अपने चिन्तन की दिशाधारा को दूसरी दिशा में मोड़ देना चाहिए और भावना के क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। उस दिन से उनकी जो इच्छा, वह हमारी इच्छा। उस दिन से हमारा सौभाग्य उदय हो गया। मैं तब से क्रमशः मजबूत होता चला गया।
उन्होंने कहा—सिद्धान्तों का पालन करने के लिए आदमी को कठोर होना चाहिए, बलवान होना चाहिए, मजबूत होना चाहिए। मजबूती आयेगी, तो हम जो दूसरी चीजें देना चाहते हैं, उसे पाने के हकदार हो जाओगे। तभी से हमने अपनी भावना को परिपक्व करने केलिए, मजबूत करने के लिए संकल्प लिया। उन्होंने जो संकल्प दिया, उसे जीवन भर निबाहा। संकल्प छोटा-सा था। उन्होंने कहा—तुझे २४ साल तक जौ की रोटी और छाछ पर निर्भर रहना होगा। खाने के सन्दर्भ में, जीभ के सन्दर्भ में दो ही चीजें इस्तेमाल करनी होंगी, तीसरी नहीं। जीभ पर हुकूमत कर सकते हो? हमने कहा—हाँ! जीभ पर जो दिमाग हुकूमत करता है, उसे चलायमान करता है, उस पर हुकूमत कर सकते हो? हमने कहा—हाँ, हम जीभ और दिमाग दोनों पर हुकूमत कर सकते हैं।
हमने दिमाग पर नियन्त्रण किया। जिन लोगों को खाते देखा, दिमाग ने कहा—हमें भी चाहिए। सब लोग बड़े मजे से खाते हैं, पसन्द करते हैं, आपको भी खाना चाहिए। हमने दिमाग से कहा—आप हमारे हैं या हम आपके हैं? दिमाग ने कहा—हम तो आपके हैं। हमनेकहा—तब तो आपको हमारी बातें, हमारा कहना मानना चाहिए। उसे समझा दिया—जो स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक है, वही हमें करना चाहिए। जीभ की आज्ञा हमने नहीं मानी। कहा—हमारे गुरुदेव की आज्ञा है, आदर्श-सिद्धान्तों की उनकी आज्ञा बड़ी जबरदस्त है, उसे हमें माननी चाहिए। इस प्रकार क्रमशः हमारे संकल्प मजबूत होते चले गये और हम संकल्पवान बनते चले गये।
सिद्धान्तों का पालन करने में अपनी कमजोरियाँ कैसे तंग करती हैं? अपने पड़ोसी कैसे तंग करते हैं? रिश्तेदार, खानदान वाले कैसे तंग करते हैं? २४ साल के इस अन्तराल में हमने उसे जाना। दुनिया अपने साथ न चलने वाले का कैसा मजाक उड़ाती है, कैसा बेवकूफबनाती है, उपहास करती है, यह भी मैंने देखा, परन्तु मैं क्या कर सकता था? कुटुम्बियों से लोहा लिया, मुहल्ले वालों से लिया, मंच के साथ लोहा लिया, इन्द्रियों के साथ लोहा लिया, परिवार वालों के साथ लोहा लिया। हर एक से टक्कर लेते-लेते आज हमारा सौभाग्य हैकि उन्होंने हमें लोहे का बना दिया। यह क्या चीज थी? भावना थी। किसने दी? हमारे गुरुदेव ने दी। इसको मैं वसन्त कहता हूँ। जब से होश सँभाला तब से अब तक ५५ वसन्त देखे। यह हमारा ५६वाँ वसन्त पर्व है। ७० साल का मैं हो गया। इसमें १५ वर्ष का तो मैं नहींजानता, क्योंकि उस समय तक हमारा सम्बन्ध पारस से नहीं हुआ था। उस समय तक तो हम साधारण इनसान की तरह से थे। परन्तु जब हमने १५ वर्ष के बाद पारस को छूना प्रारम्भ किया, तो हमारी शक्ल बदल गयी। शक्ल का मतलब है—हमारा, ईमान, हमारादृष्टिकोण, हमारा चिन्तन। दूसरे आदमी जैसे विचार करते हैं, वैसा मैं नहीं करता। दूसरे आदमी की जैसी आकांक्षा है, वैसी मेरी नहीं है। वे जिस दृष्टिकोण के आधार पर फैसले करते हैं, मैं उस आधार पर फैसले नहीं करता। यह क्या हुआ? पारस को छू जाना हुआ। यहमेरा सौभाग्य है कि मैं पारस को छू गया। मैं कौन? लोहा। वसन्त मेरे जीवन में आ गया। पतझड़ पर सिद्धान्तों के, आदर्शों के, मर्यादाओं के संकल्पों के कारण जो वसन्त की कोपलें और पत्ते आये थे, आज से ५५ वर्ष पूर्व—यह मेरा सौभाग्य था। आज तो इसमें फूल आरहे हैं और न जाने क्या-क्या चीजें आ रही हैं, उन संकल्पों के कारण, कामना को भावना के रूप में बदल देने के कारण कि मैं क्या कहूँ? मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। इसे मैं भगवती सरस्वती का वरदान मानता हूँ कि मुझ ठूँठ जैसे व्यक्ति में भी पल्लव पैदा कर दिये। कौन-कौन सी चीजें आ गई? बहुत-सी चीजें आ गईं। कोयल आ गई बौर देखकर। भौंरे आ गये गीत गाने, खिले हुए फूलों को देखकर। कितने आदमी आ गये इन फूलों को देखकर कि मैं क्या बताऊँ? बच्चों ने ललचाई आँखों से फूल को देखा, फलों को देखा। हर एक ने इसे देखाऔर पसन्द किया। यह मैं अपने जीवन की बात बता रहा हूँ, अपने सौभाग्य की बात बता रहा हूँ, अपने वसन्त की बात बता रहा हूँ। यह वसन्त एक से एक बढ़ते हुए चले आये मेरे जीवन में। आज ५६ वें वसन्त के दिन हम एवं आप मिलकर के खुशी मना रहे हैं, उसकाआयोजन सम्पन्न करने के लिए हम एवं आप बैठे हुए हैं। इसमें आप खुश हैं, मैं भी खुश हूँ, वसन्त के पेड़ भी खुश हैं, पत्ते भी खुश हैं—कोयलें, भौरे, इनसान सभी खुश हैं। इसमें एक तीसरी धारा और भी जुड़ जाती है, वह है प्रकृति की धारा। इसमें तीन धारा गंगा कीतरह हो जाती हैं। तीसरी धारा प्रकृति की सरस्वती का इस समस्त सृष्टि में अवतरण। दूसरी धारा हम जैसे नाचीज व्यक्ति के जीवन में वसन्त की उमंगें, वसन्त की भावना। एक और भी वसन्त आ गया। भगवान की इस सुन्दर सृष्टि को हम नष्ट नहीं होने देंगे।भगवान ने इसे बड़े परिश्रम से बनाया है। हमने भूगोल पढ़ा है, खगोल विद्या पढ़ी है। हमने देखा है कि यह दुनिया जिसमें हम एवं आप रहते हैं, सबसे सुन्दर एवं बढ़िया है, बहुत खूबसूरत है और ऐसा मालूम पड़ता है, मानो भगवान ने बड़ी समझदारी के साथ इससृष्टि को बनाया है। इसमें उनकी बड़ी-बड़ी तमन्नाएँ तथा उम्मीदें हैं।
इस धरती पर जब कभी भी असन्तुलन आता है, भगवान अपनी सृष्टि को सँभालने के लिए अपनी वासन्ती खिलौने इस धरती पर भेजते हैं। क्या भगवान व्यक्ति के रूप में आते हैं? नहीं? भगवान व्यक्ति के रूप में नहीं आते, व्यक्ति उन्हें धारण करते हैं। क्या चीजेंआती हैं? हूक आती है, उमंगें आती हैं प्रकृति में और ढेरों के ढेरों आदमी उसमें लग जाते हैं। नेतृत्व कौन करता है? मैं नहीं जानता। श्रेय किसे मिलता है? यह मैं नहीं जानता। एक हवा आती है, जो एक आदमी को अवतार बनने का श्रेय भले दे दे, वास्तव में वह असंख्योंको अवतार बना देती है। भगवान राम को हम श्रेय देते हैं, परन्तु क्या अकेले राम की बात थी? केवट, भील से लेकर गिलहरी तक, गीध से लेकर रीछ, वानरों तक—सबके भीतर एक उमंग थी कि हम सृष्टि का संतुलन बनाये रखने के लिए अनाचार के विरुद्ध लोहालेंगे। गिलहरी जिसकी कोई हैसियत नहीं, एक ढेला मारने से मर जाती है, वह कहती थी कि हम लोहा लेंगे। यह कौन कहता था? अवतार कहता था। अवतार, शरीरधारी को—व्यक्ति को नहीं कहते। अवतार एक उमंग को कहते हैं, एक तरंग को कहते हैं, जो उठती है औरइनसान के ऊपर छा जाती है। अवतार बहुत बार आये। राम के जमाने में आये। कृष्ण के जमाने में आये। उस समय छोटे-छोटे आदमी ग्वाल-बाल कह सकते थे कि हमें क्यों गोवर्धन उठाएँगे? क्यों जोखिम उठाएँगे? परन्तु अवतार कहता था कि आपको करना चाहिए।उन छोटे-छोटे लोगों में उमंगें थी। उन्होंने वैसा किया। इसी प्रकार जब भी कोई अवतार आये होंगे, ऐसे ही हजारों-लाखों व्यक्तियों के भीतर हूक आयी होगी। क्या भगवान बुद्ध ने दुनिया पलट दी थी? आपने देखा नहीं? उसके साथ ढेरों के ढेरों आदमी जुड़े थे। उनकेपरिव्राजक नालन्दा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय में शिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् बिखर गये थे। रेगिस्तान को पार करते हुए मंचूरिया, मंगोलिया तथा चीन जा पहुँचे थे। कौन? भगवान बुद्ध? हाँ, भगवान बुद्ध। एक लाख नर एवं एक लाख नारियाँ अपने घरों कोछोड़कर भिक्षुक बन गये थे। लोगों ने कहा—वे पागल हो गये हैं। उसकी उन्होंने कोई चिन्ता नहीं की। धर्म की स्थापना और अधर्म के उन्मूलन के लिए जो हूक उठती है, अवतार इसी को कहते हैं। गाँधी जी भी अवतार थे—यह मत कहिये। गाँधी स्वराज्य अकेले लेकर नहींआ गये। उनके लाखों सत्याग्रहियों की हूक थी, जिसके कारण स्वराज्य प्राप्त हुआ। हूक को ही अवतार कहते हैं। मेरी बात समाप्त।
ॐ शान्तिः