उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांत
(प्रथम किस्त)
परमपूज्य गुरुदेव की उद्बोधनों की शैली एक गूढ़ विशेषता को अपने भीतर समाहित किए हुए है। उनके व्याख्यानों में यह मौलिकता है कि वे स्वयं के उद्धरणों से लेकर सामाजिक संदर्भों का सहारा लेते हुए क्लिष्ट सिद्धांतों को इतनी सरलता से समझा देते हैं कि हर किसी के लिए उन बातों को समझना और समझने के साथ उन पर अमल करना सहज संभव हो जाता है। प्रस्तुत उद्बोधन में परमपूज्य गुरुदेव कुछ इसी तरह से आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों की व्याख्या करते दिखाई पड़ते हैं। वे कहते हैं कि बाहर का पूजा-पाठ और कर्मकाण्ड एक प्रतीक मात्र हैं, उनके पीछे के सिद्धांतों को समझे बिना उन पर अमल करना किसी मूल्य का नहीं। वे दीपक प्रकाशित करने से लेकर पुष्प अर्पित करने की समसामयिक और प्रासंगिक व्याख्या करते नजर आते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
नासमझी को समझदारी में बदलना है आध्यात्मिकता
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
देवियो, भाइयो! जो लोग अपने कार्य पूरे करने के लिए, पैसे इकट्ठे करने के लिए और दूसरी चीजों के लिए अपनी जिंदगी को तबाह करते रहते हैं, मित्रो! मैं उनको समझदार कहूँ? कैसे समझदार कहूँ? मैं तो उन्हें नासमझ कहूँगा। आपकी दुनिया नासमझ है और आध्यात्मिकता का उद्देश्य आदमी की नासमझी को समझदारी में परिवर्तित करना है। मेरे साथ भी यही हुआ। पैंतालीस वर्ष पूर्व मेरी नासमझी में समझदारी का समन्वय किया गया और मैं छोटा-सा नासमझ मनुष्य और छोटा सा मगरमच्छ स्वार्थों का मारा, इच्छाओं का मारा, वासनाओं का मारा; एक गए-गुजरे छोटे से मनुष्य के पास ज्ञान की धारा की एक अमृत किरण आई, तो मैं न जाने क्या-से-क्या हो गया।
मेरे साथ मेरे गुरुदेव ने जो किया और मैं चाहता हूँ कि स्थिति को भुला करके मैं भी आपके साथ वही करूँ, जो मेरे गुरुदेव ने मेरे साथ किया। मेरे गुरुदेव ने मेरा ज्ञान की धारा से परिचय कराया कि आध्यात्मिकता उस चीज का नाम है, जो मनुष्य के जीवन में समाविष्ट हो जाती है और जीवन में जो ज्ञान उतारा जा सकता है, उस चीज का नाम आध्यात्मिकता है।
मित्रो! मुझे बहुत पहले यह मालूम था कि आध्यात्मिकता उस चीज का नाम है, जो थोड़ी-सी पूजा, थोड़ा-सा टंट-घंट जैसी चीजों में काम में लाई जाती है। मुझे आध्यात्मिकता का मतलब इतना मालूम था कि माला घुमाई जा सकती है, पूजा की जा सकती है। रामायण, गीता, भागवत् पढ़ी जा सकती है। भगवान को चावल चढ़ाया जा सकता है, रोली चढ़ाई जा सकती है। आरती उतारी जा सकती है। आध्यात्मिकता के बारे में पहले मेरा यही ख्याल था। फिर मेरा यह ख्याल बदल गया। मेरी अक्ल और समझ को बदल दिया गया। उसमें जमीन-आसमान जैसा फरक हो गया। मुझे जब असलियत मालूम पड़ी, तो मैंने कुछ और ही बात पाई। असलियत जब मैंने देखी तो यह पाया कि जो भी कर्मकाण्ड है, जो भी उपासना है, उसका ऊपर का मतलब और उनका उद्देश्य एक ही है कि मनुष्य के अंतरंग का, उसकी जीवात्मा का स्तर ऊँचा उठाया जाए और मनुष्य की भावनाओं का विकास किया जाए।
आंतरिक जीवन की उत्कृष्टता है आध्यात्मिकता
मित्रो! भावनाओं का घटियापन है तो आदमी घटिया ही बना रहेगा। श्रेष्ठ नहीं बन सकता। अगर भावनाएँ ऊँची हैं तो वह कभी भी ऊँचा बन सकता है। ऊँचा व्यक्तित्व श्रेष्ठ व्यक्तित्व की निशानी है। ऊँचा व्यक्तित्व जहाँ कहीं भी होगा, ऊँचा व्यक्तित्व जहाँ कहीं भी निवास करता होगा, उसको लोकहित प्रधान और पालक माना जाएगा और घटियावाला व्यक्तित्व यदि मनुष्य का है, तो दुनिया भर की असुविधाएँ और कठिनाइयाँ पैदा हो रही होंगी। आंतरिक जीवन का तो सवाल ही कहाँ पैदा होता है। इसलिए हमें कर्मकाण्डों का, पूजा उपासना का सारे-का-सारे रहस्य सिखाया गया है। यह बात मेरी समझ में आ गई और मेरे रोम-रोम में समा गई।
मैंने यह पाया कि जो कुछ भी हमें पूजा-पाठ के क्रिया-कृत्य करने हैं, उनके माध्यम से हमको अपने व्यक्तित्व, अपनी विचारणा, अपनी भावना और क्रियापद्धति का परिष्कार करना चाहिए। यह तथ्य मुझे मालूम पड़े। पूजा का यह रहस्य मुझे मालूम पड़ा। भगवान के चरणों पर क्यों गुलाब का फूल चढ़ाया जाता है, मेरी समझ में आ गया। खिलता हुआ गुलाब, हँसता हुआ गुलाब, मुस्कराता हुआ गुलाब, सुगंध से भरा हुआ गुलाब का फूल इस बात का अधिकारी है कि भगवान के चरणों में स्थान पाए और भगवान के गले में स्थान पाए।
भगवान को पुष्प अर्पित करने का अर्थ
मित्रो! गुलाब केवल उस पौधे का नाम नहीं है, जो वनस्पति के ढंग से पैदा होता है। भगवान उस आदमी का नाम नहीं है, जो गंदगी में रहता है और गुलाब का फूल अगर सूँघने को मिल जाए तो फूलकर कुप्पा हो जाता है। गुलाब के फूल से क्या लेना-देना भगवान को। सारी-की-सारी दुनिया में गुलाब ही तो खिले हुए हैं। बोलो क्या करेगा वह तुम्हारा गुलाब ले करके?
भगवान को गुलाब समर्पित करने का मतलब उसकी किसी जरूरत को पूरा करना नहीं है, बल्कि अपने मन के ऊपर एक छाप, एक संस्कार को डालना है कि मनुष्य का जीवन इस गुलाब के पुष्प की तरह से खिला हुआ होगा तो हम भगवान का प्यार और भगवान की समीपता पाने का अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। क्या हम गुलाब के फूल के तरीके से खिलने की कोशिश करते हैं? क्या अपने आप को गुलाब की तरह सुगंधित बनाया? क्या अपने आप को हँसता हुआ आदमी बनाया? क्या अपने आप को पुष्प बनाया? क्या अपने आप को हँसता-हँसाता, खिलता-खिलाता व्यक्ति बनाया? क्या अपनी खुशी को दूसरे आदमी की खुशी देने का अधिकार दिया? अगर हमने ऐसा किया तो समझना चाहिए कि हमने फूल चढ़ाने की बात और फूल चढ़ाने का रहस्य जान लिया। अगर हमारी समझ में इतनी-सी बात आ गई तो मैं समझता हूँ कि आपका फूल चढ़ाना सार्थक हो गया।
मित्रो! इसी तरीके से हमने भगवान को चंदन चढ़ाया, कर्मकाण्ड किया। सिंदूर चढ़ाने का मतलब यह नहीं कि भगवान गंदगी में रहता है और उसकी नाक में बदबू भरी रहती है। उनको चंदन लगा देंगे तो उनका काम चल जाएगा। इसका यह मतलब नहीं है। भगवान जहाँ रहता है, वहाँ खुशबू की कोई कमी नहीं है। वहाँ सुगंधित पदार्थ बहुत भरे रहते हैं। वहाँ धूपबत्तियाँ बहुत जलती रहती हैं। अगर हम चंदन न चढ़ाएँ तो भगवान जी को कोई तकलीफ होने वाली नहीं है। सुगंधित द्रव्य और मिष्ठान्न अर्पित करने का मर्म, सुगंधित पदार्थ चढ़ाने का मतलब यह है कि हमारा जीवन शांत और सुगंधित हो। जहाँ कहीं भी चंदन लगाया जाए, वहाँ शांति और सुगंध हो। जिस किसी भी मस्तिष्क पर लगाया जाए, उसे शीतल कर दे। चंदन के सम्मुख जो भी पौधे उगे हुए हों, वह उन उगे हुए पौधों में अपनी खुशबू उँड़ेल दे। हम अपने पास, अपने सम्मुख रहने वाले व्यक्तियों को भी वैसा ही बना दें, जैसा कि चंदन अपने समीप के पौधों को सुगंधित बना देता है। चंदन के आस-पास साँप, बिच्छू के जहर का उस पर असर आया? नहीं आया। वह आदमी जा चंदन क तरीके से अपने जीवन को बना लेता है या बना सकता है, उसी को यह हक है कि हमने चंदन चढ़ा करके, चंदन चढ़ाने का मकसद और चंदन चढ़ाने का उद्देश्य पूरा कर लिया।
मित्रो! भगवान को हम शक्कर चढ़ाते हैं, मिठाई चढ़ाते हैं। शक्कर चढ़ाने का मकसद और मिठाई चढ़ाने का मतलब क्या है? मिठाई चढ़ाने का मतलब यह है कि भगवान को मीठा प्रिय है। इसका मतलब यह नहीं है कि भगवान को खटाई नापसन्द है। इसका मतलब यह नहीं कि भगवान जी मिरच नापसन्द करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे जायके भगवान को पसंद नहीं हैं।
मिठाई चढ़ाने का मतलब सिर्फ एक है कि भगवान सबसे ज्यादा जिसे प्यार करते हैं, भगवान की सबसे प्रिय वस्तु जो हो सकती है, वह मनुष्य की वाणी की मिठास, मनुष्य के व्यवहार की मिठास, मनुष्य की क्रिया की मिठास, मनुष्य की वृत्तियों की मिठास है। अगर मिठास हमारे जीवन के हर क्रियाकलाप में घुल जाए तो हम इस बात के अधिकारी बन सकते हैं कि भगवान को हमारा जीवन और हमारी मनोभावना को मीठे की तरह समर्पित कर सकते हैं। हमारा व्यवहार मिठास से युक्त हो।
दीपक प्रकाशित करने का रहस्य
मित्रो! हम दीपक जलाते हैं। दीपक जलाने का मतलब यह नहीं है कि भगवान की आँखों की रोशनी कम हो गई है। जब आदमी को कम दिखाई पड़ता है, तो माइनस और प्लस के चश्मे लगाने पड़ते हैं। भगवान जी को मोतियाबिंद हो गया, यह मतलब नहीं है। भगवान जी की आँखें सही हैं। भगवान जी के आँखों को धरती पर रखी किताब पढ़ने में और अख़बार पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आती। उनकी आँखें सही हैं। फिर दीपक जलाने से क्या मतलब है?
हमको तो दीपक जलाने की जरूरत होती है; क्योंकि दिन में जब अँधेरा हो जाता है और बादल छा जाते हैं और प्रकाश कम होता है, तो बत्ती जलानी पड़ती है। ठीक है आँखें कमजोर हैं, इसलिए बत्ती जलानी पड़ती है। लेकिन भगवान जी की आँखें कमजोर नहीं हैं। भगवान जी की आँखों के आगे दीपक जलाएँ या न जलाएँ, उन्हें कोई दिक्कत होने वाली नहीं है। फिर दीपक जलाने की आवश्यकता क्या है? दीपक जलाने की जरूरत केवल यह है कि हम अपने जीवन में एक तरह की भावना का विकास करें कि भगवान को दीपक प्यारा है। भगवान दीपक को मुहब्बत करते हैं।
दीपक वह, जिसके मन में जलने की तमन्ना है। दीपक के पेट में प्यार भरा हुआ है। प्यार स्नेह-सत्कार को कहते हैं और स्नेह का दूसरा अर्थ घी भी होता है, तेल भी होता है। जिसके पेट में स्नेह भरा हुआ पडा़ है, वह है दीपक और जिसने यह नीति अख्तियार कर ली है कि मैं दुनिया में उजाला फैलाऊँगा और अँधेरे में उजाला करूँगा। इसके लिए मैं जलने के लिए तैयार हूँ।
दीपक की तरह प्रकाश देने वाले बनें
जो आदमी उजाला करने के लिए जलना मंजूर करता है, वह आदमी उन सितारों के तरीके से है, जो रात के समय जब चारों ओर अँधेरा छाया रहता है और उस अँधेरे से जो मुसाफिर रास्ता भूल सकते थे, भटक सकते थे; उनको अपनी छोटी-सी समझदारी के द्वारा रास्ता दिखाता रहता है। बच्चे गाते रहते हैं-"ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार, हाऊ आई वंडर व्हाट यू आर।"
मित्रो! इस तरीके से छोटा वाला मनुष्य अपनी छोटी छोटी प्रवृत्तियों के कारण इस संसार में प्रकाश कैसे फैला सकता है। दूसरों को रास्ता दिखाने वाली जिंदगी कैसे जी सकता है। हम रास्ता दिखाने वाली जिंदगी जी सकते हैं। रास्ता दिखाने वाली जिंदगी गरीब आदमी भी जी सकते हैं और हजारों मनुष्यों को रास्ता दिखा सकते हैं।
काश! हमने ऐसी जिंदगी जी हो। ऐसी जिंदगी का जीना भगवान की भक्ति का, दूसरे कर्मकाण्डों, पूजा का उद्देश्य, भगवान का उद्देश्य पूरा कर सकता है। हमारे मन में केवल कर्मकाण्ड की क्रिया समझ में आए और उद्देश्य समझ में आए, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। तब हम अपने लक्ष्य तक पहुँच पाएँगे कि नहीं, यह कहना मुश्किल है।
इसलिए मित्रो! मेरे गुरुदेव ने मुझे बताया कि हमको जो आध्यात्मिकता के सहारे, पूजा के सहारे, गायत्री महामंत्र के सहारे हमें अपने आप का, अपनी जीवात्मा का विकास करना चाहिए और अपनी विचारणाओं, अपनी भावनाओं का परिष्कार करना चाहिए।
भावनाओं और विचारणाओं का परिष्कार जहाँ कहीं भी जिन व्यक्तियों ने शुरू किया-छोटे, नगण्य से-नगण्य, गरीब-से मामूली आदमी महानतम व्यक्ति होते हुए चले गए। भगवान का अनुग्रह, कृपा और वरदान प्राप्त करने के लिए उन्हें इंतजार नहीं करना पड़ा। उन्होंने वह सब कुछ प्राप्त किया, जिसकी मामूली आदमी ख्वाब में कल्पना भी नहीं कर सकता। ऐसी चीजों का हकदार आप में से हर आदमी बन सकता है।
अगर आप लोगों को यह ख्याल आए कि आप लोगों को अपना मन, आपको अपनी नीयत, आपको अपना चाल-चलन, आपको अपनी रीति-नीति और आपको अपनी जिंदगी की गिरी हुई स्थिति ठीक कर लेनी चाहिए। इतनी छोटी-सी बात अगर आपकी समझ में आ जाए, तो मजा आ जाए। आपको भगवान का प्यार और भगवान की कृपा मिलती हुई चली जाए।
अनुग्रह करने को प्रतीक्षारत हैं भगवान
मित्रो! इसी तरीके से निधि भी है। निधि पाने के लिए भगवान की कृपा और भगवान की दया और भगवान की मुहब्बत सुरक्षित रखी हुई है। भगवान बहुत देर से इस इंतजार में बैठा हुआ है कि कोई तो आदमी हो, जिसको कि मेरी मुहब्बत पाने का हक है। कोई तो आदमी हो, जिसको कि मैं अपना प्यार हूँ। कोई तो आदमी हो, जिसको कि मैं अपनी सहायता दूँ।
भगवान ने यही भरोसा किया है और उन्होंने बहुत तरह की बहुतों को सहायता दी है। अर्जुन को उन्होंने कहा—"अर्जुन! दुनिया में बुराइयाँ बहुत फैली हैं। बुराइयों का मुकाबला करने के लिए अपने आप को जोखिम में डालना चाहिए और दुनिया में से बुराई को दूर करना चाहिए।" अर्जुन ने कहा—"मुझे आप क्यों झगड़े में फँसाते हैं। इस काम को आप, किसी और को सौंप दीजिए और मुझे तो आप पूजा करने की बात बता दीजिए, जो दुनिया में सबसे सुगम काम है। इससे सुगम काम कोई और नहीं है। यह सबसे सस्ता और सबसे सरल काम है। कारोबार चलाना हो तो आपको अक्ल की जरूरत है। धागा टूटे नहीं और सूत खराब न हो जाए और कपड़ा खराब न हो जाए, बिक्री अच्छी हो, तभी फायदा मिलेगा। और माला घुमानी हो तो खट-खट घुमाते रहिए। स्पीड का ध्यान रखना। खट् खट् माला घुमा दीजिए। सबसे सस्ता और सबसे सरल और सबसे हलका काम है भगवान का।
लेकिन मित्रो! अर्जुन ने कहा—"यह माला जैसा सस्ता काम दे दीजिए हमको। 56 लाख आदमी गंगा जी पर बैठे रहते हैं और सटक-सटक माला घुमाते रहते हैं। बस, यही काम मैं कर लूँगा, तो भी मेरा काम बन जाएगा। आप झगड़े में मुझे मत फँसाइए।" भगवान ने कहा—"अर्जुन! तुझे झगड़े में फँसना ही पड़ेगा; क्योंकि मैं जब भी दुनिया में अवतार लेता हूँ तब मेरे अवतार लेने के दो उद्देश्य हैं, एक उद्देश्य है—धर्मसंस्थापनार्थाय और दूसरा है—परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्म की स्थापना और दुष्टों का विनाश।
"मैं कभी भी, कहीं भी आऊँगा तो इन दो कामों के लिए ही स्वयं आऊँगा। और कोई भी मेरा मकसद नहीं। अगर मैं मनुष्य के भीतर कभी आऊँगा, तो इन्हीं दो कामों के लिए आऊँगा, तीसरा कोई मकसद नहीं है मेरे आने का। जब मैं आऊँगा तो सभी को इस काम में लगाऊँगा। धर्म की स्थापना करने के लिए, जो व्यक्ति अपने स्वार्थ को भुला दे और अपनी सारी शक्ति को खरच कर डाले—वह आदमी पाप, अन्याय और बुराइयों को दूर करने के लिए अपनी शक्तियाँ खरच कर डाले। ऐसा तुम्हें भी करना चाहिए।"
मित्रो! अर्जुन ने भगवान की बात को मंजूर कर लिया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—"अपना गाण्डीव उठा और तीर चला। बाकी सब काम मैं कर लूँगा।" अर्जुन ने कहा—'मैं थक गया तब?" श्रीकृष्ण ने कहा—"मैं तुझे थकने नहीं दूँगा।" अर्जुन ने कहा—"मैं रास्ता भूल गया तब?" तब उन्होंने कहा—'मैं तेरे घोड़े चलाऊँगा।" भगवान आगे-आगे रथ चलाते हुए चले गए और अर्जुन गाण्डीव से तीर चलाता रहा। गाण्डीव चलाने वाले अर्जुन, जो कि भगवान का काम करने को कटिबद्ध हुए, भगवान की सहायता करने के अधिकारी हुए। यह तो पुराने जमाने की बात हुई।
बुद्ध को मिला भगवान का अनुग्रह
भगवान की आज्ञानुसार गौतम बुद्ध, जो पूजा-पाठ करते उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि आपका प्यार पाने के लिए मुझे क्या करना होगा। अपने जीवन में क्या काम करना होगा। उन्होंने कहा—"एक धर्म की स्थापना और एक पाप का विनाश। इसलिए तुम धर्म की स्थापना करो। लोगों से कहो—बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि। समाज में संघबद्ध रहो और विवेक बुद्धि की, अक्ल की सहायता से अज्ञान और अनाचार, अवसाद और छोटापन, परंपराओं और मान्यताओं, इनके पीछे भागने वाली दुनिया को रोको और कहो—'बुद्धं शरणं गच्छामि-बुद्धि की शरण में जाऊँगा, विवेक की शरण में जाऊँगा। विवेक के अतिरिक्त अन्य सबको निस्तारित कर दूँगा।' उन्होंने कहा—सब संघबद्ध हो जाओ। इकट्ठे हो जाओ।"
मित्रो! बुद्ध ने भगवान की आज्ञा मानी। और 'बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि' का संदेश लेकर भगवान बुद्ध चले गए और वैदिक हिंसा, तामसी और अंध परंपरा जो देश में फैली हुई थी, उसके लिए उन्होंने धर्मगत संघर्ष किया। उस जमाने का महान क्रांतिकारी बुद्ध अकेला था और जंगल में बैठा हुआ था। भगवान से उसने कहा—"आपने मुझे इतना बड़ा काम सौंपा, मैं किस तरीके से काम करूँगा। मेरे पास रुपया-पैसा कहाँ है और मेरे पास साधन कहाँ हैं।"
भगवान ने कहा—"चल आगे-आगे और मैं आया रुपया ले करके।" और मित्रो! वह आए, सम्राट अशोक के रूप में आए। उन्होंने कहा—"आप हैं, जो भगवान का काम करने के लिए बैठे हैं।" बुद्ध ने कहा—"हाँ, भगवान की आज्ञानुसार, भगवान की इच्छानुसार मैंने अपने जीवन को हथेली पर रखा और अपनी सारी-की-सारी बागडोर भगवान के सुपुर्द कर दी।" सम्राट ने कहा—"फिर आपको सामान, साधनों की जरूरत होगी।" उन्होंने कहा—"हाँ, मुझे पैसा चाहिए, साधन चाहिए।" अशोक ने कहा—"भगवान का सारा साधन आपके चरणों में समर्पित है।" सारी-की-सारी चीजें, धन और दौलत उनके पास आ गईं। बुद्ध भगवान ने ढाई लाख शिष्यों के माध्यम से समूचे एशिया और सारे विश्व में क्रांति की लहर फैलाई और भगवान स्वयं अशोक के रूप में उनकी सहायता कर रहे थे।
मित्रो! एक बार देवता और असुर मिलकर समुद्रमन्थन करने लगे। उनसे भगवान ने इच्छा की और उनको आज्ञा दी कि पुरुषार्थ किया जाना चाहिए और इस विश्व-वसुधा में जो अमूल्य रत्न भरे पड़े हैं, उनको निकाला जाना चाहिए। देवताओं ने कहा—हार जाएँगे" और असुरों ने कहा—"हम हार जाएँगे।" भगवान ने कहा—"मैं तो जिंदा हूँ, तुम्हें हारने नहीं दूँगा।" समुद्रमन्थन होने लगा। मंदराचल पर्वत समुद्र के नीचे तलहटी में चलने लगा। देवता चिल्लाए—"महाराज! जिस मंदराचल से हम मथानी का काम ले रहे हैं, वह तो अब डूबा और हमारा काम फेल हुआ।" कच्छप का रूप बना करके भगवान आए और मंदराचल को अपनी पीठ पर उठा लिया। समुद्रमन्थन होता रहा और समुद्र से रत्न निकाले जाते रहे।
भगवान ने की शंकराचार्य की सहायता
मित्रो! शंकराचार्य भगवान का कार्य करने के लिए रवाना हुए और उनकी दिग्विजय की यात्रा बाधित हो गई। वे बीमार हो गए। शंकराचार्य ने कहा—"भगवन्! मैं बीमार हूँ। मैं बाईस साल का छोकरा हूँ और देखिए मुझे भगंदर का फोड़ा है। मैं बहुत छोटा हूँ और बीमार हूँ। आपका काम कैसे करूँगा।" सम्राट मान्धाता उनके पास आए। उन्होंने कहा—"शंकराचार्य! आप दिग्विजय करने के लिए विश्व में जा रहे हैं।" उन्होंने कहा—"हाँ, जा रहा हूँ।" तब राजा ने कहा—"आप मेरी सेना ले जाइए और मेरा रथ और सैनिक ले जाइए। आपसे शास्त्रार्थ में जो कोई मुकाबला करे, जो ज्ञान से आपका मुकाबला करे तो आप कीजिए और जो बल से मुकाबला करे, ताकत से धमकाना चाहे तो मेरे सैनिक उसकी अक्ल ठिकाने लगा देंगे।" राजा मान्धाता की करोड़ों की सेना और भरा खजाना आ गया शंकराचार्य की मदद के लिए।
मित्रो! मैं गाँधी जी की बात कहूँगा, जो अभी-अभी की बात है। कैसे भगवान की सहायता मनुष्य के ऊपर बरसती हुई चली गई और चली जाती रहेगी। जापान में एक छोटा-सा छोकरा था। उसके मन में आया कि कमाते खाते तो सभी हैं। धनवान, सुखी रहने की तमन्ना तो सभी के जी में है। मुझे एल.डी.सी., यू.डी.सी. बनने की अपेक्षा कुछ बेहतरीन काम करने चाहिए। मनुष्य का जीवन कुछ बेहतरीन कामों के लिए मिला है। इसलिए मुझे उन्हीं कामों में अपनी जिंदगी को लगा देना चाहिए।
जापान के गाँधी कागावा के जी में यह बात आई। जिस तरह से महात्मा गाँधी की तस्वीरें अपने यहाँ हर जगह रहती हैं। सभी महात्मा गाँधी की जय बोलते हैं, सारा-का-सारा जापान भी एक ही आदमी की जय बोलता है और उस आदमी का नाम है—कागावा। एक छोटा-सा विद्यार्थी, जिसके माँ-बाप मर चुके थे। अकेला बच्चा रह गया था। क्या करना चाहिए? हमारे आपके जैसा आदमी होता तो यह ख्याल करता, यह ख्वाब देखता कि ब्याह कर लेना चाहिए। बच्चे पैदा करना चाहिए और नौकरी करनी चाहिए। अच्छा घर लेना चाहिए और सिनेमा देखना चाहिए। बीबी के लिए जेवर बनाने चाहिए। इन्हीं ख्वाहिशों में सारी-की-सारी जिंदगी खतम हो जाती है।
मित्रो! अगर हमारे, आपके जैसा घटिया आदमी जापान का गाँधी कागावा होता तो? पर कागावा की तमन्नाएँ वो थीं, जो आध्यात्मिक मनुष्यों की होनी चाहिए। उन्होंने कहा "मुझे जापान की सेवा करने के लिए भगवान ने भेजा है, मैं सेवा करूँगा।" वह गाँव-गाँव गया, मुहल्ले-मुहल्ले गया। जहाँ कहीं भी गंदगी देखी, जहाँ कहीं कोढ़ी और गंदे लोग देखे, जहाँ कहीं शराबी, गरीब, गंदे लोग रहते थे, रोज खून-खच्चर होते थे। गाली-गलौज होते थे। जहाँ सारे-के-सारे लोग नरक में डूबे पड़े थे। जापान के गाँधी कागावा वहाँ गए और उस मुहल्ले में अपनी झोंपड़ी बना ली। उन्हीं दरिद्र लोगों के बीच रहने लगे।
(क्रमशः)
परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-[2]
आध्यात्मिकता के मूल सिद्धान्त
[द्वितीय किश्त]
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव समस्त साधकों को आध्यात्मिकता के मूल सिद्धान्तों से परिचित कराते हुए कहते हैं कि व्यक्ति की नासमझी को समझदारी में बदलने का नाम ही आध्यात्मिकता है। यदि व्यक्ति के दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाता है और वह एक विवेकशील मनुष्य की तरह जीवन को सही सिद्धान्तों पर जीने का प्रयत्न करता है तो यह कहा जा सकता है कि आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को उसने हृदयंगम कर लिया है। इसके उपरांत पूज्य गुरुदेव भगवान को पुष्प अर्पित करने से लेकर उनको जल चढ़ाने तक की समस्त प्रक्रियाओं के पीछे निहित भाव को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि इन आध्यात्मिक प्रक्रियाओं के पीछे का भाव ही उनका मूल सिद्धांत है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.......
सेवा का आनंद
मित्रो! कागावा किसी को चाचा जी, किसी को ताऊ जी, किसी को भईया जी, किसी को दादा जी कहते और सबको अपना बनाते चले गये। हर समय उन्हीं बीमारों की सेवा करते, जो किसी मुसीबत में फँसे होते, उनकी सहायता करते। शाम को दूसरी जगह जाकर दो घंटे ट्यूशन करते और पचास रुपये महीने कमा करके ले आते। बस यही उनके गुजारे का धन था। इसी गुजारे के धन के द्वारा कागावा सारे-के-सारे गाँव की सेवा करने लगे। गंदे जनों की सेवा करने लगे। एक दिन, एक छोकरी उनके पास आयी और पूछा—कागावा आप कहाँ जाते हैं? उस लड़की को वे ट्यूशन पढ़ाते थे। उन्होंने कहा—मैं तो गंदे मोहल्ले में रहता हूँ। जो दुःखी और दरिद्र हैं, उन्हीं में तो भगवान हैं। भगवान हाथ पसारता है और यह कहता है कि दरिद्र और पिछड़े लोगों के रूप में मैं ही हूँ। आओ, कोई है जो मेरी सेवा करे, सहायता करे। मैंने तो भगवान को गंदेवाले मोहल्ले में देखा और उन्हीं की सेवा करने के लिए चला गया।
मित्रो! उस छोकरी ने कहा कि क्या हमें भी सेवा करने का मौका मिलेगा? कागावा ने कहा—हाँ, तुम भी चल सकती हो। उसने देखा कि जापान के कागावा की झोपड़ी में कुछ भी नहीं था। सारे दिन उन गंदे लोगों की सेवा करते देखा। उस छोकरी ने कहा—कागावा! तुम्हें इस जगह पर क्या मजा आता है? उन्होंने कहा—इस मजे को और इस आनंद को चखना हर आदमी का काम नहीं है। क्यों? क्योंकि हर आदमी इंद्रियों का गुलाम है, क्योंकि हर आदमी वासना और तृष्णा का गुलाम है। इसलिए उसको दौलत चाहिए, साधन चाहिए। यह आनंद तो त्याग का आनंद है, सेवा का आनंद है। यह महानता का आनंद है, जो किसी-किसी भाग्यवान को मिलता है और वह भाग्यवान मैं हूँ, जो सेवा करने में जीवन लगा रहा हूँ।
छोकरी ने कहा—मैं भी आपके पास दो-पाँच दिन रहूँ? कागावा ने कहा—हाँ, तुम भी मेरे साथ दो-पाँच दिन रह सकती हो। वह दो-पाँच दिन रही, तो उसने कहा कि यह आनंद का जीवन है, यह स्वर्ग का जीवन है। मैं भी अपने जीवन को इसमें लगाना चाहूँगी। कागावा ने कहा—मेरे पास तो घर भी नहीं है, धन भी नहीं है। मेरे पास दौलत कहाँ है, मेरे पास साधन कहाँ है, मेरे पास पलंग कहाँ है, फिर मैं तुम्हें कैसे कहूँ कि तुम मेरे साथ साथ रहो? मेरी जीवनसंगिनी बन करके रहो? मुझे तुम्हारा प्रस्ताव नामंजूर है, क्योंकि मैं तुम्हारी सुविधा के लिए कुछ भी नहीं कर सकता। अपना पेट पालने के लिए ही बड़ी मुश्किल है।
मित्रो! छोकरी ने कहा—पेट तो कुत्ते भी पालते हैं, बंदर भी पालते हैं, पेट तो चींटियाँ भी पालती हैं, मक्खियाँ भी पालती हैं। पेट पालना क्या कोई बड़ी समस्या है? मैं तो आपकी तरह सेवा करूँगी और ऐसा महान व्यक्ति, जिसको मैं देवता कहूँ, भगवान कहूँ, उसके चरणों को धोकर के पीयूँगी। दोनों साथ हो गये और मित्रो! जापान का बड़ा वाला काम होने लगा-समाज सेवा का। उनकी इतनी बड़ी लंबी कहानी है कि अब मैं आपसे क्या कहूँ? कहाँ तक कह सकता हूँ? बस अंत में यह हुआ कि जापान के गाँधी कागावा को हर आदमी ने यह कहा कि यह जिंदा भगवान है कागावा के रूप में। जो समाज सेवा में अपने आपका उत्सर्ग कर चुका है, उसका नाम भगवान है। भगवान का दर्शन करने के लिए लोग आये और उनके चरणों में दान-दक्षिणा चढ़ाने के लिए आये। कागावा जापान के गाँधी बन गये। एक छोटावाला, मामूलीवाला विद्यार्थी जापान की जनता को कितना प्रभावित कर सका। जापान की जनता पर अपनी गहरी छाप डाल सका, जिसकी न माँ थी और न बाप था। वह महात्मा गाँधी जैसा महान बन गया। मित्रो! जब मनुष्य के भीतर महानता आती है, तो भगवान की दौलत, भगवान का प्यार, भगवान का सहयोग अनायास ही न जाने कहाँ से बरसता हुआ चला आता है।
भगवान के अहसान हमारे ऊपर
साथियो! हिंदुस्तान के एक आदमी का, एक और किस्सा सुनाऊँ? राजस्थान का 22-23 साल का एक छोकरा, संस्कृत में मध्यमा तक पढ़ा हुआ, एक स्कूल में अध्यापक था। चार साल शादी को हुए थे। 18 साल में उसका विवाह हो गया था और बाईस साल की उम्र में उसकी पत्नी का देहांत हो गया। चार साल का बीबी का साथ। उसे पत्नी की याद आयी, तो कलेजा थामकर रह गया। आपकी और हमारी बीबी का देहांत हो जाता, तो पहले सोचते कि मरने से पहले दुबारा विवाह हो जाये, पर उस आदमी की तबीयत अलग थी। उसके मन में आया कि जिस महिला ने मेरे जीवन में चार साल इतने आनंद और उल्लास से व्यतीत किये, उसका एहसान किस तरीके से चुकाना चाहिए? महान व्यक्तियों के सोचने का ढंग हमारे आपके जैसा होता, तो गया जी में जाकर के पिंडदान, तर्पण करते और कहते कि ले यह कच्चा आटा का पिंड खा। वह कहती—अरे बाबा! रोटी तो बना करके ले आ। कच्चा आटा खिलाता है पागल। लेकिन उसने गया जी में कच्चा आटा खिलाने की अपेक्षा, दूसरे तरीके अख्तियार किये और पत्नी के गाँव चला गया। गाँव के लोगों से कहा कि आपका और आपकी छोकरी का एहसान मेरे ऊपर है। मैं इस गाँव के लिए कुछ करना चाहता हूँ?
मित्रो! भगवान के भक्त के ऊपर सारे समाज का एहसान होता है, माँ-बाप का एहसान होता है। जो ऐसा सोचता है, वह बड़ा आदमी है। जो कहता है कि गुरुजी! तीन माला करते-करते एक महीना हो गया और कुछ भी काम नहीं बना। नौकरी में तरक्की भी नहीं हुई। महाराज जी! ऐसा मालूम पड़ता है कि गायत्री माता नाराज हो गयीं। बताइए क्या करना चाहिए? गायत्री माता ध्यान ही नहीं देतीं। अब आप ही कुछ और बता देते। अब मैं क्या कहूँ? केवल यही कह सकता हूँ कि लोहे की सलाखें गरम करके ला और आचार्य जी के चिपका दे। एक महीना जप कर लिया, बहुत बड़ा एहसान कर दिया। शिकायत करता है कि फलाना काम नहीं हुआ, ढिकाना काम नहीं हुआ। एहसान जताता है भगवान के ऊपर और आचार्य जी के ऊपर।
जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, तुम्हारे ऊपर भगवान के असंख्य एहसान हैं। उन सबको भूल गये और कहते हो कि हमने तीन माला जप किया, पर परीक्षा में पास नहीं किया। मेरा यह काम नहीं किया, वह काम नहीं किया। इस तरह मित्रो! हमारी छोटी और खोटी सोच कि हम हर किसी पर अपना एहसान जताते रहते हैं। हम बहुत घटिया आदमी हैं और हमें भगवान तक पहुँचने में बहुत देर लगेगी। जिनके मन में हमेशा यह आता है कि भगवान का एहसान हमारे ऊपर है, मेरे गुरु का है, समाज का है, माता-पिता का है। मैं सभी के अहसानों से दबा पड़ा हूँ, तो समझिये कि वह आदमी है, जिसको हम आध्यात्मिक कह सकते हैं और जिसमें आगे बढ़ने की कूबत और हिम्मत हो सकती है।
मित्रो! इसी तरह का था वह अध्यापक। उसने उस गाँव में जाकर कहा—आप सभी के हमारे ऊपर बहुत एहसान हैं। इस गाँव के लिए और यहाँ के लिए मैं कुछ करना चाहता हूँ? लोगों ने कहा—क्या करना चाहते हैं? उन्होंने कहा—मैं नौकरी से इस्तीफा दूँगा और आपके गाँव में रहना चाहूँगा। इस गाँव की बच्चियों को शिक्षित बनाऊँगा और सारी जिंदगी इसी में खर्च करूँगा। लोगों ने पागल और बेवकूफ कहा। पैंतालीस रुपये महीने की नौकरी छोड़ेगा और यहाँ बिना कीमत के पढ़ायेगा। उन्होंने कहा—नौकरी करने के लिए जिंदगी नहीं है। लोकमान्य तिलक ने जब 30 रुपये महीने की नौकरी मंजूर कर ली, तो लोगों ने कहा—30 रुपये में से तो तुम्हारे मरने के लिए कफ़न भी नहीं बचने वाला है। उन्होंने कहा—कफ़न की चिंता औरों को करनी चाहिए, जिनको लाश सँभालनी हो। मुझे लाश नहीं सँभालनी है, इसलिए मुझे चिंता करने की कोई बात नहीं।
मित्रो! गोपाल कृष्ण गोखले, जिन्होंने शिक्षा समिति बनाई, उन्होंने अध्यापकों को नौकरी पर रखा और स्वयं उसके संचालक बने और 30 रुपये महीने लेने लगे। लोगों ने कहा कि आपके अध्यापकों और नौकरों को 200 रुपये महीना मिला और आप इस समिति के संचालक और संस्थापक हैं, उसे केवल 30 रुपया महीना बस। उन्होंने कहा कि आदमी को खर्च करने के लिए इतना ही काफी है। जो आदमी अपने चाल-चलन और सेवा की छाप दूसरों पर नहीं डाल सकता, वह दूसरों से काम लेने का हकदार नहीं हो सकता। अध्यापकों को दो सौ रुपया मिलता है और मुझे मिले ढाई सौ रुपये, तब अध्यापक चुपके-चुपके कहेंगे कि ढाई सौ रुपये मिलते हैं, इसीलिए लंबी-चौड़ी बातें बनाता है। कम रुपये मिलते, तो दाल-आटे का भाव पता चलता कि बच्चों का पालन कैसे किया जाता है? बड़ा आया हुकूमत चलाने वाला।
कर्तव्यपालक होते हैं महापुरुष
मित्रो! महापुरुष कर्तव्यों का पालन करने के लिए पैदा होते हैं। वह छोटा वाला अध्यापक नौकरी से इस्तीफा देकर गाँव में चला गया और बच्चियों को-कन्याओं को पढ़ाने लगा। पहले लोगों ने उसे पागल कहा, फिर उसका विरोध किया कि पता नहीं कब किसको लेकर के भाग जाये? मारकर भगाओ इसे। कई लोगों ने कहा कि यह पागल हो गया है। इसका दिमाग खराब हो गया है। इसके पास बच्चियों को नहीं भेजा जाएगा? वह बेचारा ढूँढ-ढूँढकर थोड़ी-बहुत लड़कियों को ले आता। लोगों ने कहा कि बिना मतलब के कोई कुछ नहीं करता। यह बहुत चालाक है, ऐसा न हो कि ये हमारी बच्चियों को भ्रमित करे। सेवा के लिए हर स्थिति पार करनी पड़ती है। पहले उसका मखौल उड़ाया जाता है, मजाक बनती है। फिर भगवान के भक्त का विरोध किया जाता है। जब यह मालूम पड़ता है कि इसमें कुछ ताकत है, कुछ काम करने लगा है, तो दुनिया उसके पास आने लगती है। दूसरी वाली स्कीम, तीसरी वाली स्कीम है—जब दुनिया झुक जाती है और उसके पाँव पर फिर अपना हृदय निकाल कर रख देती है।
मित्रो! वह गाँव में रहकर बच्चियों को बुलाता रहा, पढ़ाता रहा। फिर कुछ दिनों बाद लोगों ने कहा कि यह इंसान नहीं है? यह भगवान है। इंसान वह आदमी है, जिनकी ख्वाहिशें उनको खाये जाती हैं। इंसान वह है, जो वासनाओं और तृष्णाओं की जिंदगी में बंधे हुए जानवर के तरीके से है और भगवान वह आदमी है—जिसको तृष्णाओं ने, वासनाओं ने खोल दिया और जो कर्तव्यों के पीछे चल पड़ा। उस आदमी का नाम भगवान है। लोगों ने कहा कि यह अध्यापक नहीं भगवान है और भगवान के लिए लोग अपने हृदय से उपयोग की सारी-की-सारी चीजें उठाकर लाये। साधन जुटाये। चारपाई, कपड़े बनवाये। मित्रो! उस भगवान का काम बढ़ता हुआ चला गया। राजस्थान के वनस्थली बालिका विद्यालय के संस्थापक हीरालाल शास्त्री थे। जब राजस्थान में पहली बार मुख्यमंत्री का चयन होना था, तब लोगों ने कहा—राजस्थान का मुख्यमंत्री भगवान को बनाना चाहिए। कौन-सा भगवान? जो संस्कृत में मध्यमा तक पढ़ा हुआ था। जो 45 रुपये महीना पाता था—अध्यापक हीरालाल शास्त्री।
मित्रो! मैं आपको महापुरुषों की कहानियाँ सुना रहा हूँ, दृष्टांत दे रहा हूँ? नहीं, मैं यह बता रहा हूँ कि जिन व्यक्तियों ने जीवन में महानतम काम किये, तो उसी तरह से भगवान के प्यार, भगवान के अनुग्रह और भगवान के सहयोग के अधिकारी होते चले गये। उनके सभी कार्य पूर्ण होते चले गये। मैं भी अपने गुरु की आज्ञा से उसी रास्ते पर चलता हुआ चला गया, जिसे कि मैं आपको सिखाता हूँ। मैंने आध्यात्मिकता के सिद्धांतों को अपने जीवन में घोल-घोल करके पिया है। आप लोगों ने जुबान से कहा है और कान से सुना है।
जुबान से कहने और कान से सुनने की चीज अध्यात्म नहीं है। क्या हो गया? कैसे बैठे हो साहब! डॉक्टर ने दवाई बता दी। क्या नाम बताया? स्ट्रेप्टोमाइसिन। स्ट्रेप्टोमाइसिन के इंजेक्शन लगाने पड़ेंगे। आपने कान से सुन लिया। कौन-सी दवा? स्ट्रेप्टोमाइसिन। जुबान से कह रहे हैं कि कम्पाउण्डर साहब! हमें दवा दीजिए। दवा दे दी और आपने रख ली। अब आपने क्या किया? लकड़ी की एक माला उठाई और दवा-स्ट्रेप्टोमाइसिन चौकी पर रख दी और उसके चारों ओर धूप घुमाई और जप करना शुरू कर दिया—स्ट्रेप्टोमाइसिन-स्ट्रेप्टोमाइसिन। सवा लाख का अनुष्ठान करना है—स्ट्रेप्टोमाइसिन का। अरे बाबा! उसे खाता है या जप करता है। नहीं, महाराज जी! हम तो अनुष्ठान करेंगे। और खायेगा नहीं? नहीं, खायेंगे तो नहीं। खायेगा नहीं, तो तेरी टी.बी. अच्छी होने वाली नहीं है। अच्छे होने के लिए डॉक्टर की बात माननी पड़ेगी।
भगवान को जीवन में समावेश करिए
मित्रो! भगवान की विचारणाएँ ऐसी नहीं हैं कि जिनको कानों से सुनने के बाद अपना उद्देश्य पूरा कर सकते हैं और भगवान उस आदमी का नाम नहीं है, जिसका नाम जुबान से कहने के बाद आपका उद्देश्य पूरा हो सकता है, बल्कि उसको जीवन में समाविष्ट करना पड़ेगा, समावेश करना पड़ेगा। जब आप दवा खाना शुरू करेंगे, स्ट्रेप्टोमाइसिन लेंगे और दूसरी गोलियाँ खायेंगे, विटामिन 'डी' खायेंगे, अमुक चीजें खायेंगे, तब आपके शरीर में कुछ ताकत आयेगी। बीमारियाँ भागेगी और आप स्वस्थ हो जायेंगे। यह तब होगा, जब आप दवा खायेंगे। आध्यात्मिकता खाने की चीज है, मान लेने की नहीं। आध्यात्मिकता सुनने की चीज नहीं है, काम में लाने की है।
मित्रो! मैं उसी आध्यात्मिकता का वर्णन कर रहा हूँ, जो मेरे गुरु ने मुझको सिखायी। मैं सारी जिंदगी भर उसे काम में लाता रहा और काम में लाने का परिणाम यह है कि मैं एक छोटा सा इनसान, नगण्य सा इनसान लोगों की निगाह में क्या हो गया? मैं बताना नहीं चाहता। मरने के बाद, मेरे चले जाने के बाद विचार कीजिए कि वह आदमी जिसका कि हम व्याख्यान सुनने के लिए गये थे। जिस आदमी के पास रहे, क्या वह छोटा आदमी था या बड़ा आदमी था? उसने क्या पाया था? हाँ मित्रो! हमने बहुत पाया और अपने प्रभाव की दृष्टि से न जाने क्या-क्या पाया? मैं वह आदमी हूँ कि किसी की सेवा करने के लिए खड़ा हो जाऊँ और अपने मन से आशीर्वाद देने लगूँ, तो न जाने क्या-से-क्या हो जाय? घटना सुनाऊँ? नहीं, मैं नहीं सुनाता हूँ, पर एकाध घटना आपकी जानकारी के लिए बता ही देता हूँ। दो वर्ष पहले मुझे भोपाल जाने का मौका मिला। भोपाल चला गया और मेरा व्याख्यान हो रहा था।
एक लंबा-सा आदमी जीप में बैठा और मेरा भाषण सुन रहा था। जब मैं चलने लगा, तो उसने कहा कि मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ। मैंने कहा—कहो क्या बात करना चाहते हो? उसने कहा कि आपको तो मालूम नहीं, आप मुझे नहीं जानते। मैं आपको जानता हूँ। मैंने कहा—बताइये न फिर, आप जानते हैं तो? मेरी पत्नी आपकी शिष्या है। मैंने कहा—होंगी। बहुत से लोग हैं, आते हैं, हाथ जोड़कर बैठ जाते हैं। कोई पैसा थोड़े ही देना पड़ता है। होंगी, लाखों शिष्य हैं, कोई कहाँ, कोई कहाँ? बोला कि मेरी धर्मपत्नी आपकी शिष्या है। मैंने कहा होगी। उसने ही मुझे भेजा है, आपसे काम की बात कहनी है। मैंने कहा—यहाँ एडवोकेट का घर है। मैं वहाँ ठहरा हुआ हूँ, आप शाम को आ जाना।
आध्यात्मिकता के चमत्कार
मित्रो! साढ़े आठ बजे वह अपनी जीप दौड़ाता हुआ वहीं आ गया। उन्होंने कहा—मेरा नाम श्यामाचरण शुक्ल है। अरे आपका नाम तो बहुत सुन रखा है मैंने। पर देखा नहीं आपने। मैंने कहा—मैंने कब देखा? उन्होंने कहा कि बात-बात में मैं इंदिरा गाँधी से और काबरा से यह वायदा करके आया था कि मैं रानी सिंधिया की मिनिस्ट्री को उखाड़ दूँगा और गोविंदराम जी को लगा दूँगा। इसी के लिए जनता परिषद के मुकाबले मुझे कांग्रेस पार्टी का नेता बनाया गया था। गुरुजी! मैंने तो सारी-की-सारी ताकत लगा दी। अब मुझे मालूम पड़ता है कि सिंधिया को उखाड़ना, गोविंदराम जी को लगाना सरल नहीं है। अब मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? अब इंदिरा गाँधी जी से क्या कहूँगा? या तो सिंधिया को उखाड़ो या फिर हटो, किसी और को बनाते हैं। गुरुजी! अब क्या करना चाहिए? अगर आपकी कृपा हो जाय किसी तरीके से, तो काम बन सकता है। मेरी पत्नी ने कहा है कि आचार्य जी को लोग जानते नहीं हैं। जो जानते हैं, उनको ही इनकी कीमत मालूम है। हमारे पिताजी के पच्चीसों काम आचार्य जी ने करवाये। कहाँ रहते हैं? इंदौर के थे और उनके बीसों काम पूरे हुए थे।
मित्रो! उनकी लड़की को विश्वास था कि आचार्य जी के पास जाया जाये, तो काम बन सकता है। वह आये। उन्होंने कहा—गुरुजी! कैसे भी करके, किसी भी तरह से आप मुझे राजस्थान का मंत्री बना दीजिए। मैंने कहा—बाबा! मैं क्या मंत्री बनाता हूँ या भगवान की बात कहता हूँ। मेरा काम मंत्री बनाना है या गायत्री का प्रचार-प्रसार करना है। उन्होंने कहा—नहीं, आप कह दीजिए कि मैं मंत्री बन जाऊँगा? फिर तो मैं देख लूँगा।
मैंने कहा—मैं कैसे कह दूँ? मैं कोई मंत्री नहीं हूँ, गवर्नर नहीं हूँ, क्या कह सकता हूँ। रात को 8:30 बजे से लेकर 12:30 बजे तक वह आदमी चार घंटे बैठा ही रहा। खाना खाया और ये बात, वो बात करता रहा। फिर मैंने गंभीरता से कहा—अच्छी बात, अब की बार तुम मंत्री हो जाओगे। कब तक मंत्री हो जाऊँगा? अब तीन महीने रह गये हैं और वे सचमुच मंत्री बन गये। यह बात कानों से कान फैलती चली गयी। जब मैं ग्वालियर गया, तब रानी सिंधिया इस तरीके से मेरे आगे-पीछे पड़ती थीं, जैसे बिल्ली दूध के आगे-पीछे पड़ती है। ग्वालियर में पाँच कुंडीय यज्ञ था। रानी सिंधिया ने कहा—आचार्य जी हमारे नगर में आ रहे हैं। उनका स्वागत, उनकी व्यवस्था न की जाये, यह भला कैसे हो सकता है? हमारी बात बिगड़ जायेगी। ग्वालियर के नागरिक हम भी हैं और नागरिक होने के नाते हमको भी हक है कि हम आचार्य जी का स्वागत करें। शहर में पाँच कुंडीय यज्ञ में 250 आदमी इकट्ठे नहीं होते, लेकिन वहाँ इतने लोग कैसे आ गये?
मित्रो! सुखाड़िया राजस्थान के मुख्यमंत्री थे। उनको पता चला कि आचार्य जी हमारे यहाँ आये हुए हैं। कानों कान बात न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँच गयी? उन्होंने कहा कि मैं आचार्य जी का व्याख्यान सुनना चाहता हूँ। मेरे पास खबर आयी कि सुखाड़िया जी 15 मिनट आपका भाषण सुनना चाहते हैं और दर्शन करना चाहते हैं। किसी ने उनको बताया है कि आपने आचार्य जी का दर्शन नहीं किया, तो आपने कुछ भी नहीं किया। सुखाड़िया जी आये और बोले—15 मिनट मैं आपका भाषण सुनूँगा। मैंने कहा—बैठ जाइये। 15 मिनट उन्होंने भाषण सुना, फिर हाथ जोड़कर बोले—मेरे लायक कोई काम नहीं बताएँगे क्या? मैंने कहा—कुछ होगा तो बता दूँगा। अभी क्या बता सकता हूँ? आप अपना काम ईमानदारी से कीजिए, यही क्या कम है। जो आपके ऊपर जिम्मेदारियाँ हैं, वे ही काफी हैं।
मित्रो! एक बार यू.पी. के गवर्नर विश्वनाथन आये। उन्होंने कहा—मुझे आचार्य जी से मिलना है। उनके बारे में मुझे बहुत जानकारियाँ हैं। उनकी सूचना आयी कि आपसे बात करना चाहते हैं। वे मथुरा आये। उन्होंने कहा—मैं भगवान के दर्शन करने मथुरा आया था, लेकिन मैं भगवान के दर्शन नहीं कर सका, पर मैंने एक जीते जागते भगवान को देखा और वह व्यक्ति है—आचार्य जी। भारतवर्ष की इतनी सेवा किसी ने नहीं की, जितनी आपने की। लोगों ने उनसे कहा कि आपने ये क्या कह दिया कि सब लोगों ने जितना काम किया, उतना काम एक आदमी ने अकेले किया। आपने ऐसे क्यों कहा? उन्होंने कहा कि जो कुछ मैंने कहा, वह मेरे हृदय की सच्ची अनुभूति है। जैसे मैंने सुना, देखा, वैसा ही पाया।
मित्रो! एक लंबी यात्रा के बाद हमने कुछ पाया है। आप यह कहें कि हमारी भी मदद कर दीजिए, तो बेटे, हम आपकी हमेशा मदद करेंगे। आपके घुटनों में दर्द होता है। मैं आपके दर्द को बंद कर दूँगा, पर क्या इससे शांति आ जाएगी? कोई शांति नहीं आयेगी। आपका घुटने का दर्द बंद हो जाएगा, तो कान में दर्द शुरू हो जायेगा। फिर कहेंगे कि कान का दर्द बंद करो। अरे बाबा! मैं कोई डॉक्टर हूँ क्या? पहले बच्चा नहीं होता था, तो बच्चा हो गया। फिर कहेंगे कि साहब! हमारी बेटी विधवा हो गयी। उसका कुछ इंतजाम कर दीजिए। मैंने क्या दुनियादारी का ठेका ले रखा है। एक बार आशीर्वाद दे दिया, अब बार-बार मैं क्या कर सकता हूँ? सारी दुनिया में मुसीबतें हैं। सारी दुनिया में कष्ट हैं। संसार में सुख-दुःख तो चलते रहते हैं।
आपने छोटी-छोटी चीजों की तमन्नाएँ मेरे सामने रखीं और आपने मूलमंत्र को अपने मन में से निकाल दिया, जो कि एक ही लक्ष्य है—अध्यात्म, जिसे पाने के बाद में आदमी निहाल हो जाता है और आदमी न जाने क्या-से-क्या हो जाता है? मैं उस बड़े रास्ते पर आपको चलाना चाहता था। मैं यह नहीं चाहता कि छोटी-छोटी चीजों के लिए आप बार-बार मुझे कहें। आप न भी कहें, तो भी मैं पूरा कर दूँगा, क्योंकि मेरा मन बहुत ही कोमल और बहुत ही मुलायम है।
[क्रमशः]
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-3
आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांत
(गतांक से आगे)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस महत्त्वपूर्ण उद्बोधन में अध्यात्म पथ के सभी पथिकों से आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को याद करने को कहते हैं। परमपूज्य गुरुदेव कहते हैं कि दृष्टिकोण का परिवर्तन, विवेकशीलता का जागरण एवं सेवाभाव का विकास—ये सभी आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों में हैं। यदि व्यक्ति बहुत उपासना करे, पर कर्तव्यपालन करने से एवं सेवाभाव का विकास करने से वंचित रह जाए तो उसके अंदर अध्यात्म के मूल गुणों का विकास नहीं हो पाता है। परमपूज्य गुरुदेव जापान के गाँधी कागावा से लेकर स्वयं अपना उदाहरण प्रदान करते हुए कहते हैं कि जिन्होंने भी आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांतों को आत्मसात् किया—उन सबके जीवन में वे सभी चमत्कार स्वत: आते चले गए, जिनके विषय में हम शास्त्रों में पढ़ते हैं। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को......
गुरुदेव-माताजी का त्याग
मित्रो! मुझे अपने दरवाजे पर आने वाले व्यक्ति और उनके एहसान याद रहते हैं। मुझे अपना फर्ज याद रहता है। एक बार एक बहेलिया आया और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उस पेड़ पर एक कबूतर और कबूतरी बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि हमारे दरवाजे पर एक बहेलिया आया है। इसके कुछ खाने-पीने का इंतजाम तो करना ही चाहिए। कबूतर ने कहा कि हम तो जानवर हैं। इसके लिए हम क्या इंतजाम कर सकते हैं।
कबूतरी ने कहा कि अपने दरवाजे पर आया है इसलिए इसे खाली हाथ नहीं जाने देंगे। कबूतर गया और बहुत से तिनके और घास इकट्ठी कर लाया। कबूतरी गई और कहीं से जलती हुई लकड़ी उठाकर ले आई और घास-तिनकों में उस जलती हुई लकड़ी को रख दिया। आग जलने लगी। जलती आग में पहले कबूतर कूदा और उसके बाद कबूतरी। दोनों आग में जल गए। बहेलिया जो भूखा बैठा था, उसने देखा कि भगवान की बहुत दया है, जो दो कबूतर खाने को मिल गए।
मित्रो! कबूतर और कबूतरी की यह तो कहानी है, पर हम और हमारी धर्मपत्नी सारी जिंदगी कबूतर और कबूतरी के तरीके से यही काम करते रहे हैं। हमने अपने दरवाजे पर आने वाले की इज्जत का, उसकी भावनाओं का बहुत ख्याल रखा है। अभी भी ख्याल है और आगे भी ख्याल रखेंगे। जब तक हमें जिंदा रहना है, अपनी आदत, अपने स्वभाव और कर्तव्य से बाज आने वाले नहीं हैं। हम जरूर सहायता करेंगे। मान लीजिए आपकी जरूरत को पूरा कर दें, तो क्या आपका यहाँ आने का उद्देश्य पूरा हो सकता है। कुछ भी उद्देश्य पूरा नहीं होगा।
मनोकामनाओं की पूर्ति असंभव है
कैसे? एक थे महात्मा और उनके यहाँ एक चूहा रहता था। चूहे ने कहा—महाराज जी! हमको बिल्ली तंग करती है। हमें बिल्ली बना दो। बिल्ली बना दिया। फिर कुत्ता आया और बिल्ली को तंग करने लगा। बिल्ली ने कहा—महाराज जी! यह कुत्ता हमको तंग करता है, हमें कुत्ता बना दो। कुत्ता बना दिया। कुत्तों को खाने वाले लकड़बग्घे आते हैं। लकड़बग्घे आकर कुत्तों को खाने लगे, तो कुत्ते को लकड़बग्घा बना दिया। लकड़बग्घे को शेर खाते हैं। उसने कहा—शेर बहुत तंग करता है। हमें शेर बना दीजिए। महाराज जी ने जल लिया, मंत्र फूँका और लकड़बग्घे को शेर बना दिया। शेर जंगल में बैठा था और शिकारी बंदूक लेकर के आया। शेर को मारकर जीप में डालकर ले जाने लगा। उस शेर ने देखा कि शिकारी आता है और शेर को मारकर ले जाता है।
शेर ने कहा-महाराज जी! हमको तो बड़ा भय है, कष्ट है। क्यों? शिकारी सब शेरों को मार रहा है, हमको भी मार डालेगा। हमारी खाल निकाल लेगा। अब तो बड़ी मुश्किल आ गई। क्या करना चाहिए? महाराज जी ने कहा बेटा तू चूहा हो जा। मंत्र फूँका और शेर चूहा बन गया। अब तू चूहा बनकर बैठा रह। न शिकारी आने वाला है, न लकड़बग्घा आने वाला है, न कुत्ता आने वाला है, न बिल्ली आने वाली है। रोटी खा लिया कर, घूम लिया कर, सुखी रहेगा। महाराज जी ने चूहे को फिर से चूहा बना दिया।
समस्याओं का स्थायी समाधान
मित्रो! जीवन में समस्याएँ तो आएँगी ही। अभी समस्या एक है, कल पाँच आएँगी। कल पाँच समस्याएँ आपकी हल होंगी, फिर ले आएँगी पच्चीस। पच्चीस समस्याएँ हल कर दूँगा, तो लेकर के आएँगे 500 समस्याएँ। समस्याएँ तो आती ही रहती हैं। समस्याओं को अगर हल करना है, तो आदमी को चाहिए कि अपने मन को, आत्मा को शुद्ध कर डाले और अपने विचारों को, दृष्टिकोण को सही कर ले। तभी सचमुच में समस्याएँ हल हो पाएँगी। इसीलिए मित्रो! मैंने शुरू में भी यही शिक्षण दिया और आज भी यही शिक्षण दे रहा हूँ कि आप अपने दृष्टिकोण को ठीक करें।
आपको मैंने इसलिए बुलाया था कि आपके अंत:चेतन के कपाट खोल दूँ और हमेशा अध्यात्मवेत्ता अपने शिष्यों को जो शिक्षण करते हैं, वह शिक्षण करूँ। इसीलिए आपको बुलाया कि आपको आपके बारे में जानकारी कराऊँ। आप गुमराह हो गए थे। आपको इसीलिए बुलाया कि आपको आपके रास्ते के बारे में, आपके लक्ष्य के बारे में फिर से जानकारी दे दूँ। मैंने आपको इसलिए बुलाया था कि आपके मन में यह वहम भर गया है कि हम भगवान के प्यार और भगवान के अनुग्रह और भगवान की शक्ति पाने के लिए छोटे-छोटे कर्मकाण्ड और छोटी-सी उपासना जैसे क्रियाकृत्य करने के बाद में उस स्थान तक पहुँच सकते हैं, जहाँ पहुँचने वाले को भगवान का प्रकाश दिखाई पड़ता है और भगवान का स्नेह मिलने का हक मिल जाता है।
मित्रो! मैंने आपको मन में से ये चीजें निकालने के लिए बुलाया है और मैंने आपको इसलिए भी बुलाया कि भगवान ने आपको पुकारा है। आप में से हर आदमी बहुत अच्छा, बहुत सच्चा और श्रेष्ठ स्तर का आदमी है। आपके ऊपर मलीनताएँ जम गईं। आपके ऊपर मैल जम गया। आपके ऊपर कषाय और कल्मष जम गए, इसलिए आपको अपने स्वरूप का भान नहीं रहा। अगर आपको अपने स्वरूप का भान रहा होता तो आपमें से हर आदमी आचार्य श्रीराम शर्मा होता। आपमें से हर आदमी महात्मा गाँधी होता, महात्मा बुद्ध होता, कबीर होता, दादू होता, नानक होता, जवाहर लाल होता, दयानंद होता, शंकराचार्य होता और न जाने कौन-कौन होता? आपको खाना भी मिल जाता, कपड़ा भी मिल जाता, रोटियाँ भी जरूर मिल जाती; लेकिन इतना पाने के बाद, इतना करने के बाद आप में समाज की सेवा करने के लिए, देश को ऊँचा उठाने के लिए, संस्कृति के लिए, जो रोल अदा किया होता तो मजा आ गया होता। काम करते हुए भी, रोटी कमाते हुए भी आप बहुत कुछ कर सकते थे। मैं क्या कर सकता हूँ? आप सब भूल गए। मैंने आपको झकझोरने के लिए बुलाया।
मित्रो! अब मैं जाने के समय में हूँ। सो मैंने अपना सारा-का-सारा मन, सारी-की भावनाएँ इकट्ठी की और आपके ऊपर इन पाँच दिनों में छाया रहा। मैंने जो कुछ कहा, उस व्याख्यान का असर आपके ऊपर होने वाला है क्या, यकीन नहीं आता। मैं आपके ऊपर छाया रहा हूँ। सारे दिन आपको घेर कर रखा है। चारों दिन में आपके मन और बुद्धि पर छाया रहा हूँ। मैंने आपको बहुत कुछ कहा है। आपको हाथ जोड़कर भी कहा है। बहुत अनुनय किया है, प्रार्थना की है। इन दिनों आप काम करते रहे हैं, तब मैं आपके पीछे-पीछे लगा रहा हूँ। अपने सूक्ष्मशरीर के द्वारा, अपने कारणशरीर के द्वारा, अपनी अंतश्चेतना के द्वारा आपके साथ-साथ लगा रहा हूँ। मैंने आपमें से हर आदमी से यह कहा है कि मित्रो! आप उन लोगों में से नहीं हैं, जिनको अपने बच्चे पैदा करने और जानवरों के तरीके से केवल पेट के लिए जिंदा रहना होता है। आप केवल उन लोगों में से नहीं हैं। आपको कुछ ऊँचे स्तर के कामों के लिए जिंदा रहना चाहिए। यह मैंने बार-बार कहा है।
समाज की पुकार सुनें
मित्रो! आप उस जमाने में पैदा हुए हैं, जिसमें आपकी सेवा-सहायता की बहुत सख्त जरूरत है। आदमी आज सब कुछ भूल गया है, मैं क्या कह सकता हूँ। इतिहास साक्षी है कि कभी भी ऐसा गंदा जमाना नहीं आया; जब आदमी अपने आप को भूल गया हो, अपने लक्ष्य और उद्देश्यों से इतना पिछड़ गया हो। आदमी के पास धन दौलत है—मुबारक। आदमी पढ़-लिख गया—मुबारक। अँगरेजी बोलना आ गया—मुबारक। जैसा घटियापन आज दिखाई पड़ता है, उतना घटिया आदमी कभी नहीं हुआ। ऐसा घटिया आदमी मुसीबतें पैदा करेगा।
घटिया आदमी समाज में भ्रम पैदा करेगा। इसलिए गिरे हुए आदमी को भावनात्मक स्तर पर ऊँचा उठाने के लिए भगवान ने आपको पुकारा है। देश ने आपको पुकारा है। धर्म ने आपको पुकारा है। इस पुकार को कान में उँगली डालकर के क्या आप पेट के लिए जिंदा रहेंगे? क्या आप रोटियों के लिए जिंदा रहेंगे? क्या आपके विचारों का, सारी-की-सारी आकांक्षाओं का केंद्र बच्चे पैदा करना ही बना रहेगा? क्या आपके सामने स्वार्थपूर्ति और धनार्जन—इन दो के अलावा कोई तीसरी चीज नहीं आएगी? आनी चाहिए। मेरा पूरा-पूरा मन है कि आपके अंदर वह बोध पैदा होना चाहिए, जो आपका कल्याण करे और सारे समाज का कल्याण करे। आपकी ऐसी भावना बलवती हो, इसलिए आपको बुलाया।
मित्रो! आपसे प्रार्थना करने के बाद में विदा करता हूँ। दोबारा मेरा—आपको कब मिलना हो, मैं नहीं कह सकता। दबाव डालने वाली प्रार्थना अब शायद मैं कभी न कर सकूँ। आप ऐसा मत मानना कि इन्होंने जो आज्ञा-अनुरोध किया है, तो ये हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते। हम इनका कहना नहीं मानेंगे, तो देखेंगे कि ये हमारा क्या कर लेंगे। मैं आपका बहुत कुछ कर लूँगा, मैं आपको छोड़ने वाला नहीं हूँ। आप छोड़कर देख लीजिए। कैसे छोड़ेंगे मुझे, पर मैं तो नहीं छोड़ूँगा।
आपको ज्ञान की ज्योति जलानी थी; क्योंकि आज चारों ओर अँधेरा छाया हुआ है। मनुष्य के जीवन में अँधेरा छाया हुआ है। अपने बारे में अँधेरा, सामाजिक मान्यताओं के बारे में अँधेरा, जीवन के उद्देश्य के बारे में अँधेरा, पारिवारिक व्यवस्थाओं के बारे में अँधेरा—चारों ओर अँधेरा है। ऐसे में एक मशाल जलाने की जरूरत थी और दीपक जलाने की जरूरत थी। आपके ऊपर बहुत जिम्मेदारियाँ हैं। दीपक जलाने के लिए आपको शपथ लेनी चाहिए। मैं कब कहता हूँ कि आपको बच्चे पैदा नहीं करने चाहिए, लेकिन बच्चे पैदा करने के अलावा भी आपके मन में देश-राष्ट्र के प्रति टीस और दरद रहे, तो आप मेरी तरह समाज के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इसकी आज बहुत आवश्यकता है।
आध्यात्मिकता करेगी, सभी समस्याओं का समाधान
मित्रो! आध्यात्मिकता पाप को दूर करेगी। आध्यात्मिकता अच्छे इनसान बनाएगी। आध्यात्मिकता दुनिया में खुशहाली ले आएगी। आध्यात्मिकता दुनिया में व्याप्त पाप और ताप के अंगारों पर शीतल वर्षा करेगी। पूरी दुनिया में आध्यात्मिकता के अलावा किसी और साधन से समस्याएँ नहीं सुलझेंगी। इसलिए आध्यात्मिकता का लाना बहुत जरूरी है। आध्यात्मिकता का वर्चस्व आज किसी काम का नहीं रहा। आज का निकम्मा वाला अध्यात्म, बेकार वाला अध्यात्म, बेवकूफों वाला अध्यात्म केवल कहने का अध्यात्म है। उससे किसी का फायदा नहीं है। आप अपने फर्ज और कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करें। स्वयं को ऊँचा उठाएँ और अपने जीवन में श्रेष्ठ कार्य करें, जिसके लिए हम दुनिया में आए हैं। हमारा मिशन भगवान का मिशन है, मानवता का मिशन है। व्यक्ति को श्रेष्ठ बनाने का मिशन है। अगले दिनों यह सारे विश्व में फैलने वाला है। आप गीध, गिलहरी के तरीके से इसमें सहयोग करें और अपने जीवन को सार्थक बनाएँ।
मित्रो! विचारणा, भावना ऊँची हो तो छोटी-सी क्रिया से, थोड़े से परिश्रम से भी भगवान को पाया जा सकता है। आपको परीक्षित की कहानी सुना रहा हूँ। राजा परीक्षित को ऋषि ने शाप दे दिया था कि आज से सातवें दिन तक्षक नाग के डसने से उसकी मृत्यु हो जाएगी। लोमश ऋषि की समाधि खुली और उन्हें पता चला कि बेटे शृंगी ऋषि ने शाप दे दिया है, तो उन्होंने कहा कि यह तो बहुत बुरा हो गया। राजा परीक्षित धर्मात्मा था और उसको ऐसा शाप दिया गया, लेकिन जो हो गया सो हो गया। अब मेरे बच्चे की बात को तो टाला नहीं जा सकता, लेकिन कोई ऐसा उपाय किया जाए, जिससे कि इस विपत्ति में भी कोई अच्छाई पैदा की जा सके।
लोमश ऋषि ने अपने विद्यार्थी को भेजा और कहा कि यह समाचार राजा परीक्षित को बताना चाहिए और यह बताना चाहिए कि जिंदगी के जो दिन बाकी रह गए हैं, उनका अच्छे-से उपयोग किया जाए। राजा परीक्षित के पास वह विद्यार्थी चला गया। उसने कहा कि शृंगी ऋषि ने आपको आज एक शाप दे दिया। क्या शाप दिया? यह शाप दिया कि आज से सातवें दिन आपको साँप काट लेगा और आपकी मौत हो जाएगी। राजा ने पूछा कि तब मुझे क्या करना चाहिए। ऋषि की क्या आज्ञा है? उन्होंने कहा कि जीवन का थोड़ा-सा समय बचा हुआ है। मनुष्य की सबसे बड़ी बुद्धिमानी यही है कि उस बचे हुए समय का ठीक से इस्तेमाल कर ले। जो समय व्यतीत हो गया, सो हो गया, लेकिन जो रह गया है, उसको अगर आदमी ठीक तरह से इस्तेमाल कर सकता हो, तो थोड़े दिन भी बहुत हैं हमारे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए। लोमश ऋषि के संदेश के रूप में विद्यार्थी ने यह बात कही।
मनुष्य की समस्या है अज्ञान
मित्रो! राजा परीक्षित विचार करने लगे कि मनुष्य के जीवन का उपयोग करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? विचार करने पर एक ही बात समझ में आई कि मनुष्य का मन, मनुष्य की अंतरात्मा इतनी महान और इतनी विशाल है कि अगर सीप के तरीके से उसमें स्वाति नक्षत्र की बूँद का पानी का एक कण भी मिल जाए, तो यह जीवन धन्य बन सकता है। आदमी के सामने एक ही समस्या है—वह है अज्ञान।
आदमी इतना समझदार और इतना अज्ञानी? समझदार इतना कि सारे-के-सारे काम करता है, पैसा कमाता है, व्यापार करता है, धंधा करता है और बड़ा आदमी बन जाता है और बेवकूफ, अज्ञानी इतना कि इसको इस बात का ज्ञान नहीं है कि उसका स्वरूप क्या है? उसको किसलिए पैदा किया गया है? और क्या करना चाहिए? अगर यह ज्ञान मनुष्य के भीतर से जाग्रत हो जाए, तो आदमी के काम करने के ढंग और विचार करने के ढंग बहुत ही श्रेष्ठ बन सकते हैं और मनुष्य थोड़े दिनों में ही अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अज्ञान का निवारण करना, एक ही समस्या मनुष्य के जीवन में है। अज्ञान जो मेरे मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार के ऊपर छाया हुआ है। कषाय और कल्मष, पाप और ताप के आवरण छाए हुए हैं। इन आवरणों को अगर मैं हटा दूँ, तो आत्मा का सूर्य इस तरीके से प्रकाशवान बन सकता है, जैसे बादल की घटाएँ हट जाने पर अँधेरा दूर हो जाता है और सूर्य की पुण्य प्रकाशमयी आभा चारों ओर फैलने लगती है। इस तरीके से मुझे सिर्फ एक काम करना है कि अपने अज्ञान की मलिनता के आवरण को दूर कर देना है।
मित्रो! भगवान और इनसान के बीच में एक छोटी-सी दीवार है। इस एक इंच चौड़ी दीवार को हटाया जा सकता हो, तो भगवान और इनसान दोनों एक हो जाएँ। बिलकुल समीप हो जाएँ और दोनों एकदूसरे के प्यार का आदान-प्रदान निरंतर करते रह सकते हैं। पर एक ही अज्ञान की दीवार है, जिसने मनुष्य को यह विचार करने पर मजबूर कर दिया कि आदमी एक शरीर है। आदमी एक कीड़ा है, मकोड़ा है। आदमी एक जानवर है और जानवरों को जैसे जीना चाहिए, उस तरीके से हम जिंदगी जिएँ। यही विचार हमारे मन से लेकर के रोम-रोम में आच्छादित है। हमारी सारी-की-सारी गतिविधियाँ कीड़े-मकोड़ों के तरीके से, जानवरों के तरीके से, कुत्ते-बिल्ली और बंदरों के तरीके से हैं। बस, उनके सामने दो ही उद्देश्य हैं—एक पेट पालना और दूसरा बच्चे पैदा करना। वासना और तृष्णा—इन दो के गुलाम सारे-के-सारे प्राणी हैं और सारे-के-सारे जानवर हैं। इनसान में फरक यह है कि अगर उस दीवार को—जो मनुष्य और भगवान के बीच खड़ी कर दी गई है, उसे गिराया जा सके, तब आनंद और उल्लास की धारा जीवन में प्रवाहित हो सकती है।
मित्रो! राजा परीक्षित ने विचार किया कि मुझे और कुछ काम नहीं करना है। क्रियाओं के फल नगण्य हैं। सारे-के-सारे फल जो मनुष्य के जीवन में स्थापित होते हैं, वे उसकी विचारणा पर टिके हुए हैं। विचारणा यदि ऊँची हो, तो छोटी-मोटी क्रियाओं से भी भगवान को प्राप्त किया जा सकता है और जीवन के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है। जब मनुष्य की क्रियाएँ पहाड़ के बराबर हों और मनुष्य की भावनाएँ नगण्य हों, तब वे क्रियाएँ काम में नहीं आ सकतीं। भावनाएँ पहाड़ के बराबर और क्रियाओं की कीमत राई के बराबर है। इसलिए उन्होंने कहा कि क्रियाएँ जीवन में करूँ, अमुक काम करूँ, तमुक काम करूँ, पर इससे कुछ बनने वाला नहीं है। अपनी भावनाओं का मुझे परिष्कार करना चाहिए। राजा परीक्षित के जी में यह बात आई। उन्होंने तुरंत ही इंतजाम किया। कोई ऐसा व्यक्ति बुलाया जाना चाहिए, जो मेरे अंतरंग के कपाटों को खोल दे। उन्हें तलाश किया, जो उनकी निगाह में आया और वे व्यक्ति थे शुकदेव जी। शुकदेव जी वे व्यक्ति थे, जिन्होंने अध्यात्म के ज्ञान को, भगवान के ज्ञान को जीवन में कार्यान्वित किया था। जिस व्यक्ति ने भगवान के ज्ञान को कार्यान्वित किया हो, केवल वही आदमी है जो दूसरे के बुझे हुए दीपकों को जला सकता है।
अध्यात्म का अधिकारी कौन
मित्रो! जिस आदमी ने अध्यात्म के ज्ञान को स्वयं जीवन में कार्यान्वित नहीं किया और जिसके जीवन के अंतरंग में वे विचारणाएँ सुनाई नहीं दी और जो केवल बाहर-बाहर से अध्यात्म के और पूजा के, धर्म के आयामों को छूता फिरता है, वह आदमी किसी दूसरे को लाभ नहीं दे सकता। एक आदमी था। नाव में बैठ करके समुद्र का बहुत लंबा-चौड़ा सफर करके आया। एक गोताखोर भी वहीं समुद्र के किनारे रहता था। गोताखोर समुद्र में जाता, डुबकी लगाता और कई मोती ले आता। कभी पाँच मोती, कभी पच्चीस मोती, कभी दस मोती ले आता और वह आदमी जो नाव में-जहाज में बैठ करके सफर कर रहा था, उसने लंबे-चौड़े समुद्र को पार कर लिया।
उसने डुबकी लगाने वाले गोताखोर से पूछा—"भाई साहब! हमने सारा समुद्र घूम लिया और एक भी मोती हमारे हाथ नहीं लगा और तुम यहीं-के रहते हो और रोज मोती बीन लाते हो। इसकी वजह क्या है?" उसने कहा "भाई साहब! इसका एक ही उत्तर है कि आप समुद्र की ऊपरी सतह पर घूमते रहते हैं और समुद्र के भीतर प्रवेश नहीं करते। अगर आपने समुद्र के भीतर गर्भ में प्रवेश करने की हिम्मत की होती, साहस दिखाया होता, तो आपको भी मेरी तरह से मोती मिल जाते। जैसे कि मैं रोज ले आता हूँ। मैं समुद्र के अंदर घुस जाता हूँ। मैं डुबकी लगाता हूँ और मैं जोखिम उठाता हूँ और मैं अपनी जान को हथेली पर रख करके जाता हूँ। इतना काम करने के बाद ही कोई आदमी मोती प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है।
मित्रो! अध्यात्मवादी को भी गहरे में प्रवेश करना पड़ता है। कहने-सुनने और करने तक ही ये बातें सीमित नहीं हैं। आपने रामायण सुन ली, ठीक किया, अच्छा काम किया। आपने रामायण को कहना सीख लिया। उससे भी अच्छा काम कर लिया। आपने गोवर्धन की परिक्रमा कर ली, यह उससे भी अच्छा काम कर लिया। ये तो बहुत ही अच्छे काम हैं और आपको करने चाहिए। लेकिन यह सब काम करने पर ही आप अध्यात्मवादी नहीं हो सकते और आध्यात्मिकता का लाभ नहीं उठा सकते। आध्यात्मिकता का लाभ उठाने के लिए जरूरी है—उन विचारों को, उन सिद्धांतों को आत्मसात् करना, जो हमको बताए जाते हैं। सिखाए जाते हैं। उन्हें हम अपने जीवन में कार्यान्वित करना शुरू करें। ऐसे ही आदमी अध्यात्म के अधिकारी कहे जाते हैं।
॥क्रमशः अगले अंक में समापन॥
परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी-4
आध्यात्मिकता के मूल सिद्धांत
(समापन किस्त)
विगत अंक में आपने पढ़ा कि परमपूज्य गुरुदेव अपने इस प्रस्तुत उद्बोधन में समस्त श्रोताओं को आध्यात्मिकता के मूल एवं वास्तविक सिद्धांत से परिचित कराते हैं। वे कहते हैं कि आध्यात्मिकता का अर्थ इस आधार पर निकल करके आता है कि हम अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित कर पाने में सक्षम हो पाए अथवा नहीं? वे कहते हैं कि आध्यात्मिकता सही अर्थों में तभी आ पाती है, जब व्यक्ति सामाजिक उत्थान, लोक कल्याण और दूसरों के विकास में अपने जीवन को लगा देने में संकोच नहीं करता है। वे जापान के गाँधी कागावा से लेकर स्वयं अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए यह बताते हैं कि आध्यात्मिकता का मूल आधार समाज की सेवा और दूसरों का कल्याण है। आइए हृदयंगम करते हैं उनकी अमृतवाणी को.........
अंतरंग के कपाट खोलने वाले गुरु
मित्रो! राजा परीक्षित के जी में आया कि मुझे किसी ऐसे आदमी से कथा सुननी चाहिए, ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, जिसका दीपक स्वयं जला हुआ हो। जिसका दीपक जला होगा, वही दूसरों को रोशनी दे सकता है। पता किया तो ध्यान में आया कि शुकदेव जी ही ऐसे व्यक्ति हैं कि जिनको बुलाया जाए और उनके द्वारा भागवत् की कथा सुनी जाए। बस, एक दिन समाप्त हो गया परीक्षित को शाप लगे हुए। एक दिन इस तैयारी में लगा रहा कि मुझको अब क्या करना चाहिए? शुकदेव जी के पास खबर भेजी। स्वयं कथा सुनने का निश्चय किया। सामान मँगाकर तैयारी की। सात दिन में से दो दिन बीत गए और एक दिन यह तैयारी करनी थी कि मुझे मरना है सो काठी, कफ़न, लकड़ी, घी आदि की व्यवस्था का एक दिन रखा। शेष दिनों में उन्होंने भागवत् कथा का सारांश सुना।
मित्रो! मेरे जीवन में भी महत्त्वपूर्ण चार दिन कई बार बदल-बदलकर सामने आए। पहली बार जब मेरे गुरु, मेरे पास आए और मेरे अंतरंग के कपाट खोल दिए। चार दिन की मेरे जीवन की अभूतपूर्व घटना, जिसको मैं सदैव याद रखूँगा, कभी भुला नहीं सकूँगा। क्यों? क्योंकि उसने मेरे जीवन का कायाकल्प कर दिया। बूढ़े आदमी को जवान बना दिया। मरे हुए को जिंदा कर दिया। मरा हुआ आदमी था और गुरु का अमृत पी करके जिंदा हो गया। चार दिन के लिए मुझे दोबारा जाना पड़ा। आज से दस साल पहले मैं गुरु के पास चला गया हिमालय पर, जहाँ मेरे गुरुदेव रहते हैं। वहाँ मैं रहा। चार दिन का अमृत मैंने एक बार पिया और चार दिन का अमृत मैंने दोबारा पिया। दो बार अमृत पी करके मैं निहाल हो गया। अब मैं न जाने कहाँ जा रहा हूँ और न जाने क्या करने जा रहा हूँ? वह अमृत जो मैंने चार दिनों में पहली बार पिया था और वह अमृत जो चार दिन दोबारा पिया था। एक चालीस वर्ष पूर्व और एक दस साल पूर्व। ये दोनों सौभाग्य के दिन हैं, जिनको मैं याद करता रहूँगा, कभी भुला नहीं सकूँगा।
मित्रो! आज भी हम अपना जन्मदिन मनाते हैं कि हम 21 नवंबर को पैदा हुए थे। हम खुशियाँ मनाते हैं, मिठाई खिलाते हैं और गीत गाते हैं। लोगों को दावत देते हैं और कहते हैं कि आज हमारा 28वाँ जन्मदिन है। आज से अट्ठाईस वर्ष पूर्व हम 21 नवंबर को पैदा हुए थे। आइए गाना गाएँ, खुशी मनाएँ। लेकिन मित्रो! मेरे जीवन का सबसे खुशी का दिन वह है, जब मैं छोटा-सा नगण्य इनसान भगवान की तरफ चलने के लिए, जो राह मिलनी चाहिए, उस रास्ते पर चला गया। चार दिन मेरे जीवन के वे सौभाग्य के दिन जब चार दिन मैं अपने गुरुदेव के पास रहा और ज्ञान का अमृत पी करके आया कि मैं मरा हुआ इनसान जिंदा हो गया। चार दिन दूसरी घटना की पुनरावृत्ति के दिन, जिसमें कि मैंने आपको बुलाया।
ये ठीक उसी तरह के दिन हैं, जैसे कि परीक्षित के जीवन में घटित हुए। मेरे जीवन में घटित हुए। मेरे गुरु ने अपनी वाणी का अमृत, अपनी आत्मा का रस निचोड़ करके मुझे पिलाया और मैं चाहता हूँ कि मैं भी अपनी आत्मा का रस निचोड़ करके आपको पिला दें। यह शिविर आपके जीवन में भी ऐतिहासिक घटना बनकर रहे कि हम आचार्य जी के पास गए थे। उन्होंने हमसे कुछ कहा था।
अंतरात्मा से निकले कीमती वचन
मित्रो! मैं व्याख्यान करने वाला है क्या? नहीं। अब व्याख्यान पर से मेरी श्रद्धा कम हो गई है। अब मैं व्याख्यानों पर यकीन नहीं करता। क्यों? क्योंकि मैं देखता है कि रोज व्याख्यान होते हैं। रोज कथाएँ होती हैं। रोज रामायण सुनी जाती है। रोज गीता सम्मेलन होते हैं। रोज भागवत् की कथाएँ होती हैं। गीता सम्मेलनों के बाद में, एक गीता सम्मेलन से एक अर्जुन निकल करके खड़ा हो गया होता, तो रोज होने वाले गीता सम्मेलन में से, एक गाँव में से एक-एक अर्जुन निकला होता तो अब तक 10-20 हजार अर्जुन निकलते और जो गीता की कथा हर साल होती हुई चली जाती है, उनमें से लाख, दो लाख अर्जुन सामने आ गए होते और अर्जुन की तरह काम करने लग गए होते।
इसीलिए व्याख्यानों पर से मेरा यकीन कम हो गया है। बहुत से ऐसे बेकार आदमी हैं, जिनको कहने का और कुछ सुनाने का हक नहीं है। लेकिन वे कहने और सुनाने की आदत अपने धंधे के रूप में, अपनी तारीफ के रूप में इस्तेमाल करने लगे हैं। वे दुनिया का कोई फायदा नहीं कर रहे हैं, बल्कि दुनिया का समय और बरबाद कर रहे हैं।
मित्रो! अब मेरा लेखों पर से भी यकीन कम होता जा रहा है। पुराने जमाने में एक बात थी, जब ऋषि ने जो बात लिखी, लोगों ने कहा कि शास्त्रों में लिखा हुआ है। बस, बात खतम हो गई। शास्त्रों में लिखा है, तो शास्त्रों को क्यों नहीं मानेंगे? "तस्मात् शास्त्रम् प्रमाणम्"। तेरे लिए शास्त्र प्रमाण है, ऋषि ने लिख दिया, आप्तपुरुष ने लिख दिया। महापुरुष ने लिख दिया और इस जिम्मेदारी के साथ में लिख दिया कि मेरा वचन और मेरी वाणी लाखों-करोड़ों मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर सकती है।
इसलिए मुझे बहुत बड़ी जिम्मेदारी के साथ कलम उठानी चाहिए। जिनके ऊपर यह उत्तरदायित्व था, वे आदमी एक-एक अक्षर लिखते हुए काँपते जाते थे और भगवान को पुकारते थे कि—प्रभु! मेरी कलम से कोई ऐसा शब्द न लिखा जाए, जिसके द्वारा जनता का कोई अहित होता हो या जनता गुमराह होती हो, पर आज हमारा लिखने का धंधा है। हम तो पेशेवर लोग हैं, आप चाहे जो लिखवा लीजिए। अभी सिंडीकेट के पक्ष में लिखवा दीजिए, अभी हम सिंडीकेट के पक्ष में लिखेंगे। अभी आप जनसंघ के पक्ष में लेख लिखवा लीजिए और अभी आप चाहें तो जनसंघ के खिलाफ ऐसा लेख लिख दें कि जनसंघ वालों को नानी याद आ जाए। हमारा यह धंधा है। इसीलिए धंधे के रूप में आदमी ने लिखना शुरू कर दिया और धंधे के रूप में आदमी ने बोलना शुरू कर दिया। इसलिए मेरा यकीन अब लिखने और बोलने पर से हटता जाता है।
मित्रो! मैंने यहाँ आपको बोलने के लिए, आपका मनोरंजन करने के लिए नहीं बुलाया है। मैंने इसलिए बुलाया है कि अपनी जबान के द्वारा ही नहीं, अपितु अपनी अंतरात्मा के द्वारा कुछ कीमती बातें आपसे कहूँ। और अपने जीवन का रस और निचोड़ और जो मेरे जीवन का निष्कर्ष है, जिस आधार पर मैं छोटा-सा व्यक्ति फलता-फूलता चला गया और एक छोटे से देहात में पैदा हुआ व्यक्ति अंतर्राष्ट्रीय फेम का व्यक्ति बन गया। अब मैं केवल भारत का ही नागरिक नहीं हूँ। सारा विश्व इस इंतजार में बैठा हुआ है कि नई फिजा, नई दिशा, नई रोशनी, नया जमाना, नया युग और नई व्यवस्थाएँ लाने के लिए, मार्गदर्शन करने वाला कौन आदमी है, जो दुनिया को नया रास्ता दिखाएगा?
मित्रो! अब हमारी उन आदमियों में से गणना की जाती है। अभी आपने मार्च की अखण्ड ज्योति में से एंडरसन की भविष्यवाणी पढ़ी होगी। वह व्यक्ति जो न मुझे जानता है और न मेरी जान-पहचान है, न ही मेरी कभी उससे मुलाकात हुई है। न मैंने उसे देखा है। न मेरी कोई चिट्ठी-पत्री का संपर्क है। यदि उसने अपनी आध्यात्मिकता के सहारे एक भविष्यवाणी की है। उसने कहा है—"नई दुनिया को बनाने वाला एक मसीहा पैदा हुआ है। वह हिंदुस्तान में है और अपना काम करने में लगा हुआ है।"
आध्यात्मिकता का जादू
यह किसकी तरफ इशारा है? यह मैं आप पर छोड़ देता हूँ। यह आध्यात्मिकता का मंत्र और आध्यात्मिकता का जादू है। जिसके कारण मैं शक्तियाँ और ताकत प्राप्त करता चला जाता हूँ। न केवल मैंने अपनी व्यक्तिगत समस्याएँ हल कर लीं, न केवल अपने समाज को मैंने प्रकाश दिया, न केवल मैं हिंदुस्तान का पुनर्निर्माण करने में जी-जान से लगा हूँ, बल्कि दुनियावालों को भी यह उम्मीद दिलाता हूँ कि मैं आपको रास्ता बताऊँगा और अशांति की आग में जलते हुए लोग! मैं तुम्हें ठीक-ठिकाने पर ले जाकर के पहुँचा दूँगा। बहुत ताकतवर और मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ।
मित्रो! ताकतवर और बड़प्पन की जो निशानियाँ मैंने पाईं, इसके जो चिह्न मैंने पाए, वे कहाँ से पाए? मैं चाहता हूँ कि इन चार दिन के शिविरों में वह आपको सिखाकर के जाऊँ और आप यहाँ सीख करके जाएँ। ये बहुत कीमती दिन हैं आपके। मैंने आपको बहुत ही आग्रह और इच्छा से बुलाया है। आप नहीं जानते, आपके और मेरे संबंध क्या हैं? आप मेरे साथ अनेक जन्मों से जुड़े हुए हैं।
मैं अपनी बात कह सकता हूँ कि मैं किस-किस जन्म में आपका क्या रहा हूँ? आप पहले जन्म में कौन थे और क्या-क्या महान कार्य करने में समर्थ हो चुके थे? आप अपने को भूल गए हैं। आप नहीं जान सकते। क्यों? क्योंकि आपके ऊपर अज्ञान के आवरण इतने ज्यादा छा गए हैं, जो आपकी दूर की दृष्टि को रोकते हैं। आप दूर की बात नहीं देख सकते, लेकिन मैं दूर की बात देखता हूँ। मैं आपको पहचानता हूँ, इसीलिए आपके साथ मेरे संबंध उसी तरीके से बने हुए हैं, जैसे कि पहले जन्मों में थे।
इसलिए जब मैं चलने लगा, जब मैं विदा होने लगा, तो मेरा जी आया कि मेरे पास जो गौरव की गठरी है, उसे अपने मित्रों और कुटुंबियों को बाँट दूँ। उनके ऊपर बिखेर दूँ। इसलिए मैंने यह शिविर बुलाया और आपको इसको तबीयत के साथ सुनना चाहिए। जैसे रामायण की कथा होती रहती है और महिलाएँ खरबूजे के बीज छीलती रहती हैं और स्वेटर बुनती रहती हैं और आपस में बातें भी करती रहती हैं। रामायण वाले रामचंद्र जी की बात कह रहे हैं। वे अपने गोरखधंधे में लगे हैं और वे अपने गोरखधंधे में लगी हैं। आप भी अगर इसी तरीके से सुनेंगे, तो मुझे बहुत दुःख होगा। अब अंतिम दिन मैं अपने सारे-के-सारे निष्कर्ष बताने वाला हूँ।
मित्रो! रावण मरने लगा, तो रामचंद्र जी ने कहा—लक्ष्मण! रावण मारा तो गया, लेकिन एक बड़ी दुर्घटना हो गई। क्या दुर्घटना हो गई? एक बहुत बड़ा व्यक्तित्व दुनिया में आया और चला गया। वह भटक तो गया, गुमराह तो हो गया, कि उसे कहाँ चलना चाहिए था? लेकिन उसने एक मन्नत जरूर पूरी की कि व्यक्ति के भीतर जो शक्तियों दबी पड़ी हैं, उन सारी शक्तियों को जगाने के लिए, बढ़ाने के लिए उसने एक मंजिल पूरी कर ली।
हर इनसान, छोटे-से-छोटा इनसान अगर चाहे तो अपने भीतर की दबी हुई ताकत और दबी हुई कुव्वत और दबी हुई शक्ति को आसानी से उभार सकता है, उठा सकता है। आदमी भूल जाए तो बात अलग है। रावण ने एक मंजिल पूरी की। उसने अपनी आत्मा के स्वरूप को समझा। आत्मा के स्वरूप को समझकर के उसने अपनी शक्ति, अपना स्वरूप, अपना वर्चस्व जान लिया। उसको बढ़ाने के लिए खुद ही हिम्मत की और वे चीजें बढ़ती हुई चली गईं।
रावण धनवान था। उसकी सारी-की-सारी लंका सोने से बनाई हुई थी। बहुत मालदार आदमी था। बहुत ताकतवर और बलवान आदमी था। चला गया, देवताओं को पकड़ लाया। रावण बड़ा विद्वान था। वेदों के अनुवाद करने के लिए खड़ा हो गया, तो वेदों का अनुवाद कर डाला। साइंस को निकालने के लिए खड़ा हो गया, तो साइंस को निकाल लाया। रावण आधे हिस्से तक अध्यात्मवादी था। अगर व्यक्ति अपना स्वरूप, अपनी क्षमता, अपनी शक्तियों के बारे में जान ले और उनका विकास करने के लिए खड़ा हो जाए, तो मैं उसको आधा अध्यात्मवादी कहूँगा।
कुछ भी नहीं है नामुमकिन
मित्रो! सैंडो एक दुबला-पतला छोकरा था और बीमार रहता था। 11-12 वर्ष का हो गया। उसको जुकाम, खाँसी लगी रहती थी। लीवर बढ़ा हुआ था। बाप के साथ एक बार जूडस का अजायबघर देखने के लिए गया। उसने जूडस का अजायबघर देखा और पिता से पूछा कि हमारे सामने ये जो मूर्तियाँ रखी हुई हैं, क्या इनकी शक्लें ऐसी ही थीं? क्या उनकी कलाइयाँ ऐसी मोटी थीं। उनने कहा—हाँ बेटा! ऐसी ही थीं। क्या हमारे बुजुर्गों की गरदन ऐसी मोटी थी? उनने कहा—हाँ! ऐसी ही मोटी थी। क्या हमारे बुजुर्गों की पेशानी और सीने ऐसे ही जबरदस्त थे? उन्होंने कहा—हाँ बेटा! ऐसे ही थे। ये लकड़ी नहीं है। ये जस के तस ऐसे ही बनाए गए हैं, जैसे कि हमारे बुजुर्ग थे।
सैंडो ने पूछा—पिताजी! क्या मैं भी ऐसा बन सकता हैं? पिता ने कहा—हाँ! तू भी ऐसा बन सकता है। जो काम दुनिया का कोई एक इनसान कर सका, वह दूसरा भी कर सकता है। जो रास्ता एक के लिए खुला हुआ है, वह दूसरे आदमी के लिए भी खुला हुआ है। एक आदमी ने बी०ए० पास कर लिया, तो दूसरा आदमी भी अगर चाहे तो बी०ए० पास कर सकता है। समय ज्यादा लग जाए या कम, यह नहीं कह सकता, लेकिन एक आदमी ने जो काम कर लिया है, वह दूसरे आदमी के लिए नामुमकिन नहीं है।
मित्रो! सैंडो ने कहा—अगर यह नामुमकिन नहीं है, तो मैं भी ऐसा पहलवान बन सकता हूँ। पिता ने कहा—हाँ बेटा। अगर हर आदमी चाहे तो ठीक रास्ते पर चलकर अपनी मंजिल पा सकता है। छोटे-से-छोटा व्यक्ति भी महान कार्य कर सकता है। सैंडो जैसे ही म्यूजियम से घर आया, पिता से पूछा—मुझे बताइए कि मैं कैसे पहलवान, बलवान बन सकता हूँ? बचपन से बीमार, दमा, जुकाम, खाँसी से परेशान, लीवर जिसका बढ़ा हुआ, पर जब उसके पिता ने उसे खान-पान का नियम, कसरत के गुण, विचारों को संयमित कैसे करें—ये सब बतलाया, तो सैंडो उसी तरह से काम करने लगा और सैंडो पहलवान बन गया।
मित्रो! आपको शायद हिस्ट्री मालूम नहीं है। हिंदुस्तान में राममूर्ति का नाम लिया जाता है। गामा पहलवान का नाम लिया जाता है। आजकल चंदगीराम का नाम लिया जाता है। कई पहलवान हिंदुस्तान में बड़े मशहूर रहे हैं और योरोप में एक बहुत बड़ा पहलवान हुआ है। उसका नाम था—सैंडो। वह अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का पहलवान था। क्योंकि उसने अपने अंदर दबी हुई सामर्थ्य, शक्तियों के बारे में समझा और सही ढंग से इस्तेमाल किया और बहुत बड़ा हो गया। रावण एक तरह का सैंडो था। उसने अपने भीतर की सामर्थ्य को समझा। अपने दिमाग की कीमत को समझा।
जो चाहे वो बन सकते हैं हम
दिमाग को अगर विकसित किया जाए, तो आदमी कितना बड़ा विद्वान बन सकता है। यह बात अगर आपको जाननी हो, तो विनोबा भावे से पूछिए। विनोबा भावे सारे जीवन सेवाकार्यों में लगे रहे, लेकिन उन्होंने एक इरादा किया हुआ है कि मैं दुनिया का अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति हूँ, इसलिए दुनिया की हर भाषा को सीख करके रहूँगा। उन्होंने प्रत्येक भाषा को सीखने की कोशिश की और एक घंटा इसके लिए मुकर्रर रखा। उन्होंने बहुत समय से इसके लिए एक घंटा अलग रखा है कि विश्व की मुख्य भाषाओं को सीखें।
मित्रो! उनको 23 भाषाएँ आती हैं, चौबीसवीं भाषा चायनीज भाषा, जो सबसे मुश्किल भाषा है, उसे अब सीखने में लगे हुए हैं। 84 वर्ष के व्यक्ति 24 वीं भाषा, जो दुनिया की मुख्य भाषाओं में एक है, सीख रहे हैं। एक घंटे की कीमत, आदमी के दिमाग की कीमत कितनी होती है? आदमी के दिमाग की कोई भी तुलना नहीं कर सकता। आदमी के शरीर की शक्ति की तुलना कोई भी नहीं कर सकता और आदमी की आत्मा की तुलना कोई भी नहीं कर सकता और आत्मा की उपाधि की कोई भी तुलना नहीं कर सकता।
मित्रो! रावण उसी तरह का आदमी था। जब वह मरने लगा, तो रामचंद्र जी ने कहा—लक्ष्मण! यह गुमराह आदमी था। आधी मंजिल उसने पार कर ली और आधी भूल गया। आत्मा के स्वरूप को तो समझा, लेकिन परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझा। आत्मा को परमात्मा के साथ इसने अगर जोड़ा होता, तो रावण विश्व का न जाने कौन रहा होता? व्यास जी, वसिष्ठ जी, याज्ञवल्क्य आदि इससे पीछे रह गए होते। अत्रि ऋषि भी इससे पीछे रह गए होते।
भले आदमी को जरा-सी बात अगर समझ में आ जाती कि आत्मा परमात्मा से मिलाए जाने के लिए है, तो इसने सारी-की-सारी दिशाएँ बदल दी होती और इसके पास जो अक्ल थी, जो कुव्वत थी, जो पैसा था, वह सारे-का-सारे अगर इन कामों में खरच कर डाला होता, जिन कामों में भक्त जन खरच किया करते हैं, तो मजा आ जाता। दुनिया के राम पीछे रह जाते और रावण आगे निकल जाता और कंस आगे निकल जाता, कृष्ण पीछे रह जाते।
लक्ष्मण-रावण की विलक्षण भेंट
मित्रो! रामचंद्र जी ने लक्ष्मण जी से कहा—बड़ी दुर्घटना हो गई। हम इससे कुछ सीख नहीं पाए। लक्ष्मण जी ने पूछा—तो अब क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा—थोड़ा सा समय बाकी है—लक्ष्मण! तुम उसके पास जाओ और यह पूछो कि हमको भौतिक जीवन में उन्नति कैसे करनी चाहिए? भौतिक जीवन की उन्नति करने के लिए हमारा आध्यात्मिक स्तर क्या योगदान कर सकता है? यह बहुत बड़ी बात है। लोग-बाग भौतिक जीवन में उन्नति करने के लिए दूसरी चीजों का सहारा लिया करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि हमको अपने भीतर ऐसा गुबार, ऐसी कुव्वत जो भरी पड़ी है, अगर हम उसको उभार सकते हों, उसको हम बढ़ा सकते हों, तो सारी-की-सारी नियामतें, विभूतियाँ, जो हम बाहर से चाहते हैं, वे हमारे भीतर से अपने आप हमें मिल सकती हैं। न जाने लोगों को क्यों ख्याल है कि सब चीजें बाहर हैं और बाहर की चीजों से हम अपना फायदा उठा सकते हैं।
मित्रो! बाहर कोई भी चीज नहीं है। बाहर मिट्टी और धूल है। जो कुछ भी आदमी के भीतर है, वही मैगनेट है, वही चुंबक है, जिससे लोहे के छोटे-छोटे कणों को हम खींचते चले जाते हैं। मैगनेट का टुकड़ा अगर हमारे पास होता है और लोहे के दाने, लोहे के कण, लोहे का चूरा, लोहे की छड़ें जहाँ-तहाँ पड़ी रहती हैं। हम उस चुंबक को घुमा देते हैं, तो सारी-की-सारी लौह धातु की चीजें खिंचती हुई चली आती हैं और चुंबक से चिपक जाती हैं।
अगर हमारा चुंबक खराब हो जाए और उसकी चुंबकीय शक्ति खतम हो जाए तो फिर हम चुंबक को यहाँ वहाँ लेकर के घुमाएँ, तो उससे कोई भी चीज चिपकती नहीं है। कोई भी लोहे का टुकड़ा उसके पास नहीं आता। दुनिया की दौलतें, दुनिया की संपदाएँ, दुनिया की समृद्धियाँ, दुनिया की सुविधाएँ केवल लोहे के बुरादे, लोहे के कणों के तरीके से हैं। जो हमेशा से आती हैं और आती रहेंगी, उन आदमियों के पास, जिनका कि भीतर वाला बल, आत्मा का बल—जाग्रत और समर्थ होता है।
मित्रो! लक्ष्मण जी गए रावण के पास और कहने लगे कि हम आपसे राजनीति पढ़ना चाहते हैं और जीवन के विकास करने की कला को हम आपसे सीखना चाहते हैं? रावण चुप हो गया, कोई जवाब नहीं दिया। लक्ष्मण जी वापस रामचंद्र जी के पास आए और कहने लगे कि रावण तो बड़ा घमंडी मालूम पड़ता है। कोई जवाब नहीं देता। शायद उसके मन में कोई दुश्मनी हो।
रामचंद्र जी ने कहा—नहीं, बड़े आदमी किसी को दुश्मन नहीं मानते। लड़ाई जरूर करते हैं, पर उस लड़ाई को करने के साथ-साथ में यह वैर उनके भीतर नहीं आता। बड़े आदमियों की एक ही महत्ता है। बड़े आदमी को वक्त-वक्त पर लड़ाइयाँ लड़नी पड़ती हैं, पर वे देश और दुश्मनी के लिए अपने जी में कोई गुंजाइश नहीं रखते। रावण से हमारी लड़ाई हुई जरूर और रावण को हमने मारा जरूर, लेकिन रावण हमारे प्रति दुश्मनी रखे, यह नामुमकिन है। तुमको मालूम नहीं था कि जब हम समुद्र पाटने के लिए गए थे, तब हमने शिवलिंग की स्थापना की थी। हमको एक पुरोहित की जरूरत थी। पुरोहित की हमने तलाश की, पर कहीं नहीं मिला, तो हमने लंका में खबर भेजी कि रावण हमारे पुरोहित का कार्य करे। शिवलिंग की स्थापना कराए और आकर के हमको आशीर्वाद दे, तब क्या रावण नहीं आया था?
मित्रो! लक्ष्मण ने कहा—हाँ, रावण तो आया था। तब उसने हमको आशीर्वाद नहीं दिया था? हाँ, दिया था। हमने कहा था कि हमारी कामना यह है कि हम लंका पर विजय प्राप्त करना चाहते हैं। समुद्र पर पुल बनाना चाहते हैं और रावण को मारना चाहते हैं। हे हमारे पुरोहित! हमें आशीर्वाद देकर के जाओ, तो रावण ने क्या यह आशीर्वाद नहीं दिया था और कहा था कि—जाओ, मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम समुद्र पर पुल बनाओ, लंका पर विजय प्राप्त करो, रावण को मारो। रावण दुश्मनी नहीं मानता। दुश्मनी तो बहुत छोटे और कमीने लोग मानते हैं।
रामचंद्र जी ने कहा—गुमराह था तो क्या? लेकिन रावण अपने आप में जबरदस्त और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। आत्मशक्ति तो थी उसमें, पर परमात्मा से योग न होने के कारण वह भौतिक शक्तियों से उलझ गया। अब उसके पास जाना चाहिए और उससे यह सीखना चाहिए कि इतनी बड़ी संपदा, जो कोई इंजीनियर नहीं कमा सकता। जो कोई डॉक्टर नहीं कमा सकता, जो केवल बाह्य जगत में घूमने वाला, किसी खान को तलाश करने वाला आदमी नहीं कमा सकता। वह रावण ने अपनी जबान और कुव्वत के द्वारा कैसे कमा ली? ये विधियाँ हम सीखकर तो आएँ। लक्ष्मण जी गए और वे सब बातें सुनकर के वापस आए। मित्रो! दुनिया की दौलत, समृद्धि, ऋद्धि-सिद्धि का खजाना अपने ही भीतर भरा पड़ा है। इसे हम आध्यात्मिकता के आधार पर, अंत:करण की पवित्रता और निष्कलुषता के आधार पर प्राप्त कर सकते हैं।
आज की बात समाप्त
॥ॐ शान्तिः॥