उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। — पूज्य गुरुदेव
(दिनांक ३०.०१.१९७८ शान्तिकुञ्ज परिसर)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्
शरीर की ताकत से मिलेगा सुख
देवियो, भाइयो! सांसारिक सुख-साधनों का संग्रह करने के लिए शारीरिक बल चाहिए। शरीर, जिसमें मन भी शामिल है, दोनों को अर्थात शरीर और मन को मिला देने से एक इकाई बनती है। हमारा मस्तिष्क एक ज्ञानेंद्रिय माना जाता है। यदि सांसारिक सुखों का सुख भोगना चाहते हैं, सुख-शांति इकट्ठी करना चाहते हैं तो आपको शारीरिक बल के साथ मन की सामर्थ्य को भी शामिल करना चाहिए। आपके शरीर में ताकत है, लेकिन अगर आपके दिमाग में डबल ताकत है तो आप बहुत-सा पैसा कमा सकते हैं, सुख-शांति इकट्ठी कर सकते हैं और उसका उपभोग भी कर सकते हैं। शरीर कमजोर होगा तो आप उपभोग भी नहीं कर सकते हैं। खा भी नहीं सकते हैं, देख भी नहीं सकते हैं, हजम भी नहीं कर सकते हैं। सब कुछ मौजूद है, पर आप कुछ नहीं कर सकते, कुछ नहीं पा सकते। अगर आपका शरीर और मन कमजोर है तो इस संसार में से आप सुख और शांति इकट्ठी नहीं कर सकते। सांसारिक सुख की अगर आपको आवश्यकता है, जिसको आप चाहते हैं तो आप शरीर को सामर्थ्यवान बनाइए और दिमाग को सामर्थ्यवान बनाइए। शरीर और बढ़ी हुई मन की कुव्वत के हिसाब से आपको पैसा मिलेगा और जिस चीज को आप चाहते हैं, वह सब आपको यहाँ से मिल सकता है, और जगह से नहीं मिल सकता। यह एक बात हुई।
विवेक से आती है खुशहाली
बात नंबर दो—इस संसार का एक और भी सांसारिक सुख है। उसका नाम है—प्रसन्नता और संतोष। ये क्या हैं? बेटे! प्रसन्नता जो होती है, उसको मुस्कान कहते हैं, खुशी कहते हैं, शांति कहते हैं, निश्चिंतता कहते हैं, खुशहाली कहते हैं, मस्ती कहते हैं। यह भी एक सुख है। यह कौन सा है? यह शरीर के बाहर का है। इसका शरीर से कोई ताल्लुक नहीं है, मिठाई से कोई ताल्लुक नहीं है। इसका सिनेमा देखने से कोई ताल्लुक नहीं है। यह अलग चीज है। कौन सी? जिसको हम मस्ती कहते हैं, जिसको हम खुशी कहते हैं, जिसको हम आनंद कहते हैं, जिसको हम शांति कहते हैं। यह कहाँ से कमाई जा सकती है? इसके लिए एक हिस्सा बलवान व मजबूत होना चाहिए, शक्तिवान होना चाहिए। यह कौन-सा वाला हिस्सा है? जिसको हम बुद्धि कहते हैं, विवेक कहते हैं, अक्ल नहीं। अक्ल का संबंध शरीर और संसार से है। आपने बी०ए० की पढ़ाई की है तो यह शरीर की ताकत में शामिल है, बुद्धिमानी में नहीं। बुद्धि चीज अलग है, विवेक चीज अलग है। अगर आपके पास बुद्धि की ताकत, विवेक की ताकत होगी तो आपके चेहरे पर मुस्कान छाई रहेगी, खुशी छाई रहेगी, मस्ती छाई रहेगी। अगर आपके पास विवेक नहीं है, बुद्धि नहीं है तो फिर आपके पास चाहे जितना सामान हो, वस्तुएँ चाहे जितनी हों, उपभोग करने का सामान चाहे जितना ही क्यों न हो, आप भीतर ही भीतर खीजते और भीतर ही भीतर टूटते रहेंगे, आप भीतर ही भीतर जलते रहेंगे और अंदर ही अंदर नष्ट होते रहेंगे और आपके पास विवेक और बुद्धि का अभाव रहेगा। अत: आपको विवेक और बुद्धि की शक्ति चाहिए।
स्वर्ग और मुक्ति
मित्रो! मनुष्य जीवन के ये दो हिस्से हैं। एक और हिस्सा रह जाता है। बस, तीन हिस्सों में हमारी जिंदगी बँटी हुई है। तीसरा वाला हिस्सा कौन सा है? वह है—हमारी अंतरात्मा, अंत:करण, जिसको हम कई बार 'कारण शरीर' भी कहते हैं। यह हमारा सबसे बारीक वाला, सबसे गहन वाला हिस्सा है। यह हिस्सा ऐसा है कि अगर यह ताकतवर हो, बलवान हो, मजबूत हो तो हमें क्या मिल सकता है? इससे दो चीजें मिल सकती हैं। इनमें से एक चीज मिल सकती है—'स्वर्ग' और दूसरी चीज मिल सकती है—'मुक्ति'। ऋषियों ने, वेदों ने व अन्य ग्रंथों ने इन दोनों के बड़े माहात्म्य बताए हैं। स्वर्ग के बारे में बड़े लंबे-चौड़े सपने दिखाए हैं कि स्वर्ग ऐसा होता है, स्वर्ग में ऐसा होता है, स्वर्ग के सुखों का कोई ठिकाना नहीं। और मुक्ति किसे कहते हैं? बेटे! मुक्ति कहते हैं—बंधनरहित जीवन को। आदमी को सबसे ज्यादा दुःख इस बात का है कि वह बंधन में बँधा हुआ है। वह जो करना चाहता है, कर नहीं सकता; जो पाना चाहता है, पा नहीं सकता। प्रकृति ने चारों ओर से बाँध रखा है, जकड़ रखा है। आपने कभी जकड़े हुए पक्षियों को देखा है? सुग्गा पिंजड़े में कैद रहता है, मिठाई खाता है, चीजें खाता है, दूध पीता है, ब्रेड खाता है, लेकिन जरा सा खोल दीजिए तो भाग जाता है। कहता है कि भाई साहब! इसमें हमको नहीं रहना है। तो क्या बाहर जाकर के जोखिम उठाएँगे? हाँ, हम जोखिम उठाएँगे। ठंढक में मर जाएँगे? हाँ, हम मर जाएँगे, लेकिन हमको कैद में रहना मंजूर नहीं है।
बंधन लाते हैं दुःख
कैद में आत्मा कितनी तड़पती है, आप जानते नहीं हैं। जेलखाने में आपको रहना नहीं पड़ा है? हमको पूरे चार वर्ष जेल में रहना पड़ा। क्या दिक्कत थी? बाहर की जिंदगी से ज्यादा अच्छी थी—नियमित, व्यवस्थित एवं ठीक समय पर हर काम होता था। निश्चिंतता थी। बाहर की अपेक्षा काम भी कम करना पड़ता था। फिर जेलखाने में क्या दिक्कत थी? हम बंधन में थे। आज हमारा मन है कि बाहर निकलकर अपने भाई साहब से मिलने जाएँगे। नहीं, आप नहीं जा सकते, यहीं बैठे रहिए, बंधन है। वह बंधन है कि आदमी की आकांक्षाओं पर अंकुश लगा रहे, मजबूरी छाई रहे कि हम कोई चीज कर नहीं सकते। आप कौन सी चीज नहीं कर सकते? हम महान बनना चाहते हैं, भगवान को पाना चाहते हैं, लेकिन पा नहीं सकते। क्यों? क्योंकि आपके पैरों में बेड़ी और हाथों में हथकड़ियाँ लगी हुई हैं। हथकड़ी और बेड़ी के रहते हुए आप आगे नहीं बढ़ सकते। घोड़ा आगे बढ़ने की कोशिश करता है, पर पैरों में जंजीर बँधी रहती है, अत: वह आगे बढ़ नहीं सकता। हाथी आगे चलना चाहता है, पर पैरों में जंजीर बँधी रहती है, इसलिए वह चल नहीं सकता।
क्या हैं नरक व स्वर्ग
मित्रो! हमारे जीवन के सबसे बड़े आध्यात्मिक दुःख दो हैं। एक का नाम है नरक और दूसरे का नाम है बंधन। नरक किसे कहते हैं? अभी मैं आपको बताने वाला हूँ कि बंधन किसे कहते हैं? मुक्ति कहाँ होती है? बेटे! मुक्ति वहाँ होती है—ग्यारह-उन्नीस मील लंबी दूरी पर। और स्वर्ग कहाँ है? स्वर्ग कहाँ है, बाइस हजार मील दूरी पर। बेकार की बातों पर बहकिए मत, स्वर्ग हमारे चिंतन का व दृष्टिकोण का एक तरीका है, जिसमें से हमको दुनिया में अच्छाई दिखाई पड़ती है। कण-कण में भगवान दिखाई पड़ता है। इसी का नाम स्वर्ग है। आदमी के भीतर से शराफत दिखाई पड़ती है, अच्छाई दिखाई पड़ती है, नेकी दिखाई पड़ती है, इनसान दिखाई पड़ता है। इनसान के अंदर भगवान की झाँकी दिखाई पड़ती है। यह क्या है? यह हमारे देखने का एक तरीका है, सोचने का एक ढंग है। यह हमारी एक दृष्टि है, जिसको हम स्वर्ग कहते हैं। स्वर्ग में खुशहाली आती है, मस्ती आती है। यह क्या चीज है? बेटे! यह हमारी अंतरात्मा का, अंत:करण का गुण है। आपका अंत:करण अगर विकसित हो जाए तो आपमें से हर आदमी उतना ही खुश, उतना ही प्रसन्न, उतना ही संतुष्ट रह सकता है, जितना कि स्वर्ग में रहने वाले देवता रहते होंगे। और क्या विशेषता है देवता की? बेटे! देवता मुक्त होते हैं। और उड़कर कहीं भी जा सकते हैं। आप तो एक घंटे में तीन मील चल सकते हैं, लेकिन देवता चाहें तो एक घंटे में बाईस हजार मील चल सकते हैं। क्यों साहब! यह क्या बात है? कैसे चल सकते हैं? सवारी से? नहीं, सवारी नहीं है। उनके पास बंधन नहीं है, हमारे पास बंधन है। देवताओं की विशेषता है कि स्वर्गलोक से वे खट से आ जाते हैं और यहाँ से वैकुंठ को चले जाते हैं। वैकुंठ से ब्रह्मलोक को चले जाते हैं। उनके पास बंधन नहीं है। इसे क्या कहते हैं? मुक्ति कहते हैं।
ललक-लिप्साओं के बंधन
मित्रो! आदमी के पास तीन बंधन हैं। इन तीन बंधनों को काट डालें तो आदमी मुक्त हो जाता है। तीन बंधन कौन से हैं? हाथों में हथकड़ी—एक, पैरों में बेड़ी—दो और कमर में रस्सा—तीन। यही तीन बंधन हैं। कभी आपने कैदियों को जेलखाने में जाते हुए देखा है कि वे कैसे जाते हैं? हाथों में हथकड़ी डाल देते हैं, ताकि वे भागने न पाएँ। पैरों में बेड़ी डाल देते हैं, ताकि वे भागने न पाएँ। और कमर में रस्सा बाँध देते हैं। तीनों से उसे बाँध देते हैं, फिर वह कहीं भागने नहीं पाता। ये कौन से रस्से हैं, जिनने हमें बाँध रखा है? हमारी एक जंजीर लोभ की है। हमारे जीवन की जरूरत बहुत थोड़ी है। जरा सा सामान चाहिए। उसमें हमारा मजे में गुजारा हो सकता है। लेकिन हमारे भीतर एक ऐसी ललक और एक ऐसी लपक सवार हो उठती है, जिसका कोई वजूद नहीं है और जिसका कोई कारण नहीं है। जिसकी कोई आवश्यकता नहीं, जिसका राई की नोक के बराबर कतई उपयोग नहीं है। आप चार रोटी से अधिक पाँचवीं रोटी नहीं खा सकते और तीन गज से ज्यादा छह गज कपड़ा नहीं पहन सकते। आप कोटे से बाहर नहीं जा सकते, लेकिन आदमी के दिमाग को न जाने क्या सूझता है। आदमी के ऊपर एक ऐसा जंजाल कस गया है कि उस कसे जंजाल की वजह से आदमी अपनी अक्ल, चिंतन, भावनाएँ, सब कुछ उसी ढाँचे में इस कदर बाँध लेता है कि दूसरी चिंतनधारा चल नहीं सकती। विचार कहीं चल नहीं सकता। जीवन की महानता के बारे में आप विचार नहीं कर सकते। भगवान की कल्पना तक आपके मन में नहीं आ सकती। यह जिंदगी एक रस्सी से ऐसी बँधी हुई है, जिसको हम लोभ कहते हैं।
लोभ व मोह के फितूर
बेटे! लोभ एक फितूर का नाम है, पागलपन का नाम है। कैसा फितूर? जैसा आपके ऊपर, हम सबके ऊपर छाया हुआ है। यह क्या है? इसका नाम है लोभ। लोभ क्या है? लोभ को बेटे! नरक कहते हैं और मोह को बंधन कहते हैं। लोभ सामान का होता है, वस्तुओं का होता है, पैसे का होता है। मोह मनुष्यों का होता है। मनुष्यों का कैसे होता है? मनुष्यों के साथ हमारा वास्ता होना चाहिए और वास्ते के लिए मनुष्यों के साथ हमको सेवा और सद्भावना का व्यवहार करना चाहिए। यह क्या है? यह बेटे! संबंध है, जो आदमी का आदमी के साथ होना चाहिए। लेकिन मोह? मोह उसे कहते हैं, जिसमें आदमी का पक्षपात चालू रहता है। इंसाफ नहीं, न्याय नहीं, औचित्य नहीं, केवल पक्षपात रहता है। लोभ माने हमारे बेटे को पैसा मिलना चाहिए। क्यों? आपके बेटे को पैसा क्यों मिले? आपका भानजा, जो गरीबी में दिन काट रहा है, उसको क्यों नहीं मिलना चाहिए? नहीं साहब! उसको नहीं मिलना चाहिए, मेरे बेटे को मिलना चाहिए। बेटे और उसमें क्या फरक है? नहीं साहब! बेटा अलग होता है और वह अलग होता है। क्यों, क्या वजह है? नहीं साहब! बेटा तो हमारा है। अच्छा तो यह आपका बेटा है? यह क्या चीज है? बेटे! इस तरह के मोह में मनुष्यों के साथ जो आदमी का इस कदर लगाव है, जिसमें आदमी इंसाफ को भूल जाता है, जिम्मेदारियों को भूल जाता है, कर्तव्यों को भूल जाता है, हित और अहित को भूल जाता है। सामने वाले का हित किसमें है और हमारा हित किसमें है, इसका बिलकुल ध्यान नहीं रहता। हम जिनको-अपनों को प्यार करते हैं, उनको इतनी गैरजरूरी चीजें और गैरजरूरी सुविधाएँ देते चले जाते हैं कि उनका सत्यानाश हो जाता है और इस पक्षपात की वजह से हमारा भी सत्यानाश हो जाता है। गैरजरूरी सामान पाने की वजह से और गैरजरूरी सहायता पाने की वजह से वे लोग जिनकी हमने सहायता की है, जिनको हम अपना संबंधी कहते हैं, उनका भी सर्वनाश हो जाता है। इसमें दोनों का सर्वनाश हो जाता है। यह क्या चीज है? यह मोह है।
तीसरा बंधन 'अहं'
साथियो! मोह अलग होता है और कर्तव्य अलग होता है। बेटे के लिए कर्तव्यों का पालन करना अलग बात है और बेटे को मोह से लाद देना अलग बात है। दोनों में जमीन-आसमान का फरक है। आदमी की मानसिक प्रसन्नता को कौन छीन ले जाता है? ये बंधन छीन ले जाते हैं, जिनको मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि बंधनों से अगर मुक्ति मिल जाए तो आपको मुक्ति मिल सकती है। मुक्ति के बारे में जो आनंद बताया गया है, उसमें भगवान के पास पहुँच जाते हैं। सायुज्य मुक्ति, सालोक्य मुक्ति, सारूप्य मुक्ति, सामीप्य मुक्ति—ये चारों प्रकार की मुक्तियाँ इसी जीवन में मिल सकती हैं। एक और हिस्सा रह गया—'अहं' आदमी अहंकार से उछल पड़ता है। अपनी विशेषता साबित करने के लिए जाने क्या से क्या बनाता रहता है। सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जाने कैसे-कैसे बचकाने खेल बनाता है। सबके सामने इस तरीके से बना फिरता है, जैसे जोकर। क्यों भाई साहब! यह क्या बात है? आपने अपने बालों को ऐसे कैसे बना रखा है कि कान ढके हैं? भाई साहब! हमने इसलिए बना रखा है कि सब के सब लोग हमारी तरफ देखेंगे और कहेंगे कि ये बाबूजी सबसे ज्यादा खूबसूरत हैं। देखो, इनके बाल कैसे बने हुए हैं, जैसे ईंट के बादशाह के बने होते हैं। ईंट का बादशाह आपने देखा है? ये कौन जा रहे हैं? हिप्पी साहब जा रहे हैं? क्या मामला है? आप ऐसे क्यों रहते हैं? इसलिए कि सब हमारी शक्ल देखें और कहें कि देखिए, इनकी शक्ल कैसी बढ़िया है।
अहं के ढकोसले
यह क्या है? आदमी का 'अहं' है। आदमी की बनावट ऐसी है कि वह मामूली कपड़े को पहन करके गुजारा कर सकता है, लेकिन वह इतने ढकोसले बनाए फिरता है कि कभी फैशन के नाम पर तो कभी जोकर के नाम पर तो कभी किसके नाम पर अपना अहं प्रदर्शित करता रहता है। साइकिल से गुजारा हो सकता था, पर मोटर लिए बिना काम नहीं चल सकता। आप क्या करते हैं? ब्याह-शादी बड़ी आसानी से हो सकती थी, पर नहीं, दावत तो बढ़िया होनी ही चाहिए। यह क्या है? यह है 'अहं' का प्रदर्शन। आदमी अपने भौतिक जीवन की दूसरों के ऊपर छाप डालने के लिए, रोब गालिब करने के लिए ऐसे-ऐसे ढकोसले खड़े करता रहता है कि वो कचूमर निकाल देते हैं। राजाओं के ढकोसलों को हमने देखा है। छोटे-छोटे राजाओं को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूँ। उनकी आमदनी दस लाख से बीस लाख सालाना की थी, पर ढकोसला खड़ा करने की वजह से उनकी जो जायदादें थीं, संपत्तियाँ थीं, उनसे उन बेचारों का खरच भी पूरा नहीं हो पाता था। क्यों साहब! घर में कितने आदमी हैं? पाँच आदमी हैं। हम हैं, हमारी बीबी है, दो बच्चे हैं और एक हमारी माताजी हैं। पाँच आदमियों के लिए भी बीस लाख कम पड़ते हैं? बीस लाख में भी कर्ज हो गया है? हमारी जायदाद की नीलामी होने वाली है। क्यों, क्या बात हो गई? सारा पैसा किसमें खरच हो जाता है? खरच होने का एक ही तरीका था और उसका नाम था ढकोसला। आदमी इतना बड़ा और ढकोसला कितना बड़ा? यह क्या है? 'अहं' है। आदमी की ये तीन जंजीरें ऐसी हैं कि जो आपकी आध्यात्मिक विशेषताओं को नष्ट करती रहती हैं। भगवान ने आपको शरीरबल, बुद्धिबल और आत्मबल पर्याप्त मात्रा में दिया है। आपको करना इतना भर था कि उनको खराद पर चढ़ाते। खराद पर चढ़ाने के बाद ये विभूतियाँ डायमंड के तरीके से चमकने लगतीं।
माया का जंजाल व मुक्ति का उपाय
लेकिन मित्रो! क्या हो गया? हम जंजाल में फँस गए। जंजाल किसे कहते हैं? माया को। माया किसे कहते हैं? बेवकूफी को। बेवकूफी किसे कहते हैं? जैसी कि हमने और आपने अपने-अपने ऊपर अपने आप से ओढ़ ली है। नहीं साहब! माया में किसी ने फँसा दिया है। नहीं बेटे! किसी ने नहीं फँसाया है। फिर क्या हो गया। सुनो—हुआ यह कि एक बार भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मा जी के पास गए और ज्ञान पूछने लगे। उन्होंने कहा कि ज्ञान तो आपके भीतर से उदय होगा, बाहर से नहीं मिल सकता। दत्तात्रेय ने फिर कहा कि बताइए ज्ञान कहाँ से मिलेगा? ब्रह्मा जी ने कहा कि जहाँ कहीं भी आप जाएँ, वहीं आप बारीकी से, गौर से देखना शुरू करना। दिव्यदृष्टि से देखना, आपको सब चीजें मिल जाएँगी। दत्तात्रेय सबसे पहले एक पेड़ के नीचे जा बैठे और पेड़ पर देखने लगे कि कोई गुरु आएगा और शिक्षा देगा। उन्होंने क्या देखा कि एक मकड़ी ऊपर से जाला तान रही थी। जाला तानते-तानते वह उसमें फँस गई। निकलते बन नहीं रहा था। यह देखकर दत्तात्रेय हँसने लगे कि देखो, इसी ने जाला बनाया है और अब कहती है कि इससे निकल नहीं सकते या निकला नहीं जाता। बस, दत्तात्रेय हँसते रहे। इतने में देखते हैं कि मकड़ी में न जाने कहाँ से ज्ञान आया कि उसने कहा अरे! जाला तो मैंने ही बनाया है। खट से उसने उस जाले के धागों को, जो मुँह के लार से बनाए थे, उलटा करके समेटना शुरू कर दिया और एक-एक धागे को पेट में निगलती चली गई। आधे घंटे के भीतर सारे का सारा जाला निगल लिया और उस बंधन से छुट्टी पा गई और भाग गई। दत्तात्रेय ने कहा कि यही जड़ है, यही माया है और यही बंधन है और यही मुक्ति है।
सुखप्राप्ति का उपाय
मित्रो! बंधन से मुक्ति पाने के लिए, जिसको सबसे बड़ा सुख कहते हैं, जीवन की सार्थकता कहते हैं, उसको पाने के लिए क्या करना पड़ता है, मैं आपको बता चुका हूँ। क्या साधना करनी पड़ती है, यह भी आपको बता चुका हूँ। अगर कभी आपको भौतिक साधनों की जरूरत हो और इस बात की इच्छा हो कि हम शरीर से सुख भोग करेंगे, हम संसार की दौलत इकट्ठी करेंगे तो आप दो काम करना। दो देवताओं के पास जाना, तीसरे के पास मत जाना। क्या करना? शारीरिक बल इकट्ठा करना। शारीरिक बल किसे कहते हैं? देह की ताकत को भी कहते हैं और दिमाग की ताकत को भी कहते हैं। अपने दिमाग को सक्षम बनाना, योग्यता बढ़ाना और मेहनत करना। दिमाग की योग्यता बढ़ाएँगे तो आपको साधन आ जाएँगे। जितने साधन चाहिए, उतने आपकी योग्यता के अनुरूप आते चले जाएँगे और उनका उपभोग भी आप कर सकेंगे। उपभोग नहीं करेंगे तो बीमार पड़ेंगे। पैसा इकट्ठा कर लिया है और उपभोग नहीं कर सकते। ब्याह हो गया है, पर तरह-तरह की बीमारियाँ लगी पड़ी हैं। साहब! न जाने क्या हो गया, जान के लिए आफत मोल ले ली। आप कहते थे कि शादी कर ले, खुश रहेगा। ब्याह कर तो लिया, पर हमको दिन-रात भय लगा रहता है कि बीबी कहीं पड़ोसी के साथ भाग गई तो क्या करेंगे। आप उपभोग नहीं कर सकते, यदि शरीर और दिमाग, दोनों स्वस्थ एवं सक्षम नहीं होंगे, तब।
विवेक जागे, तो ही मिलेगी स्थायी शांति
मित्रो! अगर आपको इस बात की जरूरत हो कि हमारे जीवन में खुशी चाहिए, प्रसन्नता चाहिए, मस्ती चाहिए तो मैं आपसे एक ही बात कहूँगा कि आप विवेकशील बनिए। विवेकशीलता, जिसको हम बुद्धिमत्ता कहते हैं। बुद्धिमत्ता अक्लमंदी को नहीं कहते हैं। अक्लमंदी के ऊपर लानत है। अक्लमंदी हमारे-आप सबके हिस्से में आ गई है। कोई एम०ए० हो गया है, कोई बी०ए० हो गया है, कोई इंजीनियर है, कोई डॉक्टर है। यह क्या है? इसका नाम है अक्लमंदी। कोई पंचायत का मेंबर है, कोई सोसाइटी का मेंबर है। ये कौन हैं? ये हैं अक्लमंद। कोई व्यापारी है, कोई दुकानदार है। ये सब अक्लमंद हैं। मैं अक्लमंदों की बात नहीं कहता। अक्ल तो शरीर का हिस्सा है, जो केवल पैसा कमाने के काम आती है। स्वार्थ साधने में काम आती है और किसी काम में नहीं आती। किसके लिए कह रहा था? मैं यह कह रहा था कि बुद्धिमत्ता और विवेकशीलता अगर आपके भीतर हुई तो आप गई-गुजरी परिस्थितियों में भी अपनी मूँछ कायम रख सकते हैं, प्रसन्नता कायम रख सकते हैं, खुशहाली कायम रख सकते हैं, शांति कायम रख सकते हैं, चैन कायम रख सकते हैं। परिस्थितियाँ चाहे कैसी क्यों न हों, हर परिस्थिति में आप सुख-शांति कायम रख सकते हैं। लेकिन अगर आप अच्छी से अच्छी परिस्थितियों में हों और आपके पास बुद्धिमत्ता की कमी हो तो आप हर हालत में रोते हुए पाए जाएँगे, खीजते हुए पाए जाएँगे, दु:ख पाते हुए पाए जाएँगे, कष्ट सहते हुए पाए जाएँगे, नाराज पाए जाएँगे, जलते कुढ़ते हुए पाए जाएँगे। आपकी समस्या का अंत कभी नहीं होगा, जब तक कि आप अपनी बुद्धिमत्ता को, विवेकशीलता के दायरे को विकसित नहीं करेंगे।
सबसे बड़ी शक्ति है आत्मबल
साथियो! अध्यात्मबल सबसे बड़ा बल है। शरीर बल से अक्लबल बड़ा है और अक्लबल से आत्मबल बड़ा है। दुनिया में आत्मबल सबसे बड़ा होता है। आत्मबल के सहारे मामूली आदमी गांधी बन सकता है। आत्मबल के सहारे मामूली आदमी बुद्ध बन सकता है। अध्यात्मबल के सहारे मामूली आदमी ईसामसीह बन सकता है। अध्यात्मबल के सहारे मामूली घर में पैदा हुए व्यक्ति जगद्गुरु शंकराचार्य हो सकते हैं। मामूली परिस्थितियों में पैदा हुए सप्तर्षि बन सकते हैं। यह सबसे बड़ी ताकत और सबसे बड़ी कुव्वत है। इस अध्यात्मबल का संग्रह करने के लिए मित्रो! हम प्रयत्न करते हैं और हर एक को सिखाते हैं कि शारीरिक बल बढ़ाने के लिए व्यायाम मौजूद हैं और अक्लबल बढ़ाने के लिए स्कूल और कॉलेज खुले हुए हैं। बुद्धिमत्ता बढ़ाने का भी रास्ता तो था, पर अब कम पड़ गया है। लेकिन आत्मबल बढ़ाने के लिए साधन नहीं थे, इसलिए हमने हाथों में यह काम लिया कि हम लोगों की आध्यात्मिक कुव्वत को बढ़ाएँ, आत्मिक ताकत को बढ़ाएँ। इसके सहारे उन तीनों सुखों में से मानसिक सुख भी मिल सकता है, शारीरिक सुख भी मिल सकता है और आध्यात्मिक सुख भी मिल सकता है। आध्यात्मिक बल बढ़ाने के लिए हम बराबर प्रयत्न करते रहे। जिंदगी भर हमारा प्रयास एक ही रहा कि अध्यात्मबल को बढ़ाया जाए। इसके लिए हमने बहुत सारे काम किए। आपको बहुत सारी क्रियाएँ बताईं। जो क्रियाएँ बताई गई थीं, वे शरीर से की जा सकती हैं। मसलन, जप। जप किससे होता है? जप जीभ की नोक से होता है और उँगलियों से माला घुमा देते हैं। यह क्या है? यह क्रिया कहलाती है। क्रिया से हमारा प्रारंभ होता है, लेकिन विकास नहीं होता। अध्यात्म क्रिया तक सीमित नहीं हो सकता।
करना नहीं, ढलना
मित्रो! अध्यात्म क्रिया से प्रारंभ किस तरह से होता है? जिस तरह हमारी पढ़ाई-लिखाई पट्टी, कलम और दवात से प्रारंभ होती है, पर वहीं खतम नहीं हो सकती। लीजिए साहब! कलम आ गई, बुदका आ गया, पट्टी आ गई। हाँ बेटे! इसके बिना तेरी पढ़ाई नहीं हो सकती थी। यह आवश्यक था। तू ले आया, अच्छा किया! अब हम तुझे पढ़ा देंगे। लेकिन यह कलम, बुदका और पट्टी पढ़ाई नहीं है। यह अध्यात्म नहीं है, जैसे कि आपका ख्याल है कि यह केवल शरीर से करने वाली प्रक्रिया है। आदमी यही सोचता है कि आत्मबल पाने के लिए, भगवान को पाने के लिए, भगवान की सिद्धियाँ पाने के लिए और आध्यात्मिक विशेषताएँ पाने के लिए हमको क्या करना चाहिए। 'करना' नहीं, बेटे! यह शब्द गलत है। 'क्या करना चाहिए', यह मत कहिए। करेगा तो शरीर। शरीर से नहीं बेटे! 'क्या बनना चाहिए और क्या ढलना चाहिए', यह पूछ। 'क्या करना चाहिए', यह मत कह। करने का मूल्य एक रत्ती भर है, इसकी जरूरत तो है, लेकिन इसका मूल्य एक राई के बराबर है। नहीं साहब! हम ग्यारह हजार जप कर लें? कर ले बेटे! ग्यारह हजार कर ले तो भी कोई हर्ज नहीं है, बाईस हजार जप कर ले तो भी कोई हर्ज नहीं है—ढाई हजार होगा तब भी और ग्यारह हजार होगा तब भी। महाराज जी! आप तो सबमें हाँ में हाँ मिला देते हैं। हाँ बेटे! क्योंकि यह क्रिया है। क्रिया माने शारीरिक श्रम। तो फिर अध्यात्म क्या है? अध्यात्मबल क्या है? अध्यात्मबल कहाँ से आता है? बेटे! बनने से आता है, ढलने से आता है। बनने से क्या मतलब है? बनने से हमारा मतलब है—हमारे चिंतन का तरीका, हमारे सोचने का तरीका और हमारा दृष्टिकोण। आपके सोचने का तरीका क्या है पहले यह बताइए। नहीं साहब! आपसे क्या मतलब, हम जो सोचते होंगे, सोचते रहेंगे। नहीं साहब! हम तो देवी का पाठ करते हैं। आप देवी का पाठ करते हैं या नहीं करते हैं, बहस इस बात की नहीं है।
(क्रमशः)
(गतांक से आगे)
इस अमृतवाणीरूपी प्रवचन की प्रथम कड़ी में परमपूज्य गुरुदेव ने स्थूलशरीर (ताकत), सूक्ष्मशरीर (विवेक) एवं कारणशरीर (मुक्ति) की चर्चा की। सबसे बड़ी शक्ति के रूप में वे आत्मबल की बात कहते हैं। युग-साधना में भागीदारी का आह्वान करते गुरुदेव आध्यात्मिक जीवनचर्या की प्राथमिक कक्षा लेते हैं। अब वही प्रसंग आगे द्वितीय कड़ी पढ़ें—
अपने आप से लड़ना ही तप
मित्रो! मैं पूछता हूँ कि आप किस तरह से विचार करते हैं? आपके चिंतन का तरीका क्या है? आपने सोचने का ढंग क्या बना रखा है? आपके विचार करने की शैली क्या है, बताइए। नहीं साहब! इससे आपको क्या मतलब है? बेटे! हमको इसी से मतलब है। चिंतन के अतिरिक्त आपकी भावनाएँ, आपकी अवस्थाएँ और निष्ठाएँ क्या हैं? आपकी निष्ठाएँ किस चीज पर जमी हैं? आपकी पसंदगी क्या है? आपकी रुचि क्या है? आप विचारते क्या हैं? आपकी इच्छाएँ क्या हैं? आप यह सभी कुछ हमें बताइए। गुरुजी! आप तो जानते ही हैं कि हमारा टेस्ट क्या है। आपको तो हमारी सब इच्छाएँ मालूम हैं। हाँ बेटे! हमें तो आपकी सब इच्छाएँ मालूम हैं, लेकिन अगर आपकी यही इच्छाएँ, निष्ठाएँ, आस्थाएँ, भाव-संवेदनाएँ उच्चस्तरीय होतीं तो मजा आ जाता। तो फिर क्या करना चाहिए? नहीं बेटे! क्या करना चाहिए नहीं, क्या बनना चाहिए। तो आप ही बताइए। उपाय बताया तो था कि बेटे! अपने आप को अपने से काट, अपने आप से लड़। अपने आप को अपने से पछाड़। अपने आप अपने से कुश्ती लड़। यह क्या है? इसका नाम है—तप। तप किसको कहते हैं? तप कहते हैं अपने भीतर एक अंतर्द्वद्व खड़ा कर और अपने भीतर जद्दोजहद करने के लिए लड़ाई खड़ी कर। अपनी पिटाई अपने आप कर और अपनी धुलाई अपने आप कर। अपने भीतर-बाहर हर हिस्से में गंदगी भरी पड़ी है। इसको कौन ठीक करेगा? मुहल्ले वाला? मुहल्ले वाला नहीं करेगा। आपके भीतर किसी को घुसने की गुंजाइश नहीं है। आप ही अपने घर में घुसिए और अपने को ठीक कीजिए।
अपना आत्मबल बढ़ाइए
मित्रो! यह क्या है? अध्यात्म का सारे का सारा कलेवर इसी आधार पर खड़ा किया गया था। उपासना इसी आधार पर थी। योगाभ्यास इसी आधार पर था। तपश्चर्या का सारा का सारा ढाँचा इसी आधार पर खड़ा था। इस संबंध में जिसको जितनी सफलता मिली, वह आध्यात्मिक उद्देश्य को प्राप्त करने में उतना ही सफल हुआ और जो भीतर नहीं घुस सका, आत्मसंशोधन नहीं कर सका, अपने भीतर अपनी लड़ाई नहीं लड़ सका, अपने विरुद्ध अपने आप बगावत नहीं कर सका और अपने आप को ऊँचा उठाने के लिए अपनी कुव्वत नहीं लगा सका, वह कभी नहीं उठेगा और न कभी आत्मबल प्राप्त कर सकेगा। गीताकार ने कहा है—उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। अर्थात हम ही अपने बैरी हैं और हम ही अपने मित्र हैं। हम ही अपना उद्धार कर सकते हैं और हम ही अपने को पतन की राह में धकेल सकते हैं। ये सारी की सारी शिक्षाएँ हमने आपको दी, गायत्री उपासना हमने आपको सिखाई। गायत्री उपासना के साथ में हमने बराबर विचार किया कि—धियो यो नः प्रचोदयात् अर्थात आप अपनी बुद्धि और बल को विकसित करें। साधना करें, तपश्चर्या करें, योगाभ्यास करें और अपने भीतर की लड़ाई—जैसे व्यायामशाला में शरीर को मजबूत करते हैं, जैसे स्कूल में जाकर के अपने दिमाग को मजबूत बनाते हैं, उसी तरीके से आप तपश्चर्या की पाठशालाओं में प्रवेश करें और अपने आप को उसमें तपाएँ। तपा करके जिस तरीके से कच्चा लोहा पक्का बना दिया जाता है, उसी तरीके से आप तप करने का अभ्यास करें। कच्चे लोहे को पकाएँ, पकाकर उसको स्टील बनाएँ, फौलाद बनाएँ और फौलाद के बाद में लौह भस्म बनाएँ। इस तरह एक से बढ़कर एक कीमती चीज बनाते चले जाएँ। यह विशिष्टता तप की आग में ही होती है।
बिना तप के प्राण नहीं है जप में
मित्रो! इन वृत्तांतों के माध्यम से हम अध्यात्म की शिक्षा देते रहे हैं और यह बताते रहे हैं कि यही हमारा आदर्श है। इस मामले में हम और आप आपस में बात-चीत करते रहते हैं, आदान-प्रदान करते रहते हैं। उपासना हमारा मूल लक्ष्य है। अध्यात्म हमारा मुख्य लक्ष्य है। आपकी सेवा और सहायता करना और आपको उस ऊँचाई तक ले चलना, जहाँ तक आदमी को जाना चाहिए, हमारा मूल उद्देश्य है। इसी उद्देश्य के कारण हमारे और आपके बीच का रिश्ता बना हुआ है। इसके अतिरिक्त हमारा आपका रिश्ता क्या है? हमारे यहाँ सामान की कोई खरीद-फरोख्त होती है क्या? कुछ भी नहीं है। एक ही रिश्ता है कि आपकी जीवात्मा को ऊँचा उठाने के लिए हम हर तरह की कोशिश करते हैं, जैसे कि हमारे गुरु ने हमारे साथ में की है। तो गुरुजी! आप ही बताइए कि भविष्य के लिए क्या करना चाहिए? हाँ बेटे! इस समय जहाँ आप खड़े हुए हैं, वहाँ दो बातें सामने हैं। इस समय उनमें से एक बात को कम महत्त्व देना चाहता हूँ और एक बात को ज्यादा महत्त्व देना चाहता हूँ। एक बात तो यह है कि एक तरीके में आप अपने आप से लड़ें, अपने आप को धुनें, अपने हाथों से अपनी धुनाई करें। इसका क्या नाम है? इसका नाम है—तप। तप के द्वारा अध्यात्म-पथ पर हमारा शैतान, जो हमको बार-बार गिराता रहता है, इसके साथ में भगवान की टक्कर करानी है। इसके लिए अपने भीतर एक अंतर्द्वद्व बनाकर खड़ा करें और एक महाभारत खड़ा करें। एक है—साधना, जिसका मूल तरीका यही है। बाहर की क्रिया से आप चाहे जो करते रहें, लेकिन आपका अंतर्जगत अगर घिनौना बना रहा, निकम्मा बना रहा तो बाहर की क्रियाएँ आपके लिए कोई खास सहायता नहीं कर सकेंगी। आप ग्यारह हजार जप कर लें, चाहें उन्तीस हजार जप कर लें, उससे कोई खास काम बनने वाला नहीं है, जब तक आपका अंतरंग विकसित नहीं होता तब तक। इसके लिए एक तरीका यह था कि आप अच्छी उपासनाएँ करते, साधनाएँ करते, भजन करते, लेकिन यह तरीका थोड़ा लंबा था।
कुसंस्कारों को बुहारिए
साथियो! मजबूत तरीका तो यही है, पर है यह लंबा तरीका। बरगद का पेड़ उगाने के लिए बहुत समय लगाना पड़ता है। बरगद का बीज तो जरा-सा होता है और राम-नाम भी जरा सा है, व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए राम का नाम राम की कृपा के रूप में हमारे जीवन में आए, इसलिए उसको अपने अंतराल में बोना पड़ेगा। निरंतर उसकी सिंचाई करनी पड़ेगी, रखवाली करनी पड़ेगी और इंतजार करना पड़ेगा। हमारे गुरुदेव का हमसे चार जन्मों का संबंध है। यह जन्म भी उन्हीं के हिसाब से है। हम बराबर एक कदम के बाद एक निरंतर, बिना निष्ठा खोए, बिना आस्था खोए, बिना धीरज खोए अपने आप की सफाई करते आ रहे हैं, जो कुसंस्कारों के रूप में, पशु-प्रवृत्तियों के रूप में हमारे भीतर जुड़ी थी। उसको हम बुहारते हुए, सफाई करते हुए चले आए हैं। अपने आप में एक रास्ता, एक तरीका यही है कि अपना कमाइए और अपना खाइए। शायद आपने यही पसंद किया हो कि अपने आप करेंगे, अपने आप खाएँगे, अपने आप बढ़ाएँगे। यह भी तरीका अच्छा है कि अपने आप गेहूँ बोएँ और अपने आप खाएँ। इससे अच्छा और क्या हो सकता है? अपने आप अपनी कपास बोएँ और अपने आप अपना कपड़ा बनाएँ। लेकिन इसमें एक ही खराबी है कि आप जितनी जल्दबाजी करना चाहते हैं, उतनी नहीं हो सकती। आप तो सेकंडों में चाहते हैं, लेकिन जो सेकंडों में छा जाता है, उसका नाम है, जादू। बताइए, जादूगर ने मिट्टी से क्या बनाया? यह बन गया रुपया। यह क्या है? जादू है। नाक से प्राणायाम कीजिए और भगवान दिखा दीजिए। जादू हो गया बेटे! आप में से हर आदमी बच्चों के तरीके से चमत्कार देखना चाहता है। बच्चे जादूगरी पसंद करते हैं, तुरंत कमाल देखना चाहते हैं और जवान आदमी इंतजार करते हैं, कोशिश करते हैं। बच्चे आदमी न कोशिश करते हैं, न इंतजार करते हैं। वे तो सेकंडों में चमत्कार देखना चाहते हैं। प्राणायाम कराइए, चमत्कार दिखाइए। मित्रो! ये बचकानी बुद्धि की निशानी है। साथियो! आपको निरंतर अपने आप से लोहा लेने के लिए और संघर्ष करने के लिए साधनाएँ करनी चाहिए। लंबे समय तक इस रास्ते पर चलने के लिए आपको हिम्मत और धीरज के दो कदम बढ़ाते हुए आगे निकलना चाहिए। न अपनी निष्ठा गँवानी चाहिए और न उतावली करनी चाहिए। आप धीरज रखिए। अपने आप का संशोधन करने के लिए बार-बार अपने आप से जद्दोजहद करते हुए, अपनी बुराइयों से लोहा लेते हुए, अपने आप की ज्यादा सफाई करते हुए आप आगे बढ़िए। उपासना द्वारा अपने पर काबू कीजिए। एक रास्ता और भी है। कौन सा है? शॉर्टकट है। शॉर्टकट क्या हो सकता है? शॉर्टकट बेटे! ऐसा होता है कि कई बार अंधे और पंगे की अपनी-अपनी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। जैसे, एक अंधा था और एक पंगा था। दोनों नदी किनारे बैठे हुए थे। दोनों को नदी पार करनी थी। अंधे ने कहा—"भाई साहब! हमको तो दिखाई नहीं पड़ता, हम कैसे पार हो सकते हैं? हम तो डूबेंगे।" पंगे ने कहा—"भाई साहब! कठिनाई हमारी भी यही है कि हमारी टाँगे नहीं हैं। बताइए, हम किस तरह से नदी को पार करेंगे? हम दोनों को यहीं बैठना पड़ेगा। हम दोनों में से कोई नदी नहीं पार कर सकता।" दोनों ने सलाह-मशविरा किया। उन्होंने कहा कि एक और भी तरीका हो सकता है। क्या? हम और आप आपस में सहयोग करें और सहयोग करके नदी को पार करने की कोशिश करें। आइए करें।
बाहुबल व तपबल का युग्म
अंधे ने पंगे को अपने कंधे पर उठा लिया और पंगे ने इशारा करना शुरू किया—भाईसाहब! दाईं ओर चलिए। देखिए, पानी में आगे एक गड्ढा है। आप उधर मत चलिए, बाईं ओर चलिए, बाईं ओर मुड़िए, फिर दाईं ओर चलिए, फिर इधर चलिए। अंधे ने पंगे को पीठ के ऊपर उठा लिया और पंगा रास्ता बताने लगा। आँखों की जरूरत एक ने पूरी कर दी तो टाँगों की जरूरत दूसरे ने पूरी कर दी, दोनों ने एकदूसरे की आवश्यकताएँ पूरी कर दीं। अंधा और पंगा दोनों नदी के पार निकल गए। यह क्या है? बेटे! यह दो ऐसे आदमियों का सहयोग और सहकार है, जिसको एकदूसरे की जरूरत है और दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता। यह क्या तरीका है? यह ऐसा तरीका है, जिसको हम सहकारिता का तरीका कह सकते हैं और आध्यात्मिक उन्नति के क्षेत्र में शॉर्टकट का रास्ता कह सकते हैं। कैसे? देखिए, मैं कई अंधे और पंगों का हवाला देना चाहता हूँ। एक पंगे आदमी का नाम था विश्वामित्र और अंधे आदमी का नाम था—राम। क्या बात कह रहे हैं? बेटे! मैं ऐसे कह रहा हूँ कि एक के पास था—आत्मबल और एक के पास था—बाहुबल। विश्वामित्र ने कहा कि अगर हम रावण से लड़ाई लड़ने जाएँगे तो लड़ाई में मार-काट कर लेंगे, लेकिन हमारा ऋषित्व, आत्मशक्ति नष्ट हो जाएगी। जैसे ही हम क्रोध करेंगे, जैसे ही हमें गुस्सा आएगा, जैसे ही हम खून-खराबा करेंगे, वैसे ही हमारी तपशक्ति नष्ट हो जाएगी।
यही है सफलता की कुंजी
उन्होंने रामचंद्र जी से कहा कि आप क्या करें? आपको तप करने की जरूरत नहीं है। तप की शक्ति आपको हम देंगे और आप क्या काम करेंगे? आप लड़ाई लड़ना शुरू करें। लड़ाने-लड़ने के लिए जिस तप और बाहुबल की जरूरत है, उसके लिए हम और आप आपस में जोड़ा बना लेते हैं। हम आपको तप सप्लाई करेंगे और आप लड़ाई लड़ेंगे। हम डायनामाइट, बंदूकें और कारतूस बना-बना करके आपके पास भेजेंगे और आप मोर्चे पर जाकर के मशीनगन चलाना शुरू कीजिए। मशीनगन हम चलाएँगे, लेकिन हमारे पास कारतूस नहीं हैं। कारतूस हम भेजेंगे। तो कारतूस आपके पास हैं, मशीनगन हमारे पास है। ठीक है, आप कारतूस भेजिए और हम मशीनगन चलाते हैं। दोनों ने अपना-अपना जोड़ा मिला दिया। और जोड़े बताऊँ? मैं आपको और जोड़े बता सकता हूँ। अच्छा बताइए। बेटे! एक जोड़ा और था समर्थ गुरु रामदास और शिवाजी का। समर्थ गुरु रामदास का पंगा और शिवाजी का नाम अंधा था। दोनों ने अपना 'पेअर' मिला लिया। 'पेअर' बना कर समर्थ गुरु रामदास शक्ति की सप्लाई करते चले गए और शिवाजी उनका रास्ता बनाते चले गए। दोनों के संयुक्त मोर्चे ने गजब ढा दिया। अर्जुन और कृष्ण दोनों का रास्ता भी ऐसा ही है। अर्जुन पाँच आदमी थे और दुर्योधन सौ आदमी थे। नहीं बेटे! उनके पास सेना भी थी और पांडव तो अपनी सेना को भी गँवा चुके थे। वनवास में रहते थे। उन बेचारों के पास अपना पेट पालने का गुजारा भी नहीं था। ताकत में वे बहुत कमजोर थे। कहाँ सौ, कहाँ पाँच और जिनके पास रहने का ठिकाना नहीं, उनके पास इतनी बड़ी सेना कहाँ हो सकती थी? क्या मुकाबला है दोनों का? फिर क्या होता चला गया? भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हम आपको शक्ति की सप्लाई करेंगे, लेकिन हम लड़ेंगे नहीं, लड़ेंगे आप। ठीक है। हमारा आपका पेअर' बन जाता है। अर्जुन ने गांडीव सँभाला और कृष्ण ने पांचजन्य बजाया। दोनों ने अपना-अपना काम किया और इतिहास बदल डाला।
'जोड़ों' के ढेरों उदाहरण
बेटे! मैं आपको और इतिहास बताऊँ? कितनी बार बता चुका हूँ। चाणक्य और चंद्रगुप्त का किस्सा मैंने एक बार आपको बताया था। एक बार रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद का किस्सा बताया था। मैंने आपको गांधी और जवाहरलाल नेहरू का किस्सा बताया था। बहुत सारे किस्से हैं, जिनमें कि 'पेअर' जुड़े हुए हैं। समय की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कई बार ऐसा भी होता रहा है कि एक कमजोर आदमी को अपना काम करना पड़ा और किसी शक्तिशाली को अपनी शक्ति का आदान-प्रदान करना पड़ा। बहुत से इतिहास ऐसे ही हैं। हनुमान जी की अपनी स्वयं की कोई उपासना नहीं थी। तप किया था? कोई तप नहीं किया था। ध्यान करते थे? कोई ध्यान नहीं करते थे। तो शक्ति कहाँ से आती थी? शक्ति, बेटे! राम की आती थी। वे राम की शक्ति से उछलते थे और राम की शक्ति से लंका पार करते थे। वे कभी व्यायामशाला में गए थे? नहीं बेटे! कहीं किन्हीं व्यायामशालाओं में नहीं गए थे। उनको इंजीनियरिंग आती थी? कहीं नहीं आती थी। नल-नील ने कहाँ से इंजीनियरिंग पढ़ी थी? कहीं से नहीं पढ़ी थी। तो वे कहाँ से इंजीनियर बन गए? बेटे! वे राम की कृपा से बन गए। राम की कृपा से नल-नील को हाथ-पाँव चलाने पड़े। हनुमान को छलाँग मारनी पड़ी। शक्ति के लिए स्रोत कहीं और से मिलते चले गए। इतिहास में ऐसे बहुत सारे उदाहरण मिलते हैं।
परिवर्तन की वेला
मित्रो! युग की साधना के समय पर प्रायः ऐसा ही होता आया है। युग के परिवर्तन जब होते हैं, तब अक्सर ऐसा होता रहता है कि शक्ति के स्रोत किसी जगह से पैदा करते हैं। जनरेटर की बिजली कहीं से पैदा करते हैं, जिसका इस्तेमाल बहुत सी फैक्टरियों में होता है। बिजली कहाँ पैदा होती है? जनरेटरों में होती है। जहाँ बिजलीघर बने हुए हैं, वहाँ बड़े-बड़े विशालकाय जनरेटर चल रहे हैं और वे हजारों किलोवॉट बिजली पैदा करते हैं। फिर वह खरच कहाँ होती है? खरच बेटे! ट्रांसफॉर्मर में होती है, मीटरों में होती है, पंखों में होती है। यह बहुत जगह खरच होती रहती है। ये अपनी बिजली स्वयं पैदा नहीं कर सकते। हमारा पंखा बिजली पैदा नहीं कर सकता, चल सकता है। और जनरेटर? नहीं, साहब! पंखा चला दीजिए। नहीं, हम पंखा नहीं चला सकते। पंखे के लिए आपको अलग मीटर लगाना पड़ेगा, अलग फिटिंग करनी पड़ेगी। हमारा काम अलग है और वह काम अलग है।
हमें भी लगानी पड़ी ताकत
इस तरीके से मित्रो! युग-साधना का जो कृत्य आपके सामने है, उसमें हमारा एक उदाहरण आपके सामने है। इस समय जो कुछ भी काम करने पड़े हैं, जीवन में उसके लिए बहुत ताकत की जरूरत पड़ी है। आप समझते हैं कि यह सब ऐसे ही हो गया है? नहीं बेटे! ऐसे ही नहीं हुआ है। अपने जीवन को परिष्कृत करने के लिए हमें बहुत ताकत खरच करनी पड़ी, ताकि ये तलवार, जिससे कि लड़ाई लड़ी जाने वाली है, अच्छे लोहे से ढाली जा सके और अच्छा लोहा बनाया जा सके। अपने आप को गरम करने के लिए, इस पर टेंपर चढ़ाने के लिए, इसके ऊपर शान चढ़ाने के लिए, इसके ऊपर नॉब निकालने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी। अपने आप की सफाई करने में ही शायद हमारी शक्ति खरच हो गई, इसके अलावा और क्या काम करने पड़े? ढेरों काम करने पड़े। उन कामों की तादाद गिनाने लगें तो आपका बहुत समय खरच हो जाएगा। बेटे! हमें बहुत काम करने पड़े। और आगे? आगे भी हमें यही बहुत से काम करने पड़ेंगे, जिनमें एक काम यह भी शामिल है कि हम आपकी सेवा-सहायता करें। भौतिक दृष्टि से भी आपकी सेवा-सहायता करें, आपके दुःख और कष्टों में भी कुछ सहायता करें, मदद करें और आपकी आत्मा को ऊँचा उठाने के लिए भी कुछ हिम्मत और बल प्रदान करें। एक काम यह भी है। इसमें कितनी ताकत खरच होती है, आप तो बस अंदाज लगा लीजिए। दो लाख आदमी पहले थे। इसके बाद चौबीस लाख के करीब इस साल होने वाले हैं। अगर एक-एक छटाँक हर एक के लिए खरच करना पड़ता हो तो आप जरा अंदाजा तो लगाइए। हमारे पास हर आदमी आता है, कोई मुसीबत लेकर आता है। शरम से चाहे कहता है, चाहे नहीं कहता, सोचता है कि अपनी इज्जत बचाने के लिए गुरुजी कड़ुए शब्द इस्तेमाल करते हैं, इसलिए इनसे कहने से क्या फायदा! ये न करेंगे तो ठीक, करेंगे तो भी ठीक, इसलिए हम न कहें तो अच्छा है। ढेरों आदमी ऐसे आते हैं, जो कहते कुछ नहीं, परंतु विश्वास लेकर आते हैं। श्रद्धा लेकर आते हैं। बेटे! आप समझते नहीं, हम समझते हैं।
आशीर्वाद की भी है कीमत
तो महाराज जी! आप सहायता नहीं करेंगे? बेटे! हम सहायता जरूर करेंगे। तो फिर क्यों लोगों को धमका देते हैं? धमका इसलिए देते हैं कि आपको अपने स्वाभिमान का ज्ञान हो और आपको परिस्थिति का ज्ञान हो। मुसीबतों से दूर होना और सुख को पाना, किसी न किसी के बल पर मयस्सर होता है। हम अपनी ताकत खरच करें, इससे अच्छा है कि इसके लिए आप अपनी ताकत खरच करें। हम इसलिए धमकाते हैं कि आप यह समझते हैं कि यह सब फोकट में हो जाते हैं। आप हर चीज को फोकट समझते हैं। गुरुजी का आशीर्वाद फोकट, गुरुजी का तप फोकट, अमुक क्रिया-कलाप फोकट, आप सबको फोकट का समझते हैं। बच्चा सब चीज फोकट की समझता है। वह गुब्बारा फोकट का, रेल फोकट की, मिठाई फोकट की समझता है। बच्चा समझता है कि ये सारी चीजें फोकट में मिलती हैं। क्यों साहब! रेल की चाबी फोकट में आती है? हट, फोकट में नहीं, साढ़े तीन रुपये में लाए हैं। बच्चा समझता था कि ये फोकट का है। तू भी तो पागल है। समझता है कि आशीर्वाद फोकट में मिलते हैं। हाँ, फोकट में मिलते हैं आशीर्वाद? इसके लिए कितनी मेहनत करनी पड़ती है, शक्ति खरच करनी पड़ती है, तू समझता नहीं है।
हमारे बॉस' से आती है ताकत
मित्रो! बहुत शक्ति खरच करनी पड़ती है। अपनी जिम्मेदारियों, कर्तव्यों को निभाने के लिए, आपकी सांसारिक सहायता करने के लिए और आपको ऊँचा उठाने के लिए हमको ताकत खरच करनी पड़ती है। यह ताकत कहाँ से आती है? कहीं से आए, चाहे घी खा करके आए, चाहे व्यायाम करके आए, कहीं से आए, कहीं न कहीं से इकट्ठी करनी पड़ती है। हमारे पास ताकत कहाँ से आती है? इतने लोगों की सेवा करने के लिए, सहायता करने के लिए, ऊँचा उठाने के लिए और युग की समस्याओं का समाधान करने के लिए, नए युग का अवतरण करने के लिए भगीरथ के तरीके से साधना करने के लिए, समाज की दिशाधारा को मोड़ देने के लिए, बहुत सारे संस्थान खड़े करने के लिए, बहुत सारे संस्थानों की व्यवस्था करने के लिए ताकत कहाँ से आती है? हम आपको यकीन दिलाते हैं कि यह जो ताकत आती है, वह आध्यात्मिक ताकत है और यह हमारी कमाई हुई नहीं है। कहाँ से आती है? यह हमारे 'बॉस' के पास से आती है। हमने उनके पास अपना बीमा कराया हुआ है।
(क्रमशः समापन अगले अंक में)
(समापन किस्त)
[प्रथम दो कड़ियों में युगपुरुष परमपूज्य गुरुदेव ने कहा कि संसार की सबसे बड़ी शक्ति आत्मबल है। अपने आप से लड़ना ही तप है। यह परिवर्तन की वेला है। इसमें सर्वाधिक आवश्यकता पड़ेगी आध्यात्मिक ताकत की। अगणित व्यक्तियों की जब युग-साधना में भागीदारी होगी तो निश्चित ही युग-परिवर्तन होगा। अब समापन किस्त में अंतिम भाग इस विशिष्ट प्रवचन का प्रस्तुत है।]
हमारा बीमा है गुरु के साथ
मित्रो! आपको मालूम नहीं है कि पहले बीमा कंपनियाँ थीं। उनमें क्या होता था? वे छोटी-छोटी कंपनियों, प्राइवेट कंपनियों का और ढेरों लोगों का बीमा कर डालती थीं। किसी रात वे फेल हो जाएँ, उन्हें मलेरिया और एन्फ्लुएंजा हो जाए और दस हजार आदमी मारे जाएँ और उन्हीं में बीमा कंपनी के वे मेंबर भी हों तो बीमा कंपनी का दिवाला निकल जाएगा; क्योंकि इतने आदमियों का क्लेम जो है। तब क्या होता था? दिवाला नहीं निकलता था, क्योंकि वे उससे आगे वाली समर्थ बैंक में अपना बीमा कराते थे। छोटी बीमा कंपनियाँ अपने सारे बीमों को बड़ी कंपनी में कराती थीं और उसको अपना 'प्रीमियम' देती थीं। उससे बड़ी कंपनी औरों का बीमा करा देती थी, ताकि कभी मुसीबत आ जाए तो बड़ी बीमा कंपनी छोटी की राशि चुका दे। छोटी उससे छोटी का चुका दे। बेटे! इस तरीके से हमने अपना बीमा कराया हुआ है। कहाँ कराया हुआ है? बहुत बड़ी बैंक के साथ कराया हुआ है, जिसको आप हमारे गुरुदेव के रूप में जानते हैं। शक्ति कहाँ से आती है? बेटे! वहीं से आती है, जहाँ हमारा शक्ति का जखीरा है, भंडार है। हम क्या करते हैं? हम उसमें से खरच करते हैं, पर उनकी मरजी के मुताबिक खरच करते हैं। अपनी मरजी से नहीं खरच करते। अपनी मरजी से खरच करना शुरू करेंगे तो यह अमानत में खयानत मानी जाएगी। उनकी संपदा को उनके लिए खरच करते हैं। यह काम हमारा है। श्रेय हमको मिल जाता है, जैसे मेहँदी बाँटने वाले के हाथ लाल हो जाते हैं और इस मेहँदी को बाँटने में हमारा हाथ लाल हो जाता है।
प्राणवान रिश्ते हैं ये
मित्रो! जहाँ से पाते हैं, उसी निमित्त खरच कर देते हैं। हम इसको पीसते हैं और पीसने में कभी-कभी अच्छा मालूम पड़ता है। पैसा बाँटने वाले मुनीम जी बहुत खुश होते हैं। लीजिए साहब! मुनीम जी! हमको भी हजार रुपये मिलेंगे? हाँ साहब! आपको भी देंगे। मुनीम जी! आप कौन हैं? राजा कर्ण हैं। लीजिए, आप तो हजार के स्थान पर दो हजार रुपये ले जाइए और अपने भतीजे को दे दीजिए। बाईस रुपये मकान के किरायेदार को दे दीजिए। नहीं साहब! अभी नौकरी मिलेगी, तभी किराया दे दूँगा। क्यों साहब! अभी तो आप अस्सी हजार रुपये दे रहे थे और अब आप सोचकर अस्सी रुपये भी किराये के नहीं दे रहे हैं? अरे भाई! जब नौकरी आएगी, तब दूँगा। क्यों? अभी तो कर्ण बन रहे थे। कर्ण तो इसलिए बन रहे थे कि वह गवर्नमेंट का पैसा था, इसमें से तकाबी आपको कैसे दे देते। यह किसकी बात कह रहे हैं। बेटे! हम अपने को मुनीम जी कहते हैं और गुरु का दिया हुआ बाँटते रहते हैं। क्यों बाँटते रहते हैं? उन्होंने हिस्सा ऐसा बना लिया है, शाखा ऐसी बना ली है, जो हमारे और हमारे गुरु के बीच में एक मजबूत संबंध बने हुए हैं। इस मजबूत संबंध का आधार क्या है? कुछ आधार तो है, बिना आधार के संबंध नहीं बन सकते। नहीं साहब! अपने गुरुजी से हमारा भी संबंध बनवा दीजिए। नहीं बेटे! हम नहीं बनवा सकते। क्यों? क्योंकि इसके कुछ 'टर्म्स' हैं, कुछ शर्ते हैं। आप उन शर्तों को पूरा करें तो हम अभी मिला सकते हैं। शर्ते क्या हैं? वही हैं, जो अभी हम आपसे कहने वाले थे। वे हैं आदान-प्रदान की, कठपुतली और बाजीगर की। बाँसुरी और बजाने वाले के बीच में जो रिश्ते हैं, वही उसके और हमारे रिश्ते हैं। उन्हीं रिश्तों में से हम काम चलाते रहते हैं।
सच्चा 'शार्टकट'
महाराज जी! आप क्या कह रहे थे? बेटे! मैं आपके बारे में कह रहा था कि आप चाहें तो आप भी इस रास्ते को अख्तियार कर सकते हैं और आपके लिए यह शार्टकट है। अगर आप लंबी उपासना न कर सकते हों तो जैसे कि हमने आपको बताया कि वह कठिन रास्ता है। आप जितनी जल्दबाजी करते हैं, उतावली करते हैं, उतनी उतावली और जल्दबाजी से कुछ फायदा नहीं हो सकता। प्राणायाम कराइए, भगवान दिखाइए। अरे, बके मत, नाक में से फेफड़े में साँस जाती है और फेफड़ा मुआ मोटा हो जाता है। नहीं साहब! प्राणायाम से भगवान मिल जाएँगे। बेटे! इतना सस्ता नहीं है, जितना कि तू समझता है। बच्चों के से खेल खेलता है और न जाने क्या-क्या माँगता है। सिद्धि मिल जाए, भगवान मिल जाए, पैसा मिल जाए, बेटा मिल जाए और न जाने क्या-क्या कानी-कौड़ी के बराबर करता रहता है। उपार्जन और तैयारी में कोई संबंध है नहीं और हवाई किले बनाने में मशगूल रहता है। ग्यारह-ग्यारह माला जप करता है और चाहता है कि इसकी वजह से सब कुछ मिल जाए। बेटे! इससे रत्ती के बराबर से ज्यादा क्या मिलेगा?
गुरु से जोड़ी बनाने का चमत्कार
इसलिए मित्रो! मैं क्या कह रहा था कि दूसरा तरीका आपके लिए ज्यादा अच्छा है, जो मेरे जीवन में मुझे मिला। मैं चाहता हूँ कि आप भी उसी रास्ते को अख्तियार करें। विवेकानंद नित्य दो घंटे ध्यान करते थे। विवेकानंद के बारे में मुझे सबसे अधिक जानकारी है। रामकृष्ण परमहंस उनके नजदीक थे और दैनिक उपासना में उनका मात्र दो घंटा लगता था। दो घंटे से ज्यादा ध्यान उन्होंने कभी नहीं किया। फिर भी वे शक्ति के पुंज हो गए, शक्ति के जखीरे हो गए। नहीं साहब! उन्होंने साधना की थी! कहाँ की थी उन्होंने साधना? पहले स्कूल में विद्यार्थी रहे। विद्या प्राप्त करके थोड़े दिन वे रामकृष्ण परमहंस के पास रहे। फिर उन्हें विदेश भेज दिया गया। कब की थी उन्होंने साधना? कौन सा अनुष्ठान किया था, बताना जरा? अच्छा, कोई साधना नहीं की थी तो कहाँ से आती थी शक्ति? बेटे! रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद के बीच एक ऐसा समझौता हो गया था कि आप एक काम करें और हम एक काम करें। हम शक्ति का उपार्जन आपके लिए करेंगे और उस शक्ति का उपयोग आप हमारे अनुसार करेंगे। बेटे! कभी-कभी ऐसे सौभाग्यशाली 'पेयर' किसी-किसी को मिल जाते हैं। जैसे हम भी उन्हीं में शामिल हैं और ऊपर जो नाम हमने बताए हैं, वे भी उसी में शामिल हैं। जैसे अंधे और पंगे की जोड़ी मिलकर आगे बढ़ने में समर्थ हो सकी। एक तरीका यह है शार्टकट का।
शरीरबल, मनोबल, आत्मबल का तीर्थराज
दूसरा तरीका बेटे! वह था, जो हमने आपको पहले बताया था। हमने आपसे कहा था कि कायदे से आप अपने शरीरबल और मनोबल का संग्रह करें। ब्रह्मविद्या के द्वारा कायदे से अपने बुद्धिबल और विवेकबल का संग्रह करें और कायदे से योगाभ्यास और तप के द्वारा अंतःकरण की गंगा-यमुना को परिष्कृत करें। अपनी कमाई से, अपने पुरुषार्थ से, अपनी योग्यता से आगे बढ़ें, लेकिन अगर आप इतने लंबे रास्ते को कठिन समझते हों तो हमेशा तो नहीं, खासतौर से इस समय ऐसा मौका है, ऐसी गुंजाइश है कि उस तरीके से आप रास्ता पार कर सकते हैं। वह तरीका यह है कि आप अंधे और पंगे का जोड़ा मिला लें तो कम परिश्रम में ज्यादा फायदा उठा सकते हैं, जैसे कि हमने कम परिश्रम में ज्यादा फायदा उठाया। इससे पहले और भी जिन लोगों के नाम आपको गिनाए हैं, उन्होंने भी कम परिश्रम में ज्यादा फायदा उठाया है। वे समझदार थे, उन्होंने अपने आप को दूसरे के तईं मिला लिया। गंगा अपने आप में अलग है और यमुना अपने आप में अलग है, लेकिन जब दोनों की आपस में मुलाकात हो गई और सरस्वती भी मिल गई तो त्रिवेणी संगम बन गया। जब दोनों अलग रहती तब? तब त्रिवेणी नहीं बनती। गंगा का माहात्म्य अलग है और यमुना का माहात्म्य अलग है और त्रिवेणी का माहात्म्य दोनों से ज्यादा है। तुलसीदास जी ने कहा है—"मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला ॥" यह क्या बात है? त्रिवेणी का प्रतिफल है। त्रिवेणी बन सकती है? हाँ। कैसे बन सकती है? जब वे शामिल हो जाएँ तब। और न मिलें तो? तो गंगा अपनी जगह पर ठीक है और यमुना अपनी जगह पर ठीक है, पर त्रिवेणी नहीं बन सकती। तीर्थराज नहीं बन सकता। आप चाहें तो तीर्थराज बन सकते हैं। तीर्थराज बनने की यह दावत देने के लिए ही हमने आपको यहाँ बुलाया है।
युग बदलने वाली शक्ति है सूक्ष्म
मित्रो! हमने आपको यहाँ इसलिए बुलाया है कि आप समझ सकें कि एक ऐसी शक्ति है, जो युग बदलने के लिए काम करना चाहती है। वह शक्ति सूक्ष्म है। आप क्या हैं? आप स्थूलशक्ति हैं। आप भुजाएँ हैं, आप कलाइयाँ हैं, आप अक्ल हैं, आप साधन हैं, आप श्रम हैं और आप स्थूल हैं। सूक्ष्मसत्ता ऐसी है, जो आपकी जगह पर नहीं बैठ सकती, जैसे कि हमारे गुरुदेव हैं। वे हमारी तरह व्याख्यान नहीं कर सकते और लेख नहीं लिख सकते। लेख लिखना और व्याख्यान करना शुरू करेंगे तो उनकी तपश्चर्या का आधार समाप्त हो जाएगा। इसलिए हमको वह काम करना पड़ता है। दोनों मिलकर के काम करते हैं। आपके लिए भी यही तरीका, यही ढंग ज्यादा अच्छा है। आप जो उपासनाएँ करते हैं, पंचकोशी उपासनाएँ अथवा कुंडलिनी जागरण के नाम पर हमने जो बताई हैं, वे बहुत अच्छी हैं, लेकिन वे इतनी सरल नहीं हैं, जैसे कि आप समझते हैं। वे क्रियाएँ नहीं हैं, आप फिर ध्यान रखना। उनमें ढलना पड़ता है और गढ़ना पड़ता है। अपने मन को ढालना पड़ता है और अपने अंत:करण को गलाना पड़ता है। नहीं साहब! शरीर से, क्रिया से हो जाएगा। शरीर से नहीं होता, बेटे! शरीर से करना पड़ता है। शरीर तो उसका माध्यम है, उसका तरीका है। आप तो हमेशा यही पूछते हैं कि शरीर से क्या करें? अच्छी तरह सोइए, उठिए, काम कीजिए और ईमानदारी से मेहनत कीजिए। नहीं साहब! शरीर से बताइए। आपको शरीर से क्या बताएँ, शरीर का कोई विषय ही नहीं है। यह मन का विषय है, बुद्धि का विषय है, भावना का विषय है और आत्मा का विषय है और आप पूछते हैं शरीर का विषय। शरीर की साधना से हम आपको कैसे अच्छा कर दें?
युग-साधना में भागीदारी की दावत
महाराज जी! हमने ग्यारह हजार का जप कर लिया। तो बेटे! हम क्या कर सकते हैं ग्यारह हजार से? आपने अपने चिंतन का परिष्कार किया कि नहीं? नहीं, वह तो नहीं किया। और भावनाएँ? भावनाएँ भी नहीं हुईं। क्रियाएँ तो की और उन क्रियाओं से शरीर को फायदा हुआ होगा। आपने शीर्षासन किया है तो ठीक है। शायद उससे आपकी कमर का और रीढ़ की हड्डी का दरद बंद हो गया हो। पद्मासन किया है तो शायद घुटनों की शिकायत दूर हो गई हो। प्राणायाम किया है तो संभवत: आपके फेफड़ों में कुछ फायदा हुआ हो। शारीरिक क्रियाएँ तो बेटे! शरीर तक सीमित हैं। हम तो मनोवृत्तियों की बात कहते हैं। अगर आपको वे साधनाएँ करने में कठिनाई मालूम पड़ती हो तो हम आपको एक ही दावत दे रहे थे, एक ही बात कह रहे थे कि इससे अच्छा मौका फिर कभी नहीं मिल सकता। आज के युग में हमने युग साधना के काम किए हैं। जैसे कि विरजानंद ने स्वामी दयानंद के जिम्मे कुछ काम सौंपे थे, हम भी आपके जिम्मे कुछ काम सौंपते हैं। शक्ति हमारे पास नहीं थी। हमारे पास मामूली विद्या थी, किंतु हमारे गुरु की दी हुई भरपूर शक्ति है। इसलिए हम वायदा करते हैं कि आपको शक्ति देंगे। शर्त एक ही है कि किस काम के लिए आप माँगते हैं। जिस काम के लिए हम चाहते हैं, उस काम के लिए आप माँगेंगे तो हम आपको शक्ति देंगे। तो हमारा क्या फायदा होगा? आपने चाहा और हमने खरच कर लिया, फिर हमारे हिस्से में क्या आया? हमारे हिस्से में क्या आया, बेटे! आप देख सकते हैं हमारे बारे में कि हमको क्या मिला है। कुछ मिला है क्या? आपको कुछ विशेषता मालूम पड़ती है हममें? कुछ विशेषता नहीं मालूम पड़ती। हमने पाया और किसी प्रयोजन में खरच कर दिया। हमको कुछ मिला कि नहीं मिला, आप यह नहीं समझ सकते। हम इस हाथ से इधर से लेते हैं और उस हाथ से बाँट देते हैं। परंतु हमारे हिस्से में कुछ आया क्या? आप अंदाज लगा लीजिए। आपको भी मिल सकता है।
हम आपको 'आत्मबल' बाँटने को बुलाते हैं
मित्रो! आप जो पाना चाहते हैं, वह आपको भी मिल सकता है, लेकिन शर्त यही है कि अगर आप अपने लिए पाना चाहते हैं तो आपको मायूसी हाथ लगेगी और निराशा हाथ लगेगी। आप गंगा के तरीके से हिमालय से पानी ले लीजिए और खेतों के लिए बहा दीजिए। आपको हम गंगा कहेंगे। हिमालय से पानी लेकर के आप अपने गड्ढे में भरेंगे तो हम आपको तालाब कहेंगे और झील कहेंगे, फिर आपको गंगा नहीं कह सकते। गंगा वो है, जो निरंतर बहती रहती है। इसलिए आप शक्ति लीजिए। शक्ति माँगने की नहीं, शक्ति देने की हम आपको दावत देते हैं। आपसे कुछ माँगते नहीं हैं। अगर आप सोचते हों कि गुरुजी ने बुलाया है तो हमसे ग्यारह रुपये माँगेंगे, तो बेटे हम आपसे माँगते नहीं हैं। नहीं साहब! आप हमसे कुरता माँगेंगे। बेटे! हम कुरता नहीं माँगेंगे। नहीं साहब! आपकी गायत्री तपोभूमि डूब गई है। नहीं बेटे! चाहे गायत्री तपोभूमि डूब जाए, चाहे हम डूब जाएँ, हम आप लोगों से भिखारी के तरीके से न आज माँगने वाले हैं और न कल माँगने वाले हैं। आप कुछ माँगेंगे? आप क्या समझते हैं हमको, भिखारी समझते हैं और अपने आप को कोई बड़ा दानी या बिरला सेठ समझते हैं। बेटे! हम आपसे नहीं माँगते हैं। तो आप हमें किसलिए बुलाते हैं? बेटे! हम आपको देने के लिए बुलाते हैं। आप चाहें तो आत्मबल लेकर जा सकते हैं। आप चाहें तो मानवपूर्ण गरिमा लेकर जा सकते हैं। आप चाहें तो आत्मशांति लेकर जा सकते हैं। आप चाहें तो महान जीवन लेकर जा सकते हैं।
पात्रता-विकास हेतु थे ये सभी कृत्य
मित्रो! ये सब चीजें हमारे पास हैं। इनको लेने की पात्रता विकसित कर लें तो अच्छा है। लेने की पात्रता आप विकसित कर पाते हैं कि नहीं, यह परीक्षा लेने के लिए हमने आपके सामने छोटे-छोटे कृत्य रख दिए। कौन से वाले? जिनके लिए हमने आपको बुलाया है। छोटे-छोटे कृत्य हैं, जैसे—कोई हवन करेगा, कोई जप करेगा। ठीक है किसी ने जप कर लिया और किसी ने हवन कर लिया तो इससे हमें क्या मिला? बात आपकी भी सही है। तो हम आपकी बात का आपके ढंग से भी जवाब देने के लिए तैयार हैं। साहब! क्या जवाब है? बेटे! जवाब यह है कि आपमें से किसी को बीमा कंपनियों के बारे में जानकारी है क्या? बीमा एजेंट के बारे में कुछ जानते हैं आप? बीमा एजेंट काम करता रहता है। क्या करता रहता है? बीमा करा दिया, बीमा करा दिया.......। क्यों भाई साहब! आप तो बड़े दयालु हैं। हाँ साहब! हम बड़े दयालु हैं। देखिए आपकी जिंदगी का रिस्क गवर्नमेंट से लगा दिया है और बीमा कंपनी से जोड़ दिया है। आपको क्या फायदा है? हमको यह फायदा है कि आपका जो प्रीमियम जमा होता है, उसमें से ४ प्रतिशत एन्युॲल कमीशन हमें हर साल मिल जाता है। यह एन्युॲल कमीशन क्या है? एन्युॲल कमीशन उसे कहते हैं कि आपको चार सौ रुपये का प्रीमियम देना पड़ता होगा तो कंपनी को सोलह रुपये चुपचाप हमारे खाते में जमा करने होंगे। सोलह रुपये साल के हिसाब से यदि हमने पाँच सौ आदमी का बीमा करा दिया तब? तब सोलह पंजे अस्सी अर्थात आठ हजार रुपया महीना हो गया।
आपके फायदे की बात
क्यों साहब! आप कहीं गए थे? कहीं नहीं गए थे। तब फिर यह कहाँ से आ गया? यह बेटे! कमीशन आ गया। कमीशन किस बात का? कमीशन इस बात का कि हमने एक आदमी का क्लेम बीमा कंपनी से जोड़ दिया था और बीमा कंपनी ने हमको एजेंट मान लिया और हमारी एजेंसी के खाते में हमारा प्रीमियम जमा करना शुरू कर दिया। किसने शुरू कर दिया? बीमा कंपनियों ने। बेटे! बैंकों में यही हो रहा है। अगर आपमें से कोई आदमी बेकार हो, आपको कुछ काम न हों तो आप बैंकों की या बीमा कंपनियों की नौकरी कर सकते हैं। क्या नौकरी है? आप बचत खाता खोलिए और रोजाना आठ आना जमा कीजिए। भाई साहब! बैंक में जमा हुआ यह पैसा बुढ़ापे में काम दे जाएगा। यह आपका फिक्स डिपॉजिट होगा और आपके बच्चे की ब्याह-शादी में काम आएगा। अच्छा साहब! जमा करेंगे। देखिए हमने कितनी फायदे की बात बताई और आप कहें तो मैं बैंक में से फार्म ले आऊँ और आप कहें तो बैंक में से पासबुक ले आऊँ। आप क्यों कष्ट करेंगे। नहीं साहब! देखिए हम कल ले आएँगे। लीजिए साहब! आप अब रोज आठ आने जमा कीजिए। देखिए जमा होकर वह दो गुना हो जाएगा। फिर इसका इतना ब्याज मिलेगा और फिर इसका सर्टीफिकेट मिल जाएगा और आपको इनकम टैक्स भी नहीं देना पड़ेगा।
आपकी समझ में आ जाए उसी भाषा में कहा
मित्रो! हम क्या कह रहे थे? बचत योजना के अंतर्गत अल्पबचत जमा कराने की स्कीम आपको बता रहे थे। किसकी? बैंकों की। क्यों साहब! इसमें हमको क्या फायदा होगा? हमने जमा कर दिया, बैंक में जमा हो गया। नहीं साहब! हमारा तो कोयले की दलाली में हाथ काला हो जाएगा। बेटे! कोयले की दलाली में हाथ काले होने की बात नहीं है। तू मेहनत कर और तुझे भी हर महीने, पाँच सौ, आठ सौ, हजार रुपये मिलते रहेंगे। मैं कई आदमियों को जानता हूँ, जो हजार रुपये महीने कमा लेते हैं। नौकर होंगे? नौकर नहीं हैं तो किस बात का कमाते हैं। कमीशन मिलता है। लोगों से लेकर बैंक में जमा करा देने से कोयले की दलाली में हाथ काले नहीं होते हैं, यह कमीशन हो जाता है। ब्रोकर कमीशन हैं ये। आप क्या कह रहे थे? ब्रोकर कमीशन। चलिए यही मान लीजिए। किसके बारे में कह रहे थे? यही कह रहा था कि जो स्कीमें आपको दी हैं, जो योजनाएँ आपको दी हैं। आपको जो पच्चीसकुंडी यज्ञ दिए हैं, उनको आप समझ लीजिए कि भगवान के बैंक में आपने लोगों का पैसा अल्पबचत योजना में जमा कर दिया। अब तो समझ में आई बात कि नहीं आई? अरे साहब! आप कैसी घटिया बात कह रहे हैं। घटिया बात इसलिए कह रहा था कि आपका दिमाग तो सदा यही कहता रहता है कि इससे हमारा क्या फायदा होगा। आपके फायदे की ही बात मैं आपकी भाषा में बता रहा हूँ। इसमें आपका ही फायदा है। 'बाटन वारै कै लगै, ज्यों मेहँदी को रंग।' अर्थात पीसने वाले के हाथ में मेहँदी का रंग आ जाता है, कोयले की दलाली करने वाले के हाथ काले हो जाते हैं और सुगंध की दुकान खोलने वाले के कपड़े खुशबूदार हो जाते हैं, तो आपको क्यों नहीं फायदा मिलेगा? फायदा होगा। क्या फायदा होगा यह बात इस समय हम नहीं बताते।
इनाम परिश्रम का मिलेगा
साथियो! हम आपको यकीन दिलाते हैं कि आपका जो श्रम, आपका जो परिश्रम, आपकी जो मेहनत उन कामों में खरच होने वाली है, उससे आपको दो फायदे मिलने वाले हैं—एक तो आप भगवान के क्रिया-कलापों में सहायक होने के पश्चात अर्जुन के तरीके से, हनुमान के तरीके से और दूसरे लोगों के तरीके से सहायता पाने के हकदार भी हो जाएँगे। एक फायदा आपको यही होगा और दूसरा फायदा यह होगा कि संसार में जितना भी धन एकत्रित होगा, जितने भी शुभ काम होंगे, जितनी भी अच्छाइयाँ उत्पन्न होंगी, उनमें आपको बैंक के हिसाब से एन्युॲल कमीशन मिल सकता है। दोनों तरीके से हर हालत में आपको फायदा ही होगा, नुकसान कुछ भी नहीं है। हमने आपको एक अच्छे नफे के सौदे के लिए बुलाया। इसमें अपनी पूँजी लगाने के लिए आपको श्रम जरूर लगाना पड़ेगा, मेहनत जरूर करनी पड़ेगी। नहीं गुरुजी! हम मेहनत भी नहीं करेंगे और श्रम भी नहीं करेंगे। तब बेटे! मुश्किल है। नहीं साहब! आप तो इतना और कर दीजिए कि आपके यहाँ बीमा कंपनी का कमीशन तो मिलता ही है, उसमें से हमको भी कमीशन दे दिया कीजिए। नहीं बेटे! हम ऐसा नहीं करेंगे। अगर तू भाग-दौड़ करेगा तो तेरा कमीशन पक्का है। गुरुजी! भाग-दौड़ तो हम नहीं कर सकते। नहीं बेटे! भाग-दौड़ का ही तो इम्तहान है और किस बात का इम्तहान है? जब पटरियों पर अरबी घोड़े भागते हैं तो इन्हीं का तो इम्तहान होता है और इसमें है ही क्या? भागने का ही तो इनाम मिलता है। नहीं साहब! इनाम मिलेगा। इनाम तो मिलेगा, पर बेटे! भागने का इनाम मिलेगा।
आपके संकल्प इसी शर्त पर सफल होंगे
मित्रो! हम आपके जिम्मे क्या सौंपते हैं? हम आपसे संकल्प कराते हैं और संकल्प कराने के बाद में यह इम्तहान लेते हैं कि आपने भाग-दौड़ कितनी की। आपकी सफलता की कितनी गारंटी है? आपकी गारंटी भाग-दौड़ की है। आप भागे कि नहीं भागे, आपने कोशिश की कि नहीं की, आपने मेहनत की कि नहीं की? आप इसी एक प्वाइंट पर फेल हो जाएँगे और इसी पर हम आपको पास कर देंगे। चलिए, सफलता मिली कि नहीं मिली, उसको आप जाने दीजिए। सफलता दिलाना जिसका काम है, वह आपको सफलता दिला देगा। आप तो अपना संकल्प लेकर जाइए और परिश्रम करने की शपथ लीजिए कि पूरी-पूरी शक्ति से काम करेंगे और उसमें अपनी शारीरिक और मानसिक किसी तरह से कमी नहीं आने देंगे। हमने आपको अच्छा काम सौंपा है और जिसके लिए दो इशारे किए हैं, जो उसकी अपेक्षा ज्यादा लाभदायक है कि आप अपना शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बल अपने हाथ से बढ़ाएँ। अच्छा तो वही था, लेकिन वह लंबा रास्ता था, कठिन रास्ता था। उसके लिए धीरज और हिम्मत दोनों रखने की जरूरत थी और लंबे समय तक तप करने की जरूरत थी। आपको उसमें उतावली नहीं करनी चाहिए थी। यह मौका भी ऐसा है कि जिसमें आप उतावली करना भी चाहें, कम हिम्मत से भी काम करना चाहें तो आप किसी महाशक्ति के साथ में अपने आप की साझेदारी बना सकते हैं और वह फायदा उठा सकते हैं, जो दूसरे लोगों ने उठाया और जो फायदा हमने उठाया। आप चाहते हैं कि आप भी उसी तरीके से फायदा उठा लें, तो उसमें हानि कम है और लाभ ज्यादा है। इतना ही निवेदन करके मैं आपको विदा करता हूँ। आप चाहें तो अपनी बुद्धिमानी का परिचय मुझे दे सकते हैं और यह जो आयोजन एवं संकल्प आपने लिए हैं, उनको सफल बनाने के लिए कोशिश कर सकते हैं।
॥आज की बात समाप्त॥
॥ॐ शान्तिः॥