उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।।
मनुष्य के निर्माण में है भगवान की मेहनत
देवियो, भाइयो ! भगवान ने मनुष्य का जीवन, मनुष्य का शरीर, मनुष्य का मन एक विशेष उत्साह और आकांक्षा के साथ बनाया। अन्य जीव-जन्तुओं को भी बनाया, पर भगवान ने किसी जीव के साथ उतना परिश्रम नहीं किया। भगवान ने थोड़ी सी मिट्टी उठायी और बनाकर रख दिया। यह क्या बना दिया? साँप बना दिया। उसके हाथ? हाथ की जरूरत नहीं है। पैर? पैर की जरूरत नहीं है। कान? कान की जरूरत नहीं है। नाक? नाक की जरूरत नहीं है।
भगवान ने जल्दी में ऐसे ही मिट्टी से मूर्तियाँ बना करके फेंक दीं। उसने दूसरे जानवर बनाये, तीसरे जानवर बनाये, पक्षी बनाये और दूसरी प्राणी बनाये और जल्दी-जल्दी में बना-बना करके फेंकते गए। उनके अंदर न अक्ल थी, न विचार करने की क्षमता थी परंतु मनुष्य का यह शरीर कितनी तैयारी के साथ बनाया गया।
मनुष्य को बनाने में भगवान ने बहुत मेहनत की है। हमारी आँखों में जो लेंस है, उसके जैसा लेंस सारी सृष्टि के किसी कैमरे में नहीं है। दुनिया में एक-से बढ़िया कैमरे हैं, पर मनुष्य की आँख का जैसा बढ़िया लेंस नहीं है, वैसा बढ़िया लेंस और कहीं नहीं है। वैज्ञानिक चंद्रमा पर गए हैं और उसका फोटो लेकर आए हैं। आसमान में उड़ते हुए जहाज और पृथ्वी पर रहने वाले अदृश्य चीजों के फोटो ले करके आते हैं। इस तरह एक-से-एक बढ़िया कैमरे हैं, पर मनुष्य की आँख जैसा बढ़िया कैमरा और कहीं नहीं है।
मित्रो! मैं हिमालय से बहुत सारे फोटो खींचकर लाया हूँ। सुमेरु पर्वत का भी एक फोटो खींचकर लाया हूँ। पुराणों में लिखा है कि सुमेरु पर्वत सोने का बना हुआ है। वह देवताओं का निवास स्थान है। बहुत इच्छा थी कि हिमालय जाने का जब मौका मिलेगा, तो सुमेरु जहाँ कहीं भी होगा खोज करके लाऊँगा और मैं सुमेरु चला गया। दूर से देखा तो सोने का पहाड़ मालूम पड़ा और जब पास गया, तो देखा कि वह सोने का था ही नहीं। जब सारे दिन सूरज निकलता है, तो वह लाल रंग का, पीले रंग का निकलता है। चौबीस घंटे में जब तक सूर्य का प्रकाश रहता है और बर्फ के ऊपर उसका जो प्रकाश गिरता है, तो ऐसा मालूम पड़ता है, मानो वह सोने का बना है। पास में जाकर देखने पर बर्फ दिखाई देती है, सोना नहीं होता। यह फोटो खींचकर में लाया था ।।
अतुलनीय है मानव शरीर
ऐसा बढ़िया वाला खूबसूरत दृश्य मैंने अपनी आँखों से देखा, ऐसा दृश्य तो रंगीन कैमरे ने भी नहीं दिखाया। सुमेरु पर्वत का वह फोटो अभी भी मेरे पास है। जब उसे देखते हैं, तो सोचते हैं कि कहाँ वे दृश्य, कहाँ वे नजारे, जो मैंने देखे थे और कहाँ यह फोटो जो मेरे पास रखा हुआ है। उन दोनों में कोई तुलना नहीं है। संसार में ऐसा कोई कैमरा नहीं बना, जो मनुष्य की आँख की तुलना में काम कर सकता हो।
मित्रो! मनुष्य के कान कितने बढ़िया वाले हैं। बढ़िया से बढ़िया टेलीफोन बने और चीजें भी बढ़िया—से—बढ़िया बनीं, लेकिन इतनी बढ़िया आवाज, इतनी साफ आवाज किसी की नहीं, जितनी कि हमारे कान में है। जब हम टेलीफोन उठाते हैं और पूछते हैं—हैलो! कहाँ से बोल रहे हैं? क्या नाम है? हम हैं। कौन हम, नाम क्यों नहीं बताते? टेलीफोन में नाम पूछना पड़ता है, तब बताते हैं। फोन चिड़िया की तरीके से आवाज करता रहता है, मालूम नहीं, कौन बोल रहा है और हमारे कान? यदि कोई आदमी साथ में खड़ा हो जाय और आवाज दे कि—मोहनलाल जी हैं क्या? हाँ पंडित रोशनलाल जी ! अभी आया। बस, खट् से कान बता देता है। आवाज देने वाले को नहीं देखा, पर कान में परिचित आवाज पड़ी और पहचान लिया। इस तरीके से ऐसे बढ़िया कान, जैसे हमारे हैं, दुनिया के पर्दे पर और नहीं बनाए गए।
मित्रो! हमारे पास जैसी बुद्धि है, जैसी अक्ल है, वैसी अक्ल किसी जानवर की, किसी जीव की नहीं है। भगवान ने मनुष्य के साथ बहुत परिश्रम किया है। मनुष्य के साथ परिश्रम किया गया, तो भगवान के जेहन में एक बात थी, एक उम्मीद थी। जब हम कहीं बढ़िया वाला मकान बनाते हैं, तो उसमें यह उम्मीद करते हैं कि हम इसमें रहेंगे, इसमें सोया करेंगे, इसमें पूजा करेंगे, इसमें खाना खाया करेंगे। हमारे बड़े-बड़े ख्वाब होते हैं, जब हम रहने के लिए मकान बनाते हैं। हम पहले से सारी योजनाएँ बनाते हैं। इस तरीके से बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ करते रहते हैं।
भगवान के सहयोगी के रूप में बना था इंसान
भगवान ने जब मनुष्य को बनाया था, तब भगवान ने बड़ी कल्पना की थी। भगवान बूढ़ा हो गया और उसकी जरूरत थी ऐसे आदमियों की, जो कि उसके काम में कुछ हाथ बँटा सकें। भगवान का काम बहुत बड़ा हो गया। भगवान के बहुत सारे धंधे हैं।
मित्रो ! मेरे पास पहले गायत्री तपोभूमि जरा सी थी। यहाँ पूजा होती थी, हवन होता था। हमारे थोड़े से आदमी पूजा कर लिया करते थे। अब हमारी चार हजार शाखायें हो गयीं। पचास हजार व्यक्ति हो गए, पत्रिकाएँ हो गयीं। इतना बड़ा साहित्य हो गया। इतना बड़ा संगठन हो गया। अब अकेले गुरुजी से काम नहीं होता। अब सहयोगियों की जरूरत पड़ती है। लीलापति जी आ गए, उपाध्याय जी आ गए, रमेशचंद्र शुक्ला आ गए, अमुक आ गए, तमुक आ गए, नंदलाल जी आ गए।
ईश्वर का अंश है इंसान
क्यों गुरुजी ! पहले तो आप अकेले काम चलाते थे? अरे भाई! पहले काम थोड़ा था, सो चला लेते थे, कोई हर्ज नहीं था, लेकिन अब तो ज्यादा आदमियों की जरूरत है। भगवान का धंधा भी ऐसे ही बढ़ गया है, जैसे कि हमारे गायत्री तपोभूमि का बढ़ गया है। इसलिए भगवान ने कहा कि शायद अकेले मुझसे यह काम न हो सके। दुनिया को खूबसूरत बनाने का काम बड़ा है। इसलिए उसने अपने ही नमूने का, अपने ही सपने का, अपने ही साँचे का, एक ऐसा प्राणी बना दिया, जिसमें सारी-की विशेषताएँ भगवान जैसी थीं और उस प्राणी का नाम रखा गया—इंसान ।। इंसान और भगवान दोनों ही लगभग एक ही श्रेणी के हैं। एक ही स्तर के हैं। एक ही विभूतियाँ और एक समानता और एक ही विशेषताएँ दोनों के अंतर्गत हैं। बाप और बेटे में जो थोड़ा-सा फरक रहना चाहिए, वह थोड़ा-सा फर्क तो है, बाकी मनुष्य उसी तरह का है, जैसा कि उसका बाप है।
मित्रो! भगवान ने मनुष्य को बनाया और सारी-की-सारी सुख-सुविधाएँ जो भगवान के पास थीं, उसे सौंप दीं और कहा कि तू इस संसार में जा, तेरी उन्नति के लिए और तेरी तरक्की के लिए सारे द्वार खुले पड़े हैं। जहाँ भी तू चला जाएगा, बढ़ता चला जाएगा। तुझे कोई रोक नहीं सकेगा। उसने कहा कि बीमारियाँ मुझे रोकेंगी। भगवान ने कहा कि तुझे कोई बीमारी रोक नहीं सकती। दुनिया में कितने ही ऐसे महापुरुष हुए हैं, जो छोटी उम्र में बीमारियों से घिरे हुए थे, लेकिन उन्होंने कठिनाइयों को, परिस्थितियों को चुनौती दी और आगे बढ़ते हुए चले गए।
उनमें से एक थे—अष्टावक्र। उनका शरीर आठ जगह से टूट गया था। यहाँ से भी टूटा, वहाँ से भी टूटा, गर्दन भी टूटी, टाँग भी टूटी। हर जगह से टेढ़े-मेढ़े थे अष्टावक्र। लेकिन उन्होंने कहा कि मैं इन सारी कठिनाइयों को चुनौती देता हूँ, जो मेरा मार्ग रोक करके खड़ी हुई हैं। कोई भी कठिनाई मेरा मार्ग रोककर खड़ी नहीं हो सकतीं। मैं हर एक कठिनाई को चुनौती देता हुआ और आगे बढ़ता हुआ चला जाऊँगा।
मित्रो ! अष्टावक्र राजा जनक के गुरु थे। ब्रह्मवेत्ता और सबसे बड़े ज्ञानी राजा जनक के गुरु महर्षि अष्टावक्र ने अपने शरीर की दुर्बलताओं को चुनौती दी। जगद्गुरु शंकराचार्य बत्तीस वर्ष तक भगंदर का फोड़ा लेकर घूमते रहे। सूरदास ने भी चुनौती दी। वे आँखों से अंधे हो गए थे और उनकी दिखाई देना बंद हो गया। लोगों ने कहा—अब तुम लाचार हो गए, अब तुम मजबूर हो गए। अब तुम क्या कर सकते हो? उन्होंने कहा कि मेरे पास अभी भी एक चीज जिंदा है, जिसके द्वारा मनुष्य उन्नति किया करता है। कोई आँख से उन्नति करता है क्या? आँख नहीं है तो क्या हुआ? मैं उसके बिना भी उन्नति करता हुआ चला जाऊँगा। सूरदास बढ़ते हुए चले गए। आगे बढ़ाने के लिए भगवान उनकी लाठी बनकर आए।
मित्रो ! केलर नामक अमेरिका की एक महिला को जन्म से ही तीन शिकायतें थीं। जब वह छोटी-सी बच्ची थी, आँख से अंधी हो गयी। थोड़ी-सी बड़ी हुई, तो कान खराब हो गए और वह बहरी हो गयी। जैसे ही और बड़ी हुई, जीभ ने काम करना बंद कर दिया। वह गूँगी हो गयी। अंधी, बहरी और गूँगी लड़की अगर हिन्दुस्तान में पैदा हुई होती, तो किसी भी छोटी वाली गाड़ी में बैठती और उसे कोई ढकेल रहा होता और दरवाजे-दरवाजे पर भीख माँग रहा होता। अंधी छोकरी है, पैसा चाहिए, गूँगी है, पैसा चाहिए। बहरी, असहाय और असमर्थ है, इसके लिए कोई रास्ता खुला हुआ नहीं है। अत: पेट पालने के लिए भीख दी जाए।
केलर ने आँखें न होते हुए भी, कान न होते हुए भी, जीभ न होते हुए भी पढ़ना शुरू किया। उसकी बहन ने उसे पढ़ाया। उसने कहा कि जीभ नहीं है, तो मैं कैसे पढूँगी? बहन ने कहा कि तू पढ़ सकती है। उसने कहा कि आँखें नहीं हैं, तो मैं कैसे पढूँगी? बहन ने कहा कि तू पढ़ सकती है। उसने कहा कि कान नहीं है, तो कैसे पढूँगी? बहन ने कहा—तू पढ़ सकती है। बस, वह पढ़ती चली गयी। जरा सी उम्र में अंधी और गूँगी और बहरी हो गयी थी। उसने अमेरिका के अट्ठारह विश्वविद्यालयों से पीएच.डी. की। हिन्दुस्तान आई, तो पंडित जवाहर लाल नेहरू की अतिथि रहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय ने उसे सम्मान पत्र और पीएच.डी. की उपाधि दी |
मित्रो ! भगवान ने हमारी काया में ऐसी चीजें छिपाकर रखी हैं, जिनसे हम असहाय और असमर्थ इनसान अपनी क्षमताओं का विकास करते हुए कहाँ से कहाँ बढ़ते हुए चले जाते हैं। भगवान से मनुष्य ने कहा कि हम गरीबी में पैदा होंगे, तो विकास कैसे करेंगे? हमारी उन्नति का द्वार रुका हुआ पड़ा है। हमारी उन्नति कैसे होगी? मैं तो गरीब हूँ पेट पालना मेरे लिए मुश्किल है। मेरे लिए उन्नति के द्वार रुके हुए हैं।
मनुष्य की तरक्की में रुकावट नहीं है गरीबी
ईसा ने कहा था—तेरी उन्नति के द्वार खुले हुए हैं। सुदामा गरीब थे? हाँ। चाणक्य गरीब थे? हाँ। दुनिया के सारे के सारे महापुरुष गरीब थे। सबेरे मैं आपसे नानक की बात कह रहा था, कबीर की बात कह रहा था, जिनकी न कोई माँ थीं, न बाप, एक विधवा माँ थीं। कोई एक कुँवारी कन्या अपने बच्चे को फेंक गई थी, जिसे एक जुलाहा उठा ले गया था। वह उस बच्चे का पालन-पोषण करता रहा। कबीरदास जुलाहे के पास पहुँचे। जुलाहे के पास पैसे थे क्या? नहीं, पैसे नहीं थे। पढ़ा सकता था? नहीं पढ़ा सकता था, लेकिन कबीर उन्नति करते हुए चले गए।
मित्रो ! कबीर के ऊपर हिन्दुस्तान में कितने आदमियों ने पीएच.डी. की है और उनकी विसंगतियों को ले करके अभी भी बहस होती रहती है। उनके अलंकार और कविता आज भी रिसर्च के विषय बने हुए हैं। उन्होंने गरीबी को चुनौती दी थी। उन्होंने कहा—गरीबी मनुष्य की तरक्की में रुकावट नहीं डाल सकती। गरीबी क्या रुकावट डालेगी? मनुष्य बड़ा है, वह गरीबी को कुचलता हुआ, आगे बढ़ता हुआ चला जा सकता है। कबीर अशिक्षा को कुचलते हुए चले गए। रवीन्द्रनाथ टैगोर पाँचवीं क्लास तक पढ़े थे। अकबर बादशाह ज्यादा पढ़ा-लिखा हुआ नहीं था, मात्र दस्तखत करना आता था। पंजाब के—पंजाब केसरी राजा रणजीत सिंह के पास दस्तखत करने लायक शिक्षा उनके पास थी। रविदास के पास नाम मात्र की शिक्षा थीं ।। लोगों ने कहा कि अगर हमको शिक्षा नहीं मिलेगी, तो उन्नति के द्वार रुके पड़े रहेंगे और हम उन्नति नहीं कर सकेंगे।
नहीं मित्रो ! यह मनुष्य के वर्चस्व में है कि हमारे जीवन में कोई चीज रुकावट नहीं डाल सकती। हम महापुरुषों की तरीके से उन्नति करते हुए चले जाएँगे, क्योंकि हमारे पिता ने, हमारे बाप ने अपनी सारी-की-सारी विभूतियाँ, सारी विशेषताएँ हमारे भीतर छिपा करके रखी हैं, जिनको मनुष्य जाग्रत कर सकता है। भगवान बन सकता है। ऐसा है यह मानव प्राणी। भगवान ने मानव प्राणी के साथ इतना ज्यादा उदार व्यवहार किया, इतना ज्यादा अनुदान दिया कि चौरासी लाख योनियों में से किसी के साथ में भी नहीं किया। चौरासी लाख योनियों के जीवों ने जज साहब के यहाँ हाई कोर्ट में शिकायत की। उन्होंने कहा—हुजूर! संविधान के कानून के अनुसार हमारे मुकदमे पर ध्यान दिया जाय। हम भी भगवान के बेटे हैं। हमको अक्ल क्यों नहीं दी गयी? अन्य विशेषताएँ क्यों नहीं दी गयीं? भगवान से हमको अक्ल और बुद्धि क्यों नहीं मिली? बंदर ने कहा—हमारे लिए स्कूल क्यों नहीं खोले गए? मछलियों से लेकर कछुए तक, मेढकों से लेकर बंदर तक सब खड़े हो गए और भगवान से शिकायत की। भगवान के दरबार में सब अपनी-अपनी अर्जियाँ ले करके खड़े थे कि बाप ने उनके साथ बेइंसाफी क्यों की? और एक जीव के साथ पक्षपात किया, और उस जीव का नाम है—इनसान।
व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं है दैवीय संपदाएँ
मित्री ! भगवान ने कहा—‘‘इन जीवों को केवल अपने ही खर्च के लिए, अपनी ही सुविधा के लिए सामान दिया गया है लेकिन मनुष्य को जन्म दिया है, वह अपने खर्च के लिए नहीं, वरन् मेरे कामों में सहायता करने के लिए दिया है। दूसरों के कामों में सहायता करने के लिए दिया है।’’
कोर्ट में भगवान जी ने अपनी सफाई में कहा कि कलेक्टर के पास कई-कई जीपें होती हैं, तो क्या यह सब कलेक्टर के लिए ही होती हैं? हाईकोर्ट ने कहा कि नहीं। उन्होंने कहा—बैंकों के पास लाखों रुपये रखें जाते हैं। खजांची के पास चाबी होती है और उसके पास लाखों रुपये होते हैं, तो क्या यह सब खजांची के लिए हैं? उन्होंने कहा—नहीं। सुरक्षा अधिकारी के पास हजारों हथियार और एटम बम, बंदूकें और मशीन गनें आदि रहती हैं, तो क्या वह अपने लिए होती हैं? नहीं, सारे जिले की सुरक्षा के लिए होती हैं। सारे जिले की व्यवस्था के लिए होती हैं। भगवान ने कहा कि मैंने इंसान को जो चीजें दी हैं, क्या उसके लिए हैं? उसको जो वर्चस दिया गया है, जो सम्पदाएँ दी हैं, वे खास मतलब के लिए दी हैं और वह मतलब है—इस सारे संसार को सुखमय बनाना, समुन्नत बनाना, सुखी बनाना, शांति स्थापित करना, बस यही मेरा मतलब है। मैंने हर जीव को जितनी सुविधाएँ दी हैं, उससे ज्यादा सुविधाएँ और जिम्मेदारी मनुष्य को दी है।
मित्रो! भगवान ने अपनी सफाई में कहा कि देखिये हुजूर! यह ऊँट खड़ा हुआ है। यह कितना खाना खाता है? हाईकोर्ट ने ऊँट से गवाही में पूछा—आप कितना खाना खाते हैं? ऊँट ने कहा—मैं छ: मन खाना खा जाता हूँ। भगवान ने पूछा—मैंने मनुष्य के साथ पक्षपात किया होता, तो तुम्हारे खाने पर ध्यान न दिया होता। तुम्हारा पेट बड़ा है। भगवान ने कहा—बताइए। यह पक्षपात ऊँट के साथ किया है या मनुष्य के साथ? हाईकोर्ट ने कहा—ठीक है, आपने ऊँट का साथ दिया और मनुष्य को खास हिदायत दी। फिर हाथी को बुला लिया और उससे पूछा—आपकी खुराक कितनी है? उसने कहा—हम तो चार-पाँच मन खाना खा जाते हैं। भगवान ने कहा—मैं आपको चार-पाँच मन खाना दिया करता हूँ? उसने कहा—हाँ आप हमें चार-पाँच मन खाना रोज देते हैं।
भगवान ने जिरह में कहा कि आप बताइए, मैंने कभी आपको भूखा रखा क्या? उसने कहा—नहीं, हमको कभी भूखा नहीं रखा गया। फिर उन्होंने इनसान से पूछा कि आपको कितना खाना मिलता है? उसने कहा कि तीन-चार रोटी मिलता है, एक प्लेट चावल मिलता है। बस, उससे ही हम काम चला लेते हैं। भगवान ने कहा—अब बताइए कि मेरा पक्षपात किसके साथ है? मनुष्य ने कहा—हाथी के साथ। हाथी ने कहा-मनुष्य के साथ। बहस होती रही।
विश्वमानवता के लिए मिलता है मनुष्य का जीवन
मित्रो ! हाईकोर्ट का मुकदमा लंबा हो गया। फैसला आ गया। अंत में भगवान को रिहा कर दिया गया। आज खारिज कर दी गयी। उन्होंने कहा कि भगवान के ऊपर बदनीयती का दोष नहीं लगाया जा सकता। भगवान ने मनुष्य को जो दिया है, बदनीयती से नहीं दिया। उन्होंने सारे प्राणियों की सुव्यवस्था और शांति के लिए दिया है और उसके साथ कर्तव्यों को जोड़कर रखा है। उन्होंने कहा—जो कुछ भी तुझे दिया गया है, वह केवल अपने लिए खर्च मत कर डालना। मनुष्य ने कहा—मैं अपने लिए खर्च नहीं करूँगा। थोड़ा ही खाना खाऊँगा। मेरी भूख छोटी है। उन्होंने कहा कि हाँ! तेरा पेट एक बलिस्त का रखा गया है और तेरे हाथ तीन-तीन फुट के अर्थात छ: फुट के हैं और पेट एक बलिस्त का है। एक बलिस्त के हाथ की कमाई को अपने पेट के लिए खर्च करना और साढ़े पाँच फुट के यह तेरे हाथ जो बच जाते हैं, उसकी कमाई को समाज के लिए, देश के लिए, संस्कृति के लिए, विश्वमानवता के लिए, लोकमंगल के लिए खर्च करना। तुझे पैदा करने का यही मेरा मकसद है। उसने कहा—हाँ मैं यही किया करूँगा।
लेकिन मित्रो! हाय रे इंसान! वह अपना कर्तव्य और भगवान से किया हुआ वायदा भूलता हुआ चला गया। कहीं से अज्ञान आया, कहीं से तृष्णा आई, कहीं से वासना आई। सुरसा के मुँह की तरीके से तृष्णा मुँह फाड़ती चली गई। हनुमान ने कहा—मैं हनुमान हूँ। सुरसा। ने कहा—मैं सुरसा हूँ। सुरसा मुँह फाड़ती चली गयी। सुरसा ने कहा—तू कितना मुँह बढ़ा सकता है हनुमान? मेरा मुँह बहुत बड़ा है। यह रामायण का प्रसंग है। सुरसा की कहानी को लोग जानते हैं। हनुमान के लंका जाते समय सुरसा बीच रास्ते में बैठी हुई थी और हनुमान को खाने के लिए मुँह फाड़ रही थी। बोली—तुझे छोड़ने वाली नहीं हूँ। खा करके रहूँगी, मार डालूँगी, जिंदा नहीं रहने दूँगी। पेट में निगल जाऊँगी। हनुमान ने कहा—मैं तो अपना बदन बढ़ाता हुआ चला जाऊँगा।
जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।
सुरसा के मुख की तरह बढ़ गयी हमारी तृष्णाएँ
मित्रो! मनुष्य मरता हुआ चला गया और कोष भरता हुआ चला गया, दुकान बढ़ाता हुआ चला गया। तृष्णा बढ़ती चली गयी कि मैं अकेला ही अपना पेट भरूँगा। मैं तुझसे बड़ा हूँ। मेरा पेट तुझसे बड़ा है। मनुष्य ने खेत बना लिए, दुकान बना ली, नौकरी कर ली। वकालत खोल ली, डॉक्टर हो गया, इंजीनियर हो गया। मकान बना लिया, कोठी बना ली। परंतु सुरसा ने कहा—मेरी जीभ बहुत बड़ी है। तू कहाँ तक बचेगा? मैं तुझे छोड़ेंगी नहीं, जब तक कि मैं तुझे चबा न जाऊँ। मनुष्य का स्वार्थ बहुत बड़ा है। हनुमान कहाँ तैयार थे? उनकी जान बचने वाली कहाँ थी? हनुमान को जान बचाने का एक ही तरीका था—छोटा बनना। अंत में उनको समझ आई। अंत में अक्ल आई और सुरसा के मुँह में अंदर जाकर बाहर आ गए और उनका बचाव हो गया और सुरसा ने उनको धन्यवाद दिया। उसने कहा—मैं आशीर्वाद देती हूँ कि तू राम का दूत और राम के काम करके आएगा।
मित्रो! सुरसा ने जिस बात से प्रभावित हो करके आशीर्वाद दिया, वह हनुमान की चालाकी थी। यह उनकी समझदारी थी। यह उनकी बुद्धिमानी थी; दूरदर्शिता थी और वह थी कि हनुमान ने अपना छोटा रूप बना लिया था। ‘‘मसक समान रूप कपिधरी।’’ हनुमान ने छोटावाला रूप बना लिया। सुरसा मुँह फाड़ती रह गयी। उसने बादल के बराबर मुँह फाड़ा। कैसे खाएगी? हनुमान ने मच्छर के बराबर रूप बनाया और मुँह में कभी इधर, कभी दाँत के पास, कभी जीभ के नीचे घुस जाते। सुरसा। मुँह फाड़ती रह गयी और हनुमान बच गए। कोटि कामनाओं की सुरसा, वासनाओं की सुरसा, तृष्णाओं की सुरसा, हमारे जीवन में बढ़ती चली गयी और हम उसी में उलझते हुए चले गए। राम का कार्य अधूरा पड़ा रहा। राम के काम के लिए राम ने हमको पैदा किया था और राम ने हमको जीवन दिया था, मानव का जन्म दिया था, लेकिन हमारे सारे के सारे कार्य व क्रियाकलाप अधूरे रह गए और हाईकोर्ट का मुकदमा जहाँ का तहाँ पड़ा रह गया। भगवान झूठा साबित हुआ और इंसान झूठा साबित हुआ।
मनुष्य जीवन का उपयोग लोक-कल्याण में
मित्रो! भगवान ने सफाई दी कि यह मेरा बच्चा है और मेरा बेटा मेरे समान है। शेर का बेटा शेर होता है। हाथी का बच्चा हाथी होता है। घोड़े का बच्चा घोड़ा होता है। हाईकोर्ट ने माना हाँ, होता है। तो यह भगवान का बच्चा इंसान, भगवान बनकर रहेगा, इंसान बनकर रहेगा और दुनिया में शांति लाएगा, दुनिया में समृद्धि लाएगा। अपने ज्ञान का उपयोग विश्वकल्याण के लिए करेगा। मानव प्राणी के हित के लिए करेगा। संसार को समृद्ध, शांत और समुन्नत बनाने के लिए करेगा।
भगवान ने वायदा किया था, विश्वास दिलाया था, यकीन दिलाया था और हाईकोर्ट के सामने बयान भी दाखिल किया था, लेकिन वह बयान भी झूठा साहिब हो गया। बयान झूठा साबित होने पर फिर क्या हो सकता है? क्या उसके ऊपर मुकदमा चलाया जा सकता है। भगवान जी ने पता लगाया कि जब हाईकोर्ट में मुकदमा चलाया जाएगा, तब क्या होगा? इंसान को इसलिए पैदा किया गया था, सुविधाएँ इसलिए दी गयी थीं, ताकि दुनिया में खुशहाली लेकर आएँगे लेकिन जब सारे इंसान तृष्णा और वासना में डूबे हुए, अपने अहंकार और स्वार्थों में लिप्त और अपने अहं को बढ़ाते हुए, तृष्णाओं को बढ़ाते हुए, अपनी कीर्ति के लिए, अपनी मौज-मस्ती के लिए, अपनी सुख-सुविधाओं के लिए खर्च करते आ रहे हैं। भगवान इसलिए बहुत परेशान हैं कि किसी और ने मुकदमा उठाया, तो बहुत मुश्किल आएगी।
मित्रो! इस संबंध में गोपथ ब्राह्मण में एक बड़ी सुंदर कथा आती है। एक बार भगवान की इच्छा हुई और उसने मनुष्य नामक प्राणी को बनाया। उन्होंने उसके जिम्मे बहुत सारे कर्तव्य सौंपे और यह उम्मीद रखी और यह ख्वाब देखा कि यह मनुष्य संसार में शांति स्थापित करेगा। उसकी बनाई हुई दुनिया को सुगंधमय बनाएगा लेकिन जब मनुष्य का ऐसा व्यवहार नहीं देखा गया और पाया गया कि मनुष्य ने अपनी दिशाएँ बदल दी हैं। तृष्णाओं और वासनाओं के पीछे पागल मनुष्य जब अपना रास्ता भूल गया, तब भगवान ने सोचा कि मनुष्य के पास चलना चाहिए और उससे बातचीत करनी चाहिए।
मित्रो! मैं यह गोपथ ब्राह्मण की कथा कह रहा हूँ। भगवान मनुष्यों के पास आया और उनसे बातचीत करने लगा। लोगों से कहा—‘‘तुम्हारे जीवन का लक्ष्य तुम्हें याद है?’’ उन्होंने कहा—‘‘हमें नहीं मालूम कि हमारा क्या लक्ष्य है?’’ उन्होंने कहा—‘‘मैंने इतना परिश्रम किसलिए किया था, तुमको मालूम है?’’ उसने कहा—‘‘हमें नहीं मालूम है।’’ भगवान ने बताया कि तुम्हारा बहुमूल्य जीवन मैंने अनेक जीवों के साथ पक्षपात करके दिया है। तुम्हें जो सुविधाएँ दी गयी हैं, असाधारण हैं और इसीलिए तुम्हारे कर्तव्य भी असाधारण हैं। क्या तुमने उनका पालन किया?
क्या है मनुष्य जीवन का लक्ष्य?
मित्रो! मनुष्य ने कहा—नहीं। क्यों? उन्होंने कहा—दो आकर्षण ऐसे जबरदस्त हैं, जो हमको टस से मस नहीं होने देते। हमारे गले में रस्सियाँ बँधी हुई हैं। हमारे पाँव में बेड़ियाँ पड़ी हुई हैं, जो हमारा सारा-का वक्त खा जाती हैं। हमारा सारा विचार खा जाती हैं। हमारा सारा मनोयोग खा जाती हैं। हमारा सारा स्वास्थ्य खा जाती हैं। इससे हम अपना बचाव नहीं कर पाते और अपने उद्देश्य की ओर, लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं दे पाते। मनुष्य ने भगवान से कहा कि हमारे पास वासनाओं का आकर्षण इतना बड़ा है कि अन्य आकर्षण नहीं चाहिए। हमको स्वर्ग का आकर्षण नहीं चाहिए। हमको आत्मसंतोष का आकर्षण नहीं चाहिए। हमको आपके प्यार का आकर्षण नहीं चाहिए। हमको केवल वासनाएँ चाहिए, हमको केवल तृष्णाएँ चाहिए। भगवान को बड़ा क्लेश हुआ और बड़ा दुःख हुआ। भगवान नाराज हो गए। उन्होंने कहा कि अगर तुम अपना कर्तव्य छोड़ दोगे, तो मैं तुम्हारे साथ प्यार करना छोड़ दूँगा।
मित्रो! भगवान नाराज हो गए और कहीं दूर चले गए। मनुष्यों से बातचीत करना बंद कर दिया गया। भगवान एक पहाड़ पर जा पहुँचे और वहाँ चुपचाप रहने लगे। वे कैलाश पर्वत के ऊपर रहने लगे। उन्होंने देखा कि भगवान की इच्छा तो पूरी नहीं की गयी, भगवान की आज्ञा का पालन नहीं किया गया, लेकिन भगवान से काम बहुत सारे निकाले जा सकते हैं। जो काम कहीं से नहीं निकलते हैं, वे भगवान से निकल सकते हैं। इसलिए संबंध तो बनाए रहना चाहिए। मिलते-जुलते तो रहना चाहिए। खुशामद तो करते रहना चाहिए। कहते हैं कि मतलब के लिए गधे को बाप बनाया जाता है, फिर ये तो भगवान हैं। उनसे क्या नाराजगी। किसी-न रूप में ये हमारे बाप हैं और उनसे हमें बहुत सारा मतलब भी तो निकालना है, इसलिए संबंध बनाए रहना चाहिए। लोग कैलाश पर्वत पर जाने लगे और बार-बार अपनी बातें कहने लगे कि हमको यह चाहिए, हमको वह चाहिए। भगवान ने कहा—‘‘हमारी बात सुनने के लिए तुम लोग तैयार नहीं हो, इसलिए हम तुमसे बातचीत नहीं करेंगे और तुम्हारे साथ प्रेम का रिश्ता नहीं रखेंगे।’’ लेकिन मनुष्य ने कहा—‘‘प्रेम का रिश्ता हो तो क्या, न हो तो क्या, हमारा स्वार्थ जहाँ पर सिद्ध होता है, हमें वहीं पर चलना चाहिए।’’
भगवान नाराज होता रहा, गालियाँ देता रहा, धमकाता रहा, लेकिन लोग भगवान के पास चक्कर काटते रहे। भगवान बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहा—‘‘अब यहाँ से चलना चाहिए और कहीं ऐसी जगह रहना चाहिए, जहाँ कि मनुष्यों को मालूम न पड़े।’’ बस भगवान चले और समुद्र में जा पहुँचे। समुद्र के बीचो−बीच एक टापू था, बस उस टापू में रहने लगे। उसका नाम द्वारिका था, जो कि एक छोटा वाला टापू है और चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ है। वे वहाँ रहने लगे। सोचा कि समुद्र को पार करके लोग मेरे पास कैसे आएँगे? मैं यहाँ आराम से बैठा रहूँगा। गुस्से से भरा हुआ भगवान द्वारिका चला गया।
लोगों ने नावें बनाईं, जहाज बनाये और नावों तथा जहाज में बैठकर तलाश करते हुए द्वारिका जा पहुँचे और वहाँ भी भगवान जी के दर्शन करने लगे। भगवान ने कहा—‘‘तुम फिर आ गए। मैंने तुमसे बचने के लिए यहाँ जगह बनाई थी और तुमको कहीं जगह नहीं मिली, फिर आ गए।’’ मनुष्यों ने कहा—‘‘हम आपका ऐसे पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं। जब तक हमारा स्वार्थ सिद्ध होता रहेगा, तब तक हम आपके चक्कर काटते रहेंगे और जब हमको मालूम पड़ेगा कि भगवान से हमारा कोई स्वार्थ नहीं होता, तो हम आपका पल्ला छोड़ देंगे। आप हमारी सहायता करने वाली वृत्तियों को छोड़ दीजिए, हम आपका पल्ला छोड़ देंगे।’’
मित्रो! भगवान ने कहा—‘‘यह तो हमसे नहीं हो सकेगा। आपकी सहायता करना हम बंद नहीं कर सकते, क्योंकि आप हमारे बच्चे हैं। आप कुपित हो जाएँगे, तो भी हमको अपना कर्तव्यपालन करना पड़ेगा। आखिर बनाया तो हमने है, इसलिए हम तो आपकी सहायता किया करेंगे।’’ मनुष्यों ने कहा—‘‘फिर तो हम अपना पल्ला छोड़ने वाले नहीं हैं।’’ भगवान ने कहा—‘‘अब कहाँ चलना चाहिए?’’ भगवान आसमान में चले गए, दूसरी जगह चले गए, तीसरी जगह चले गए, लेकिन मनुष्यों ने पीछा नहीं छोड़ा। वे भगवान का बहुत वक्त खराब करने लगे। दुनिया के लिए भगवान को अनेक काम करने थे। दुनिया को खूबसूरत बनाना था, दुनिया में शांति स्थापित करनी थी, लेकिन लोगों को इससे क्या लेना-देना? उनका तो जिससे काम पूरा होता हो, वह वही करेंगे।
भगवान बहुत परेशान हो गए। उन्होंने कहा—‘‘इनसे कैसे पीछा छुड़ाया जाय? जो चीज देने की थी, वह तो पहले ही सौंप दी, लेकिन ये तो पीछा ही नहीं छोड़ रहे हैं। ये कह रहे हैं कि हमको यह चीज दीजिए, वह चीज दीजिए। जबकि हर चीज को पाने के लिए बुद्धि और अक्ल, क्षमता और सामर्थ्य इनको सौंप दी गयी, तो भी ये मेरे पीछे पड़े हैं।’’ भगवान ने कहा—‘‘अब कहीं ऐसी जगह चलना चाहिए, जहाँ कि मनुष्य को मालूम न पड़े कि भगवान कहाँ हैं।’’ इसी तरह के विचार में भगवान बैठे हुए थे कि नारद जी कहीं से आ गए।
उन्होंने कहा—‘‘भगवन्! आप कैसे चिंतित, परेशान बैठे हुए हैं?’’ उन्होंने कहा—‘‘हमने मनुष्य को बड़ी उम्मीदों के साथ बनाया था, लेकिन ये इनसान बड़े निकम्मे, बड़े स्वार्थी और विवेकहीन निकले। उनको अपने स्वार्थ, अपनी कामनाओं से फुरसत नहीं, अपनी वासनाओं से फुरसत नहीं है। मैंने मनुष्य बनाया था, उसको उन्होंने क्या-से कर दिया और मेरे प्यार को ठोकर मार दिया। इन्होंने केवल पैसे से प्यार किया। इन्होंने अपनी इंद्रियों से प्यार किया। इन्होंने प्यार किया छोटे-छोटे उपहारों से। ये मेरे प्यार को ठुकराते हैं और मेरा अपमान करते हैं।’’
हर इंसान में भगवान
मित्रो! नारद जी ने कहा—‘‘फिर क्या करना चाहिए?’’ भगवान ने कहा—‘‘मैं ऐसी जगह तलाश करना चाहता हूँ, जहाँ कि मैं चैन के साथ रह सकूँ। कोई मनुष्य मुझे तलाश न कर सके और कोई मुझे पा न सके, ऐसी जगह हम तलाश करना चाहते हैं। नारद तुम्हारी निगाह में ऐसी कोई जगह हो, तो बताओ जहाँ कि मनुष्य से बचा रहूँ। दीर्घजीवी बना रहूँ और चैन से बैठा रहूँ।’’ फिर भगवान को दया आई और उन्होंने कहा—‘‘ऐसी जगह चाहता हूँ, जहाँ कि लोगों को पहुँचने में कोई खास दिक्कत न हो। कोई ऐसा आदमी जो वास्तव में मुझसे मिलना चाहे और उसको मुझे ढूँढ़ना मुश्किल न हो जाय, इसलिए ऐसी मुनासिब जगह भी हो, जहाँ किसी का ध्यान ही न जाए।’’ नारद जी ने कहा—‘‘हाँ, एक ऐसी जगह मेरे पास है और मैं बताए देता हूँ। आप वहाँ जाकर रहा कीजिए। फिर मनुष्य को पता ही नहीं चलेगा। आपको फिर कोई ढूँढ़ेगा ही नहीं। आप मजा कीजिए और वहाँ बैठे रहा कीजिए।’’
मित्रो! भगवान ने कहा—‘‘अच्छा तो बताइए, वह जगह कहाँ है?’’ नारद जी भगवान के कान के पास मुँह ले गए और चुपके से कहा—‘‘किसी को बताना मत।’’ उन्होंने कहा—‘‘वह जगह है—इंसान का अस्तित्व। आप वहाँ घुस जाइए और उसके अंदर बैठे रहिए। आदमी बाहर सुख तलाश करता है, शांति बाहर तलाश करता है। कोई भीतर की ओर ध्यान ही नहीं देता, न अपना आत्मसुधार करता है, न आत्मचिंतन करता है और न अपने बारे में विचार करता है। उसको केवल बाहर-ही दिखाई पड़ता है। इंद्रियों में दिखाई पड़ता है, स्त्रियों में दिखाई पड़ता है, कचहरियों में दिखाई पड़ता है, खाने में दिखाई पड़ता है, बैंकों में दिखाई पड़ता है। बेटे-बेटियों में दिखाई पड़ता है। उसको सारा-का सुख बाहर दिखाई पड़ता है।’’
‘‘वह भगवान को तलाश करने के लिए तीर्थों में जाएगा, गंगाजी में जाएगा, वृन्दावन में जाएगा, सोने के खंभे वाले मंदिर में जाएगा। वह आपको अपने भीतर कभी तलाश ही नहीं करेगा कि आप कहाँ बैठे हैं?’’ आप मजा कीजिए, आपको कोई तंग नहीं करेगा। नारद जी की बात भगवान के समझ में आ गयी। वे चुपचाप चले गए और मनुष्य के हृदय के भीतर रहने लगे। गोपथ ब्राह्मण की कथा के अनुसार भगवान छिपने में पूरी तरह सफल हो गये।
मित्रो! कोई भी आदमी अपने भीतर भगवान को तलाश करने नहीं जाता। वह बाहर-ही-बाहर मारा-मारा फिरता है। कहते हैं कि वहाँ मंदिर में जाऊँगा और भगवान का कृपाप्रसाद ले करके आऊँगा। भगवान को रिझाने के लिए यह लाऊँगा। भगवान को खिलाने के लिए मैं यह ले करके आऊँगा। भगवान को रिझाने के लिए यह काम करूँगा, गंगा जी में नहाऊँगा, पुराण-भागवत् की कथा सुनूँगा। इस तरह बाहर के सारे-के कर्मकाण्ड करता रहता है और अपने हृदय के भीतर कभी भी नहीं झाँकता। हजारों-लाखों वर्ष हो गए इस बात को, लेकिन वह कथा जहाँ की तहाँ है।
मित्रो! मैंने आपसे कहा था कि मैं भगवान के साथ आपका रिश्ता बनाना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि भगवान की और आपकी जान-पहचान हो। मेरी इच्छा है कि भगवान के साथ आपका मेल-जोल पैदा हो जाय। मैं चाहता हूँ कि आप भगवान के साथ बैठकर ताश खेला करें ओर चाय पिया करें। जब भी आपका जी चाहे, आप भगवान के हाथ-में डाल करके साथ में निकल जाया करें और पार्क में घूमकर आया करें। अकेले में उनसे अपने मन की बात कह दिया करें। भगवान से अपनी आवश्यकता कह दिया करें और अगर भगवान को किसी चीज की जरूरत हो, तो वह आपके कान में कह दिया करें। अगर आपको जरूरत पड़े, तो उससे कह दिया करें कि इस चीज के बिना हम बड़े परेशान हैं, आप हमको दे दीजिए। मैं यही चाहता था कि भगवान के साथ आपका ऐसा ही रिश्ता बना दें।
एक तुम्हीं आधार सद्गुरु
मित्रो! वह भगवान कहाँ हैं और आपको कहाँ मिलेगा, जिस भगवान के साथ में मैं आपका रिश्ता बनाना चाहता था। उस भगवान को रहने दीजिए, वह और कहीं नहीं है। वह आपके अपने भीतर ही बैठा हुआ है सद्गुरु के रूप में। हम गाना गाते रहते हैं—‘‘एक तुम्हीं आधार सद्गुरु।’’ सद्गुरु हमारे भीतर बैठा रहता है और हमारा मार्गदर्शन करता रहता है। गुरु तो अनेक होते हैं और हर बार बदले जाते हैं। दत्तात्रेय ने चौबीस गुरु बना लिए थे। एक गुरु बनाया। कहा—उसके पास अक्ल थोड़ी है। फिर दूसरा गुरु बना लिया। इसी प्रकार तीसरा, चौथा, पाँचवाँ बदल दिया ..... नौवाँ, दसवाँ, बार्इसवाँ, तेईसवाँ, चौबीसवाँ बदल लिया। जब चौबीस गुरु बना लिए, फिर भी समाधान नहीं हुआ। ब्रह्माजी आए, उन्होंने कहा—‘‘दत्तात्रेय। किस झगड़े में पड़े हुए हो।’’ उन्होंने कहा—‘‘महाराज जी! मैं और गुरुओं की तलाश में हूँ और चाहता हूँ कि कोई ऐसा गुरु मिले, जिसकी कृपा हो जाय और मेरा उद्धार हो जाय। कोई ऐसा गुरु मिले जो अपना शक्तिपात करे और मुझे निहाल कर दे।’’
मित्रो! उन्होंने कहा—‘‘उसने शक्ति एकत्रित की है, तो क्यों करें शक्तिपात? तुममें क्या खास बात है?’’ नहीं साहब! हमारे ऊपर शक्तिपात कर दे। इसलिए उन्होंने कहा कि हम शक्तिपात करने वाला गुरु ढूँढ़ रहे थे। कृपा करने वाला गुरु, आशीर्वाद देने वाला गुरु, सिद्धियाँ देने वाला गुरु, वरदान देने वाला गुरु हम देख रहे थे। चौबीस गुरु हमने कर लिए, पर हमारा काम इनसे नहीं चला। इसलिए कोई और गुरु हमें बताया जाय।
ब्रह्माजी ने कहा—’’दत्तात्रेय! यह गोरखधंधा छोड़ दे और सद्गुरु की शरण में जा। दुनिया में एक ही गुरु टिकाऊ है, अन्य गुरु तो रोज बनाए जाते हैं, रोज बिगाड़े जाते हैं। रोज पैदा होते हैं, रोज मर जाते हैं। इसलिए जब गुरु की मौत हो जाती है और गुरु की अक्ल खराब हो जाती है। गुरु जब पागल हो जाता है और गुरु की याददाश्त कमजोर हो जाती है, तो उस गुरु से हमारा क्या काम चलता है? दूसरा गुरु तलाश करना पड़ता है। इसलिए असली गुरु की तलाश कीजिए, जो न कभी बीमार होता है, जिसकी न अक्ल खराब होती है। जो न कभी बेवकूफ साबित होता है, न कभी बदमाश साबित होता है। ऐसा असली गुरु तेरे भीतर बैठा हुआ है। सद्गुरु उसी का नाम है।’’
मित्रो! हम सद्गुरु देव की जय बोलते हैं, गुरुदेव की नहीं। गुरुदेव का क्या ठिकाना? आज रहेंगे, कल नहीं। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ, जो संत कृपाल सिंह के तरीके से यह कहते फिरते हैं कि अपने गुरु के अलावा किसी की बात नहीं सुननी चाहिए। औरों की बात सुनेगा, तो गुरु नाराज हो जाएगा और पाप पड़ेगा। अपना गुरु जो बताता रहे, उसी की बात सुनते रहो, गैरजिम्मेदारी की बात बताये तो उसी को करो और सही बात बताये तो उसी को करो परंतु मैं ऐसे लोगों में से नहीं हूँ।
मित्रो! मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि सद्गुरु हमारे अंतरंग में बैठा हुआ है। हमारा प्रियतम, हमारे अंतरंग में बैठा हुआ है। प्रकाश का पुंज हमारे अंतरंग में बैठा हुआ है। शक्तियों का भांडागार हमारे भीतर बैठा हुआ है और वही हमारा इष्टदेव है। उसके साथ में हमको संबंध बनाना है। संबंध किस तरीके से बनाए जायँ? यह बात आगे वाली शुरू होती है, आगे मालूम होती है। विषय बड़ा लंबा है और मैं इसे छोटी-छोटी कथाओं के माध्यम से बताने की कोशिश करूँगा।
मित्रो! एक बार ऐसा हुआ—एक किसान था। अपने घर के बाहर बैठा था। उधर से ही नारद जी निकल रहे थे। उसने कहा—महाराज जी! आप कौन हैं? उन्होंने कहा—हम तो नारद जी हैं। आप कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कहा—विष्णु भगवान के पास जा रहा हूँ। अच्छा तो एक बात हमारी भी पूछते आना। उन्होंने कहा—हाँ पूछते आएँगे। आप तो उसी रास्ते से जाएँगे? उन्होंने कहा—हाँ, उसी रास्ते जाएँगे। अच्छा जब आपकी विष्णु भगवान से मुलाकात हो जाय और जब आप खबर ले आएँ, तो हमारी भी बात बता देना। नारद जी ने कहा—आपकी क्या बात बताना है? उसने कहा—महाराज जी! हमारे बाल-बच्चा नहीं होता है। हमारे कोई संतान नहीं है। आप भगवान विष्णु से यह पूछ कर आना कि उस किसान के यहाँ कोई बच्चा होने वाला है कि नहीं? होगा तो कब होगा? वह नारद जी के सामने हाथ जोड़ने लगा और कहने लगा कि मैं तो वैसे ही छोटी बुद्धि का आदमी हूँ। आप तो बड़ी बुद्धि के आदमियों की बात करते हैं, तो हमारी बात भी करते आना। उन्होंने कहा—अच्छा भाई तेरी बात भी करता आऊँगा।
नारद जी विष्णु भगवान के पास गए। उन्होंने पूछा—वह किसान, जो बैठा हुआ था और यह कहता था कि हमारे बाल-बच्चे कब होंगे? विष्णु भगवान ने ध्यान लगाकर देखा। उन्होंने कहा—यह तो बड़ा खराब आदमी है। उसका पहला पुण्य कुछ भी नहीं है। नारद जी जब किसान के पास पहुँचे, तो उन्होंने कहा—भाई! भगवान ने तो कह दिया है कि तुम्हारे यहाँ तीन जन्म तक कोई बच्चा नहीं होने वाला है। बेचारा किसान चुप हो गया। क्या कहता? बैठा रहा। नारद जी चले गए।
तत्पश्चात् एक महात्मा आए, जो उसने कहा—महात्मा जी! हमारे बच्चा नहीं होता। महात्मा जी ने कहा—अच्छा, जा एक साल में तेरे यहाँ बच्चा हो जाएगा। एक साल में किसान को बच्चा हो गया। नारद जी को एक बार फिर उधर जाने का मौका मिला, क्योंकि रास्ता वहीं से था। नारद जी किसान के द्वार से हो करके जाने लगे, तो उन्हें एक बच्चा खेलता हुआ दिखाई दिया। किसान ने उन्हें प्रणाम किया। नारद जी ने पूछा—यह किसका बच्चा है? उसने कहा—यह तो हमारा है।
मित्रो! नारद जी से किसान ने पूछा—आप तो कहते थे कि विष्णु भगवान ने कह दिया है कि तीन जन्म तक बच्चा नहीं होगा? अब तो हमारे बच्चा हो गया है। नारद जी ने कहा—विष्णु भगवान तो झूठ बोलते नहीं और मैंने बहाने बनाए नहीं, तो फिर भगवान की बात गलत कैसे हुई? उन्होंने कहा—मुझे क्या मालूूम कि यह कैसे हुआ?
उसने कहा—नारद जी! एक संत निकल रहे थे, तो मैंने उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि हमारे एक बच्चा हो जाय तो अच्छा है। उन्होंने कहा—अच्छा, इस साल तेरे यहाँ बच्चा हो जाएगा। बस, महाराज जी! बच्चा हो गया। नारद जी विष्णु भगवान के पास गए और बहुत नाराज हुए। उन्होंने कहा—महाराज जी! आप तो झूठ बोलते हैं और हमें कितने आदमियों के सामने बेइज्जत और जलील कराते हैं। क्यों क्या हुआ? उन्होंने कहा—पिछले वर्ष मैं आया था, तो आपने कहा था कि उस किसान को तीन जन्म तक बच्चा नहीं होने वाला है। भगवान ने कहा हाँ, उसके तो तीन जन्मों तक कोई बच्चा नहीं होने वाला है। नारद जी ने कहा—देखिए तो सही, उसके घर पर बच्चा खेल रहा है।
नारद जी भगवान विष्णु को पकड़ ले गए। उन्होंने कहा—ऐसा नहीं हो सकता। हम जो कहते हैं, हमारी वह बात सही होती है। फिर बच्चा कैसे हो गया? नारद जी गुस्से में विष्णु भगवान को वहाँ ले गए, जहाँ बच्चा खेल रहा था। देखिये तो सही, यह बच्चा किसका है? उन्होंने कहा—यह बच्चा किसका है? किसान ने कहा—यह हमारा ही बच्चा है। उन्होंने कहा—यह कैसे पैदा हो गया? उसने कहा—एक संत ने हमको कहा था और उन्हीं के कहने से यह हुआ। नारद जी ने कहा—संत बड़ा होता है कि भगवान बड़े होते हैं? उन्होंने कहा—कभी-कभी भक्त भी बड़े होते हैं और भगवान छोटे भी होते हैं। वैसे तो भगवान बड़ा होता है, पर कई बार ऐसा देखा गया है कि भक्त भगवान से बड़ा होता है।
भगवान की भक्त के साथ मुलाकात
मित्रो! नारद जी ने कहा—महाराज जी! यह कैसा भक्त है? जरा मैं भी तो उस भक्त को देखूँ, जो भगवान से बड़ा है। भगवान से बड़े वाले भक्त को मैं देखना चाहता हूँ, जो आपकी बात को गलत सिद्ध कर सकता है और अपनी बात को सिद्ध कर सकता है। नारद ने कहा—कृपा करके मुझे दिखाकर लाइए। नारद और विष्णु भगवान उस संत का पता लगाने हेतु रवाना हुए।
किसान ने जो पता उस संत का बताया था, उसे ढूँढ़ते हुए दोनों वहाँ गए और संत की रूपरेखा, उसकी कार्यप्रणाली को देखा। दोनों उसे देखकर अचंभित रह गए, दंग रह गए। उन्होंने कहा—यह कैसा भक्त है, जो पानी लेकर सूखे पत्ते चबा रहा था? पेड़ों पर से गिरे हुए आम के पत्ते, जामुन के पत्ते—सब पत्तों को चबा रहा था, उसी को खा रहा था। न शाक खाता था, न पूड़ी खाता था, न दाल खाता था, न कचौड़ी खाता था। केवल सूखे पत्ते चबा रहा था।
नारद ने कहा—यह तो पागल मालूम पड़ता है। पत्ते हरे भी हो सकते हैं और हरे पत्ते खाए जा सकते हैं; लेकिन यह तो हरे पत्ते भी नहीं खाता है, केवल सूखे पत्ते खा रहा है। उन्होंने कहा—यह तो बड़ी दिक्कत की बात है। यह व्यक्ति बड़ा खराब मालूम पड़ता है। फिर देखा कि जिस व्यक्ति के आशीर्वाद से बच्चा पैदा हुआ था, उसने एक तलवार निकाल ली और उसे जोर-जोर से घुमाने लगा।
नारद जी ने कहा—यह तो बिलकुल पागल मालूम पड़ता है। यहाँ न तो कोई पशु है, न पक्षी है, न कोई इससे लड़ने वाला है, न कोई बैरी है, न दुश्मन है। खामख्वाह तलवार चलाता है और उसे हवा में घुमा रहा है। यह तो कोई पागल और बेवकूफ मालूम पड़ता है। यह तो संत नहीं हो सकता। संत के तो कपड़े रंगे हुए होते हैं। संत की दाढ़ी बढ़ी हुई होती है। संत विद्वान होते हैं। रामायण पढ़ा करते हैं, गीता पढ़ते हैं, माला घुमाते हैं और तिलक लगाते हैं, वे संत होते हैं। तुलसी के पत्ते खाने वाले और तलवार घुमाने वाले कहीं संत होते हैं क्या? उन्होंने कहा—नारद। जरा पता तो लगाएँ कि भाई मामला क्या है? यह तो सही है कि इसका आशीर्वाद फलित हो जाता है। देखें तो सही कि इसमें ऐसा क्या है? यह ऐसा क्यों कर रहा है?
मित्रो! नारद जी भगवान विष्णु के साथ उस भक्त के पास गए और पूछा—क्या बात है भाई! सूखे पत्ते क्यों खा रहे हो? पत्ते खाने की क्या वजह है? उन्होंने कहा—पत्ते खाने की एक ही वजह है कि दुनिया में अनाज बहुत है, फिर भी कितने ही बच्चे भूखे बैठे रहते हैं। कितने मनुष्य भूख से पीड़ित और व्याकुल हैं। वह अन्न उनके पेट में जाना चाहिए, मैं अकेला ही खा करके क्या करूँगा?
नारद जी ने पूछा—दुनिया में शाक-भाजी बहुत है, वो क्यों नहीं खाते, पत्ते क्यों खाते हो? उन्होंने कहा—मैं शाक-भाजी नहीं खाता। घोड़े घूमते हैं, बकरियाँ घूमती हैं और छोटे-छोटे जानवर घूमते हैं, खरगोश घूमते हैं, हिरन घूमते हैं। उनको हरे-हरे पत्ते मिलने चाहिए। पत्तों को मैं ही खा जाऊँगा तो दुनिया में अन्य लोगों के लिए क्या बाकी रहेगा? इसलिए मैं तो सूखे पत्ते खाता हूँ, ताकि सबसे बेकार खाली चीज दुनिया वालों के काम न आये। मैं अच्छी चीजों के बिना काम चलाऊँ और इस दुनिया में जो भी बढ़िया चीज और विभूतियाँ हैं, उन सबको और लोगों को खाते हुए, उपयोग करते हुए देखूँ और खुशी मनाऊँ। मैं अपने आप में खुशी मनाता रहता हूँ। जब हरे-हरे शाक-भाजी के पत्ते भेड़, बकरियाँ और खरगोश खाते हैं, तब मुझे बड़ी खुशी होती है। अपने खाने के बजाय जब उस अन्न को अन्य मनुष्य खाते हैं, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है कि कैसे अच्छे मनुष्य हैं जो काम करते हैं। इनको खेती-बाड़ी करनी है और काम करने हैं। वे अन्न खाएँगे, तभी काम चलेगा। मैं संत हो करके भी अन्न खाऊँ, तो मेरे लिए धिक्कार है।
भगवान से बड़े संत
मित्रो! पिप्पलाद ऋषि केवल पीपल के फल तोड़ लाते थे और उन पीपल के फलों को सुखा करके अपना काम चलाते थे। उस पागल ने नारद जी को यह उदाहरण देते हुए पूछा—क्यों पिप्पलाद ऋषि ऐसे ही अपना काम चलाते थे कि नहीं? नारद जी ने कहा—हाँ चलाते थे। पिप्पलादि ऋषि को मिठाइयाँ नहीं मिल सकती थीं क्या? उन्होंने कहा—मिल सकती थीं। पिप्पलाद ऋषि खाना नहीं बना सकते थे क्या? उन्होंने कहा—बना सकते थे।
उस पागल संत ने नारद जी से कहा—तो क्यों नहीं बनाए? इसलिए नहीं बनाए क्योंकि उनका मकसद यह था कि संत अपने लिए कम-से-कम चाहता है और ज्यादा-से-ज्यादा जो भी दुनिया में अच्छाइयाँ हैं, विभूतियाँ हैं, उनको दूसरों के लिए बाँटता है। दुनिया में संत की बस एक ही पहचान है और दूसरी कोई पहचान नहीं है। आप पता लगाइए कि अपने लिए वह कितना खर्च करता है और समाज के लिए, दूसरों को सुखी बनाने के लिए कितना खर्च किया। इसके लिए उसका अनुदान कितना है?
अब नारद जी ने भगवान से कहा—महाराज जी! जरा देखिए तो सही, वह पागल संत आप से बड़ा है कि नहीं? उन्होंने कहा—हाँ, यह तो मुझसे बड़ा है। क्यों? क्योंकि हम तो दुपट्टा भी पहनते हैं, तंबूरा भी लिए हुए हैं। उसके हाथ में तंबूरा भी नहीं है, दुपट्टा भी नहीं है और कोई चीज नहीं है। खड़ाऊँ भी नहीं है। हर चीज को इसने त्याग रखा है और कहता है कि दूसरे लोगों को खुशहाल बनाने के लिए खर्च करूँगा।
मित्रो! ऐसा संत, जो भगवान से भी बड़ा है। इसके बाद उससे फिर सवाल किया गया—भाई संत जी। यह जो आप तलवार घुमाते हैं, वह किसलिए घुमाते हैं? उससे क्या फायदा है? उन्होंने कहा—मैं तलवार चलाने का अभ्यास कर रहा हूँ। क्यों अभ्यास कर रहे हैं? इसलिए अभ्यास कर रहा हूँ कि इस संसार में भगवान के तीन दुश्मन हैं और जब कभी भी मिलेंगे, तो तलवार लेकर जाऊँगा और उनका सिर काट करके लाऊँगा। मुझे सिर काटना नहीं आता है, तलवार चलाना नहीं आता है, इसलिए तलवार चलाने की विद्या सीख रहे हैं। जब भी ये भगवान के तीनों दुश्मन मिल जाएँगे, मेरे भगवान को दुःख देने वाले, मेरे भगवान को कष्ट देने वाले मिलेंगे, तो मैं उनका सिर काट डालूँगा, छोड़ूँगा नहीं। सिर काटना मुझे नहीं आता, इसलिए तलवार चलाना सीख रहा हूँ। ऐसे तलवार चलाता हूँ कि सामने आया तो ऐसे काटूँगा। ऐसे आया तो कैसे काटूँगा? वैसे काटूँगा। इस तरीके से तलवार चलाता हूँ।
भगवान के तीन शत्रु
नारद जी ने कहा—अच्छा नाम तो बताओ कि भगवान के तीन दुश्मन कौन-कौन से हैं? उन्होंने कहा—एक थी द्रौपदी। उन्होंने कहा—द्रौपदी तो भगवान की भक्त थी। संत ने कहा—भगवान की भक्त थी! जरा-सी साड़ी खींची तो चिल्ला रही थी। भगवान बिचारे कितने काम में लगे हुए थे, फिर भी उसने बुलाया—कपड़ा लाना। भगवान की नाक में दम कर दिया और भगवान के काम में हर्ज किया। प्यार क्या ऐसे किया जाता है, जिसमें कि अपने प्रियतम को दुःख होता हो? प्यार ऐसे किया जाता है कि उसमें शांति मिलती हो, प्रसन्नता मिलती हो, उसका काम पूरा होता हो। उसके लिए अपना सर्वस्व त्याग किया जाता है, अपना सर्वस्व अर्पण किया जाता है। उन्होंने कहा कि द्रौपदी किसी मतलब की नहीं थी। वह बड़ी मतलबी थी। अगर जब कभी भी द्रौपदी मेरे सामने आ गयी, तो उसका सिर काट डालूँगा।
नारद जी ने पूछा—और कौन-कौन था? उन्होंने कहा—एक का नाम था अर्जुन। अर्जुन ने क्या बिगाड़ा था? अर्जुन ने यह बिगाड़ा था कि वह राज्य लेना चाहता था, जमीन-जायदाद बढ़ाना चाहता था, राजा बनना चाहता था। महल बनाना चाहता था। अर्जुन, भगवान को पकड़ लाया और बोला—तुम तो हमारे साले हो। भगवान ने कहा—हैं तो सही। उसने कहा—तुम तो हमारे सखा हो। उन्होंने कहा—हैं तो सही। तुम तो हमारे दोस्त हो? हैं तो सही। उसने कहा—हमारे घोड़ों को, रथ को चलाओ। भगवान ने कहा—अच्छी बात है भाई! जैसा तेरा मन हो, मर्जी हो, वैसा काम हमसे करा लो। हम मना नहीं करते। अर्जुन भगवान को पकड़कर ले आया और बोला घोड़े चलाओ, राज्य दिलवाओ। क्या अर्जुन ऐसा भक्त हो सकता है? उन्होंने कहा—जो अपने मतलब में डूबा हुआ है, जिसको दूसरों की और भगवान की इच्छाओं को जानने की अपेक्षा केवल अपनी इच्छाओं के बाबत पड़ी है, ऐसा व्यक्ति भक्त नहीं हो सकता है। उन्होंने कहा कि मैं ठीक कह रहा हूँ कि जिस दिन अर्जुन मिलेगा, उसका सिर काट डालूँगा।
मित्रो! नारद जी ने कहा—भाई! दो भक्त तो हो गए, तीसरा भक्त कौन था? तीसरा भक्त कौन रह गया? संत ने कहा—उस आदमी का नाम है—नारद। नारद ने क्या बिगाड़ा? नारद ने यह बिगाड़ा कि उसने मनुष्य को बता दिया कि भगवान मनुष्य के अंतरंग में बैठा हुआ है। अगर यह नहीं बताता कि अपने भीतर देख, अपनी आँखें खोल। लोगों को भक्ति सिखाता फिरता है, तंबूरा बजाता फिरता है और यह कहता फिरता है कि भगवान की भक्ति करो। भगवान के सामने कीर्तन करो। भगवान के सामने हाथ जोड़ो और भगवान के सामने प्रसाद चढ़ाओ। भगवान के सामने ये करो, भगवान के सामने वो करो। तंबूरा बजाता, डोलता फिरता है और लोगों को भ्रम में डालता फिरता है। यह भगवान का भक्त है, जब देखो तब आतंक मचाता रहता है कि महाराज जी! दुनिया के लोग बड़े दुःखी हैं, उनको ठीक कर दें। स्वयं नहीं जाता, उनके पास यह कहने कि तुम्हारी अक्ल खराब हो रही है, उसे सही कर लें। सुबह-शाम गाता-बजाता रहता है। न जाने क्या-क्या खेल कराता चला जाता है?
इसने मुझे बहुत परेशान किया है और भगवान को भी। जबकि भगवान जानता है कि अपने प्यारे बच्चे को सुखी बनाने के लिए क्या किया जाना चाहिए और अगर वह रास्ता भूल गया है, तो इसको सही कैसे किया जाना चाहिए? भगवान प्यार करना भी जानता है और दण्ड देना भी जानता है। अज्ञान के कारण मनुष्य अपनी तृष्णाओं से, वासनाओं से, कामनाओं से दिन-रात किस बुरी तरीके से जलते हैं। भगवान यह भी जानता है, इनको कैसे जलाया जाना चाहिए और यह भी जानता है कि इनको अनुदान कैसे दिया जाना चाहिए? प्यार कैसे किया जाना चाहिए? दोनों ही हाथ भगवान के हैं। उसके एक हाथ में दण्ड है और एक हाथ में कमल का फूल है। दोनों हाथ में शंख और चक्र लिए हुए है। एक हाथ से ज्ञान का शंख बजाता है और कहता है—उठो, आगे बढ़ो, कर्तव्य का पालन करो।
मित्रो! भगवान विष्णु के एक हाथ में शंख है, एक हाथ में चक्र लगा हुआ है, जो गतिशीलता का प्रतीक है। कालचक्र रुकता नहीं है। समय तुम्हारे पास हमेशा रहने वाला नहीं है। बेटा तुम्हारे पास रहने वाला नहीं है। तुम्हारे यहाँ बच्चा अट्ठारह वर्ष का हो गया। अब उसे और किसी के पास खेलने दो। बड़े भाई ने, छोटे भाई को अट्ठारह वर्ष तक खिलाया, अब यह काम छोटे भाई के हाथ में थमा दो। तुम्हारा अट्ठारह वर्ष का बच्चा, किसी और के यहाँ चला गया। उसे जाने दो और उसके यहाँ भी खेलने दो। हाय हमारा बच्चा चला गया। गलत बात है। लिखने वाली पट्टी हमारी थी। हमारे सबसे बड़े भाई ने, उसी में पढ़ना-लिखना सीखा। पट्टी को उस जमाने में विद्या कहते थे। आज के बच्चे तो पट्टियों को तोड़-ताड़ कर फेंक देते हैं। हमारे बड़े भाई ने, उसी में पढ़ा। बड़े भाई के बाद में, तीसरे नंबर के भाई ने पढ़ा। फिर दूसरे नंबर के भाई ने पढ़ा और मैंने उसी में पढ़ा। मेरे भतीजे ने उसी में पढ़ा। पाँच व्यक्तियों ने उसी पट्टी में पढ़ा और एक ही पट्टी कुटुंब में कई सदस्यों के काम आती रही।
भगवान की परिपाटी
मित्रो! भगवान के यहाँ इसी प्रकार की यह परंपरा है, इसी प्रकार की परिपाटी है। यहाँ मैं आपसे चक्र की गतिशीलता की बात कर रहा था और कह रहा था कि दुनिया में चीजें बदलने वाली हैं। आज तुम मालदार हो, कल तुमको गरीब होना है। आज तुम स्वस्थ हो, कल तुम्हें रोग का मजा भी चखना है। आज तुम्हारे घर में संपदा है, कल तुम्हारे घर में विपत्ति होनी चाहिए। भगवान चक्र घुमाता रहता है। भगवान के हाथ में एक गदा है। जो भी आदमी अनीति की राह पर चलता है, उसके बताए हुए मार्ग पर से पथभ्रष्ट हो जाता है, गदारूपी दण्ड उसके हाथ में लगा हुआ है। उससे सिर पर, ऐसा वह मारता है कि आदमी हाय-हाय चिल्लाता हुआ चला जाता है। अस्पताल में जा करके देखिए, भगवान की गदा से मारे हुए, कितने ही व्यक्ति भरे पड़े हैं।
भगवान को प्यार करना भी आता है और गदा मारना भी आता है। अस्पताल में किसी की टाँग उखाड़ी जा रही है, किसी का पेट फाड़ा जा रहा है, किसी का सिर काटा जा रहा है। किसी के दाँत उखाड़े जा रहे हैं, तो किसी की आँखों में सुइयाँ चुभोई जा रही हैं। एक बार मैंने नरक का वर्णन पढ़ा था, परंतु समझ में नहीं आया कि नरक कैसा होता है? यदि आपको नरक देखना हो तो अस्पताल में चले जाइए। आज इसकी टाँग का ऑपरेशन होगा, बस हाय-हाय। आज उसके दाँत उखाड़े जाएँगे—हाय। इस तरीके से मित्रो! हाय-हाय की उसके यहाँ व्यवस्था है। उसके यहाँ हाय-हाय की भी पूरी गुंजायश है और प्यार की भी गुंजायश है।
मित्रो! कैसे? उसके एक हाथ में कमल का फूल लगा हुआ है। भगवान विष्णु शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए हुए हैं। प्यार का फूल, अनुदान का फूल और स्नेह-वात्सल्य का फूल, दया का फूल—भगवान के हाथों में अत्यंत अनुदान का फूल लगा हुआ है। चार चीजों से भगवान विष्णु के हाथ भरे हुए हैं। भगवान ने नारद जी से कहा कि तुमने संत के लक्षण देख लिए। नारद ने कहा—हाँ, संत के लक्षण देख लिए, अच्छा, तो वह मुझसे बड़ा है कि छोटा? मुझसे बड़ा है। क्यों? क्योंकि ये दो वृत्तियाँ उसके भीतर हैं। वह असली भक्त है और वह इतना बड़ा भक्त है, जो कि भगवान से भी बड़ा है। भगवान से बड़ा भक्त बनने के लिए मित्रो! कर्मकाण्डों की आवश्यकता नहीं है।
मित्रो! मैं सारे जीवन भर कर्मकाण्ड करता रहा। मैंने सोलह वर्ष की उम्र में माला घुमाई और मेरे हाथों की अँगुलियाँ घिस गयीं। मैं छः-छः घंटे पालथी मारकर बैठा रहा और मेरे नितम्बों में फोड़े पड़ गए। तकलीफ होती थी, पीड़ा होती थी, फिर भी मैं छः-छः घंटे बैठा रहा, माला घुमाता रहा। ये कर्मकाण्ड मैंने किए हैं, तो क्या कर्मकाण्डों के माध्यम से मुझे यहाँ तक पहुँचने का रास्ता मिल गया है? उन्हें पाने का मौका मिल गया है? नहीं केवल छोटे से रास्ते से और केवल कुछ प्रयोग करने के तरीके से—जैसे यह चम्मच थे, थालियाँ थीं, कटोरियाँ थीं। जिनका मैं जिकर कर रहा था। चम्मच से, खाने से चावल अच्छी तरह खाया जा सकता है। कटोरी में दाल रखी जाय तो, थाली में फैली-फैली नहीं फिरेगी। थाली में चावल रख दिया जाय, तो देखने में अच्छा लगेगा। यह कर्मकाण्ड है; लेकिन चावल दूसरी चीज है और दाल दूसरी चीज है। दाल कटोरी में पैदा नहीं होती। चावल भी कटोरी में पैदा नहीं होता। चावल और दाल तो खेत में पैदा किया जाता है। थाली, कटोरी में रखकर खाया जाता है। थाली में रख करके खाया जाता है।
अकेले कर्मकाण्ड से नहीं मिलते भगवान
मित्रो! इसी तरह माला में भगवान को इस्तेमाल किया जाता है। माला उसको पकड़ने का रास्ता है, रस्सा है। माला रस्सा है, घोड़े को बाँधने का। घोड़ा अलग चीज है और रस्सा अलग चीज है। घोड़े को बाँधना है, तो बेशक हमको रस्सा चाहिए। बिना रस्से के हम घोड़े को कैसे बाँध लेंगे? लेकिन रस्सा आपके हाथ में है और आप यह कहते फिरें कि घोड़ा आपके हाथ में आ गया। घोड़ा खरीदने के लिए, हजार रुपया लाइए और यह तो ढाई रुपये का रस्सा है। रस्से से भगवान पकड़ा जाता है, लेकिन रस्सा नहीं है—भगवान। माला से भगवान पकड़ा जाता है, पर माला नहीं है—भगवान। घी के, दीप की आरती से भगवान को पकड़ा जाता है, पर घी की आरती का दीप भगवान नहीं हैं।
भगवान एक और चीज है, एक और सत्ता है, जो हमारे अंतःकरण में विद्यमान है और हमारे भावना के रूप में काम करता रहता है। भावना का परिष्कार करना आध्यात्मिकता का परिष्कार करना है। भावनाओं को उत्कृष्ट बनाना, भगवान के साथ संबंध मिला देना है। यही सबसे बेहतरीन तरीका है। अपनी उच्चतम भावनाओं को विकसित कर लें, फिर भगवान के पास पहुँचने के लिए कोई कमी नहीं है।
मित्रो! एक बार तुलसीदास जी रामायण की कथा लिखने लगे। संसार का कल्याण करने के लिए, रामायण को महाग्रन्थ बनाया। कागज ले आए, कॉपी ले आए, स्याही ले आए, कलम ले आए। लिखने के लिए बैठे तो उन्होंने कहा कि इतना महान कार्य करने से पूर्व हमको भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए? कौन से भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए? शंकर-पार्वती याद आ गए। उन्होंने कहा—मैं शंकर-पार्वती का ध्यान करूँगा। उनकी पूजा करूँगा, उनका अभिनंदन करूँगा, उसके बाद में रामायण लिखना शुरू करूँगा। वे शंकर की उपासना करने लगे। शंकर की प्रार्थना करने लगे। रामायण को शुरू करते हुए तुलसीदास जी ने कहा—
‘‘भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धा स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥’’
रामायण को शुरू करते हुए, हम भवानी-शंकर की प्रार्थना करते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं। उनका आवाहन करते हैं, उनका पूजन करते हैं। भीतर की जीवात्मा ने कहा—कौन हैं भवानी-शंकर? जो बैल पर बैठे फिरते रहते हैं, वे हैं? बैल पर तो धोबी भी बैठा फिरता है। फिर तो बैल पर बैठने वाले का नाम शंकर नहीं हो सकता। उन्होंने कहा—वे त्रिशूल लिए फिरते हैं। त्रिशूल तो भिखारी भी लिए फिरते हैं। उन्होंने कहा—जो डमरू बजाते फिरते हैं, वे शंकर हैं। डमरू तो बाजीगर भी बजाते फिरते हैं। उन्होंने कहा—जो साँप गले में डाले फिरते हैं। साँप तो गले में सपेरे भी डाले हुए फिरते हैं, पर वे तो शंकर नहीं हैं। फिर वह कौन-सा शंकर है? जिसकी पूजा करने के लिए तुम खड़े हो गए हो? तुलसीदास जी की जीवात्मा ने उनका वर्णन किया है—‘‘भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।’’ श्रद्धा और विश्वास के रूप में हैं भवानी-शंकर।
श्रद्धा-विश्वास का स्वरूप हैं भवानी-शंकर
मित्रो! मनुष्य की श्रद्धा का नाम है—भवानी और मनुष्य के विश्वास का नाम है—शंकर। ‘‘भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।’’ इन दोनों की सहायता के बिना, कोई भी व्यक्ति अपने अंतरंग में बैठे भगवान को नहीं देख सकता। उनको देखने के लिए जिस दूरबीन की आवश्यकता है, जिस दृष्टि की आवश्यकता है, जिस टेलिस्कोप की आवश्यकता है, जिससे कि भगवान दिखाई पड़ें। देखिए टेलिस्कोप में दो शीशे लगे हुए हैं, दो लेंस लगे हुए हैं। उनमें से एक का नाम है—श्रद्धा और एक का नाम है—विश्वास। श्रद्धा और विश्वास के माध्यम से हम भगवान को ढूँढ़ सकते हैं, भगवान को पा सकते हैं। मैं आपको भगवान से रिश्ता बनाने के लिए, बताने वाला था। आपको भगवान को पाने की विधियाँ सिखाने वाला था, पर उन विधियों को सिखाने से पहले, मुझे यह बताना होगा कि आखिर वह भगवान क्या है, जिसका आपको साक्षात्कार करना है, जिसका आपको दर्शन करना है। आखिर भगवान है क्या और यह भगवान किस तरीके से प्राप्त किया जाता है और भगवान को प्राप्त करने के लिए किन चीजों की जरूरत होती है? यह तैयारियाँ आप कर लें, तो फिर विधियाँ तो मैं सेकण्डों में बता दूँगा, मिनटों में बता दूँगा। विधियों के पीछे पागल होने की जरूरत नहीं हैं। सिद्धांत जानने की जरूरत है।
विधि जानने में लगता है समय
मित्रो! एम.बी.बी.एस. डॉक्टर होने के लिए पाँच साल की पढ़ाई पढ़नी पड़ती है। उसकी थ्योरी जाननी पड़ती है। एनाटॉमी किसे कहते हैं? हृदय किसे कहते हैं? रक्त कैसा होता है? शरीर विज्ञान किसे कहते हैं? किडनी कैसी होती है? शरीर के अंग-प्रत्यंग जानने के लिए, उनके क्रिया-कलाप क्या हैं? जानने के लिए पाँच साल लगाने पड़ते हैं। साहब! ऑपरेशन सिखा दीजिए, ऑपरेशन बड़ा सरल है। एक ब्लेड वाला चाकू ले लीजिए और खट से काट दीजिए। मलहम लगा दीजिए, पट्टी बाँध दीजिए, बस हो गया ऑपरेशन।
ऑपरेशन को जानने के लिए, ऑपरेशन की विधियाँ जानना आवश्यक है। ऑपरेशन की विधियाँ एक मिनट की हैं, पर शरीर में कैसा ऑपरेशन किया जाएगा और उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी? कब करना चाहिए और कब नहीं करना चाहिए? यह सब जानने के लिए, पाँच साल लगाने पड़ते हैं। ऑपरेशन करने की विधि क्या है? बड़ा वाला डॉक्टर-प्रोफेसर एक मिनट में सिखा देता है। वह कहता है—आओ बच्चो! देखो ऑपरेशन किया जा रहा है। देखो—चाकू गरम कर लिया? हाँ। एण्टीसेप्टिक तैयार कर लिया? हाँ। चीरा लगाने से पहले एनस्थीसिया लगा दिया? क्यों? क्योंकि इसको पीड़ा न हो। सुई लगा दी? हाँ। ऑपरेशन आधे घंटे का काम था, परंतु विधि को जानने के लिए, पाँच साल लगाए थे।
मित्रो! भगवान का स्वरूप और भगवान का स्वभाव जानने में आपको ज्यादा वक्त लगाना पड़ेगा। नहीं साहब! जल्दी-जल्दी विधियाँ बता दीजिए। विधियों के पीछे पड़ने की जरूरत नहीं है। एक आदमी था, जो बड़ा निकम्मा और बड़ा खराब था। उसने भगवान का पल्ला पकड़ना शुरू किया। नारद ने बता दिया कि भगवान का नाम लेना चाहिए। उसने कहा—क्या नाम लूँ? राम का नाम लिया कर। राम नाम याद आने लगा, तो उसे याद आया कि मेरा सारा जीवन तो कषाय-कल्मषों में बीता है। वह अपने कषाय-कल्मषों को याद करने लगा। डर लगा तो राम-राम तो मुख से निकला नहीं, उल्टे मरा-मरा कहने लगा। मरा-मरा का उल्टा अक्षर का जप करने लगा—‘‘उल्टा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना।’’
राम का नाम लेना सरल है, काम करना कठिन
नारद का वह शिष्य, नारद की शिक्षा पाया हुआ शिष्य, उल्टा राम का नाम जपने लगा और राम का काम भी करने लगा। राम का नाम और राम का काम—दोनों का क्या संबंध है? देखें—
सहज राम को नाम है, कठिन राम को काम।
करत राम को काम जो, पड़त राम से काम॥
राम का काम मुश्किल है, पर राम का नाम लेना मुश्किल नहीं है। राम का नाम लेना क्या मुश्किल है? जब हम सबेरे गार्डन में घूमने जाते हैं, तो सबेरे ही राम नाम का कीर्तन शुरू हो जाता है। रेडियो का बटन दबाते हैं और दिल्ली से सबेरे ही राम का नाम चिल्लाता है। राम का नाम हमारे कान में आ जाता है, हमारे घरवालों के कान में आ जाता है। रोज रेडियो से सुन लेते हैं और रोज हम गुनगुना लेते हैं—जय राम की साहब! राम-राम साहब! सबको नमस्कार करते रहते हैं, राम-नाम करते रहते हैं। राम-राम से हमारा क्या हो जाता है? राम का नाम सरल है पर राम का काम कठिन है। वाल्मीकि ने कहा कि मैं राम का कठिन काम भी करूँगा और राम का नाम भी लूँगा। जिस दिन से उन्होंने राम का नाम लेना शुरू किया, उस दिन से उन्होंने डाका डालना बंद कर दिया। चोरी करना बंद कर दिया। फिर राम का नाम भी लिया और राम का काम भी किया।
मित्रो! वह जबरदस्त डाकू, कैसा जबरदस्त संत बना कि भगवान रामचंद्र जी को अपनी पत्नी को वनवास भेजना था? पेट में दो बच्चे थे और उनको हिफाजत की जरूरत थी, जो उन बच्चों को संस्कारवान बनाए और धर्मपत्नी की इज्जत-आबरू की रखवाली करे। जो उनकी धर्मपत्नी को वैसा ही सौजन्य और स्नेह दे, जैसा कि राम के द्वारा, कौशल्या के द्वारा मिला करता था। जनक के द्वारा मिला करता था।
भगवान रामचंद्र जी, ऐसे ही बढ़िया आदमी को ढूँढ़ रहे थे। उन्होंने तलाश किया कि कौन-सा ऋषि ऐसा होगा? वशिष्ठ? नहीं, वह बेकार आदमी है। विश्वामित्र? नहीं, बिल्कुल नहीं। सबसे बढ़िया वाला आदमी तलाशा गया, तो उन्हें ख्याल आया कि एक ही बढ़िया वाला आदमी है। दुनिया में सबसे बढ़िया वाला आदमी रामचंद्र जी को वही दिखाई पड़ा, जिसका नाम था—वाल्मीकि। वाल्मीकि डाकू के आश्रम में सीता जी भेज दी गयीं और वहीं उनका लालन-पालन हुआ और वहीं उनके पुत्रों का जन्म हुआ। वहीं उनके बच्चों को संस्कारवान बनाया गया। राम का काम करने वाला बड़ा होता है, राम का नाम लेने वाला नहीं।
समझें भगवान के स्वरूप को
मित्रो! मैं आपसे निवेदन कर रहा था कि राम के स्वभाव को जानना पड़ेगा और राम के स्वरूप को समझना पड़ेगा। राम का स्वभाव और राम का स्वरूप यदि आप जान लेते हैं, तो मैं समझता हूँ कि नब्बे फीसदी समस्या हल हो जाती है। थोड़ी-सी बात रह जाएगी, तो उसे मैं मिनटों में आपको बता दूँगा। राम का स्वरूप दिखाने के लिए रामचंद्र जी को दो बार मौका मिला और श्रीकृष्ण भगवान को अपना विराट् रूप दिखाने का दो बार मौका मिला।
एक बार श्रीकृष्ण भगवान मिट्टी खा रहे थे। अपने मुँह में मिट्टी भरते हुए चले जा रहे थे और उसे खाते हुए चले जा रहे थे। बच्चे की यह गलती देख करके यशोदा जी बहुत नाराज हुईं। उन्होंने बच्चे का कान पकड़ लिया। पूछा—क्यों? तूने मिट्टी खाई है। बच्चा ही तो था। कहने लगा, नहीं, हमने नहीं खाई है। झूठ बोलता है। एक तो मिट्टी खाता है, ऊपर से झूठ बोलता है। अच्छा, मुँह दिखा कि मिट्टी खाई है कि नहीं खाई? भगवान ने अपना मुँह फाड़ा। मुँह फाड़ने पर यशोदा ने क्या देखा? भगवान का असली स्वरूप देखा। सारा विश्वब्रह्माण्ड उनके मुखारविन्द में था। सारे जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, सारी वसुधा-वसुंधरा भगवान के मुँह में थी। उन्होंने कहा—देखा मेरा स्वरूप।
यह सारा विश्व है ब्रह्म का रूप
मित्रो! भगवान श्रीकृष्ण ने माता यशोदा से कहा—यह सारा विश्व, यह सारी वसुंधरा—यह है मेरा रूप। खिलौनों के रूप में नहीं, मूर्तियों के रूप में नहीं, तस्वीरों के रूप में नहीं, ईश्वर के रूप में नहीं, वरन् मैं सारे विश्वब्रह्माण्ड में आत्मा के रूप में हूँ। आत्मा के भीतर विद्यमान हूँ। सबके अंतःकरण में विद्यमान हूँ। यह सारा विश्व, भगवान का स्वरूप है। देखना है, तो देख और मेरा स्वरूप समझ। माता यशोदा का स्वर मंद पड़ गया। उन्होंने आँखें बंद कर लीं। एक बार और मौका आया, अपना विराट रूप दिखाने को। महाभारत युद्ध चल रहा था। अर्जुन खड़ा हुआ था और कह रहा था कि मैं नहीं लड़ूँगा। मैं संन्यास ले लूँगा। भगवान गीता की कथा सुनाने लगे और गीता की कथा सुनते-सुनते अर्जुन के अंदर ज्ञान का उदय हो गया। उसने कहा—भगवान! आपने जितनी कथा की है, हमारा एक और काम कर दीजिए। उन्होंने कहा—कौन-सा काम? उसने कहा—मुझे भगवान के दर्शन करा दीजिए। मैं भगवान के दर्शन करना चाहता हूँ।
मित्रो! भगवान ने कहा—इन आँखों से तू दर्शन कैसे करेगा? अर्जुन ने कहा—इन आँखों से ही करना चाहता हूँ। भगवान ने सिर हिलाया और कहा—ऐसा नहीं हो सकता? चमड़े वाली आँख से, चमड़े की चीजें दिखाई जा सकती हैं। पंचतत्त्वों से बनी चीजें दिखाई जा सकती हैं। खिलौने दिखाए जा सकते हैं। तस्वीरें दिखाई जा सकती हैं, इंसान दिखाए जा सकते हैं, भगवान नहीं। भगवान किस तरीके से दिखाए जाएँगे?
उन्होंने कहा—‘‘दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।’’ मैं तुम्हारे लिए, दूसरी आँखें दूँगा। नया लेंस ला करके दूँगा, नया माइक्रोस्कोप ला करके दूँगा। तू उस आँख से देख कि मेरा स्वरूप क्या है? भगवान ने अर्जुन की, विवेक की आँखें खोल दी। अर्जुन ने देखा कि यह सारा ब्रह्माण्ड, सारा विश्व, सारी वसुंधरा, सारी वसुधा और आकाश से लेकर पाताल तक भगवान का विराट् रूप देखा। अर्जुन धन्य हो गया। विवेक की आँख से देखने के बाद अर्जुन धन्य हो गया। हम चमड़े की आँख से भगवान को देखते हैं।
अनुभूति से होते हैं भगवान के दर्शन
गुरुजी! भगवान के दर्शन करा दीजिए। गायत्री माता के दर्शन करा दीजिए। शंकर जी के दर्शन करा दीजिए। देख लो यह ताँबे की तस्वीर है, जिसमें शंकर भगवान बैठे हुए हैं। हाँ, महाराज जी! बैठे तो हैं, पर इससे हमें संतोष नहीं हुआ। फिर कैसे देखोगे? ऐसे देखेंगे—जिसकी जटाएँ हों, जिसके बाल हों। चला जा मंदिर में, गंगेश्वर महादेव के पास, वहाँ शंकर जी की जटाएँ भी हैं, त्रिशूल भी हैं। शंकर जी के चाँदी की आँखें भी लगी हुई हैं। चलिए शंकर जी को दिखाकर लाते हैं। नहीं महाराज जी! यह तो मंदिर में पहले भी हमने देखे थे। आप जिसकी बात करते हैं, वहाँ तो हम चाहे, जब चले जाते हैं और दर्शन कर आते हैं।
अच्छा, तो आप कौन से भगवान का दर्शन करना चाहते हैं? जो हँसते हों, चलते हों, बोलते हों, बातचीत करते हों, ऐसे शंकर जी चाहिए, तो फिर परसों आना। क्यों? परसों क्या है? उनके बालक का नाटक होने वाला है। गणेश जी का जन्मदिन आने वाला है। जल्दी-जल्दी तैयार हो जाओ, काम बहुत हैं। सुबह गंगा नहाते हैं और गणेश जी का सिर काटते हैं और हाथी का सिर ले आते हैं और चिपका देते हैं। पार्वती जी से बात करते हैं। वहाँ मैं आपको शंकर जी को हँसता-खेलता, खाता-पीता दिखाकर लाऊँगा। आपको उनके दर्शन हो जाएँगे। आपका उद्देश्य पूरा हो जाएगा। नहीं महाराज जी! सिनेमावाला भगवान नहीं चाहिए। सिनेमा वाला नहीं चाहिए, तो मूर्ख! चमड़े वाली आँख से भगवान कभी नहीं देखा गया। अनुभूतियों से भगवान आया है। आपको आँखों से भगवान नहीं दिखाया जा सकता। भगवान विवेक की आँख से ही देखा गया है।
मित्रो! रामचंद्र जी पर, दो बार ऐसी मुसीबत क्यों आई? कौशल्या ने कहा कि स्वयंभू मनु और शतरूपा रानी के रूप में हमने लंबे समय तक तप किया था और कहा था कि भगवान हमारी गोदी में आएँ। लेकिन यह बच्चा तो पाखाना कर देता है, टट्टी कर देता है। यह चिल्लाता है। दूध माँगता है। यह तो बच्चा आ गया, भगवान कहाँ आया? यह तो खाना माँगता है, लेकिन भगवान तो दुनिया को खिलाता था। यह तो जब पेट में भूख लगती है, तो हाय-हाय मचाता है, चिल्लाता है और दूध माँगता है। यह कैसा भगवान है?
उन्होंने कहा—हमारी तपस्या बेकार हो गयी। कौशल्या ने कहा—भगवान तो गंदगी नहीं करते। भगवान तमाम दिन खाना खाते हैं, पर टट्टी नहीं करते। भगवान की पहचान क्या है? खाना सब दिन खाओ और टट्टी न करो। एक महात्मा जी आए, जिन्होंने गोरक्षा आंदोलन के बारे में अनशन शुरू कर दिया। हमारी तीर्थयात्रा थी, अतः मैं भी जाने लगा। सोचा पास की बात है, जरा देखकर आऊँ और पता लगाकर आऊँ कि क्या काम चल रहा है? देखूँ तो सही कि स्वामी जी का अनशन आजकल कैसा चल रहा है? हमने उन्हें खाते हुए तो नहीं देखा, पर टट्टी जाते हुए देखा है, एक व्यक्ति ने बताया। इस पर उन्होंने कहा—ऋषियों की पहचान यह है कि जो खाए कभी नहीं और टट्टी दोनों बार जाय और भगवान की पहचान यह है कि वह खाए कई बार और टट्टी कभी न जाए।
मित्रो! यह फरक क्यों है? कौशल्या ने कहा—टट्टी तो नहीं जाता। टट्टी जाता हुआ भगवान नहीं हो सकता। भगवान राम ने संदेह दूर करने के लिए, कहा कि जिस रूप में मुझे देखना चाहती थीं, गोदी में खिलाते हुए, ऐसा मुझे किसी नहीं खिलाया। भगवान ने कहा—मुझे ऐसे नहीं खिलाया जाता, तो कैसे खिलाया जाता है? उन्होंने कहा—मुझे हृदय में खिलाया जाता है, मुझे मस्तिष्क में खिलाया जाता है, मुझे भावना में खिलाया जाता है। मुझे नियति की गोदी में खिलाया जाता है और तब भगवान ने कौशल्या को अपना विराट स्वरूप दिखाया। कौशल्या ने जब भगवान का विराट स्वरूप देख लिया, तो उसका मन विचलित हो गया। उसने कहा—रामायण का एक छन्द आता है, जिसका भाव है कि आप अपने इस स्वरूप को समेट लें और मुझे अपने शिशु के रूप में सुख और आनंद प्रदान करें। भगवान ने अपनी माया समेट ली और कौशल्या ने देखा कि भगवान पुत्र रूप में उन्हें मिल गए। अब तो आप भी समझ लें कि माया उसी तरह से है, जैसे कि उन्होंने भगवान को अपना विशेष समझ लिया था।
कैसे मिलते हैं भगवान?
मित्रो! एक बार काकभुशुण्डि जी को भी भगवान मिले थे। उनको शंकर जी ने बताया कि रामचंद्र जी का अवतार हो गया है। जाओ भगवान का दर्शन करके आओ। काकभुशुण्डि जी उनके पास आए। उन्होंने देखा कि वह तो चावल खाता फिरता है और भाइयों से लड़ता फिरता है। आपस में बोलता रहता है। भगवान कहीं ऐसा होता है? भगवान ऐसा होता है, भगवान वैसा होता है। जो भी हो, यह भगवान नहीं हो सकता। कौए ने क्या किया? कौए ने सोचा-चलो परीक्षा करें कि यह भगवान हैं भी या नहीं हैं। बस, जैसे ही चावल खाने के लिए, रामचंद्र जी ने मुँह फाड़ा, बस, काकभुशुण्डि मुँह में घुस गए और पेट में चले गए। उसने कहा—देखूँ तो सही पेट में कुछ है कि नहीं। बच्चा होगा, तो डॉक्टर को बुलाएगा, उल्टी कराएगा और गले में से निकालेगा। भगवान होगा, तो उसके पेट में गंगा-ही-गंगा होगी। कौआ पेट में घुसता हुआ चला गया। उसने वहाँ देखा कि सारा विश्व-ब्रह्माण्ड भगवान के पेट में भरा हुआ पड़ा था।
मित्रो! यह है भगवान का स्वरूप। उसके साथ में मैं आपका रिश्ता बनाना चाहता था। उसके साथ में आपका ब्याह कराना चाहता था। उसके साथ में आपकी दोस्ती बढ़ाना चाहता था। भगवान व्यक्ति नहीं हैं। व्यक्ति हमारी भावनाओं को परिपक्व करने के लिए आध्यात्मिक प्रणाली है, प्रक्रिया है। यह एक प्रक्रिया है, यह एक प्रणाली है, जिसके द्वारा हम भगवान तक पहुँच सकते हैं। यह एक माध्यम है। जैसे—चंद्रमा पर यात्रा करने के लिए, अमेरिकन लोगों का यह प्लान है। उसके अनुसार रास्ते में एक स्टेशन बनाया जाय, जहाँ पर पेट्रोल मिल जाया करे और जहाँ पर मुसाफिर थोड़ा सुस्ता लिया करें। फिर चंद्रमा की यात्रा के लिए जाया करें। इसी तरह भगवान तक जाने के लिए, बीच की एक मंजिल है, जो हमने मनुष्य जैसा एक भगवान बनाया हुआ है। उसका हम ध्यान करते हैं, पूजन करते हैं, भजन करते हैं, उपासना करते हैं। उसका हम अभिनंदन करते हैं। मस्तिष्क में हम उसका ध्यान लगाते हैं। यह तो बीच का स्टेशन है, जो हमको भगवान तक पहुँचाने में समर्थ हैं।
क्या है भगवान का असली स्वरूप?
लेकिन मित्रो! भगवान का असली स्वरूप वह है, जो मैंने आपको निवेदन किया। राम और कृष्ण—दोनों ने अपने भक्तों को अपना असली स्वरूप दिखाया। आप लोगों को समझने और जानने के लिए वही स्वरूप है। उसके साथ में किस तरीके से प्यार किया, कैसे उसका वंदन और पूजन किया जाय, कैसे उसकी अर्चना की जाय, इसके लिए आपको भावनात्मक पहलू भी जानना होगा? उसमें कर्मकाण्ड भी एक पहलू है।
पूजा करने की विधियाँ, कर्मकाण्ड का एक पहलू है, लेकिन भावना वाला स्तर, सबसे बड़ा स्तर है। इस भगवान के साथ प्यार कैसे किया जाएगा? उस भगवान के साथ मोहब्बत किस तरीके से की जाएगी? उस भगवान का अर्चन, वंदन कैसे किया जाएगा? इसके बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने एक छोटी-सी चौपाई में अध्यात्म का सारे-का रहस्य खोलकर रख दिया है। भगवान से मिलने का सारा रहस्य और तौर-तरीका एक छोटी-सी चौपाई में, मजेदार चौपाई में रख दिया है—
सीय राममय सब जग जानी।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी॥
भगवान की पूजा करने और भगवान को प्राप्त करने का विधान यही है। सीयाराम मय दो तरह के प्राणी हैं। एक के लिए पुल्लिंग कहते हैं और एक के लिए स्त्रीलिंग कहते हैं। सृष्टि में ये बराबर हैं। एक को रयि कहते हैं और एक को प्राण कहते हैं। एक को सोम कहते हैं और एक को अग्नि कहते हैं। यही सारी वसुधा और वसुंधरा, अग्नि और सोम के रूप में, रयि और प्राण के रूप में, नर और नारी के रूप में—दो भागों में विभक्त है। इस संबंध में हमारा दृष्टिकोण क्या हो?
इसके लिए बताया गया है कि उसमें जो पुल्लिंग वाचक हैं, उनके साथ हमारी भावना राम की हो। राम की भावना होगी, तो राम के साथ कैसे व्यवहार किया जाय? राम हमारे घर पर आएँ, तो राम की पूजा किस तरीके से करें? कैसे व्यवहार करें? उसके लिए आपको विचार करना होगा। रामराज की दुकान पर गरमागरम मलाईदार दूध मिलता है। ब्लॉटिंग पेपर के मलाई की बर्फी जमाई जाती है। दूध देंगे, ताकि रामचंद्र जी महाराज की तिल्ली बढ़ जाए और इस दूध की वजह से वे सूख-सूखकर काँटा हो जाएँ। रामचंद्र जी महाराज को आप ऐसा दूध देंगे? नहीं, आप ऐसा दूध नहीं दे सकते। जब आपको सारे विश्व में भगवान दिखाई पड़ेगा, जब आपको सारे समय भगवान दिखाई पड़ेगा, तब आप बच्चों के तरीके से विह्वल हो जाएँगे। जब आपको सारे विश्व में भगवान दिखाई पड़ेगा, तब आप बच्चों की तरीके से विह्वल हो जाएँगे।
मित्रो! एक किसान था और एक उसका बच्चा था। दोनों पास में एक खेत काटने के लिए गए। बच्चे को खेत की मेढ़ पर बिठा दिया और कहा—जरा देखते रहना, खेत का मालिक न आ जाय, तब तक मैं फसल काट लेता हूँ। जब मालिक आ जाय, तो बता देना। बच्चा थोड़ी देर तक खड़ा रहा और किसान ने अनाज का गट्ठा काट लिया। तभी बच्चा चिल्लाया—पिताजी भागिये! क्या हुआ? खेत का मालिक आ गया। चलना चाहिए। किसान अपने बच्चे के साथ भागने लगा। दोनों ही भागने लगे। थोड़ी दूर जाकर किसान ने पूछा—खेत का मालिक कहाँ है? जिसके कारण तूने मुझे भगाया। उसने कहा—देखूँ तो सही, वह कौन है? पेड़ के ऊपर चढ़कर उसने देखा, तो कोई कहीं नहीं दिखाई दिया। उसने कहा—बच्चे! यहाँ तो कोई नहीं हैं। बच्चे ने कहा—पिताजी! आपको मालूम है न, कल हम लोगों ने कथा में सुना था कि भगवान सब जगह विराजमान है, सबमें विद्यमान है? भगवान सबमें मौजूद है। उसकी हजार आँखें हैं—
ॐ सहस्रशीर्षाः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात।
स भूमिम् सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥
अर्थात उसकी हजारों आँखें हैं। उसकी हजारों भुजाएँ हैं। हजारों उसकी टाँग हैं। ऐसा है भगवान, जो हर जगह विद्यमान है। उसके रहते हुए चोरी करना क्या संभव है? उसने कहा—नहीं, चोरी करना संभव नहीं है।
इसलिए मित्रो! जब हमको भगवान का साक्षात्कार होता है, तो हम कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकते, जिसमें किसी का बुरा करना पड़ता हो। उसके लिए विश्वास करना पड़ता हो। किसी के साथ में अनीति और अन्याय करना पड़ता हो। ऐसा कोई काम वह आदमी नहीं कर सकता, जो भगवान के बारे में जानकारी रखता हो। भगवान को पाने की कम-से जिसको जानकारी हो, ऐसा व्यक्ति अपने स्वयं के आचरण को अक्षुण्ण बनाए रह सकता है। भगवान हमारे अंदर ही नहीं है, वरन् सब प्राणियों के भीतर हैं।
मित्रो! सिकंदर ने एक बार राजा पोरस को गिरफ्तार कर लिया और जेल खाने में डाल दिया। पोरस को कचहरी में पेश किया गया। सिकंदर ने पूछा—‘‘पोरस! तेरे साथ में कैसा व्यवहार किया जाए?’’ उसने कहा—‘‘ऐसा व्यवहार किया जाय, जैसे कि एक राजा को, दूसरे राजा के साथ करना चाहिए।’’ सिकंदर की आँखें झुक गयीं। उसने उसको रिहा कर दिया। उसने कहा—ठीक है, राजा का सम्मान, राजा ही समझ सकता है। आत्मा का सम्मान, आत्मा ही समझ सकती है। आप दूसरे मनुष्यों का अपमान करते हैं, तिरस्कार करते हैं। अत्याचार करते और पीड़ाएँ पहुँचाते हैं। अनीति करते और शोषण करते हैं। अन्याय करते हैं। ऐसे में, मैं कैसे मानूँगा कि आप भगवान को जानते हैं? भगवान को पाने की बात तो बहुत दूर की है, आगे की बात है। आप भगवान को जानते हैं? आपने कहा—हम तो जानते हैं। हम उज्जैन गए थे। वहाँ महाकाल के दर्शन करके आए थे।
मित्रो! आप कहते हैं कि हम बद्रीनाथ हो करके आए हैं और हम भगवान को जानते हैं। मैं नहीं जानता कि आप कैसे बद्रीनारायण का दर्शन करके आए हैं? आपने अपनी जबान पर काबू रखना सीखा नहीं, दूसरों का जी दुखाते रहे। दूसरों से कटुवचन बोलते रहे। दूसरों के साथ अनीति का व्यवहार करते रहे, तो मैं कैसे मानूँगा कि आप—‘‘सीय राममय सब जग जानी’’ वाली चौपाई का एक खंड भी समझते हैं। जिस दिन आप इस चौपाई का एक खंड भी समझ जाएँगे, उस दिन सृष्टि के समस्त प्राणवानों के प्रति, समस्त जीवों के प्रति, नारी जाति के प्रति, वैसा ही व्यवहार कर रहे होंगे, जैसा कि व्यवहार करना चाहिए। उनके प्रति सम्मान, उनका गौरव, उनका महत्त्व, उनका बड़प्पन, उनकी सत्यता, उनकी महानता आपकी आँखों में विद्यमान हो गयी होगी। उस दिन सच्चे अर्थों में आप सबमें भगवान की विद्यमानता अनुभव करेंगे।
॥ आज की बात समाप्त॥
॥ ॐ शान्तिः॥