उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
मित्रो! लोकहित के लिए हमारे मन खाली होते चले गए। उदारता हमारे में से निकलती चली जा रही है और निष्ठुरता हमारे रोम-रोम में घुसती चली जा रही है। परिणाम क्या होगा? आप देख लेना, इसका परिणाम बहुत भयंकर होगा। कलियुग के बारे में पुस्तकों में जोबताया गया है, उसको मैं सही मानता हूँ। आदमी का चिंतन जैसा और जितना घटिया होगा, मुसीबतें उसी हिसाब से आएँगी। आज भगवान की दी हुई मुसीबतें हमारे पास आती हुई चली जा रहीं है। बीमारियाँ हमारे पास बराबर बढ़ रही हैं। डॉक्टर बढ़ रहे हैं, अस्पताल बढ़रहे है, लेकिन बीमारियों का दौर अभी और बढ़ेगा। डॉक्टर कितने बढ़ गए हैं, भगवान करें डॉक्टर दोगुने-चौगुने हो जाएँ। लेकिन बीमारियों का क्या हो जाएगा? बीमारियाँ अच्छी नहीं हो सकतीं। बीमारियाँ सौ गुनी ज्यादा होंगी, हजार गुना प्यादा होंगी। वे तब तक अच्छीनहीं हो सकती, जब तक आदमी आध्यात्मिकता के रास्ते पर लौटकर नहीं आएगा, तब तक आदमी का पिंड बीमारियों से नहीं छूटेगा और घर का नरक? बेटे घर का नरक भी दूर नहीं हो सकता।
अगले दिन और खराब होंगे
गुरुजी! हमारे घर का नरक तो दूर हो जाएगा। कैसे हो जाएगा? गुरुजी! हमने तो अपने चारों बच्चों को देहरादून के पब्लिक स्कूल में भेज दिया है। उससे क्या हो जाएगा? उससे गुरुजी! हमारे बच्चे ऐटीकेट सीखकर के आएँगे। ऐटीकेट क्या होता है? ऐटीकेट उसे कहते हैं, जब कोई आदमी आए और घर में पानी पीने को माँगे, तो उसको कहना चाहिए "थैंक यू वैरी मच" तो क्या इसी को ऐटीकेट कहते हैं? हाँ इसी को कहते हैं। हमने बोर्डिंग स्कूल में अपने बच्चे को दाखिल करा दिया है। वह क्रीज किया हुआ पैंट पहनेगा। हमारा लड़का अच्छाबनेगा। नहीं बेटे, तेरा लड़का अच्छा नहीं बन सकता, क्योंकि उसके भीतर, उसकी जीवात्मा में भाइयों के लिए, बहनों के लिए, माता−पिता के लिए जो प्रेम और सेवा की वृत्ति होनी चाहिए, वह कहाँ से आएगी? बेटे, हमको ये मालूम पड़ता है कि अगले दिन बहुत बुरे आनेवाले हैं। अगले दिनों युद्ध के दौर भी आ सकते हैं, बीमारियों के दौर भी आ सकते हैं। टेंशन बढ़ता हुआ चला जा रहा है। क्यों महाराज जी। सबको टेंशन हो जाएगा? शायद सबको हो जाए। अमेरिका में तो छाप भी दिया गया है कि सिगरेट पीजिए, टेंशन बुलाइए। सिगरेटपीजिए, कैंसर बुलाइए। तो क्या सबकी टेंशन हो जाएगा? हाँ। अगर टेंशन न हुआ तो और बीमारी हो जाएगी। डायबिटीज हो जाएगी। नींद न आने की शिकायत हो जाएगी। पेप्टिक अल्सर हो जाएगा और बहुत सी बीमारियाँ हैं, जो आदमी को धर दबोचेंगी।
ये कैसे हो जाएँगी? मित्रो! आदमी की जो घटिया वृत्तियाँ हैं वे न केबल आदमी के शरीर को, वरन उसके ईमान को और अंतःकरण को गलाती और जलाती चली जाएँगी। घर नरक बनते चलते जाएँगे ।। साहब! हमारे बेटे की बहू तो एम० ए० पास है। तो बेटे, तेरे घर मेंजल्दी नरक आएगा। हमारे बेटे की बहू तो इंटर पास है। तो तेरे घर में थोड़ी देर भी हो सकती है। अरे साहब! हमारी औरत तो बिना पढ़ी-लिखी है। तो तेरे घर और भी कुछ ज्यादा दिन तक शांति रह सकती है। लेकिन अगर तेरी बहू एम० ए० पास है, तो बेटे, तेरे घर में नरकजल्दी आएगा, तू देख लेना।
मित्रो! ऐसा क्यों होता चला जा रहा है? शिक्षा की दृष्टि से, धन की दृष्टि से, अमुक की दृष्टि से, सब तरह से आदमी संपन्न होता चला जा रहा है। लेकिन ईमान की दृष्टि से, अंतरंग की दृष्टि से इतना खोखला होता चला जा रहा है कि उसके ऊपर मुसीबतें आएँगी। नेचरहमारे ऊपर मुसीबतें पटक देगी। वह हमें क्षमा करने वाली नहीं है। हमसे शरीर का स्वास्थ्य सुरक्षित रहने वाला नहीं है। हमको किसी से प्यार-मोहब्बत रहने वाली नहीं है। हम मरघट के प्रेत-पिशाच के तरीके से अब जिंदा रहने जाले हैं। मरघट के प्रेत-पिशाच में एक हीबात होती है कि न तो कोई उसका होता है और न वह किसी का होता है। प्रेत-पिशाचों में क्या फर्क होता है? बेटे, एक ही होता है, हर भूत के मन की ये बनावट होती है कि न वह किसी का और न कोई उसका। तो महाराज जी! आपने देखे हैं कि भूत कैसे होते हैं? हाँ, हमनेदेखे हैं और आपको भी दिखा सकते हैं।
चलते-फिरते प्रेत-पिशाच
ये भूत आपको कहाँ मिलेंगे? मित्रो! आप पाश्चात्य देशों में चले जाइए। वहाँ आपको प्रेत मिलेंगे, पिशाच मिलेंगे। कैसे? जो अशांत ही अशांत हैं। पैसा जिनके पास अंधाधुन्ध है, लक्जरी जिनके पास बहुत सारी है, टेलीविजन है, पीने को फलों का जूस है, लेकिन वे इतनेअधिक अशांत हैं, टेंशन में है कि प्रेत पिशाचों से कम नहीं हैं। न कोई उनका और न वे किसी के। न बीबी उसकी, न भैया उसका। दोनों के दोनों वेश्या और भड़ुवे हैं। जब तक दोनों चाहते हैं, तब तक तमाशा दिखाते हैं और जब मन भर जाता है तो एक दूसरे को लात मारकरभगा देते है। हम ये किसकी बात कह रहे है? बेटे, इसी को पिशाच कहते हैं। पाश्चात्य देशों में यही होता है।
मित्रो! इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणति यह होगा कि हमारा अंतरंग खोखला होता चला जाएगा। पैसा बढ़ेगा, तो हम क्या कर सकते हैं? शिक्षा बढ़ेगी, सभ्यता बढ़ेगी, तो हम क्या कर सकते हैं? दौलत बढ़ेगी, तो हम क्या कर सकते है? मित्रो! इससे आदमी केऊपर मुसीबतें ही आएँगी। हम और आप जिस जमाने में रहते हैं, बेटे, हमारे प्राण निकलते हैं उसे देखकर। जब हम भविष्य की ओर देखते हैं, विज्ञान की और देखते हैं, तब हमें खुशी होती है कि हमारे बाप-दादे कच्चे मकानों में रहते थे और हम पक्के में रहते हैं। हमारेबाप-दादों में से कोई पढ़ा-लिखा नहीं था और हम सब पढ़े-लिखे हैं। सुविधाओं को देखते हैं, तो हमारे पास टेलीफोन है और बहुत सारी चीजें हैं, लेकिन जब उनके साथ-सुथरे जीवन को, उज्ज्वल चरित्र को देखते हैं, तो उस दृष्टि से हम किस कदर दिनोंदिन घटते हुए चलेजा रहे हैं, यह स्पष्ट दिखाई देता है।
विवेकानन्द के मास रामकृष्ण परमहंस जाया करते थे और कहते थे कि बेटा हमारा कितना काम हर्ज होता है? तू समझता नहीं है क्या? महाराज जी मैं बी० ए० करूँगा, एम० ए० करूँगा, नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्ज हो जाएगा और हमजिस काम के लिए आए हैं और तू जिस काम के लिए आया है, सो उसका क्या होगा? नहीं महाराज जी! देखा जाएगा, पहले तो मैं नौकरी करूँगा। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। एक दिन रामकृष्ण परमहंस रोने लगे। उन्होंने कहा, बेटे तू नौकरी करेगा, तो मेरा काम हर्जहोगा। मित्रो! विवेकानन्द चले गए और रामकृष्ण ने उन्हें क्या से क्या बना दिया। कई आदमी कहते रहते हैं कि गुरुजी! हमको आशीर्वाद देकर आप विवेकानन्द बना सकते हैं? बेटे, हम आपको बना सकते हैं। इसके लिए हम व्याकुल भी हैं और लालायित भी, लेकिनपहले तू कीमत तो चुका। नहीं महाराज जी! कीमत तो नहीं चुकाऊँगा। आप तो आशीर्वाद दीजिए। बेटे, जो तू आशीर्वाद ही आशीर्वाद माँगता है, वह जीभ की नोंक से कह देने भर से आशीर्वाद नहीं हो जाता। उसे आशीर्वाद नहीं कहते। आशीर्वाद के लिए आदमी को अपनापुण्य देना पड़ता है, मनोयोग देना पड़ता है, तप देना पड़ता है, श्रम देना पड़ता है। नहीं, महाराज जी! जीभ हिला देते हैं, सो वही आशीर्वाद हो जाता हैं।
आशीर्वाद इतना सस्ता नहीं
बेटे, तू जीभ हिलाकर के आशीर्वाद माँगता है। मैं समझता हूँ तू जीभ हिलाकर के ही राम के नाम को भी हजम करना चाहता है, मंत्र को हजम करना चाहता है। जीभ को हिलाकर और न जाने क्या-क्या काम कराना चाहता है। मंत्र जपने से देवता मिल सकते हैं, स्वर्ग मिलसकता है, तो फिर गुरुजी का आशीर्वाद क्यों नहीं मिल सकता? जीभ से सब चीजें मिल सकती है। हाँ, महाराज जी! जीभ की नोंक हिलाइए फिर देखिए, क्या करामात आती है? हाँ बेटे, जीभ की नोंक हिलाकर वहाँ चला जाना बैंक में और जीभ हिला देना-दीजिए दो हजाररुपए। देखें कहाँ से लाएगा जीभ हिलाकर। बेटे, तुझे सब जीभ ही जीभ दिखाई पड़ती है और कोई दूसरी चीज नहीं दिखाई पड़ती। गुरुजी का आशीर्वाद भी जीभ और हमारा भजन भी जीभ, सब जीभ ही जीभ। क्रिया की जरूरत ही नहीं पड़ेगी? हाँ गुरुजी। क्रिया की क्याजरूरत है। आप तो जीभ हिला दीजिए बस हो जाएगा, आशीर्वाद। बेटे, ऐसा कोई आशीर्वाद नहीं है, न था और न कभी होगा।
युग की पुकार सुनिए
मित्रो! फिर क्या करना पड़ेगा? अब मैंने आपको इसलिए बुलाया है कि हमको आपकी आवश्यकता आ पड़ी है। हम तीस साल से कुटुंब बनाकर रह रहे थे और तीस साल से आपको बुला रहे थे। अब हम आपसे पूछते हैं कि क्या आपके लिए ऐसा संभव है कि आप अपनेजीवन में दैवी संपदा का खरच ओर सबूत दे पाएँ। क्या आपके लिए यह संभव है कि आप अपने जीवन में त्याग का, सेवा का, बलिदान का, परोपकार का और परमार्थ का कोई प्रमाण दे सकते हैं कि नहीं? मित्रो! अभी ये लड़कियाँ गा रही थी और मेरे मन में भी लहर आरही थी। वे गा रही थीं, "जरूरत आ पड़ी है, काल की चाल मोड़ो तुम" ये समय ने पुकार की है, युग ने पुकार की है, संस्कृति ने पुकार की है, देश ने पुकार की है, धर्म ने पुकार की है, मानवी सभ्यता ने पुकार की है कि आपके पास कुछ है, तो आप दीजिए। गुरुजी हमारे पासनहीं है। ठीक है, जहाँ तक पैसे का सवाल है, मैं जानता हूँ कि आपके पास पैसा होता तो शायद आप मेरे पास न आते। मैं जानता हूँ आपकी गरीबी को और परेशानी को, पर इस गरीबी के बीज में भी मेरी ये आँखें चमकती हैं और एक चीज के बारे में दृष्टि डालती हैं, तोपाती हैं कि अभी भी आपके पास मन है, आपके पास कलेजा है, आपके पास दिल है। अगर आप अपने मन, अपने हृदय और अपने श्रम की बूँदें लगा सकते हों, तो इस परीक्षा की घड़ी में आपका आना जीवन धन्य बनाने के लिए पर्याप्त है।
मित्रो! अब परीक्षा की घड़ी सामने आ गई है। इसको हमने पुनर्गठन योजना कहा है। इसके कितने पहलू हैं, कल हमने इस बारे में बताया था और फिर आज बताएँगे कि इसके क्या परिणाम आ लेते हैं? हम अपने जवान कुटुंब से क्या कराना चाहते थे और क्या करासकते हैं? क्या संभावना है? हाँ, सौ फीसदी संभावना है। महाराज जी! आप तो ऐसे ही सपने देखते हैं। हाँ बेटे, हमने सपने ही देखे हैं और हमारे सपने पूरे होकर रहे हैं। हमने सपने देखे, जब गायत्री तपोभूमि नहीं बनी थी। जब हमारे पास मात्र छह हजार रुपए थे, तबहमने 'गायत्री तपोभूमि' का एक नक्शा छापा था 'अखण्ड ज्योति' पत्रिका में, तो लोगों ने कहा, क्यों साहब! आपने तो बड़ा लंबा-चौड़ा सपना छाप दिया। हाँ भाई ये सपना है। गायत्री तपोभूमि हम ऐसे ही बनाएँगे। महाराज जी! ये तो कितने ही रुपयों की हो जाएगी? आपकेपास इतने रुपए कहाँ हैं? देख बेटे, मेरे पास छह हजार रुपए हैं। इतने से नहीं बनेगी तो छह लाख से बन जाएगी।
मित्रो! हमारा ख्वाब और हमारा सपना पूरा होकर के रहा। गायत्री तपोभूमि जो बनी है, वह उससे तीन-चार साल पहले छपे हुए गायत्री तपोभूमि के चित्र से हूबहू मिलती हुई बनाई गई है। हमारे सपने युग को बदलेंगे, नया जमाना लाएँगे। दैवीय सभ्यता और दैवीय संपदाकी फिर से स्थापना करेंगे। हम असुरता को चैलेंज करेंगे। क्यों? क्योंकि हम मनुष्यता से प्यार करते हैं, क्योंकि हम मानवी भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहते हैं, क्योंकि हमको अपनी नई पीढ़ियों के बारे में बड़ी उमंग है। हम अपनी नई पीढ़ियों को बहुत प्यार करते हैं।जिन मुसीबतों से हम गुजर रहे हैं, अपनी नई पीढ़ियों को गुजरवाना नहीं चाहते, क्योंकि हम बच्चों को बहुत प्यार करते हैं।
इसलिए मित्रो! हम नई सभ्यता लाने के लिए और नया युग लाने के लिए प्रयत्न करते हैं और उस प्रयत्न के लिए आपसे सहयोग माँगते हैं। पुनर्गठन योजना हमारे और आपके समय की परीक्षा की एक कसौटी है। इसमें हम आपका पी० एम० टी० के लिए इम्तिहानलेते है, क्योंकि अगले चरण में, जिनमें हमको ब्रह्मवर्चस की स्थापना भी करानी है, अपने अनुदान भी देने हैं, आपके यश भी अजर अमर बनाने हैं, आपकी जीवात्मा में शक्ति का संचार भी करना है। इसके लिए यह देखना है कि आप लोगों में से कुछ में जान है, जिसको'दैवीय सभ्यता' कहते हैं, 'दैवीय संपदा' कहते हैं। उसमें त्याग-बलिदान की बात होती है। क्या उसके लिए आप कुछ कर पाएँगे है।
दैवीय संपदा का विस्तार करें
साथियो! दैवीय सभ्यता जिसका अर्थ भजन करना नहीं होता, वरन जीवन को दैवीय सभ्यता के अनुरूप ढाल लेना होता है। छोटे से अनुदान के रूप में से हर एक का हमने समय माँगा है। हमने जो कार्यक्रम बनाए हैं सब एक उद्देश्य से बनाए हैं। वह सब इसलिए बनाएहैं कि हममें से कोई भी आदमी निष्क्रिय न रहने पाए। हर एक से कहा है कि अगर आपके अंदर निष्क्रियता है, तो उसे दूर कीजिए और अपने अंदर सक्रियता का विकास कीजिए। अपने युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को हम सक्रिय देखता चाहते हैं। किसके लिए? जोहमारा मिशन है, उसके लिए। गुरुजी! आपने किसको क्या-क्या सक्रियता सौंपी है? बेटे, हमने उन आदमियों के लिए भी, जो घोर व्यस्त हैं, कार्य सौंपा है। जिनके पास योग्यता है, उनको भी कार्य सौंपा है और कहा है कि आप इस विचारधारा को फैलाने में योगदानदीजिए मदद कीजिए।
महाराज जी! हम आपकी मदद कैसे करें? बेटे, आपके पास जो हमारी रिसर्च है, जिसको आपने माना है, जो आप हमारी पत्रिकाएँ पढ़ते हैं, उनको आप दस आदमियों को पढ़ाइए। अगर आप पुस्तकालय नहीं चला सकते हैं, तो कोई बात नहीं, लेकिन आप एक पत्रिका कोदस आदमियों को पढ़ा सकते हैं। इससे हमारा मिशन दस गुना अधिक दो महीने के भीतर हो जाएगा। इस तरह जितना हमने तीस साल में किया है, उतना आप एक साल में कर सकते हैं।
गुरुजी! और हम क्या कर सकते हैं? बेटे, कब से हमारे झोला पुस्तकालय चल रहे हैं, चल पुस्तकालय चल रहे हैं। इन्हें आप दो घंटे भी चला दिया करें, तो मजा आ जाए। दो घंटे का उदाहरण मैं अकसर देता रहता हूँ। हमारे यहाँ सुल्तानपुर के कई बच्चे आए हुए है। वहीं केएक वकील है लखपति राय। वे अभी भी हैं, यद्यपि अब बुड्ढे हो गए, शरीर उतना काम नहीं करता। लेकिन अब से दस साल पहले उनका नियम था कि वे चल पुस्तकालय की धकेलगाड़ी लेकर चल पड़े बाजार में, लीजिए साहब पुस्तक पढ़िए। लीजिए हमारे गुरुजी कासाहित्य पढ़िए, युग निर्माण का साहित्य पढ़िए। जितने भी मुवक्किल थे, दुकानदार थे, सबको साहित्य देते हुए चले जाते थे। सारे के सारे सुल्तानपुर में उन्होंने इस तरह रोब गाँठ दिया।
एक अकेले का पुरुषार्थ
एक बार मैं सुल्तानपुर गया। पहले भी कई बार जा चुका था। लोग पाँच कुंडीय यज्ञ कराते थे, तब सौ-पचास आदमी इकट्ठा हो जाते थे। मुझे याद है, एक-दो बार मेरे प्रवचन भी हुए थे। वकील साहब ने जब मुझसे कहा, गुरुजी! एक बार आप आ जाएँ, तो मजा आ जाए।मैंने कहा, क्या आएँगे आपके यहाँ, पाँच कुंडीय यज्ञ ही तो करते हैं। नहीं, गुरुजी! अबकी बार बड़ी जोर से करेंगे? सौ कुंड का यज्ञ करेंगे। मित्रो, यज्ञ करने का निर्धारण होने के बाद चलते समय मैंने उनसे कहा कि जाने से पहले गायत्री तपोभूमि के लिए कुछ पैसे छोड़ जानेका हमारा मन है। क्या आप कुछ पैसे इकट्ठा करा सकते हैं? हाँ गुरुजी। हम करा देंगे। कितना? पच्चीस हजार का तो हमारा वायदा है, फिर आगे आपका भाग्य है।
मित्रो, उन्होंने क्या काम किया कि सारे शहर को हमारा साहित्य पढ़ा दिया और हर एक व्यक्ति से ये कहा, हमारे गुरुजी जिनका कि आपने साहित्य पढ़ा है, क्या आपको पसंद है? सबने एक स्वर से कहा कि अरे भाई! पढ़ा ही क्या, हम तो पगला गए हैं, उनके विचारों कोपढ़कर। हम गुरुजी को बुलाकर लाएँ, तो आप उनके लिए कुछ खरच करेंगे क्या? उनको बुलाएँ तो आप अपना कुछ समय हर्ज करेंगे क्या? हाँ साहब! खरच करेंगे। मित्रो! उन्होंने तीन-चार दिन का कार्यक्रम रखा था। जब मैं वहाँ गया, तो मैंने अचंभा देखा। देखा किसुल्तानपुर, जो कि छोटी भी बस्ती है, छोटा सा जिला है, वहाँ उन्होंने लगभग पचास हजार आदमियों के बैठने के लिए पांडाल बनाया था। मैं सोचता हूँ, उसमें एक लाख से कम आदमी नहीं थे। इतना बड़ा विशाल आयोजन देखकर मैं अचंभे में पड़ गया कि ये सुल्तानपुरहै या और कोई शहर है। इसकी तो आबादी ही इतनी है। दूर-दूर के देहातों से लोग आए थे।
मित्रो! मैं यह एक व्यक्ति की बात कह रहा हूँ कि एक अकेले आदमी ने क्या-क्या कर डाला? एक आदमी की सक्रियता का परिणाम ये हुआ कि उसने सारे सुल्तानपुर को जगा दिया था। तीन-चार दिन यह चमत्कार मैंने देखा और जब विदा हुए, तो मैं समझता हूँ किउन्होंने हमको यज्ञ में से बचाकर पैंतीस-चालीस हजार रुपए दिए थे। यह मैं एक आदमी की करामात कहता हूँ, जिसमें उसके सहयोगी भी शामिल थे। उन्होंने भी सहयोग किया, पर मैं बात एक की कहता हूँ। आपसे पूछता है कि आप क्या ये काम नहीं कर सकते? आपएक घंटा समय नहीं दे सकते? दो घंटे समय नहीं दे सकते? कलेजा है आप में? हृदय है आप में? हिम्मत है आप में? जीवन है आप में? निष्ठा है आप में? श्रद्धा है आप में? अगर ये नहीं हैं, तो ये बहाने मत बनाइए कि शाखा बंद हो गई है। कोई आता नहीं है। सबमेंलड़ाई हो गई है। सबमें फूट फैल गई है। गुरुजी! कोई सुनता नहीं है। कमेटी में कोई आता नहीं है। धूर्त, बेकार की बातें बकता है, वह नहीं करता, जो मैं कहता हूँ। कितनी बार एक ही बात को कहता है। मैं पूछता हूँ तू क्या करता है?
मिशन-नया युग-मानव का भविष्य
मित्रो! जब एक आदमी लड़ने के लिए खड़ा हो जाए, तो क्या कर सकता है, यह बात मैंने एक उदाहरण देकर बताई। ऐसे मैं ढेरों उदाहरण बता सकता हूँ आपको। एक आदमी सक्रिय हो गया, तो उसने सारे इलाके को सक्रिय कर दिया। आपसे मैं पूछता हूँ कि आपके अंदरअगर निष्ठा है, तो क्या आप समय नहीं दे सकते मिशन के लिए? मिशन से मतलब 'नया युग' से है। मिशन से मतलब मानवी सभ्यता, मानवी भविष्य। इस पर आपकी आस्था है या कुछ भी नहीं है? नहीं, महाराज जी। हमारी तो बेटे पर आस्था है और पैसे परआस्था है। तो बेटे, मैं तुझे बालक मानूँगा और ये कहूँगा कि अध्यात्म की किरणें तेरे पास नहीं आईं। अध्यात्म को किरणें जब भी आई हैं, तो देवत्व को आसुरी सभ्यता के खिलाफ खड़ा होना पड़ा है। हमारे अंदर जब गायत्री मंत्र आया, तो साथ में देवत्व भी आया। देवत्वऔर गायत्री मंत्र दोनों ने मिलकर के चमत्कार दिखाया। बेटे, तू तो गायत्री मंत्र लिए ही फिरता है, देवत्व कहाँ है तेरा? देवत्व तो है ही नहीं। केवल मंत्र ही मंत्र रटने चला है।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? मैं चाहता हूँ कि हमारी परीक्षा को घड़ी में आप लोग साथ दे। पुनर्गठन योजना आपकी एक परीक्षा है, ब्रह्मवर्चस के आधार पर और दूसरे आधारों पर यह आपकी परीक्षा है। हम अपने कुटुंब को कुछ और मजबूत बनाना चाहते हैं, सक्षम बनानाचाहते हैं, लेकिन हम क्या कर सकते हैं? आप चाहें तो होता पुस्तकालय के माध्यम से, चल पुस्तकालय के माध्यम से, इसे अकेले ही चला सकते हैं। तीर्थयात्रा के माध्यम से, स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से अकेले ही चला सकते हैं। यह मैं एक व्यक्ति की बात कहताहूँ। अब हम नए किस्म के स्लाइड प्रोजेक्टर बनाने वाले हैं। अब कुछ ऐसी योजना बना रहे हैं, जिससे ये सब चीजें तीन सौ-साढ़े तीन सौ के भीतर ही तैयार हो जाएँ। आप तीन सौ रुपए खरच कीजिए और हर घर में हमारा सिनेमा दिखाइए।
मित्रो! यह मैं अकेले की बात कहता हूँ, 'एकला चलो रे '-चलो रे' की बात कहता हूँ। अकेले चलकर भी आप जाने क्या से क्या कर सकते हैं। तीर्थयात्रा के लिये, साइकिल यात्रा के लिए, पदयात्रा के लिए आप निकल सकते हैं और एक-दो आदमी साथ ले सकते हैं। दीवारों परसद्वाक्य लिखने का काम आप अकेले कर सकते हैं। अकेले के इस तरह ये इतने काम हैं-झोला पुस्तकालय, तीर्थयात्रा, दीवारों पर वाक्य लेखन आदि। ये सब एक आदमी का काम है। इसे एक व्यक्ति अकेले ही कर सकता है। इसलिए अगर आप चाहें, अगर आपकेअंदर जीवन हो, देवता की भावना उदय होती हो, तो आप इन सब चीज को कर सकते हैं।
संगठित हों, इंजन बनें
यह तो हुई नंबर एक बात। नंबर दो-अगर आप अकेले नहीं कर सकते और आप में कोई संगठन की वृत्ति है, तो संगठन की वृत्ति के लिए आप हमारा हाथ बँटाइए और अपना थोड़ा समय दीजिए। टोली नायकों का काम स्थानीय है। आप उसमें सम्मिलित होकर के एकघंटा-दो घंटा समय लगा सकते हैं और आपको लगाना चाहिए। आप टोली में सम्मिलित हो सकते हैं और होना चाहिए। दस-दस आदमी की आप टोली बना लें और पचास पाठकों को इकट्ठा कर लें, तो बेटे, ये साठ की मंडली होती है। साठ व्यक्तियों की मंडली बहुत बड़ीहोती है। साठ डाकुओं ने सारे चंबल को हिलाकर रख दिया था। साठ आदमियों का संगठन अगर आपके पास है, तो आप गजब कर सकते हैं। अगर आपके पास जीवट है, तो साठ आदमी बहुत होते हैं। इंजन अगर जीवित हो, तो साठ डिब्बों की रेलगाड़ी जाने कहाँ से कहाँजा सकती है। इंजन जिंदा हो तो, लेकिन अगर इंजन मरा हुआ हो तो बेटे हम नहीं जानते।
इसलिए मित्रो! टोली नायकों की दृष्टि से आपको काम करना चाहिए। आप चाहें तो समय दिए बिना अपने स्थानीय क्षेत्र में घर में रहकर एक काम यह भी कर सकते है कि आप जन्मदिन मनाने की परंपरा को जीवंत करने के लिए समय लगा सकते हैं। घर-घर मेंगोष्ठियाँ, घर-घर में सभा, घर-घर में सम्मेलन हम जन्मदिन के माध्यम से फिर से शुरू कर सकते हैं। शुरू के दिनों में दिक्कत मालूम पड़ेगी, फिर वाद में आप देखेंगे कि कितना ज्यादा लोग सहयोग देते हैं। पहले आपको साथ-साथ सत्संग में सहयोग नहीं मिलता था, लेकिन अगर आप देखें, तो पाएँगे जन्मदिन के आधार पर जन्मदिन मनाते समय लोग कितना खुश होते हैं। उसमें व्यक्ति को अपनी प्रसन्नता व्यक्त करने का मौका मिलता है, खुशी का मौका मिलता है। सब आदमी आशीर्वाद देते हैं, कोई फूल चढ़ाता है और कोईप्रणाम करता है। आज हमारा जन्मदिन है। हम अपना मुँह शीशे में देखते हैं, तो कितनी खुशी होती है, आप ये भी नहीं जानते? इसमें जनता के सहयोग का कितना ज्यादा लाभ भरा पड़ा है, क्या आप इसे नहीं जानते? अगर आप हकीकत में आएँ तो आप इसे देख सकतेहैं। हकीकत में नहीं आएँ, तब मैं नहीं कह सकता। अगर आप जन्मदिन मनाने की परंपरा को फिर से फैला सकें, तो आप देखेंगे कि ये मिशन, जिसमें देवत्व के पुनर्जीवन का संकल्प छिपा हुआ है, उसको जिंदा करने के लिए आप क्या कर सकते हैं।
वाणी से नहीं, आचरण से शिक्षण
मित्रो! ये आपको अभ्यास का मौका है। इस बहाने, इस लोक-लाज के बहाने आपको हम बंधनों में इतना बाँधकर भेजेंगे कि अगर आप छह महीने अभ्यास कर लें तो आप समझना कि आपने छह महीने का योगाभ्यास कर लिया। छह महीने की तप-साधना कर लेंगेआप। आपकी जीभ के ऊपर अंकुश, खान-पान के ऊपर अंकुश, उठने-बैठने के ऊपर अंकुश, हजार अंकुश लगाने पड़ेंगे। नहीं गुरुजी! हम तो व्याख्यान देंगे। बेटे, हमें नहीं कराना व्याख्यान। अगर हमारी शर्तें पूरी कर सकता है, तो तेरे व्याख्यान का स्वागत है। नहीं साहब! हम कोई शर्त पूरी नहीं करेंगे, हम तो बक्-बक् करेंगे और चाहे जैसे रहेंगे। बेटे, हम तुझे चाहे जैसे नहीं रहने देंगे।
इसलिए मित्रो! ऐसे लोगों की खासतौर से हमको आवश्यकता है, जो बक्-बक् से नहीं, अपने आचरण और व्यवहार से हमारा प्रतिनिधित्व करें। क्या हम ऐसा नहीं कर सकते कि अपने दो लाख मित्रों में से, जिनमें अधिकांश व्यक्ति पढ़े हों, सुशिक्षित हो, इस लायक होंकि आत्मशोधन और आत्मनिर्माण के अलावा लोक निर्माण की जिम्मेदारी निभा सकते हों, उनको हम छह महीने का योगाभ्यास कराना चाहते हैं। यह विशुद्ध प्रशिक्षण है, जिसमें लोक लाज की वजह से और हमारी शरम की वजह से, दोनों दबावों की वजह से व्यक्तिअपने चरित्र को ठीक ढालता हुआ चला जाएगा और लोकहित के लिए, जिसमें मानवजाति का हित जुड़ा हुआ है, दोनों काम करता हुआ चला आएगा। आप हमारे प्रतिनिधि के रूप में जाना और जो शाखाएँ, जो शक्तिपीठें निष्क्रिय पड़ी हुई है, उनमें उमंग पेश करना औरकहना कि आपको गुरुजी का सम्मेलन करना पड़ेगा, टोलियाँ बनानी पड़ेगी, जन्मदिन मनाना पड़ेगा और अपने आचरण एवं व्यवहार से लोगों को शिक्षण देना पड़ेगा। यदि इतना काम आप कर सके, तो हमारा यह शिविर सार्थक हो जाएगा, हम और आप दोनों धन्य होंजाएँगे। आज को बात समाप्त।
।। ॐ शांतिः।।
जहाँ जाएँ, उत्कृष्ट व्यवहार करें
संपर्क में आते ही मनुष्य के जिस कृत्य का सर्वप्रथम प्रभाव पड़ता है, यह व्यवहार ही है। किसी व्यक्ति की वेशभूषा, आकृति और उसके बोलने करने का ढंग ही प्रथम संपर्क में सामने आता है। खान-पान की आदतें, रहन-सहन, प्रकृति, स्वभाव और आचार विचार तोबाद में मालूम पड़ते हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व का पहला परिचय व्यवहार से ही मिलता है। इसीलिए कहा गया है कि व्यवहार मनुष्य की आंतरिक स्थिति का विज्ञापन है। दीखने में कोई बड़े सौम्य दिखाई देते हैं, आकृति बड़ी शांत और सरल होती है लेकिन जैसे ही कोईउनसे संपर्क करता है तो उनकी वाणी से वे सभी बातें व्यक्त हो जाती हैं, जो उनके स्वभाव में दुर्गुणों के रूप में शामिल हैं।
असंस्कृत मन अशिष्ट, भद्दे और फूहड़ व्यवहार के लिए प्रेरित करता है। कुसंस्कारी चित्त उसी इंकार व्यवहार के माध्यम से अपना परिचय दे देता है और पहले संपर्क की प्रतिक्रिया अंत तक अपना प्रभाव कायम रखती है, यहाँ तक कि वह बाद के सभी अच्छे प्रभावों कोभी धूमिल कर देता है। इसलिए लोकसेवी को अपने व्यक्तित्व का गठन करते समय आचरण, रहन-सहन और स्वभाव को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने के साथ-साथ व्यवहार के द्वारा भी अपनी आदर्शवादिता का अभाव छोड़ना चाहिए।
शिष्टता और शालीनता सद्व्यवहार के प्राण हैं। व्यवहार में इन गुणों का समावेश होने पर ही पता चलता है कि व्यक्ति कितना सुसंस्कारी है। प्रायः लोग आत्मीयता जताने या अपने को दूसरों से बड़ा सिद्ध करने के लिए अन्य व्यक्तियों से आदेशात्मक शैली तू-तेरे कासंबोधन करते देखे जाते हैं, इसका यह अर्थ होता है कि व्यक्ति में सेवा-भावना होते हुए भी अच्छे संस्कारों की कमी है अथवा वह केवल अपने अहंकार का पोषण करने के लिए इस क्षेत्र में आया है। हर किसी से आप या तुम का संबोधन तथा बातचीत करने मेंनिर्देशात्मक शैली के स्थान पर सुझाव शैली का उपयोग सिद्ध करता है कि लोकसेवी कोई संदेश लेकर पहुँच रहा है, न कि अपने बड़प्पन या विद्वत्ता की छाप छोड़ने के लिए। शिष्टता का अर्थ है-प्रत्येक के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार और शालीनता अर्थात प्रत्येक के प्रतिस्नेह और आत्मीयता की स्तरीय अभिव्यक्ति।
स्नेह और आत्मीयता तो सर्वत्र व्यक्त की जाती हैं। असंस्कृत वर्ग के दो मिल मिलते हैं तो वे भी स्नेह प्रदर्शन और प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं। लेकिन उनकी भाषा में जो फूहड़पन होता है, वह अभिव्यक्ति के स्तर में गिरावट ला देता है। लोकसेवी को तो अपनेआचरण और व्यवहार द्वारा भी लोक शिक्षण करना है, साथ ही अपने व्यक्तित्व का स्तर भी ऊँचा उठाना है। अतः यह आवश्यक है कि व्यवहार में स्नेह, प्रेम का समावेश करने के साथ-साथ शिष्टता और शालीनता भी समाविष्ट की जाए।
शिष्टता के साथ शांतिपूर्वक बोलने और आवेशग्रस्त न होने की आदत भी लोकसेवी के स्वभाव का अंग होना चाहिए। वैसे बहुत से लोग स्वाभाविक रूप से ही कठोर और कटुभाषी होते हैं। जोर से बोलने या कटूक्तियाँ कहना उनके स्वभाव में ही रहता है, लेकिन यह भीसंभव है कि वे अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने की दृष्टि से कठोर व्यवहार कर रहे हों। स्वभावगत कटुता तो लोकसेवी के स्वभाव में होनी ही नहीं चाहिए। सिद्धांतों के प्रश्न पर भी लोकसेवी का व्यवहार कटु कर्कश न हो। दृढ़ता बात अलग है और कटुता बात अलग है।
दृढ़ता का अर्थ है-अपने सिद्धांतों और मर्यादाओं पर अडिग रहने की निष्ठा। कई अवसर ऐसे आते हैं, जब सिद्धांतों से विचलित होने का भय उपस्थित हो जाता है। लोग अपने स्नेह और श्रद्धावश उस तरह का आग्रह भी कस्ते हैं। लोगों की श्रद्धा व्यक्ति के प्रतिकेंद्रीभूत होकर उसे सम्मानित करने, अभिनंदित करने के लिए भी उमड़ सकती है और व्यक्तिपूजा का क्रम चल पड़ता है। ऐसी स्थिति में अपने आदर्शों पर दृढ़ रहने, मर्यादाओं का पालन करने के लिए दृढ़ रहना तो आवश्यक है पर कटु होने की कहीं भी आवश्यकता नहींहै।
लोकसेवी का उद्देश्य तो स्थायी प्रभाव छोड़ना और व्यक्ति की जीवन क्रिया मोड़ना है। इसलिए उसका व्यवहार आंतरिक भावनाओं से संयुक्त होना चाहिए। सोचा जा सकता है कि हमारे अंतःकरण में जब सद्भावनाएँ, विनयभाव, स्नेह और प्रेम-सौजन्य उत्पन्न होगा, तब लोगों से अच्छा व्यवहार करेंगे। यह भी एक आत्मप्रवंचना है। लोकसेवी को अपने व्यवहार में आंतरिक गहराई तो लानी चाहिए, पर उसके लिए अन्तःकरण में सद्भावनाओं के उदय तक अपने व्यवहार का स्तर गिरा ही नहीं रहने देना चाहिए, क्योंकि व्यवहार काउद्देश्य प्रभाव उत्पन्न करने के साथ-साथ शिक्षण करना भी तो है। व्यवहार कुशलता प्राप्त करने के साथ साथ आंतरिक निष्ठा के समावेश की साधना भी नियमित रूप से चलती रहे।