उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
भगवान की दावत
देवियो, भाइयो! खासतौर से परमार्थ या लोकमंगल क्या हो सकता है? सबसे बेहतरीन तो यही है कि अब भगवान ने आपको अपने व्यक्तिगत कामों में शरीक होने के लिए दावत दी है और कभी मिलेगा ऐसा अवसर? कभी नहीं मिल सकेगा। एक समय था, जब भगवान ने ग्वाल-बालों को दावत दी थी। क्या कहा था? आप हमारे निजी कामों में शरीक हो सकते हैं और जो काम हम कर सकते हैं, उसमें भी आप सहायक बन करके अपना दरजा हमारे बराबर बना सकते हैं। ग्वाल-बालों ने गोवर्धन उठाने में अपनी लाठी लगा दी और अपना दरजा भगवान कृष्ण के बराबर बना लिया। इसी तरह जब भगवान राम थे, तब उनने अपने व्यक्तिगत कामों में दखल देने के लिए रीछ-वानरों से कहा था कि आप हमारी मदद कीजिए। रीछ-वानरों, नल-नील ने पुल बनाया। हनुमान जी ने बहुत से काम किए। गिलहरी ने एक काम किया, गिद्ध ने दूसरा काम किया और उनके व्यक्तिगत कामों में सहायता देने वाले धन्य हो गए निहाल हो गए। गाँधी जी के काम में सहायता देने वाले धन्य हो गए।
साथियो! यह समय भी एक बेहतरीन समय है। भगवान का अवतार होने वाला है। जिसको हम प्रज्ञावतार कहते हैं, उसका अवतार होने वाला है। क्यों साहब ! अवतार होने वाला है? हाँ बेटे ! अवतार होने वाला है, आप निश्चित रहिए। आज वे परिस्थितियाँ आ गई हैं, जिनके लिए भगवान ने आश्वासन दिया था कि असंतुलन को दूर करने के लिए संतुलन लाएँगे। आज मनुष्यता चौराहे पर खड़ी हुई है। आदमी विनाश के रास्ते पर जाने ही वाला है। अब देर नहीं लगेगी, बस, एक धक्के की जरूरत है। एक धक्का लगा नहीं कि सारी इनसानियत खतम हो जाएगी और यहाँ रहने वाला कोई नहीं होगा। आज इनसानियत सामूहिक आत्महत्या करने पर उतारू हो गई है। आप परिस्थितियों को समझते नहीं हैं, लेकिन हम समझते है कि आज का इनसान कहाँ जा पहुँचा है और जरा सी मुसीबत आने के बाद में इसका क्या हो सकता है? एक रास्ता वह है, जिसमें आदमी के उत्थान की गुंजाइश है। इसमें आदमी का स्वरूप बदल सकता है, भविष्य बदल सकता है। हम ठीक चौराहे पर खड़े हुए हैं और भगवान से कह रहे हैं-सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेच्युत। आज इनसानियत का रथ दो चौराहों के बीच खड़ा हुआ है।
भगवान के साथ काम करने का समय
मित्रो ! आप ऐसे शानदार समय में पैदा हुए हैं कि आप चाहें तो ऐसे शानदार समय में भगवान के साथ में, भगवान के साथियों में, भगवान का हाथ बँटाने वालों में, भगवान के पार्षदों में अपना नाम लिखा सकते हैं। पार्षद कौन है? नए युग का निर्माण करने के लिए जो पुकार हुई है, समय को पुकार हुई है, उसको बने वाली, उसमें शरीक होने वाली जाग्रत आत्माएँ-पुण्यात्माएँ ही पार्षद हैं। आपको मालूम है कि जब सूरज निकलता है तो सबसे पहले पहाड़ों की चोटियों पर निकलता है। नीचे बाद में आता है, पहले चोटियों पर दिखाई पड़ता है। भगवान की पुकार, युग की पुकार सबसे पहले उन लोगों पर आई है, जिनकी जीवात्मा जाग्रत है। जो आदमी सो रहे हैं, उनसे क्या कहना है ! जो मरे हुए हैं, उनसे क्या कहना है। आज का जो समय है, आज का जो युग है, वह आपत्तिकाल का समय है। इस आपत्तिकाल में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को, अपने लोभ को आप चाहें तो सुधार सकते हैं। नहीं चाहें तो फिर मरें उसी में। सभी तो मर रहे हैं, फिर आप कहाँ अलग हो सकते हैं ! कोई औलाद के लिए मर रहा है, कोई पेट के लिए मर रहा है। मक्खी-मच्छरों से लेकर कीड़े-मकोड़े तक पेट के लिए मर रहे हैं। इसमें इनसान भी शामिल हैं। आज सबके सामने दो ही मुख्य काम हैं-एक पेट भरना चाहिए और दूसरे औलाद पैदा होनी चाहिए। लोभ और मोह के अलावा कोई दूसरा मकसद ही नहीं है। नहीं साहब ! भजन का है। भजन किस बात का है? कुछ भी नहीं है। हमें तो कुछ भी नहीं मालूम पड़ता है। आपने अगर भजन किया होता तो आपके भीतर से कोई हेर-फेर न होता क्या? शराब पीने वाले की जिंदगी में हेर-फेर दिखाई पड़ता है। बुखार आने वाले की जिन्दगी में हेर-फेर दिखाई पड़ता हैं। इसी तरह भगवान के भक्त की जिंदगी में हेर-फेर दिखाई पड़ेगा। उसके चिंतन में परिवर्तन आएगा। आप भजन करते हैं जो आपके विचारों में परिवर्तन आना चाहिए, खासतौर से इस जमाने में, जब प्रज्ञा का अवतार होने वाला है।
गायत्री-प्रज्ञा
साथियो! गायत्री को में ऋतम्भरा प्रज्ञा कहता हूँ, वेदमाता कहता हूँ, देवमाता कहता हूँ, विश्वमाता कहता हूँ। आप जाने क्या कहते हैं? आपकी परिभाषा तो मेरी समझ में नहीं आती। आप तो इसे घर में भूत-पलीद आ जाए तो उसे भगाने का मंत्र कहते हैं, भैंस का दूध बढ़ाने का मंत्र कहते हैं। और किसका मंत्र कहते हैं? बेटियों के बाद बेटा पैदा करने वाला मंत्र कहते हैं। घर के अंदर जमीन में जो रुपया दबा पड़ा है, उसका पता लगाने वाला मंत्र कहते हैं। गायत्री को और किसका मंत्र कहते हैं? नौकरी में तरक्की कराने का मंत्र कहते हैं। भगवान करे, आपका मंत्र आपको मुबारक हो। आप ही ऐसे मंत्र को जपा करें और आप ही स्वयं मरें। हमारा मंत्र बहुत शानदार है। प्रज्ञावतार, जो भगवान के अवतार के रूप में आज और कल में अवतरित होने वाला है, वह बहुत शानदार है। कैसा शानदार है? यह गायत्री मंत्र, जिसके अंदर ऐसी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं, जो भावी मनुष्य जाति के लिए आचार संहिता बन सकती हैं। जो भविष्य के लिए सारे विश्व का संविधान बन सकती हैं। यह गायत्री मंत्र मनुष्य के लिए नीति, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि सारे का सारा आधार बन सकता है। गायत्री मंत्र ऐसा है, जिसकी संहिताएँ सारी मनुष्य जाति को एक मरकज पर अर्थात एक केंद्र पर एकत्र कर सकती हैं। भाषाएँ एक, धर्म एक संस्कृति एक, राष्ट्र एक अर्थात सारे के सारे विश्व को एकता के सूत्र में बाँध लेने की सारी संभावनाएँ इसमें भरी पड़ी हैं। उन समस्त समस्याओं का समाधान भी इससे हो सकता है, जिनकी वजह से वातावरण विकृत हो गया है और विकृत वातावरण की वजह से प्रकृति कृत्याघात के तरीके से विनाश करने के लिए उतारू हो गई है।
प्रकृति रुष्ट-चिंतन विकृत
मित्रो! आपने देखा नहीं, रोज कैसी-कैसी भयंकर घटनाएँ घटित हो रही हैं, जो पहले इतिहास में कभी सुनने को भी नहीं मिली थीं। जैसे-अभी एक बाढ़ आई थी, जिसमें बाढ़ का पानी एकदम चढ़ गया और हजारों आदमियों को बहाकर और डुबाकर रख गया। कभी आपने सुना है? नहीं साहब ! हमने तो नहीं सुना। अभी तो आंध्र में तूफान आया था, क्या आपको मालूम है? नहीं साहब ! हमें तो पता ही नहीं है। बेटे ! यह विनाशलीला है जो हर जगह आए दिन होती रहती है। नेचर नाराज हो गई है। और क्या हो रहा है? वातावरण के प्रदूषित होने की वजह से हर आदमी की अक्ल खराब हो गई है। आपने सुना होगा कि कभी दुश्मन देश पर गैस डाल देते हैं तो आदमी पागल हो जाते हैं, बीमार हो जाते हैं। यहाँ नेचर ने गैस डाल दी है। इससे आदमी कायिक दृष्टि से बीमार हो गया है। चाल-चलन की दृष्टि से बीमार हो गया है। आदमी को सिवाय अनैतिक आचरण के दूसरी बात समझ में नहीं आती। चरित्र की बात कहते हैं तो उसे मखौल में उड़ा देता है और सिवाय बीमारों के तरीके से जो काम आदमी को नहीं करने चाहिए उन्हीं कामों को करने पर उतारू हो गया है। आज आदमी शरीर की दृष्टि से बीमार, कृत्यों की दृष्टि से बीमार, आचरण की दृष्टि से बीमार है। इसी को मैं बीमारी कहता हूँ। बुखार को मैं बीमारी नहीं कहता। मैं तो उसे बीमारी कहता हूँ कि जिसमें आदमी विकृत आचरण करने पर उतारू हो जाता है। आज शरीर से अधिक दिमाग बीमार है। अचिंत्य चिंतन, जिसे सोचते की जरूरत नहीं है, जिस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, जिसके ऊपर विचार करने की कतई जरूरत नहीं है। यह अचिंत्य चिंतन क्या है? यह एक दिमागी बीमारी है, दिमाग खराब होने की बीमारी है। नेचर ने वातावरण के दूषित होने की वजह से इनसान के भीतर शारीरिक दृष्टि से एवं मानसिक दृष्टि से जो विकृतियाँ पैदा की हैं बेटे ! उन्हें देखकर में हैरान हूँ।
अवतार प्रवाह के रूप में आता है
इसके लिए क्या करना पड़ेगा? वह काम, जो भगवान अपने हाथ से करने वाले हैं, संतुलन बनाने वाले हैं। सृष्टि को ठीक करने वाले हैं। आदमी के चिंतन और चरित्र को फिर से सही रास्ते पर लाने वाले हैं। वे किस तरीके से लाएँगे? व्यक्ति के रूप में अवतरित होकर? नहीं बेटे ! भगवान जब कभी अवतार रूप में आते हैं तो व्यक्ति के रूप में नहीं आते। वे हवाओं के रूप में आते हैं, प्रवाह के रूप में आते हैं, आन्दोलनों के रूप में आते हैं। रामचंद्र जी जब आए थे, तब? तब वे अकेले नहीं आए थे। निन्यानवे आदमी साथ में आए थे। रामचन्द्रजी अवतार थे? हाँ, अवतार थे। अवतार कोई अकेला आता है? कोई अवतार कभी अकेला नहीं आता। निन्यानवे आदमी साथ में आते हैं और उसमें से एक आदमी को श्रेय मिल जाता है। रामचंद्र जी को श्रेय मिल गया, ठीक है। उनको श्रेय मुबारक हो। तो फिर लक्ष्मण जी का कोई योगदान था? हाँ साहब ! था तो उनका भी योगदान। और हनुमान जी का? हनुमान जी का भी था। सुग्रीव और जामवंत का? सुग्रीव और जामवंत का भी योगदान था। और विभीषण का? विभीषण का भी था। विभीषण का योगदान नहीं होता तो यह पता ही नहीं चलता कि रावण का मकान कहाँ है, लंका कहाँ है और वहाँ तक जाने का रास्ता कहाँ है? तो क्या रामचंद्र जी ने रावण को मारा था? नहीं, निन्यानवे आदमियों ने मिलकर के रावण की मारा था।
निष्कलंक प्रज्ञावतार
इसलिए मित्रो ! इतने बड़े महापरिवर्तन अकेले नहीं हो सकते। क्या श्रीकृष्ण भगवान ने महाभारत किया था? हाँ किया था, लेकिन अकेले नहीं, वरन निन्यानवे आदमियों ने किया था महाभारत। युग बदलने में एक आदमी काम नहीं करता। सारा समाज करता है, समूह करता है और एक फिजा आती है, हवा आती है और लोगों को विवश कर देती है। गाँधी जी ने अँग्रेजों को भगा दिया था? हाँ, भगा दिया था। भगाना था तो क्व वर्ष की जेल में क्यों चले गए? उन्हें बर्मा की जेल में रंगून भेज दिया गया था, तब क्यों नहीं छुड़ा लिया था अपने को? बेटे ! ये अकेले नहीं आते, समूह आता है। प्रज्ञावतार जो इस समय आने बाला है, जिसको हम निष्कलंक कहते हैं। निष्कलंक कौन हो सकता है? विवेक। नहीं साहब ! निष्कलंक तो इनसान होते हैं। नहीं, कोई इनसान निष्कलंक नहीं हुआ करता। रामचंद्र जी? रामचंद्र निष्कलंक नहीं थे। धोबी ने कहा था कि आपने अपनी बीबी को क्यों रख लिया, निकालिए उन्हें। उन बेचारों ने निकाल दिया। श्रीकृष्ण भगवान निष्कलंक थे? मालूम नहीं है। स्यमंतक मणि की चोरी लग गई थी उन्हें। श्रीकृष्ण भगवान को भी कलंक लगा? हाँ, उनको भी कलंक लग गया था। इनसानों में से सबको कलंक लगा है। फिर निष्कलंक कौन हो सकता है? निष्कलंक एक ही हो सकता है और उसका एक ही नाम है-विवेक, ऋतम्भरा प्रज्ञा।
अवतार का साथ दीजिए
ऋतम्भरा प्रज्ञा का निष्कलंक अवतार इस जमाने में होने वाला है और वह समय अब आ गया है। आप क्या कर सकते हैं? आप उसका हाथ बँटा सकते हैं। आप उसके कंधे से कंधा मिलाकर चल सकते है। जिस तरीके से ग्वाल-बालों ने गोवर्धन उठाने में भगवान श्रीकृष्ण का साथ दिया था, अब वैसा ही योगदान देने का मौका है। उसका लाभ आपको मिलेगा, अगर आप चाहें तो, नहीं चाहें तो कोई बात नहीं। लेकिन आपके भीतर तो एक ही बात भरी हुई है कि हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। चलिए, अब तो मैं इस पर भी आ गया कि आपकी मनोकामना पूरी करेंगे। तो फिर भाई साहब ! यह इतना बड़ा काम करेगा कौन? भगवान करेंगे। बेटे ! हमने आपको यह पहले ही बता दिया है कि भगवान नहीं करते। इनसानों की सहायता करना भगवान का काम नहीं है। सदावर्त खोलना भगवान का काम नहीं है। अस्पताल बनाना भगवान का काम नहीं है। प्याऊ बनाना भगवान का काम नहीं है। किसका काम है? इनसानों का काम है। ऐसे इनसान, जो समर्थ हों, जिनके अंदर दया हो। यह अस्पताल किनने बनवाया है? उनने बनवाया है, जिनमें दया भी है और सामर्थ्य भी है। संपन्नता और दया दोनों जिनके भीतर हैं, अस्पताल उनका बनवाया हुआ है। यह अन्नक्षेत्र किनका है? उनका फला हुआ है, जिनके पास संपन्नता भी है और दया भी है। आज मनुष्य जाति को ऐसे ही आदमियों की जरूरत है।
मनोकामनाएँ भगवान को अर्पित कर दें
फिर मनोकामनाएँ कौन पूरी करता है? बेटे ! भगवान मनोकामना पूरी नहीं करते। नहीं साहब ! भगवान मनोकामना पूरी करते हैं। नहीं बेटे ! भगवान नहीं करते। आपको ध्यान नहीं है क्या? नारद जी का उदाहरण तो आपको मालूम होगा? नारद जी एक बार भगवान जी के पास गए और बोले कि भगवान ! हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। भगवान ने कहा-'' भक्त और मनोकामना? यह संगति कैसे आ गई नारद? दुनिया में दो ही मनोकामनाएँ हैं-एक कामिनी, दूसरी कांचन। तीसरी और कोई मनोकामना है की नहीं। बता, तुझे कहाँ से मिल जाएगी कामिनी और कांचन ?" नारद जी ने कहा कि स्वयंवर में देखा था। एक जवान लड़की थी, उसका विवाह होने वाला था और ब्याह के साथ में लंबा-चौड़ा, दहेज मिलने वाला था। राजपाट भी मिलने वाला था। यह देखकर नारद जी के मुँह में पानी आ गया था। उनने कहा कि भगवान की कृपा हो जाए। भगवान ने नारद की उपेक्षा कर दी तो उनने समझा कि भगवान शायद चुप हो गए है और मनोकामना पूरी कर दी है। लड़की ने जब किसी और से शादी कर ली तो नारद जी भगवान के पास आए और गालियाँ देने लगे। भगवान ने कहा कि नारद ! जब से सृष्टि बनी है, तब से लेकर आज तक एक भी आदमी का नाम बता दो कि जिस भक्त की मनोकामना मैंने पूरी की हो। क्या मैंने प्रह्लाद की मनोकामना पूरी की? हरिश्चन्द्र और भगीरथ की मनोकामना पूरी की? क्या मैंने ऋषियों की मनोकामनाएँ पूरी की? हरेक को सताया है, जलाया है, सोने की तरह से तपाया है। फिर तू कहाँ से मनोकामना लेकर आ गया। बेटे ! भगवान के यहाँ मनोकामना को कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए क्या गुंजाइश है कि आप अपनी मनोकामनाओं को भगवान के सुपुर्द कर दें? सुपुर्द करने के पश्चात् भगवान का प्यार पाएँ।
सबसे कीमती उपहार-भगवान का प्यार
भगवान का प्यार पाने से क्या हो सकता है ! इससे आपको खाने की ताकत तो नहीं मिल सकती, लेकिन खिलाने की मिल सकती है। आप फिर ध्यान रखना कि इससे आपको अपने व्यक्तिगत जीवन में लाभ उठाने की छूट नहीं मिल सकती, दूसरों को लाभ देने की मिल सकती है। अगर आपको ऐसा सिद्धपुरुष बनना हो तो मैं आपकी सहायता करने को तैयार हूँ। मेरे गुरु ने इसी शर्त पर सहायता की है कि आप खा नहीं सकते, खिला सकते हैं। बेटे ! हमने गुरु का दिया हुआ खाया नहीं, जिन्दगी भर दूसरों को खिलाया है। गुरु ने आपको क्या दिया है? हमको क्या दिया है? यही पूछना चाहते हैं न आप? चलिए हम आपकी भाषा में बोलते हैं कि गुरु ने हमारा दिवाला निकाल दिया है। पैसे की दृष्टि से खाली कर दिया। शरीर की दृष्टि से खाली कर दिया। अक्ल को दृष्टि से खाली कर दिया। हम क्या हैं? बाँसुरी की तरह से छूँछ हैं। कुछ और है आपके पास? नहीं बेटे ! हम खालिस ब्राह्मण हैं। खालिस ब्राह्मण क्या कर सकते हैं? शरीर को ढकने के लिए हमको कपड़े की जरूरत पड़ती है, इसलिए कपड़े पहनने पड़ते हैं। समाज में रहते हैं तो नंगे-उघारे भी नहीं रह सकते। लंगोटी लगाकर भी नहीं रह सकते और रोटी खाए बिना भी नहीं रह सकते। इसके लिए तो हम गुनहगार हैं। इन दो गुनाहों के अतिरिक्त आप सही मानिए कि जो कुछ भी हमारे गुरु ने सांसारिक दृष्टि से दिया, सब छीन लिया। बेटे! हम निहंग हैं। आप सुनते क्यों नहीं हैं कि सांसारिक दृष्टि से जो आप भगवान से माँगते हैं, वह नहीं मिलता। उसे आप मशक्कत से पा सकते हैं, योग्यता से पा सकते हैं अथवा बेईमानी से पा सकते हैं। भगवान कीमती चीज है और जब कभी वह आपको देगा तो ऐसी शानदार चीज देगा, जिससे आप अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा असंख्यों आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ हो सके। यह भी एक शान है, आनंद है। खाने का भी आनंद होगा, यह तो मैं नहीं कह सकता, लेकिन आपने कभी किसी को खिलाया भी है अभागों? यहाँ से माँग लाए, वहाँ से माँग लाए उसका वरदान माँग लाए उसकी कृपा लाए, उसका आशीर्वाद लाए। यह भी कोई माँगने की चीज है ! यह भी कोई शान है। इसमें भी कोई तेरी इज्जत है? बेटे ! इज्जत इसमें नहीं है।
देने का आनंद जानो
चलिए, मैं आपसे आध्यात्मिक दृष्टि से सिद्धियों की बात कहता हूँ। सिद्धियों की बात वो है, जिसमें आदमी दूसरों को लाभ देने में समर्थ हो सके। दूसरों की मुसीबतों में हाथ बँटा सके दूसरों के आँसुओं को जाने में समर्थ हो सके। ऐसी शक्ति मिल सकती है? मैं आपको अपने लंबे अनुभवों की साक्षी देकर के यकीन दिलाता हूँ कि आपके लिए ऐसी शक्तियों का, सिद्धियों का और शांति का दरवाजा खुला हुआ है, जिससे आप अपनी जीवात्मा की आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं। शरीर की बात तो मैं नहीं कह सकता कि उसकी हवस पूरी हो जाएगी। तो क्या आप शरीर की हवस पूरी कर देंगे? बेटे ! हम नहीं पूरी कर सकते, क्योंकि यह हमारी सामर्थ्य से बाहर है। आदमी की हवस इतनी शैतान है कि इसे कोई पूरा नहीं कर सकता। तो आप पूरी कर दीजिए? बेटे ! हमारी सामर्थ्य में नहीं है तो हम कैसे पूरी कर देंगे, लेकिन आप वह अध्यात्म, जो कि चार चीजों से जुड़ा हुआ है, जिसका एक अंश सेवा है। इस सेवा वाले अंश को अगर आप अपना लें तो भगवान के द्वारा जो दिए हुए अनुदान हैं, वे लोगों के द्वारा हजार गुना होकर आपको सिद्धियों के रूप में, चमत्कारों के रूप में, पराक्रम के रूप में और दूसरी चीजों के रूप में मिल सकते हैं। लेकिन आप इनको भी खा नहीं सकते। खिलाने का जायका क्या होता है, यह आपको कैसे बता दें? अगर खिलाने का जायका, खिलाने का आनंद पूछना हो तो किसी भी से पूछना कि माताजी ! आप अपनी छाती का दूध निकाल करके इस बच्चे को पिलाती हैं तो आपको अच्छा लगता है? हाँ बेटे ! जब हमारा बच्चा दूध पीता है, तब बहुत अच्छा लगता है। और जब आपकी छाती में से दूध नहीं निकलता तो? तब बच्चा रोता है और हमको तब बड़ा कष्ट होता है और हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि है भगवान ! किसी तरीके से हमारी छाती में दूध आ जाए तो हम बच्चे को पिला दे। आपसे मैं कैसे कहूँ कि देने में क्या आनंद होता है। आपने कभी दिया है? अभागो! स्वार्थियों! कंजूसों ! स्वार्थियों ! देना किसे कहते हैं, यह जाना है कभी? अरे कृपणों ! देने से आदमी देवता हो जाता है। हर आदमी को भगवान यही सिखाता है कि सेवा की शरण में जाइए मदद कीजिए।
उदात्त जीवन-श्रेष्ठ जीवन
किसकी मदद करें? मित्रो ! भगवान के दो हाथ है। एक हाथ से वह पीडित होकर के माँगता है, पतित होकर के माँगता है। आप पतितों की सहायता कीजिए, पीड़ितों की सहायता कीजिए। पीड़ितों की और पतितों की आप सहायता न की तब? तब बेटे ! मुश्किल है। तब आपको भगवान मिल पाएगा? भगवान का अनुग्रह आपको मिल जाएगा? मैं सोचता हूँ कि तब भगवान आपको नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि आपके अंदर न करुणा है, न आपके भीतर सदाशयता है। आपके भीतर तो केवल हवस काम करती है और इस हवस की आग में आप उन्हें भी जलाना चाहते है, जिसमें आप जल गए; आपका परलोक जल गया; आपका ध्यान जल गया, आपका कुटुंब जल गया। अब कौन रह गया है? अब संतोषी माता और रह गई हैं और जो कोई भी रह गया है, उसे भी इसी नरक में जला डालिए अभागो! जिसमें कि आप जल रहे हैं। हवसों की आग, ख्वाहिशों की आग, वासनाओं की आग, तृष्णाओं की आग में संतोषी माता को भी भून डालिए। अरे अभागो ! अपने आपको भूनिए, परंतु उनको तो अपनी जगह पर रहने दीजिए। क्या कीजिए? उदात्त जीवन, श्रेष्ठ जीवन, परोपकारी जीवन, शानदार जीवन, दूसरों के दुःखों में सम्मिलित होने वाला जीवन, संसार में सत्प्रवृत्तियों का संवर्द्धन करने वाला जीवन जिएँ। यही अध्यात्म है। यदि आपको यह सब आ गया तो आप निहाल हो जाएँगे।
शामिल हों इस अनुष्ठान में
महाराज जो ! इससे और कुछ संपदा आएगी कि नहीं आएगी? बेटे! संपदा तो आएगी, पर बाँटने के लिए आएगी। बाँटने से हमें क्या फायदा? बेटे ! बाँटने से अगर आपको यह मालूम पड़ता हो कि यह भी कोई आनन्ददायक चीज है। बाँटने से भी आदमी को संतोष मिल सकता है। बाँटने से भी आदमी आँखों में आशा लिए हँसता-मुस्कराता हुआ चला जाता है। उसके आशीर्वाद में कोई दम है, कोई जान है तो आइए, इस साधना को आरंभ करना शुरू कीजिए, जो आदमी के व्यक्तिगत जीवन को उदार बनाती है, उदात्त बनाती है। जो आदमी को कृपण नहीं बनाती है, जो आदमी को हवस, वासना और तृष्णा में डूबा हुआ नहीं रहने देती। अगर आप इस तरह की उपासना करने के लिए रजामंद हों तो आइए, इस अनुष्ठान में सम्मिलित हो जाइए। हम भगवान से प्रार्थना करेंगे कि वह आपकी बात को सुने और आपकी सहायता करे और जो आपने दिया है, उससे दस हजार गुना लाकर के वापस करे। अगर ऐसा हो पाया तो आप धन्य हो जाएँगे। सांसारिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी आप मालदार हो जाएँगे। अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए मालदार हो जाएँगे। अपने लिए तो आप वैसे भी नहीं हैं। आपके पास क्या है? आपने जो कमाया था, सारा पैसा बेटे के हाथ में चला गया। अब आपके पास कहाँ है? जिंदा में आपके पास है नहीं तो मरने के बाद क्या हो सकता है?
सेवा से ही फलित होगी साधना
इसलिए मित्रो! आपके पास होने लायक एक ही चीज है कि आप अपनी गरिमा का संवर्द्धन करें। अपनी भावनाओं का संवर्द्धन करें। अपनी आत्मा का संवर्द्धन करें। अगर आपने यह कर लिया, तब क्या हो सकता है? आप जो चाहते हैं कि हमको मिले तो फिर भी वह नहीं मिलेगा। सेंट हेलना की जेल में नेपोलियन के नहीं मिला। सिकंदर को नहीं मिला, फिर आप किस खेत की मूली हैं ! यह सब देखने-दिखाने भर की है, मालिक तो कोई और ही है। आपकी जिंदगी में आपका बेटा मालिक हो गया। मरने के बाद में आपके दूसरे मालिक बन जाएँगे। तेरे पास कहाँ है अभागे ! किसी तरीके से दो रोटी खा लेता है, यह भी बहुत है तेरे लिए। वह भी जाने हजम होती है कि नहीं परेशानियों की वजह से, चिंताओं की वजह से, हैरानियों की वजह से। तेरे हिस्से में है क्या? अगर आपको अपने हिस्से में लाना है तो वही चीज लानी पड़ेगी, जिसका मैंने निवेदन किया। आपको वह उपासना करनी पड़ेगी, जिसमें जीवन के परिष्कार के लिए और भगवान के संतोष के लिए दोनों पहलू समानरूप से जुड़े हुए हों। दोनों कदम-लेफ्ट-राइट, उदात्त और उदार, श्रेष्ठ और शालीन, पवित्र और सेवाभावी-यही दो कदम हैं, जिन्हें आगे बढ़ाते हुए आप जीवन-लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। भगवान के अनुग्रह तक पहुँच सकते हैं और भगवान का अनुग्रह एवं जीवन-लक्ष्य प्राप्त करने वालों ने जिंदगी के जो आनंद उठाए हैं, वे आप भी उठा सकते हैं। शर्त यही है कि आप अपनी उपासना को भजन से आरंभ तो करें, पर उसे वहीं तक सीमित न करें। उसके साथ-साथ में जीवन की साधना, स्वाध्याय, विचारों का परिमार्जन, संयम, अपनी जिन्दगी के छिद्रों का निराकरण और सेवा इनको आप मिला दीजिए, फिर देखिए कि आपकी उपासना फलित होती है कि नहीं? आप सिद्धपुरुष बनते हैं कि नहीं? आप चमत्कृत होते हैं कि नहीं? भगवान आपके घर में सेवा-सहायता करने के लिए आते हैं कि नहीं? ऐसी है साधना, जिसको मैंने किया। मैं चाहता है कि आप में से हरेक आदमी को उसी तरीके से साधना करनी चाहिए जो कि सफल होती है और होती रहेगी। आज को बात समाप्त।
।। ॐ शांतिः ।।
साधना का सच्चा स्वरूप
साधना के दो अंग है-उपासना एवं साधना। उपासना का तात्पर्य है, ईश्वर-निकटता की अनुभूति। आत्मचेतना परमचेतना के संसर्ग से ही अपने मुख्य कर्तव्य और स्वरूप का बोध कर पाती है। ईश्वर के प्रति उसकी कार्य व्यवस्था के प्रति अटूट आस्था तभी पैदा होती है। फलस्वरूप साधक में सद्भावनाएँ, सद्विचारणाएँ और सत्प्रवृत्तियाँ अधिकाधिक मात्रा में बढ़ती चली जाती हैं। सामान्य स्थिति में हमारी चेतना शरीराभ्यास और भौतिक आकर्षण में इतनी अधिक लिप्त रहती है कि जीवन के मूल स्वरूप को समझने और लक्ष्य पर ध्यान देने की बात बन ही नहीं पड़ती। इस दलदल में से निकलने के लिए अपने निजलोक का, ब्रह्मलोक का स्मरण रखा जाना आवश्यक है। इस स्मृति को सँजोकर रखना ईश्वर उपासना से ही संभव है। भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की तरह कुछ आत्मिक आवश्यकताएँ भी हैं। उनकी ओर से प्राय: पूर्ण उपेक्षा ही बनी रहती है। इस अवहेलना में मनुष्य वह सब कुछ गँवा बैठता है जो उसे पाना और कमाना था। उपासना की सीढ़ियों पर चढ़कर हम आत्म लोक तक पहुँचते हैं और अपने उन उत्तरदायित्वों को समझते हैं जो मनुष्य जीवन की सार्थकता के प्रमुख आधार हैं। मानवी गरिमा का ईश्वर विश्वास से और ईश्वर विश्वास का उपासना से अविच्छिन्न संबंध है। अस्तु, उपासना का सही रूप भी जन-जन के मन में उतारना होगा। नैतिकता, शालीनता और उदारता के दैवी तत्त्वों को अंतःकरण के गहन अंतराल में उतारना इसी आधार पर बन पड़ेगा। आस्तिकता मानवी गरिमा का ऐसा ही दंड है। उसके टूट जाने पर अन्य अवयवों का स्वस्थ रहना भी जीवन की सरसता और सफलता को निरस्त कर देगा। हमें न केवल आस्तिकता को अंगीकार ही करना है वरन उपासना के रूप में उसे दैनिक अभ्यास में समाविष्ट भी रखना है। लोक-शिक्षण का यह बहुत बड़ा आधार है। इसलिए साधना के पूर्वार्द्ध उपासना को अपनाने पर इतना जोर दिया गया है।
साधना का उत्तरार्द्ध है, जीवन साधना। जीवन संपदा का श्रेष्ठतम प्रयोजनों के लिए दूरदर्शितापूर्ण सदुपयोग ही साधना का स्वरूप है। इसमें अपने व्यक्तित्व में से अवांछित तत्त्व एक-एक करके बीनने-उखाड़ने पड़ते हैं और उनके स्थान पर उत्कृष्टता के कल्पवृक्ष का आरोपण करते हुए नंदन वन जैसे उद्यान की संरचना के लिए कटिबद्ध होना पड़ता है। किसान खेत की साधना करता है, माली बगीचे की, पहलवान शरीर की, विद्यार्थी मस्तिष्क की, व्यापारी व्यवसाय की, कलाकार कला की इन साधनाओं के फलस्वरूप ही वे लोग उत्साहवर्द्धक परिणाम प्राप्त करते हैं। जीवन एक अनगढ़ हीरा है जिसे घिसने --तराशने से ही उसका स्वरूप और मूल्य बढ़ता है। जीवन एक धातु खंड है जिसे तपाने डालने, पीटने, खरीदने से ही औजार और आभूषण बनते हैं। मदारी हिंस्त्र पशुओं को सुधारते और उनसे आश्चर्य भरे करतब कराकर यश एवं धन कमाते हैं। अनगढ़ दृष्टिकोण एवं अस्त-व्यस्त क्रिया-कलाप ही मनुष्य भगवान का काम करने का यही समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। इसी भूल का परिणाम पग-पग पर नारकीय आधि-व्याधियों के रूप में भुगतना पड़ता है। जीवन साधना ही आत्मदेव की वह आराधना है जिसके फलस्वरूप अमृत, पारस, कल्प वृक्ष जैसी अलंकारिक कल्पनाओं को जीवन क्षेत्र में उतरते और सुसंपन्नता से भरा-पूरा बनते देखा जा सकता है। आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्मविकास के चार आधार जो जितनी तत्परता से अपनाएँ रहेगा, वह उतनी ही सफलतापूर्वक दिव्य लक्ष्य को प्राप्त करके रहेगा।
देवी-देवताओं के वरदानों से मिलने वाले अगणित लाभों की चर्चा कथा-पुराणों में मिलती है। वस्तुतः मानव जीवन ही समस्त देवी-देवताओं का समुदाय है। सत्प्रवृत्तियाँ ही देवियाँ हैं और सद्गुणों को बिना संकोच देवता कहा जा सकता है। उनकी उपयुक्त रीति-नीति अपनाकर साधना की जा सके तो देवताओं के अनुग्रह से मिलने वाले सभी अनुदानों को अपने इसी जीवन में निश्चयपूर्वक उपलब्ध किया जा सकता है। संसार के महामानवों में से प्रत्येक को जीवन साधना की अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ा है। भ्रष्ट और दुष्ट गतिविधियाँ अपनाए रहकर न भौतिक प्रगति हो सकती है और न आत्मिक क्षेत्र में एक कदम ही आगे बढ़ा जा सकता है। अस्तु जीवन साधना प्रत्येक विचारशील और प्रगतिशील मनुष्य के लिए ऐसा अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है जिसका परित्याग कर देने पर फिर नर-पशु और नर -कीटक के स्तर पर बने रहने के अतिरिक्त ऐसा कुछ दोष ही नहीं रह जाता जिस पर मानवता का गौरव अनुभव किया जा सके।
साधना−उपासना को सभी धर्मों में अनिवार्य माना गया है। उनके स्वरूप क्रियापद्धति में तो भिन्नता है किंतु परमात्मसत्ता की निकटता का बोध सभी के साथ समान रूप से जुड़ा हुआ है। मनुष्य का स्वभाव है कि जैसी संगति में रहता है वैसी ही उसकी प्रवृत्तियाँ बनने लगती हैं। यह प्रकृति का नियम है। अग्नि के समीप बैठने से गरमी आती है, बरफ की समीपता से शीतलता बढ़ती है। इसी प्रकार ईश्वर की समीपता से ईश्वरत्व की वृद्धि मनुष्य में होती है।
ईश्वर सत्प्रवृत्तियों एवं सद्शक्तियों का भंडार है। उसके सामीप्य से मनुष्य में उन तत्त्वों की वृद्धि स्वाभाविक है। जहाँ भी यह सद्तत्त्व होंगे, वहाँ श्री समृद्धि एवं सुख-संतोष की कमी नहीं रह सकती। जब ये तत्त्व घटते हैं तो मानना चाहिए ईश्वर से संपर्क छुट रहा है। यदि उपासना का क्रम ठीक प्रकार चलता हो तो मनुष्य के स्वाभाविक स्तर में गिरावट आने का कोई कारण नहीं।
उपासना मात्र कर्मकाण्ड नहीं है। वह तो आत्म-चेतना को परमात्मचेतना के संपर्क में लाने की विद्या है। जहाँ लोग उसे स्थूल कर्मकाण्ड तक ही सीमित मान लेते हैं, वहाँ उपासना सही अर्थों में उपासना रह नहीं जाती। उपासना भावना मनोभूमि से की जाए, तभी उसका लाभ मिलता है।
अपने देश में उपासना की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं, किंतु उन सबमें गायत्री उपासना सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। उसका कारण भी है। गायत्री मंत्र में ईश्वर का कोई नाम विशेष नहीं है। उसे गुण विशेष के रूप में याद किया गया है। साथ ही उससे बुद्धि में स्थापित करने और बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करने की प्रार्थना की गई है। इस आधार पर यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना है। किसी भी धर्म एवं संप्रदाय का व्यक्ति गायत्री मंत्र में सन्निहित इन श्रेष्ठतम भावों की प्रशंसा-सराहना किए बिना नहीं रह सकता। किसी भी इष्ट का ध्यान करे, किसी भी पूजा विधि को अंगीकार करे, किंतु यदि ईश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध रखने का प्रयास किया जाए तो समझना चाहिए कि उपासना की सही विधि मिल गई, उसका सही स्वरूप बन गया। फिर उससे मिलने वाले लाभ भी अवश्य प्राप्त होंगे। हर विचारशील को इस आधार पर साधना-उपासना का नियमित क्रम अवश्य ही बनाकर चलना चाहिए। आज की बात समाप्त।