उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!
‘तीर्थ’ शब्द याद करके कितना आनन्द आता है, कितनी प्रसन्नता होती है? प्राचीनकाल में तीर्थ जब अपने वास्तविक स्वरूप में रहे होंगे, तब कितना आनन्द आता होगा? वहाँ जाने के बाद लोग अपने कलुष और कषायों को धो करके, पुनीत और पवित्र होकर कैसे निकलते होंगे? गंगा के बारे में तो मुझे ज्यादा मालूम नहीं है कि उसके पानी में नहाने के बाद में आप पुनीत और पवित्र हो जाते हैं कि नहीं, पर एक और ज्ञान-गंगा के बावत में आपको यकीन दिला सकता हूँ। उस ज्ञान-गंगा में, वास्तविक तीर्थ में अगर आपको रहने का मौका मिल जाए, तो यकीन रखिए आप अपने आपको धोकर तो जाएँगे ही, भविष्य में आपका कपड़ा धुला हुआ रहेगा। क्यों? इसलिए कि आपने वहाँ रहकर के उपासना की है, साधना की है और उपासना-साधना करने के साथ-साथ में अपनी समस्याओं का समाधान करने के लिए वहाँ के वातावरण का लाभ उठाया है, वहाँ जो ऋषि रहते हैं, उनके परामर्श से रास्ता भी आप तलाश करते हैं और उस रास्ता तलाश करने में एक रास्ता यह भी है कि आपने अब तक जो गलतियाँ की हैं उनका प्रायश्चित कैसे हो? भरपाई कैसे हो? आप उसके लिए क्या कदम उठाएँ? इसके लिए आप अपने गुण, कर्म, और स्वभाव में शालीनता का समावेश करने के लिए ऐसी गतिविधियाँ क्या अपनायेंगे, जो आपके संस्कारों के रूप में परिणत सकें? जप? नहीं, जप से संस्कार नहीं बनते, रामायण पाठ से भी संस्कार थोड़े ही बन जाएँगे। पूजा के साथ-साथ में आपको कुछ-न कृत्य भी करने पड़ेंगे। विचार और कृत्य दोनों का समावेश करने के बाद ही यह सम्भव है कि समग्र प्रक्रिया पूर्ण हो जाए। वास्तव में अध्यात्म का मतलब संस्कार पैदा करना है और संस्कार ज्ञान और कर्म दोनों के समन्वय से ही होते हैं। ज्ञान में पूजा आती है, पाठ में रामायण पाठ आता है, सत्संग आता है, स्वाध्याय आता है—यह ज्ञान-पक्ष है और कर्म-पक्ष? कर्म-पक्ष उसे कहते है, जिसमें सेवा का समावेश होता है, परोपकार का समावेश होता है, पुण्य-कर्मों का समावेश होता है, जन-कल्याण का समावेश होता है। इन दोनों को अगर आप मिला देंगे तो आपकी प्रक्रिया पूर्ण हो जाएगी। बिजली के दो तार मिल जाने से करण्ट चालू हो जाता है। आप ज्ञान और कर्म का समावेश अगर कर पाएँ, तो आपकी उपासना पूर्ण हो जाएगी और आप उस अध्यात्म के चमत्कार को देख पाएँगे जिसकी चर्चा शास्त्रों में की गई है।
आपको तीर्थों का महत्त्व बताते हुए प्राचीनकाल के तरीके से यह बताया था कि अगर कहीं तीर्थ मिल जाए और आपको उस तीर्थ में रहने का सौभाग्य मिल जाए, तो आप वहाँ उसी प्रक्रिया को ग्रहण करना, जो करनी चाहिए। अगर आप शान्तिकुञ्ज को गायत्रीतीर्थ मानते हैं, तो यहाँ रह करके अपना समय सुव्यवस्थित रूप से व्यय कीजिए, यहाँ सुव्यवस्थित रूप से व्यय करने का एक क्रम बैठा हुआ है। सुबह उठने से लेकर सायंकाल सोने तक का एक टाइम-टेबल बना हुआ है। यह पूरे-का टाइम-टेबल इस बात पर निर्भर रहता है कि आपकी गतिविधियाँ क्या होनी चाहिए? आपको अनुशासित कैसे होना चाहिए? आपको संयमी कैसे रहना चाहिए? आपको तपस्वी की तरह जीवन-यापन कैसे करना चाहिए? यह जीवन करने की पद्धति, दिनचर्या का प्रावधान ऐसा है—इसको आप ग्रहण कर लेते हैं तो भी आप अपने आपको प्रशिक्षित करने में बहुत कुछ सफल होते हैं। यहाँ का एक वातावरण भी है, सेनीटोरियमों का एक वातावरण भी होता है। इलाज तो कहीं भी कराये जा सकते हैं, पर सेनीटोरियम, जिसमें डॉक्टर भी रहते हैं, वातावरण भी अनुकूल है, क्लाइमेट भी उपयुक्त है, वहाँ रहने से आदमी जल्दी अच्छे हो जाते हैं। सेनीटोरियम में रह करके जो फायदा उठाया जा सकता है, वही प्राचीनकाल के बच्चे गुरुकुलों में रहकर उठाते थे। बड़ी उम्र के आदमी आरण्यकों में रहते थे। आरण्यक बड़े आदमियों के लिए सेवा-साधना के विद्यालयों को कहते हैं। बुद्ध ने बहुत सारे संघाराम बनाये थे, विहार बनाये थे। उसमें लोकसेवा के लिए इच्छुक लोगों की शिक्षाओं का, निवास करने का प्रबन्ध था। यह आरण्यक कहलाते थे। इनको बुद्ध-विहार कहिये, आप आरण्यक कह लीजिए—नाम और शब्दों से क्या फर्क पड़ता है? ऐसे स्थान जहाँ कहीं भी हों, वहाँ आदमी को अपनी आत्मसाधना करनी पड़ती है। तीर्थ वे थोड़े ही हैं कि जहाँ खिलौना देखा, पैसा फेंक दिया। बस, यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ धक्के खाते फिरे और जहाँ-तहाँ दान-पुण्य के बहाने जेब कटाते फिरे। यह सब तो भाई साहब अज्ञानियों का जंजाल है। आप इन अज्ञानियों के जंजाल से दूर रह करके तीर्थयात्रा की गहराई तक जानने की कोशिश कीजिए। तीर्थयात्रा की गहराई तक जानने की कोशिश कीजिए। तीर्थयात्रा की गहराई यह है कि आप उतने समय, जितने समय तीर्थ-सेवन करें, उतने समय के लिए अपने आपका परिशोधन करें, भूतकाल के गड्ढे भरने की कोशिश करें और भावी योजनाओं को बनाने की कोशिश करें। भविष्य में हम क्या बनेंगे, इसके लिए आज के वर्तमान में हमको तपश्चर्या करनी चाहिए। आज के वर्तमान की तपश्चर्या का मतलब है—भावी जीवन के लिए नीति-निर्धारित करने का संकल्प। ऐसे करेंगे, तो आपका तीर्थ-सेवन सशक्त हो जाएगा।
आप यहाँ आये हैं, तो यह मानकर चलिए कि यहाँ कल्प-साधना शिविर में बुड्ढे से जवान बनने के लिए नहीं, बल्कि अपना अन्तरंग-परिष्कार के लिए आये हैं। इसलिए जितना भी समय है, आप इसको स्वाध्याय में लगाइये, आत्म-चिन्तन में लगाइये, चिन्तन में लगाइये, मनन में लगाइये, पूजा में लगाइये, उपासना में लगाइये और अच्छे लोगों के सम्पर्क में लगाइये, अच्छे वातावरण में लगाइये, गंगा के किनारे जा करके रहिए। पूरे-का समय आपका ऐसा हो, जिसमें कहीं अवांछनीयता के कहीं गुंजाइश न हो। आपका चिन्तन ऐसा हो, जिसमें अवांछनीयता के लिए कोई गुंजाइश न हो। ऐसे हैं ये तीर्थ। ये हमने बनाये हैं। मान्धाता की सहायता से जगद्गुरु शंकराचार्य ने चार धाम बनाये थे, चार तीर्थ बनाये थे। वह शानदार तीर्थ बनाने के इच्छुक थे, इसलिए उन्होंने शानदार ही बना डाले। भगवान बुद्ध ने बहुत सारे तीर्थ बनाये थे। कहाँ बनाये थे? सारे भारतवर्ष में बुद्धों के विहार, संघाराम, बुद्धों के विहार..........। उन विहारों में शिक्षण-साधना चलती थी। ये बुद्ध-विहार थे। तीर्थ कहेंगे? बिल्कुल मैं कहूँगा। भगवान महावीर ने भी ऐसा ही किया था। समर्थ गुरु रामदास ने महाराष्ट्र के हर गाँव में दौरा किया था और वहाँ की, उस समय की परिस्थिति के हिसाब से हनुमान जी के मन्दिर बनवा दिये थे—महावीर मन्दिर बनवा दिये थे। पैसे का प्रबन्ध कहाँ हो सकता था? विचारशील बातों में कोई आदमी कहाँ पैसा खर्च करता है? गरीबों को चाहें तो आप बहका दीजिए, मालदार को बहकाने के तरीके अलग हैं। उन तरीकों को अख्तियार कर लीजिए, मालदार भी खूब बहकते हैं, कम बहकते हैं क्या? गरीबों की जेब कटती है, तो उनकी भी जेब कटती है और गरीबों को उल्लू बनाया जाता है, तो मालदार और भी ज्यादा उल्लू बनते हैं। इसलिए मैं उसकी बात नहीं कहता। किसकी? कि बड़े शानदार मन्दिर बनाना जरूरी है या बना सकते हैं क्या? समर्थ गुरु रामदास ने महावीर मन्दिर बनवाये थे। कैसे बनवाये? मिट्टी की दीवारों से फूँक के झोंपड़ों के बने हुए थे। हनुमान जी की मूर्तियाँ कैसे बनायीं? हनुमान जी की मूर्तियाँ उन्होंने गाँव में पड़े हुए पत्थरों के टुकड़ों से स्थानीय कारीगरों के माध्यम से जैसे-तैसे बना लिए। कहीं उलटे, कहीं पुलटे। उसमें क्या किया? उनके लिबास कहाँ से आए? पोशाक कहाँ से आये? शृंगार कहाँ से आये? उन्होंने सिन्दूर से उनको लपेट दिया और सिन्दूर से उन पत्थरों को लपेट देने के बाद में, हनुमान जी की मूर्ति बना दी, बालाजी की मूर्ति बना दी। फिर क्या हुआ उनका? वहाँ लोग पूजा करते थे? पूजा ‘भी’ करते थे, पूजा ही नहीं करते थे। आज की खराबी यह है कि हमारे मन्दिरों में अब केवल पूजा ही होती है। होना यह चाहिए कि पूजा भी हो, बाकी समय में कुछ और भी हो। समर्थ गुरु रामदास ने जगह-जगह इस तरह का प्रबन्ध किया कि उन्होंने हर महावीर मन्दिर के साथ में व्यायामशालाओं को अविच्छिन्न अंग के रूप में जोड़े रखा। स्वास्थ्य संवर्द्धन, साहस संवर्द्धन, सन्तुलन का संवर्द्धन और अनुशासन का परिपालन—इसके लिए उन्होंने हर जगह ऐसी व्यायामशालाएँ बनवायीं। व्यायामशाला एक तरह के विद्यालय थी, जिसमें गाँव के बच्चे, बड़े आदमी, छोटे आदमी, औरतें, जिसको भी विद्या का शौक था, वह जाए और वहाँ के पुजारी विद्या प्राप्त करे। इसके अलावा रात्रि को कथाएँ होती थीं। कथाओं का अर्थ है—प्राचीनकाल के ऐतिहासिक घटनाक्रमों को सुना करके आज की समस्याओं का समाधान। कथा का मतलब यह नहीं है कि आप इधर की गप्पबाजी, उधर की गप्पबाजी करें कि श्रीकृष्ण भगवान ने सोलह हजार एक सौ आठ रानियों से शादी की, एक-एक से आठ-आठ बच्चे पैदा हुए। यह सब बेकार की बातें, बे-सिलसिले की बातें हैं, जिनका कि न कुछ माइने है, न कोई मतलब है, न इन शिक्षाओं की आज कोई उपयोगिता है, न प्राचीनकाल में उपयोगिता थी। आप कथाएँ इन्हीं को कहते हैं कि शंकर जी ने गणेश जी का सिर काट दिया और हाथी का चिपका दिया! इन बातों का क्या मतलब है? न यह पुराण है न सत्संग है। कथा के पीछे उद्देश्य और लक्ष्य होना चाहिए। प्राचीनकाल में समर्थ गुरु रामदास की लिखी ‘दासबोध’ की कथाएँ हर महावीर मन्दिर में होती थीं। उन्हें एक नया ही शास्त्र बनाना पड़ा, नया ही पुराण बनाना पड़ा, नया ही वेद बनाना पड़ा। क्या करते बेचारे! उस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ती? आज आपको इस कूड़े-कचरे में से क्या चीज पल्ले पड़ने वाली है? कुछ भी तो नहीं है, सिवाय आफत पैदा करने के और दिमाग खराब करने के, पुरानी गप्पबाजियाँ खड़ी करने के, अपना समय और दूसरों का समय बर्बाद करने के अलावा क्या है कथा? इसलिए कथा भी उन्होंने बनाई और कथा की परम्परा को जिन्दा रखा और ऐसे शानदार ढंग से जिन्दा रखा कि मजा आ गया। शिवाजी की सारी सेना को समर्थन वहीं से मिला, हथियार वहीं से मिले, अनाज वहीं से मिला और आजादी की लड़ाई उन महावीर मन्दिरों से भी लड़ी गई।
उसी तरह की पुनरावृत्ति आज भी हुई है। हमने दो धाम पहले बनवाये थे। मथुरा का धाम बनवाया और एक यहाँ का बनवाया। एक संगठन के लिए बनाया, एक शिक्षण के लिए बनाया। फिर क्या किया? जगत् गुरु शंकराचार्य ने चार तीर्थ बनाये थे, महावीर भगवान के समर्थ गुरु रामदास ने सारे महाराष्ट्र में दो हजार के करीब मन्दिर बनाये थे। आज हमारे भी मन्दिरों की बहुत बड़ी संख्या है और बनती हुई चली जा रही है। गायत्री शक्तिपीठ के नाम से चौबीस सौ मन्दिर बना दिए। अभी और भी बहुत सारे मन्दिर बनने जा रहे हैं। इनके लिए कोशिश हमारी यही थी कि इनको गायत्रीतीर्थ का रूप दिया जाए और तीर्थों में मन्दिर नहीं, बल्कि वहाँ इनको शिक्षण-संस्था के रूप में विकसित किया जाए। वहाँ शिक्षण चले, ज्ञान-वृद्धि के उपदेश चलें, रचनात्मक कार्यक्रमों का प्रयोग चले। ठीक उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारा यह स्थानीय गायत्रीतीर्थ है। आप ऐसे तीर्थों को मजबूत बनाने के लिए कोशिश कीजिए। तीर्थयात्रा करें, यह तो बहुत अच्छी बात है। तीर्थयात्रा में आपको समय लगाना चाहिए—यह बहुत अच्छी बात है, पर मैं यह पूछता हूँ कि जब तीर्थ नहीं है तो कहाँ जाएँगे? कहाँ हैं तीर्थ? आपको कहीं दिखाई पड़ते हैं क्या? मुझे तो कहीं दिखाई नहीं पड़ते। सैरगाह-सैरगाह दिखाई पड़ते हैं। पुरानी ऐतिहासिक घटनाएँ जरूर उनसे जुड़ी हुई है, लेकिन वे जीवन्त तो दिखाई ही नहीं पड़ते। लोगों को साधना कराने वाले, मार्गदर्शन करने वाले, परामर्श देने वाले ऋषि, तीर्थ और आरण्यक कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। इसलिए आपको एक काम और भी करना है, जहाँ तीर्थयात्रा करनी हो, वहाँ तीर्थों की स्थापना करने में भी योगदान देना चाहिए, तीर्थों की मरी हुई परम्परा को पुनर्जीवित भी करना चाहिए। कोई आदमी आये और यह तलाश करे कि कैसे होते हैं तीर्थ! तो आप दिखा तो सकें। आज तीर्थों के स्थान पर सब जगह बड़े-बड़े विशालकाय मन्दिर बन हुए हैं और लोग उनके माध्यम से पेट भरते रहते हैं, झगड़ा करते रहते हैं। तीर्थों के वातावरण, तीर्थों के गुण, तीर्थों के कर्म, तीर्थों के उद्देश्य और तीर्थों के लक्षण सब ऐसे गायब हो गए। डुबकी लगाइये, खिलौना देखिये, पैसा चढ़ाइए, मन्दिर देखिये। इसके अलावा भी कुछ होता है तीर्थ? नहीं भाईसाहब! यह तो बिल्कुल उपक्रम है। असली बात तो तीर्थ की अलग होती है। उसमें ज्ञानगंगा बहती है, जहाँ प्रेरणा मिलती है, जहाँ दिशा मिलती है, जहाँ भावनाओं को उभारा जाता है, आदमी को समुन्नत स्तर का बनाया जाता है—ऐसे तीर्थों की स्थापना और पुनर्जीवन का आवश्यक पड़ गया, इसीलिए हमने तीर्थों की स्थापना की है। आप भी इन तीर्थों की स्थापना में योगदान दीजिए। जहाँ तीर्थ बन चुके हैं, उनको मजबूत बनाने की कोशिश कीजिए। जहाँ नहीं बने हैं, वहाँ बनाने की कोशिश कीजिए।
यहाँ के सारे गायत्री-तीर्थों में हमने शिक्षण का प्रबन्ध करने के लिए प्रावधान है। यहाँ बच्चों की पाठशाला, बुड्ढों की पाठशाला, बड़ों की पाठशाला, महिलाओं की पाठशाला चलनी चाहिए। यहाँ आसनों और प्राणायामों के केन्द्र होने चाहिए। यहाँ जड़ी-बूटियाँ के सहारे चिकित्सालय चलने चाहिए। यहाँ रात्रि को कथाएँ होनी चाहिए। यह सारे काम होने चाहिए, तभी तो हम यह कह सकेंगे कि इन तीर्थों को गायत्री मन्दिर कहिए या तीर्थ कहिये बात एक ही है। आप अपने ही लिए केवल तीर्थयात्रा पर न निकलें, बल्कि नए आदमियों के लिए रास्ता भी बनाएँ। तीर्थयात्रा के लिए कोई आदमी जाने वाला हो, तो उसको यह मालूम तो हो कि तीर्थ कहाँ हैं? किस जगह जाएँ? किसके पास जाएँ? क्या करें वहाँ जा करके? सैरगाहों में क्या करेंगे जा करके ?? सैरगाहों में कितने आदमी आते हैं! आपने देखे होंगे? विदेशों में भी घुमक्कड़ लोग जाते हैं। कोई नैनीताल जाता है, कोई कहीं जाता है, कोई दार्जीलिंग जाता है, कोई आगरे का किला देखने जाता है, कोई दिल्ली की सैर करने जाता है, कोई बम्बई जाता है। आप भी चले जाइये, धामों में चले जाइये, कोई फर्क नहीं है। इसलिए फर्क करने वाले तीर्थ तो बनाने ही पड़ेंगे, उनको नव-जीवन देना पड़ेगा, उसमें नए प्राण-संचार करने पड़ेंगे। हमने इस दिशा में कदम बढ़ाया है। आप हमसे कन्धा मिलाइये, हमारे हाथ-से मिलाइये, हमारे कदम-से मिलाइये। थोड़ा-सा हमने प्रयत्न किया है, थोड़ा आप इसमें सहयोग कीजिए। कर सकते हैं? जरूर कर सकते हैं। आप मान्धाता तो नहीं है, लेकिन उसके बनाने में कुछ तो कर ही सकते हैं, इसके निर्माण में किसी तरह तो योगदान दे ही सकते हैं। अपने पास धन न हो, तो पड़ोसी से माँग सकते हैं, मित्रों-रिश्तेदारों से लेकर भी इसमें लगा सकते हैं। आप दूसरे लोगों को तीर्थयात्रा करने के लिए ऐसे मौके दें, स्थान बनाएँ, वातावरण बनाएँ—यह आपको एक बहुत बड़ा काम करना है। आप मान्धाता की तरह तीर्थों की स्थापना करने के लिए कुछ कर सकें, तो जरूर करें। आप अहिल्याबाई की तरह तीर्थों का उद्धार करने के लिए फिर से कुछ कर सकते हों, तो अपने ढंग से अवश्य करें। अहिल्याबाई ने मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराये थे। अब उनके फिर से जीर्णोद्धार कराने हैं और जीर्णोद्धार ही क्या! मैं तो यह कहता हूँ कि इन मरे हुओं को जिन्दा करना है। उनके लिए कम-से जीर्ण तो था, यहाँ तो जीर्ण भी नहीं है, खण्डहर पड़े हैं। खण्डहरों की तरह थोड़े-से नाम-निशान पड़े हैं, जहाँ कभी तीर्थ रहे होंगे। उनको जीवन्त करने के लिए मित्रो! क्या करना चाहिए? उनको अपने प्रायश्चित में सम्मिलित कर लीजिए। प्रायश्चित प्रक्रिया पूरी करने का एक तरीका और भी है। जहाँ अब तक गायत्री शक्तिपीठें बन गई हैं, उनमें एक काम की बहुत कमी है कि वहाँ ऐसे प्राणवान् परिव्राजक नहीं हैं, जो वहाँ रहें और वातावरण को हिला दें, वातावरण को जगा दें। बड़ी मुश्किल से कहीं पण्डा मिल गया, कहीं पुजारी मिल गया, कहीं आरती करने वाला मिल गया, कहीं नौकर मिल गया, कहीं कर्मचारी मिल गया, कहीं झाड़ू लगाने वाला मिल गया। बस, इसी तरह बेचारे जैसे-तैसे काम चला रहे हैं। ऐसे प्राणवान परिव्राजकों का घोर अभाव है, जो वहाँ रहें और अपनी निष्ठा से, अपनी सेवा-भावना के आधार पर उस सारे क्षेत्र को जगा दें और सारे क्षेत्र का वातावरण ऐसा बना दें, जैसा कि तीर्थों का होना चाहिए। तीर्थों का एक विशेष वातावरण होता है। वहाँ जो कोई भी जाता है, वह उस ढाँचे में ढलने लगता है। वातावरण बनाना नौकरों का काम नहीं है, कर्मचारियों का काम नहीं है, पुजारियों का काम नहीं है, प्राणवानों का काम है। आप प्राणवान मालूम पड़ते हैं। इस कायाकल्प चिकित्सा की कल्प-साधना में आये हुए हैं। प्राणवान न होते तब, आप क्यों आ पाते? कष्ट कैसे उठा पाते? हर आदमी तो माल मारने के लिए, भगवान् जी के मन्दिरों में फोकट का प्रसाद पाने के लिए, घूमता रहता है। त्याग कौन करता है? भूखा कौन रहता है? अपने घर का काम कौन छोड़ता है? आपके अन्दर वह शराफत मालूम पड़ती है और जिन्दगी मालूम पड़ती रहेगी। आध्यात्मिकता का परिचय मालूम पड़ता है तथा और भी कई चीजें मालूम पड़ती हैं। अगर यह बात सही है, तो आपको अगला वाला समयदान देने के लिए एक ही स्थान चुनना चाहिए वह है—शक्तिपीठ। परिव्राजक के अलावा, घूम-घूमकर प्रचार करने के अतिरिक्त एक तरीका यह भी है कि आप किसी समीपवर्ती शक्तिपीठ में चले जाएँ, वहाँ कुछ समय तक निवास करें और निवास करने के बाद में अपने जीवन को न केवल परिष्कृत करें, बल्कि उस क्षेत्र को जगा देने की सेवा-साधना में भी संलग्न हो जाएँ। यह भी आपका बढ़िया वाला प्रायश्चित है। यदि ऐसा आप कर सकें ,, तब मैं बराबर यह कहूँगा कि आपने तीर्थयात्रा का मर्म समझ लिया और उसे करने के लिए कदम बढ़ा लिया। दो काम तो यह कीजिए।
और क्या करें? और यह कीजिए कि इन तीर्थों की देश और विदेशों में स्थापना करने का हमारा बड़ा मन है। आप हमारा हाथ बँटाइए। हाथ बँटा देंगे, तो आपके सहयोग से हम इतना बड़ा काम कर सकेंगे कि तीर्थों का पुण्य, जैसा कि धर्म-ग्रन्थों में लिखा हुआ है, वास्तव में सही हो जाए। आप उसमें सहयोग दोनों ही तरीके से कर सकते हैं। तीर्थों में दान-पुण्य की भी परम्परा है, ब्राह्मण भोजन की परम्परा है। पहले लोग जब तीर्थयात्रा जाते थे तो घर लौटने पर जप कराते थे, कथा कराते थे, भागवत् कराते थे, दान भी कराते थे। तीर्थों में भी दान कर देते हैं, घर आकर भी दान कर सकते हैं। आखिर यह दान है क्या? वास्तव में यह समयदान का ही दूसरा रूप है। समय दान जो आदमी नहीं कर सकते, वह अर्थदान कर सकते हैं। समयदान और अर्थदान दोनों सम्भव हो सके, तो और अच्छा, लेकिन नहीं हो सके, तो आप समय के बदले में दूसरे आदमियों का समय खरीदकर भी ऐसा कर सकते हैं। आप नहीं करना चाहते ऐसा, तो मत कीजिए। आपके स्थान पर कोई और आदमी काम कर देगा। आप उसके गुजारे का प्रबन्ध कर दीजिए। गुजारे का प्रबन्ध कर देते हैं, तो अपने काम करने के बराबर बात बन गई। अपने यहाँ गायत्री परिवार में हजारों-लाखों लोग ऐसे हैं, जो सेवा करने के बड़े इच्छुक हैं, पर क्या करें? घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियाँ ऐसी हैं कि इनको कुछ दिये बिना, अपने शरीर का निर्वाह किये बिना, कपड़ा दिये बिना इनका काम नहीं चलता। कपड़ा हम अपने घर से ले आये हैं, खाना अपने घर से ले आये हैं, खाना अपने घर से ले आये हैं, बच्चों का प्रबन्ध अपने घर से कर आये हैं—ऐसे आदमी हो तो सकते हैं, लेकिन बहुत कम हैं। अधिकांश लोग ऐसे हैं, जिनको खर्च चाहिए, पेट भरने को अन्न चाहिए। इस तरह समाजसेवी, लोकसेवियों की कितनी बड़ी संख्या रुकी पड़ी है, उनका हम गुजारे का प्रबन्ध नहीं कर सके, रोटी का प्रबन्ध न कर सके, कपड़े पहनाने का साधन हमारे पास नहीं हैं और जिनकी बहुत जरूरत पड़ रही है, उनके बच्चों के लिए नमक-रोटी का इन्तजाम करने में हम समर्थ नहीं हो सके। इसलिए हजारों-लाखों कार्यकर्ता, जो आज समाज के नये उत्थान, नये निर्माण करने के लिए आवश्यक थे, हमको नहीं मिल पा रहे हैं, क्योंकि उन ब्राह्मणों के लिए रोटी हमारे पास नहीं है। आप अपने खर्चे में कटौती करके दान भी दे सकते हैं, यह प्रायश्चित के तरीके हैं।
तीर्थयात्रा में डुबकी मारना ही जरूरी नहीं है, जप करना ही जरूरी नहीं है, पंचामृत पीना, मन्दिरों के दर्शन करना—यह सब आवश्यक नहीं है। असली बात भी तो सोचिये, बिल्ली के गले में घण्टी भी तो बाँधिये, वास्तविकता के नजदीक तो आइये, आप कुछ त्याग भी तो कीजिये, सेवा की बात भी तो सोचिये, मन से उदार तो बनिये, कुछ कष्ट भी तो उठाइये, कुछ मेहनत भी कीजिये। कुछ करके भी तो दिखाइये। नहीं, साहब! हम तो पंचामृत पियेंगे, बेकार की बात करेंगे, गंगाजी मे डुबकी मारेंगे, प्रायश्चित करेंगे। ऐसे कहीं प्रायश्चित होते हैं। खामियाजा चुकाने के लिए तीर्थ सबसे अच्छे माने गए हैं, इसीलिए तीर्थयात्रा के लिए मैंने आपसे निवेदन किया। बस, आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्ति:॥