उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत करना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में ढूँढ़ेगी।’’ - वं० माताजी
मित्रो! हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। - पूज्य गुरुदेव
अखण्ड ज्योति फरवरी २०१४
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो, भाइयो! आज हमारा प्रारंभिक शिक्षण समाप्त हुआ। अब हम आपको उसी तरह से कार्यक्षेत्र में भेजना चाहेंगे, जैसे कि भगवान बुद्ध ने अपने सारे शिष्यों को योगाभ्यास और तप करने के लिए भेज दिया था। कुछ समय तक अपने समीप रखने के बाद भगवान बुद्ध ने यह आवश्यक समझा था कि जो उनको सिखाया गया है और जो उन्होंने सीखा है, उसको परिपक्व और परिपुष्ट बनाने के लिए, उनके क्रियाकलापों को परखने के लिए कार्यक्षेत्र में भेज दिया जाय। बुद्ध के शिष्य थोड़े दिन तप करने के बाद निकल गये, चले गये। कहाँ चले गये? हिन्दुस्तान के कोने-कोने में चले गये, जहाँ पर अज्ञान का अंधकार था। मित्रो! सूरज कहाँ चला गया? वहाँ चला गया, जहाँ अंधकार ने उसको बुलाया था। जहाँ अँधेरा छुपा हुआ था। वहाँ से वह हटता हुआ चला गया और सूरज आगे बढ़ता हुआ चला गया। सूरज के पास अंधकार नहीं आया था। सूरज ही गया था, अंधकार को दूर करने के लिए।
मित्रो! बादलों के पास जमीन नहीं आयी, खेत नहीं आये, पेड़ नहीं आये। कोई नहीं आया बादलों के पास, बादल ही चले गये। कहाँ चले गये? खेतों के पास, खलिहानों के पास, पेड़ों के पास। जहाँ लोग बीमार पड़े हुए थे, कॉलरा फैला हुआ पड़ा था, तपेदिक फैला हुआ पड़ा था, ऐसे मरीज डॉक्टर के पास नहीं आ सके, वहाँ डॉक्टर चले गये, कहाँ चले गये? वहाँ चले गये, जिन गाँवों में कॉलरा फैला हुआ था, हैजा फैला हुआ था, तपेदिक फैैला हुआ था। भूकम्प से पीड़ित, अकाल से पीड़ित, दुर्भिक्ष से पीड़ित, दुःख से पीड़ित लोग मालदारों के दरवाजे पर खड़े हुए हैं, क्योंकि हम भूकम्प से पीड़ित हैं, क्योंकि हम बाढ़ से पीड़ित हैं, क्योंकि हम अभावग्रस्त हो गये हैं और हमारे घर वाले पानी में डूबे हुए पड़े हैं। इसलिए आप चलिए और हमारी सहायता कीजिए। वे लोग नहीं आयें। फिर कौन आये सहायता देने के लिए? वे आदमी गये, जिनके पास दिल था, जिनके पास भावनायें थीं, जिनके पास श्रम था और जिनके पास सहानुभूति थी।
मित्रो! वे लोग वहाँ चले गये, जहाँ पतन और पीड़ा ने उन्हें बुलाया था। जहाँ भूकम्प से पीड़ित, बाढ़ में डूबे हुए आदमी थे और अभाव में और बाढ़ में भरे हुए आदमी थे। वे वहाँ चले गये। कौन चले गये? वे आदमी, जिनको हम स्वयंसेवक कह सकते हैं, भावनाशील कह सकते हैं और दिलवाले कह सकते हैं। तो क्या उन्हें जाना चाहिए? हाँ बेटे, उन्हीं को जाना चाहिए, अन्यथा पीड़ा और पतन का निवारण कैसे होगा? छप्पर जल रहा है, तो जलता हुआ छप्पर किस तरह से आपके पास आयेगा कि आप हमारे ऊपर पानी डाल दीजिए। आपको ही भागना पड़ेगा और पानी डालने के लिए वहाँ जाना पड़ेगा।
मित्रो! भगवान बुद्ध ने यही मुनासिब समझा। उन्होंने यह नहीं किया कि अपने शिष्यों को एक स्थान पर बैठाकर और उनको योगाभ्यास करा करके और संत बना करके और एक आश्रम बना करके, शान्त कुटीर बना करके वहीं उनको निवास करने के लिए कहें। उन्हें ध्यान करने के लिए, जप करने के लिए और पूजा करने के लिए कहें और गंगा स्नान करने के लिए कहें। उन्होंने यह मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने कहा कि अब तुम्हारा योगाभ्यास कर्मक्षेत्र में होगा, स्थान विशेष में नहीं होगा। इसलिए चलो, कर्मक्षेत्र में उतरो। प्रत्येक शिष्य से उन्होंने यही कहा कि तुम्हें तीन दिन से अधिक किसी एक स्थान पर नहीं रहना चाहिए। क्यों? क्योंकि स्थान विशेष से मोह हो जाता है और व्यक्ति विशेष से मोह हो जाता है। व्यक्ति विशेष से, जिस आदमी के अंदर लगाव हो गया है, मोह हो गया है, वह आदमी उसका हिमायती, उसका पक्षधर हो जाता है। गलत काम के लिए भी उसका समर्थन करता है। उसी आदमी को शिष्य बनाने के लिए न जाने क्या-से करता चला जाता है।
चरैवेति-चरैवेति
पुराने जमाने में लोग तीन-चार दिन के लिए थोड़े-थोड़े समय के लिए घर से निकल जाते थे। क्योंकि हमारा घर में और व्यक्ति विशेष में इतना ज्यादा मोह हो जाता है, इतना ज्यादा पक्षपात हो जाता है कि हम उनकी उचित और अनुचित-दोनों ही तरह की आवश्यकताओं को-माँगों को पूरा करने के लिए अपने आपको खपाते रहते हैं। इसमें हम यह अनुभव करते हैं कि हम जो कर रहे हैं, सही कर रहे हैं। हम जो कर रहे हैं, मुनासिब कर रहे हैं। इसमें गलत और सही का फर्क हमें मालूम नहीं हो पाता। मालूम होने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि उन स्थानों में, जिनमें हमारा मोह अत्यधिक बढ़ा हुआ है, थोड़े समय के लिए, वहाँ से बाहर निकल जाना चाहिए। प्राचीनकाल में गृहस्थ जीवन के लिए भी यह आवश्यक समझा जाता था। तीर्थयात्राओं के लिए, परिक्रमाओं के लिए समय-समय पर सामान्य गृहस्थ भी बाहर निकल जाते थे और वहाँ चले जाते थे, जहाँ शान्ति की वर्षा होती थी, अमृत की वर्षा होती थी। वहाँ ज्ञान का प्रकाश हमें मिलता था।
मित्रो! तब उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए चलते रहना ही मनुष्य की नियति थी। ‘‘चरैवेति-चरैवेति’’—चलते रहो-चलते रहो, यही शिक्षण संतों ने हमेशा अपने परिव्राजकों को दिया है, भावनाशील लोगों को दिया है। शिक्षकों के लिए दिया गया है और योगाभ्यास करने वाले तप करने वाले लोगों को हमेशा यही उपदेश दिया गया हैं। भगवान बुद्ध ने भी अपने शिष्यों को यही उपदेश दिया और कहा कि जहाँ कहीं भी पीड़ा और पतन दिखाई देता हो, वहाँ सबसे पहले चले जाना। जहाँ कहीं भी पीड़ा और पतन दिखाई पड़ा, बुद्ध के शिष्य वहाँ चले गये, उन-उन स्थानों को चले गये। मध्य एशिया के उन स्थानों में चले गये, जहाँ रेगिस्तानी प्रदेश था। जहाँ खाना भी नसीब नहीं होता था। उन स्थानों पर उन सबको भेज दिया। वहाँ भेज दिया जहाँ जंगल पड़े हुए थे। कौन से वाले क्षेत्र में? जावा से लेकर सुमात्रा तक, इण्डोनेशिया से लेकर मलाया तक, सारे-के देश-जिसमें पूर्वी देश भी सम्मिलित थे। जहाँ जंगली लोग, अशिक्षित लोग रहते थे।
योग्य व्यक्ति ठहरें नहीं, प्रसार करें
मित्रो! जंगली लोगों के लिए शिक्षा की आवश्यकता थी, त्याग की आवश्यकता थी और न जाने किस-किस चीज की आवश्यकता थीं। बहुत सारी चीजों की आवश्यकता थी। उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सुयोग्य व्यक्ति वहाँ चले गये। हिन्दुस्तान में उन दिनों शिक्षा की बहुत सुविधाएँ थीं, बहुत श्रम था, बहुत सारे ऋषि थे। गंगा, जमुना में बहुत निर्मल जल था। यहाँ साधनों की कमी नहीं थी। जहाँ साधन हैं, वहीं पर संत को रोककर रखा जाय, यह भी कोई तुक है? जहाँ पर साधन हैं, सुविधा है, वहाँ किनको रहना चाहिए? बीमारों को रहना चाहिए, बुजुर्गों को रहना चाहिए। वहाँ थके हुए लोगों को रहना चाहिए। शान्तिकुंज में हमें उन्हीं लोगों को रखना चाहिए, काली कमली वाले के यहाँ उन्हीं लोगों को रखना चाहिए, जो थक गये हों, जो टूट गये हों, मरे-मराये से हों, जिनके शरीरों में अब दम नहीं रहा और उनके मन में कोई उत्साह नहीं रहा। उत्साह जिनका खत्म हो गया, आँखों का प्रकाश जिनका खत्म हो गया, जीवट जिनका खत्म हो गया। अब हम उनको कहाँ रखें? अब हम उनको काली कमली वाले बाबा की झोपड़ी में रखेंगे। बस वह वहीं बैठा रहा करेगा। टट्टी-पेशाब कर आया करेगा। कुल्ला कर लिया करेगा, मुँह धो लिया करेगा। गंगा जी नहा लिया करेगा और शांतिपूर्वक रहा करेगा।
मित्रो! हम उनको वहीं रखेंगे, क्योंकि वे और आगे चल नहीं सकते। अब उनकी जिन्दगी खत्म हो गयी। अब उनका जीवन खत्म हो गया। अब उनका जोश खत्म हो गया। अब उनकी भावनायें खत्म हो गयीं। अब जिनकी भावनायें खत्म हो गयी हैं, जो थक गये हैं, जो टूट गये हैं, जो मर गये हैं, उनको अब हम कहाँ से भेज सकते हैं? उनको अब हम श्मशान भूमि की तैयारी के लिए उचित स्थान पर रखेंगे। डेड बॉडी को पोस्टमार्टम करने के बाद बड़े अस्पतालों में, मुर्दाघरों में रख देते हैं, ताकि उनके खानदान वाले आयें और लाश को उठाकर ले जा सकें। फिर उसको मरघट में ले जाकर या उसको कब्रिस्तान में ले जाकर दफन कर दें। ऐसे लोगों को हम कहाँ रखेंगे, जिनका जीवट खत्म हो गया है, जो भुस्स गये हैं। इन्हें तो बस काली कमली वाले बाबाजी के आश्रम में रखेंगे, स्वर्गाश्रम में रखेंगे और उनको हम परमार्थ आश्रम में रखेंगे। क्यों? क्योंकि वे कुछ काम नहीं कर सकते, चल नहीं सकते। उनके भीतर चलने वाली वस्तु नहीं है, माद्दा नहीं है और उनके अंदर क्रियाशीलता जैसी कोई वस्तु नहीं है। और जीवट जैसी वस्तु नहीं हैं। आप ही बताइये? उनको हम कहाँ रख सकते हैं।
जीवट पैदा करना है—सत्संग का उद्देश्य
इसलिए मित्रो! उन लोगों के लिए कोई स्थान विशेष में निवास करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन जिनके अंदर जीवट है, जिनके अंदर जीवन है, जिनके अंदर प्रकाश है, जिनके अंदर प्रेरणा विद्यमान है, उनको हम कार्यक्षेत्र में भेजेंगे। अब उनको कार्यक्षेत्र में भेजे बिना काम बनेगा नहीं। भगवान बुद्ध ने यही किया था। प्रत्येक जीवन्त व्यक्ति को, जिसके अंदर आध्यात्मिकता का थोड़ा-बहुत प्रकाश मौजूद था, उन्होंने उनको अपने विहारों में रखा ही नहीं। उन्होंने कहा कि हम आपके विहार में रहेंगे और आपका सत्संग करेंगे। भगवान बुद्ध ने कहा कि बहुत लम्बे समय तक सत्संग करना आवश्यक नहीं है। बहुत लम्बे समय तक दवाइयाँ खाना आवश्यक नहीं है। व्यायाम करना आवश्यक है, पर सारे समय रोटी खाना आवश्यक नहीं है। उन्होंने कहा कि गुरुजी! हम तो आपके पास रहा करेंगे और रोटी खाया करेंगे। माता जी आप बनाती जायँ और हम खाते जायँ। बेटे, कितने दिन खायेगा? माता जी आपका चौका सबेरे छः बजे से चलता है, उस वक्त से खाया करूँगा। कब तक खायेगा? तब तक खाऊँगा, जब तक रात के दस बजे तब बंद नहीं हो जाता।
अच्छा बेटे, यह बता कि कुछ काम भी करेगा या नहीं करेगा? माता जी! काम पर तो नहीं जाऊँगा। तो फिर क्या करेगा? बस यहीं पर आपका सत्संग सुनूँगा और आपकी रोटी खाया करूँगा। रोटी से पेट भर जायेगा, तो भी खाऊँगा और खाता रहूँगा। बेटे, तब तो तेरा पेट फट जायेगा और तू बीमार हो जायेगा। नहीं साहब! सत्संग किया करूँगा और बाबा जी के यहाँ रहा करूँगा और रामायण पढ़ा करूँगा और भागवत् पढ़ा करूँगा। बेटे, तूने भागवत् पढ़ ली और सुन ली, दवा भी खाली और इंजेक्शन भी ले लिया। अब तू काम करने के लिए चल। नहीं साहब! हम तो काम नहीं करेंगे। जिन्दगी भर स्कूल में पढ़ा करेंगे। बेटे, पढ़ने के बाद नौकरी करेगा या नहीं? महाराज जी! नौकरी तो नहीं करूँगा, खेती तो नहीं करूँगा। मैं तो स्कूल में पाँचवें दर्जे में भर्ती हो गया हूँ और जब तक मेरी नौकरी नहीं लग जायेगी, मैं रोजाना रामायण और महाभारत पढ़ा करूँगा। क्यों पढ़ेगा? पढ़ने की वजह क्या है?
मित्रो! सत्संग की कोई वजह भी तो होनी चाहिए। आप किसके लिए सत्संग करेंगे। नहीं साहब! सत्संग करूँगा। बेटे, तू बता तो सही कि सत्संग क्यों करेगा? नहीं साहब! मैं तो सत्संग करूँगा? बेटे, तू पागल आदमी नहीं है, जिसे यह पता ही नहीं है कि सत्संग क्यों किया जाता है। मित्रो! सत्संग करने का उद्देश्य मनुष्यों के अंदर जीवट पैदा करना होता है। सत्संग का उद्देश्य मनुष्यों के अंदर क्रियाशीलता उत्पन्न करना होता है। क्रियाशीलता अगर हमारे अंदर उत्पन्न हो गयी है, भावना हमारे अंदर उत्पन्न हो गयी है, तो भावना को कार्यक्षेत्र में चलना चाहिए और कार्यक्षेत्र में उसका समावेश होना चाहिए। अगर हमने ऐसा करना शुरू नहीं किया और ऐसा करना हमारे लिए संभव नहीं हुआ, तो बहुत भारी मुश्किल हो जायेगी और बहुत दिक्कत खड़ी हो जायेगी, बड़ी कठिनाई पैदा हो जायेगी।
मित्रो! आपको जो सत्संग दिया गया, जो शिक्षण दिया गया है, उस सत्संग और प्रशिक्षण का उद्देश्य एक होना चाहिए। और वह उद्देश्य यह होना चाहिए कि हमारे दिये हुए विचार और हमारे दिये हुए क्रियाकलाप किसी कार्यक्षेत्र में परिणत हो सकें। भगवान बुद्ध ने यही किया। अपने पास लोगों को थोड़े समय तक रखने के पश्चात् सबको कार्यक्षेत्र के लिए भेज दिया। आप लोगों को जो क्रियाकलाप बताये गये हैं और जो सत्संग सुनाये गये हैं, उसमें जो आपको सीखना है, वह इसलिए सीखना है कि संसार में जहाँ कहीं भी आपको पतन मालूम पड़े, जहाँ कहीं भी आपको असुविधा मालूम पड़े, जहाँ कहीं भी आपको पीड़ा मालूम पड़े, उस पीड़ा के स्थान पर और पतन के स्थान पर आपको चले जाना चाहिए। भगवान बुद्ध ने यही किया था।
प्राचीनकाल में ऋषि अपने आश्रम में लोगों को बुलाते थे और सत्संग की प्रेरणा देते थे, शिक्षा की प्रेरणा देते थे। सत्संग और शिक्षा की प्रेरणा के पश्चात् यही किया करते थे कि उनके शिष्यों की शिक्षा को परिष्कृत और परिपक्व किया जाय। व्यायामशाला में सिखाने के पश्चात् लोगों को अखाड़े में भेज दिया जाता है। अखाड़े में से निकलने के पश्चात् दंगल में भेज दिया जाता है। दंगल में कोई आदमी जाये ही नहीं, तो उसको मैं क्या कहूँगा? मिलिट्री का प्रशिक्षण किस तरह का होता है, आप जानते हैं क्या? मिलिट्री का प्रशिक्षण किसी आदमी को दिया जाय और वह यह कहे कि हम तो यहीं पर, इसी स्थान पर रहेंगे और दिन भर मिलिट्री की ट्रेनिंग दिया करेंगे। क्योंकि हमको छावनी में भर्ती किया गया है, इसलिए हम छावनी में ही निवास करेंगे। हम लड़ाई पर नहीं जायेंगे। छावनी में रहना आपको कैसे मंजूर होगा। आप छावनी में क्यों रहेंगे। छावनी में हमने आपको इसलिए रखा था और बंदूक चलाना आपको इसलिए सिखाया था कि लड़ाई के मोर्चे पर जब आवश्यकता होगी, तो आप लड़ाई के मोर्चे पर चले जायेंगे और लड़ना शुरू कर देंगे। लड़ाई के मोर्चे पर जाने के लिए हमको छावनी छोड़नी पड़ती है और बंदूक चलाना सिखाना पड़ता है।
प्रेरणा लें और प्रकाश वितरित करें
मित्रो! स्थान विशेष पर जिनको हम संतों के आश्रम कहते हैं, जिनको हम गुरुकुल कहते हैं, जिनको हम सत्संग भवन कहते हैं, जिनको हम साधना भवन कहते हैं। उन स्थानों पर जाने और रहने की आवश्यकता केवल इसलिए है कि हम वहाँ से प्रेरणा लें और प्रकाश वितरित करें। वहाँ से प्रेरणा और प्रकाश ग्रहण करने के पश्चात् सारे समाज में चले जायें और वहाँ ज्ञान का प्रकाश फैलाएँ। मित्रो! हमें आपके लिए उसी प्राचीनकाल की परम्परा की पुनः स्थापना करनी पड़ रही है, उसे पुनः जाग्रत करना पड़ रहा है। हम ऐसे स्थान और आश्रम बनाने में यकीन नहीं करते, जहाँ आदमी को घर छोड़ करके बुला लिया जाय और वानप्रस्थाश्रम बना दिया जाय, सत्संग आश्रम बना दिया जाय और लोगों से यह कहा जाय कि अब आप जिंदगी भर यहीं रहिए। क्यों साहब! जिंदगी भर रह करके आप यहाँ क्या करेंगे? ज्ञान सीखेंगे। तो ज्ञान का क्या करेंगे? ज्ञान को कर्मयोग में परिणत कीजिए। ज्ञानयोग की सार्थकता इसी में है। ज्ञान अगर कर्मयोग में परिणत नहीं किया जाता है तो ज्ञान निरर्थक है। उस ज्ञान के परिणत नहीं किया जाता तो ज्ञान निरर्थक है। उस ज्ञान का कोई मतलब नहीं रह जाता।
साथियो! हमने आपको जो थोड़े समय तक शिक्षण दिया है, उस शिक्षण को आपको कर्तव्य रूप में परिणत करना चाहिए और क्रियारूप में परिणत करना चाहिए। अब आप यहाँ से विदा हो रहे हैं। जब भी हमको आवश्यकता होगी हम आपको दुबारा बुला लेंगे। इस समय हम जो आपको विदा कर रहे हैं, उसका एक ही उद्देश्य है—पीड़ा और पतन का निवारण। इसने समूची मानव जाति को तबाह कर डाला है। इसने सारे-के संसार को मूर्ख बना दिया, अंधकार में डुबो दिया है। इसे हमें मिटाना है। इस अंधकार और दर्द को, दुःख और पाप को मिटाना है। इसने भगवान के वरिष्ठ राजकुमार मानव जाति को पशुओं से भी गया-बीता, पापियों से भी गया बीता बना दिया है। अब करना यह पड़ेगा कि हम आपको वहाँ भेजेंगे जहाँ भूकम्प आया हुआ है। जहाँ बाढ़ आयी हुई है। जहाँ पतन छाया हुआ है। मैंने आपको हजार बार कहा है और लाख बार फिर कहूँगा कि मनुष्य के सामने जो गुत्थियाँ दिखाई पड़ती हैं, जो कुछ भी अशांति दिखाई पड़ती है, जो कुछ भी अभाव दिखाई पड़ता है और जो भी कुछ दुःख दिखाई पड़ता है, उसका और कोई कारण नहीं है। उसका एक ही कारण है कि मनुष्य अपनी विचारधारा को विकृत बना चुका है। विकृत विचार धारायें ही पतन का मुख्य कारण हैं।
मित्रो! पतन जहाँ कहीं भी रहेगा, पीड़ायें हजार जगह से आ जायेंगी। इन्हें आप रोक नहीं सकते। इसलिए हमको क्या करना पड़ेगा? हमको वही करना पड़ेगा, जो ऋषियों ने, संतों ने, महात्माओं ने, ब्राह्मणों ने हमेशा से किया है। उन्हें जहाँ कहीं भी पीड़ा और पतन दिखाई पड़ा है, वहाँ वे सीधे भागकर गये हैं और उस पतन का निवारण करने के लिए, निराकरण करने के लिए अपने आपका बलिदान कर दिया। अपने आपको शहीद कर दिया। पतन अज्ञान के रूप में, लोभ के रूप में, मोह के रूप में आता है। मनुष्य कैसा लोभी होता जा रहा है, आप देख ही रहे हैं। आदमी कैसे मोह के वश में होता जा रहा हैं, यह भी सर्वत्र ही देखा जा सकता है। लोभ और मोह जहाँ कहीं भी पाया जायेगा, वहाँ हजार तरह के पाप, हजार तरह की पीड़ा और हजार तरह के दुःख होते चले जायेंगे।
हमारा काम—इनसान को इनसानियत सिखाना
मित्रो! मनुष्यों को मनुष्यता का शिक्षण करना हमारा और आपका सबसे बड़ा काम है। हमारा काम वह नहीं है जो लोग हमसे उम्मीद करते हैं। लोग हमसे यह उम्मीद करते हैं कि हम दुनिया की आर्थिक समस्या को कैसे सुधार पायेंगे? लोगों को मालदार कैसे बना पायेंगे? और लोगों की आर्थिक व्यवस्था कैसे बना पायेंगे। मित्रो! हम आर्थिक व्यवस्था की बात तो नहीं करते, परन्तु उसका मजबूत आधार हम बनाकर देंगे। जहाँ परिश्रमी और पुरुषार्थी लोग रहते हैं, वहाँ मालदारों की कमी नहीं रहती है। जापान छोटा सा द्वीपों वाला देश है, जहाँ बराबर भूकम्प आते रहते हैं। जहाँ बराबर तूफान आते रहते हैं और जहाँ बराबर तबाही आती रहती है। जरा-सा देश है जापान, लेकिन वहाँ के नागरिक कैसे श्रमपरायण एवं पुरुषार्थी होते हैं। छोटी-सी जमीन में इतनी पैदावार कर ली कि किसी जमाने में विश्व में पहले नम्बर का देश था। आज तो नहीं रहा। एटमबम गिरने के बाद में कुछ परिवर्तन तो हुए, लेकिन अभी भी उसके मुकाबले का देश दुनिया में तलाश करें, तो उसके मुकाबले का कोई दूसरा देश दिखाई नहीं पड़ता। एकदम कम साधन, इतनी कम जमीन, इतनी कम व्यवस्था में रहकर भी उसने सारी दुनिया को चैलेंज किया। कभी चीन पर हावी हुआ था, तो कभी अमेरिका को चैलेंज किया था। आर्थिक दृष्टि से अपने समान देशों से वह कहाँ-से चला गया।
मित्रो! यह क्या है? यह सम्पदा कहाँ से आती है? यह सम्पदा मनुष्य के शरीर में भरी पड़ी है और भीतर दबी पड़ी है। यदि हम आदमी को पुरुषार्थवान बना दें और कम्युनिस्ट बना दें, तो? आपने देखा नहीं, थोड़े दिन पहले जो लोग पाकिस्तान से आये थे, अपनी सारी-की चीजों को गवाँ कर आये थे। वे यहाँ हिन्दुस्तान में आ गये और भिक्षा माँगने की अपेक्षा लेमनजूस बेचना शुरू कर दिया। टॉफी बेचना शुरू कर दिया, पापड़ बेचना शुरू कर दिया और खिलौना बेचना शुरू कर दिया। आप देखिए न, पंजाब से आया आदमी कोई भिखारी मालूम पड़ता है क्या? सब मालदार हो गये और वे पैसे के मालिक बने बैठे हैं। सारे-के आदमी दुकान चला रहे हैं। आप सबको उनने चैलेंज कर दिया और जाने वे कहाँ-से चले गये। आप तो यह चाहते हैं कि गुरुजी, हमें आप लक्ष्मी का मंत्र बता दीजिए, हमारी नौकरी लगवा दीजिए। हम तो मैट्रिक पास हैं और मारे-मारे फिरते हैं। हमें कहीं काम पर लगा दीजिए, नौकरी लगवा दीजिए। पागल कहीं का, भूखा मरेगा। जो आदमी पुरुषार्थी नहीं है, जिसके अन्दर परिश्रम का माद्दा नहीं है और जो मेहनतकश नहीं है और जिस आदमी को मेहनत करने में मजा नहीं आता, वह आदमी मित्रो! ऐसे ही पैदा हुआ है और उसे ऐसे ही मरना चाहिए।
मित्रो! लोगों की आर्थिक समस्या का समाधान इस तरह से हम कर सकते हैं। सबसे पहले आपको अपने खर्च में मितव्ययिता बरतनी चाहिए, ताकि आपको कर्जदार होने का मौका न मिले। ताकि आपको परेशान होने का मौका न मिले। आर्थिक समस्याओं के समाधान करने के लिए इन सूत्रों को स्वर्णिम अक्षरों से और हीरे की कलम से अपने मन-मस्तिष्क में लिखने वाले, सचमुच में जहाँ कहीं भी ये सूत्र लोगों के हृदय में हृदयंगम कर लिए जायेंगे, वहाँ लोगों की हालत ठीक होती हुई चली जायेगी। जहाँ मनुष्यों को शराब पीने की आदत होगी, कोकाकोला पीने की आदत होगी, सिनेमा देखने की आदत होगी। आरामपरस्ती की आदत बनी रहेगी, हरामखोरी की आदत बनी रहेगी। आदमी काम से जी चुराते रहेंगे, वहाँ सम्पन्नता और खुशहाली कैसे आ सकती है?
माला के मनकों का रहस्य
मित्रो! हम मनुष्य की सारी समस्याओं का समाधान करने चले हैं, जिसमें आर्थिक समस्या भी शामिल है, पैसे की समस्या भी शामिल है। समाज की समस्या भी शामिल है, पारिवारिक समस्या भी शामिल है। वे सारी समस्याएँ भी शामिल हैं, जिससे कि मनुष्य पीड़ित हो रहा है, दुखी हो रहा है, उद्विग्न हो रहा है। इन सारी की सारी समस्याओं का समाधान करने का हमारा एक ही तरीका है कि हम अपने विचारों को किस तरह से अच्छा बनायें। विचारों को किस तरीके से श्रेष्ठ बनायें। विचारों की शृंखला को किस तरह से सुव्यवस्थित बनायें। आज मनुष्य को हर जगह से पीड़ा घेरे हुए है। अशान्तियाँ घेरे हुए हैं। अव्यवस्थाएँ घेरे हुए हैं। इनका समाधान और निराकरण करने का जो ठोस, मूलभूत और चिरस्थाई उपाय है, उसको हम खोज सकें, हल निकाल सकें, उसके लिए हम आपको भेज रहे हैं। अध्यात्म का असली शिक्षण देने के लिए हम आपको बाहर भेज रहे हैं।
मित्रो! राम नाम की माला घुमाने की नसीहत देने के लिए हम आपको नहीं भेजते हैं। माला घुमाने की प्रारम्भिक शिक्षा गूढ़ है। माला के १०८ दाने जिस तरह से घुमाए जाते हैं, उसी तरह हमारे जीवन के प्रत्येक स्रोत और प्रकृति को आध्यात्मिकता के आधार पर घुमाया जाना चाहिए। जादू या चमत्कार माला के अन्दर नहीं है। माला के अंदर प्रेरणा है, शिक्षा है। माला के अंदर दिशायें हैं, जिसमें माला के अंदर मीठा बोलने का मनका नम्बर एक, परिश्रमी होने का माला का मनका नम्बर दो। सच बोलने का माला का मनका नंबर-तीन, सफाई से रहने का माला का मनका नम्बर-चार आदि है। इस तरह से माला के १०८ मनके होते हैं, जो मनुष्यों के स्वभाव और मनुष्यों की सत्प्रवृत्तियों को सुव्यवस्थित बनाने के लिए हैं। यह जादू नहीं है, मैजिक नहीं है, जैसा कि आप लोगों को बता दिया गया है कि लकड़ी के टुकड़ों को आप बार-बार घुमा दिया करें और थोड़े से अक्षरों का-मंत्रों का उच्चारण कर लिया करें। इसमें न कोई जादू है और न ही कोई चमत्कार पैदा होने वाला है। इससे न कोई सिद्धि पैदा होने वाली है, न कोई भूत पैदा होने वाला है। इसमें से ऐसा कुछ भी पैदा होने वाला नहीं है।
जीवन को समर्थ बनाने की कला है अध्यात्म
मित्रो! अध्यात्म जीवन जीने की कला है। जीवन किस तरह से जिया जा सकता है और जीवन को समग्र और समर्थ कैसे बनाया जा सकता है, इसके लिए है-अध्यात्म। वह अध्यात्म आज दुनिया से समाप्त हो गया है और उसके स्थान पर जादू आकर हावी हो गया है। हमारे और आपके सिर पर जादू बैठा हुआ है। अध्यात्म में आदमी को स्वावलम्बी बनना पड़ता था और अपने आपको परिष्कृत एवं श्रेष्ठ बनाना पड़ता था, लेकिन वह प्रक्रिया आज न जाने कहाँ खत्म हो गयी। उसके स्थान पर परावलम्बन आकर हम पर हावी हो गया। हम हर चीज को पराये से माँगने में विश्वास करने लगे हैं। हम यह विश्वास करने लगे हैं कि कोई भूत-पलीत आयेगा, कोई साधु-बाबा आयेगा और हमें सुख-शांति और सिद्धियाँ दे करके, मुक्ति देकर के और कुछ दे करके चला जायेगा।
मित्रो! अध्यात्म का सत्यानाश हो गया और धर्म चौपट हो गया। धर्म का सत्यानाश हो गया। समाज की सुव्यवस्था के लिए जिन सत्परम्पराओं का परिपालन करना चाहिए, जिन नागरिक कर्तव्यों को आदमी को समझना चाहिए और जिन सामाजिक जिम्मेदारियों को आदमी को निभाना चाहिए, उससे आदमी लाखों मील दूर चला गया। धर्म के नाम पर केवल उसके कलेवर को और आडम्बरों को छाती से चिपका कर बैठ गया। आज धर्म का सत्यानाश हो गया और सर्वनाश हो गया। आस्तिकता का सर्वनाश हो गया। यह क्या हो गया? यह आ गयी बाढ़ और आ गया भूकंप, जिससे सब मटियामेट हो गया। अब ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं बची। ईश्वर स्तुति की विशेषताएँ, स्तुति की महत्ताएँ, मंत्र जप की विशेषताएँ आदि सबका प्रभाव जो मनुष्य के जीवन पर आना चाहिए था, वह सब चला गया, सब बाढ़ में बह गया। उसके स्थान पर केवल जादू रह गया। उसके स्थान पर केवल ठगी रह गयी है। अब केवल रह गया है कि हम भगवान को यह चीज देकर अमुक चीज, अमुक सिद्धियाँ प्राप्त कर लें। अमुक मंत्र घुमाकर अमुक चीज प्राप्त कर लें, स्वार्थ साध लें।
आज सारा का सारा मानव समुदाय इसी अज्ञान में डूबा हुआ है। इसलिए मनुष्य में जो सुख और शांति लाने की व्यवस्थाएँ थीं, वे सब चौपट हो गयीं, उनका सत्यानाश हो गया। आज सब कुछ चौपट दिखाई पड़ रहा है। हमें चारों ओर अंधकार दिखाई पड़ रहा है। हमको चारों ओर पतन दिखाई पड़ रहा है। हमें पीड़ाओं से चारों ओर से घिरा हुआ मनुष्य दिखाई पड़ रहा है। जबकि इस जमाने में इस संसार में ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसको हम मनुष्य के लिए अभाव कह सकें। अभाव कहाँ है? जमीन में से कितना सारा अनाज पैदा होता है। अभाव कहाँ है? कैसी अच्छी हवा चला करती है। अभाव किस चीज का है? ढेरों पानी भरा पड़ा है। कपड़े के लिए जमीन ढेरों की ढेरों रुई पैदा कर देती है। फिर अभाव किस चीज का है? किसी चीज का अभाव नहीं है। मित्रो! हमारे पड़ोसी हैं, हमारी स्त्री है, बच्चे हैं, हमारे पास चिड़िया घूमती है और जानवर घूमते हैं। कैसा सुंदर संसार है। फिर अभाव किस बात का है? पीड़ायें किस बात की? कष्ट किस बात का? किसी बात का कष्ट नहीं है।
संख्या नहीं गुणवत्ता हो अपना मानक
मित्रो! कष्ट बस एक ही बात का है कि मनुष्य अपने विचार करने के तरीके को भूल गया। आचार, विचार और व्यवहार को ठीक करने के लिए, गुण, कर्म एवं स्वभाव में उत्कृष्टता, शालीनता एवं उदारता को समाविष्ट करने के लिए हम आपको भेजते हैं। यह इतना बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य है कि जिस तरीके से फायर ब्रिगेड वालों को आग बुझाने के लिए भेजा जाता है हम आपको फायर ब्रिगेड वालों के तरीके से उस समाज में भेजते हैं, जहाँ चारों ओर से आग लग रही है और चारों ओर से लपटें उठ रही हैं। आप अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए वहाँ जाना। वहाँ जाकर आप क्या काम करेंगे? बहिरंग रूप से हमने आपको बहुत सारे काम सौंपे हैं। उन बहिरंग कार्यों में आपको कितनी सफलता मिली और कितनी असफलता मिली, इस पर आप ध्यान मत देना। आपको जहाँ भेजा जाता है, वहाँ के सम्मेलन की रूपरेखा, सफलता और असफलता के मामले में देखना शुरू कर दिया, तो आप बहुत बड़ी गलती पर होंगे। वहाँ आपको सभा-सम्मेलन में कितने लोग इकट्ठे हुए। इस तरह लोगों के इकट्ठा करने की संख्या के आधार पर हम सफलता असफलता का अन्दाज नहीं करते।
मित्रो! लोगों की संख्या के आधार पर यदि हमने सफलता-असफलता के मूल्यांकन किये होते, तो सोमवती अमावस्या के दिन गंगा जी के एक-एक घाट पर लाखों आदमी स्नान करते हैं। अगर हम यह मान लें कि हिन्दुस्तान में गंगा जी के घाट करीब सौ हैं और एक-एक घाट पर एक-एक लाख आदमी स्नान करते हैं। तब यह माना जा सकता है कि एक करोड़ आदमी धर्मात्मा हैं। भीड़ को देखकर हम क्या अन्दाज लगा सकते हैं, नहीं लगा सकते। रामलीला होती रहती है और उसमें औरतें, बच्चे और दूसरे आदमी आते रहते हैं। अरे साहब! रामलीला हुई थी, उसमें दस हजार आदमी आये थे। बेटे, मैं क्या करूँ दस हजार आदमी थे तो? उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। कुंभ में बारह लाख आदमी आये थे, तो मैं क्या करूँ? आप भीड़ से क्या मतलब लगाते हैं? नहीं साहब! बड़ा कुंभ का मतलब है कि हिन्दुस्तान में बड़ा धर्म फैल रहा है और यहाँ पर बड़े अध्यात्मवादी लोग हैं। बेटे, ऐसा नहीं है। अध्यात्मवादी लोग यहाँ कहाँ हैं? संख्या की दृष्टि से हम भीड़ में यह अंदाज भी नहीं लगा सकते। आप भी मत लगाना।
मित्रो! क्या करना पड़ेगा? अधिक से अधिक लोग जो इस मिशन के विचारों को सुनने में समर्थ हों, उन तब हमारा संदेश पहुँचाया जा सके जिसको हमने आस्तिकता कहा है, जिसको हमने अध्यात्मवाद कहा है, जिसको हमने धर्म परम्पराएँ कहा है, उसका संदेश अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच जाय, तो अच्छा है। लेकिन अगर अधिक संख्या में लोग इकट्ठा नहीं होते, तो आप कभी सफलता-असफलता का अंदाज मत लगाना। हमने संख्या की दृष्टि से क्रियाकलापों को महत्त्व नहीं दिया है। बहिरंग रूप से कितना बड़ा पंडाल बना, कितना खर्च हुआ, कितने लोग आये-आदि की दृष्टि से आप सफलता-असफलता का अन्दाज कभी मत लगाना। आपको अन्दाज लगाना है, तो इस तरह से लगायें कि जहाँ और जिस कार्य के लिए आपको भेजा गया था, वहाँ जा करके आपने लोगों के अंदर भावनायें उत्पन्न करने में कितनी सफलतायें प्राप्त की। लोगों की भावनाओं को जाग्रत करके उन्हें ऊँचा उठाने में कदाचित आपने सफलता प्राप्त कर ली, तो मैं यह समझूँगा कि आपने अपना काम पूरा कर लिया और आपका काम पूरा हो गया। तब मैं समझूँगा कि आपका उद्देश्य सही था और आप यह समझते थे कि आपको किस काम के लिए भेजा गया है।
मित्रो! आप जिन लोगों के संपर्क में आयें, उनसे बराबर बात करना, सलाह देना, परामर्श देना, उनके साथ रहना, उनसे हिलना-मिलना और खासतौर से उन लोगों से जिनको हम अपना कार्यकर्ता कहते हैं। जनता हमारे कार्यों में भाग लेती है कि नहीं लेती है, अभी हमको उसकी फिकर नहीं है। अभी हमको यह फिकर है कि जिन लाखों आदमियों को हमने अब तक की अपनी लम्बी जिंदगी में कितनी मेहनत करने के बाद और कितना परिश्रम करने के बाद तैयार किया है और अपने संपर्क में लाया है। उनको हमारे उद्देश्यों की सही बात मालूम न हो सकी और उन सब को हमारी क्रियाओं का आभास न हो सका और उन सब तक हमारी गतिविधियों की कोई बात मालूम न हो सकी। यह कैसी मुसीबत है और कैसी कठिनाई है और कैसी दिक्कत है? सबसे बड़ी कठिनाई, सबसे बड़ी दिक्कत और सबसे बड़ी मुसीबत इस बात की है कि हम अपनी टीमवालों को ही नहीं समझा सके, तो बाहर वालों को कैसे समझाएँगे?
मनोकामना पूर्ति की मशीन नहीं हैं गुरुदेव
साथियो! अभी तक लोग हमें मैजेशियन-जादूगर समझते हैं। संतोषी माता समझते हैं। गुरुजी के मायने वे समझते हैं-मनोकामनाएँ पूरी करने की मशीन। गुरुजी के गले में माला डालो और उनके मुँह से आशीर्वाद निकालो। स्टेशनों पर यही होता है। हर स्टेशन पर वेट करने की-तौलने की मशीन लगी होती है। लोग उस पर खड़े हो जाते हैं और दस पैसे का सिक्का डालते हैं। दस पैसा डालते ही मशीन घूमी और वजन लिखा हुआ टिकट बाहर आ जाता है। गुरुजी क्या हैं? वही हैं जो स्टेशन पर मशीन लगी है। किसकी मशीन? वेट जानने की मशीन। वेट जानने में क्या करना पड़ता है? उनके गले में माला पहनानी पड़ती है और क्या करना पड़ता है? पैर छूने पड़ते हैं। पैर छूने के बाद में और माला पहनाने के बाद में और क्या करना पड़ता है? उनके पेट में से, उनके मुँह में से जाकर खट से टिकट आ जाता है। किसका टिकट आ जाता है? आशीर्वाद का टिकट आ जाता है।
मित्रो! यह सब देखकर मुझे बड़ा क्लेश होता है, बड़ा दुःख होता है। लोगों ने तो रामचंद्र जी की भी मिट्टी पलीद कर दी थी। उनको गये हुए कितने वर्ष हो गये। भगवान श्रीकृष्ण की भी लोगों ने मिट्टी पलीद कर दी। उन्हें गये हुए पाँच हजार वर्ष से अधिक दिन हो गये। गाँधी जी की भी मिट्टी पलीद हो जाय, राणाप्रताप की भी मिट्टी पलीद हो जाय, तो क्या कह सकते हैं? लोग उनके नाम पर भी धंधा करने लग जायँ तो क्या कहा जा सकता है? तुम लोग मेरी भी मिट्टी पलीद क्यों कर रहे हो? मेरी जिंदगी में ही मुझे क्यों बदनाम कर रहे हो? मेरे जाने के बाद मुझे बदनाम करना? अभी तो अपनी सफाई पेश करने के लिए मैं जिन्दा हूँ। अभी मुझे क्यों तंग करते हो।
मित्रो! आप लोगों के पास जाना और जिन आदमियों को-लाखों मनुष्यों को, जिनको मैंने अपने खून-पसीने से और अपनी मेहनत के बाद तैयार किया है, उन्हें यह संदेश सुनाना कि गुरुजी क्या हैं और यह मिशन क्या है? हमारा मिशन इन्सान में भगवान पैदा करने की कल्पना करता है। हम इन्सान में भगवान पैदा करेंगे। हम इन्सान को भगवान बनायेंगे। भगवान की खुशामद करके मनोकामना पूर्ण कराने का प्रोत्साहन हम नहीं देंगे। हम ऐसा कोई आश्वासन नहीं देंगे, वरन् हम यह आश्वासन देंगे कि इंसान अपने आपमें भगवान है और अपने आपके भगवान को विकसित करने के लिए उनको खाद-पानी और बीज-तीनों की आवश्यकता पड़ेगी। हमको हर आदमी को आस्तिक बनाना पड़ेगा, जो कि आज नहीं है। आज जो है, वे नास्तिक हैं। आपको उन तक आस्तिकता का संदेश पहुँचाना पड़ेगा और आस्तिकता की व्याख्या करनी पड़ेगी, जो मैंने इस समय तक आपको कही।
मित्रो! आपको लोगों के पास जाना पड़ेगा। मनुष्यों में महानता विकसित करने के लिए, महानता के लिए बरगद का पेड़ उगाने के लिए, जीवन का कल्पवृक्ष उगाने के लिए उसमें खाद देनी पड़ेगी। खाद का नाम वह है-जिसको हम आस्तिकता कहते हैं। जिसको हम आध्यात्मिकता कहते हैं, अर्थात् अपने आप पर विश्वास करना और अपने आपका परिशोधन करना। आप हर आदमी से यह कहना कि मनुष्य को सुख और शांति देने के लिए, जीवन को कल्पवृक्ष बनाने के लिए जिस चीज की आवश्यकता है, उस चीज का नाम धार्मिकता है। पौधे को विकसित करने के लिए बीज बोना-एक, पौधे में पानी देना-दो और खाद लगाना-तीन तीनों काम अगर आप कर लेंगे, तो आपका विशाल बरगद जैसा वृक्ष बढ़ता हुआ चला जायेगा। आपका जीवन रूपी बरगद का विशाल वृक्ष पल्लवित-पुष्पित होता हुआ चला जायेगा। उसके ऊपर फूल आयेंगे, उसके ऊपर फल आयेंगे और उसके ऊपर डालियाँ आयेंगी। ऐसे आदमी न केवल उस व्यक्ति को, जो अभावों में डूबा हुआ है, कंगाली में डूबा हुआ है, उसका न केवल उद्धार करेंगे, वरन् उसको इस लायक बना देंगे कि अपनी नाव में बिठा करके वह हजारों मनुष्यों को पार करने में सफल हो सके।
क्या है गायत्री परिवार का संदेश
मित्रो! यही हमारे मिशन का संदेश है और यही मिशन का संदेश है। यही हमारे युग निर्माण योजना का संदेश है और यही हमारे गायत्री परिवार का संदेश है। यही हमारे अध्यात्म का संदेश है और यही हमारी गुरु परम्परा का संदेश है। आप जाना और हमारे कार्यकर्ताओं को हमारा संदेश सुनाना। आप जनता को ज्यादा जोर मत देना। आपके रथयात्रा के लिए कितनी भीड़ आ गयी, कितनी नहीं, इसके ऊपर जोर देने की जरूरत नहीं है। आपके यज्ञ में कितने आदमी हवन करने वाले आये कितने नहीं आये इस पर भी बहुत जोर देने की आवश्यकता नहीं है। जितना बन जाय-उतना अच्छा ही है। हम कब मा करते हैं कि जनता को आपको इकट्ठा नहीं करना चाहिए। जनता इकट्ठी हो तो अच्छी बात है। आपका पंडाल अच्छा बन गया, तो अच्छी बात है। उससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। परन्तु हमको शुरुआत वहाँ से करनी पड़ेगी कि जो हमारा बगीचा लगाया हुआ था, वह सूख तो नहीं रहा है, कुम्हला तो नहीं रहा है। कहीं वह जानवरों द्वारा खाया तो नहीं जा रहा है? जिसके लिए हमने इतना परिश्रम किया, उतना वह विकसित होना चाहिए था पर विकसित नहीं हो रहा है। हमको ज्यादा ध्यान वहाँ देना है। इसलिए हम जहाँ कहीं भी आपको भेजते हैं, आप यह प्रयत्न करना कि जो आदमी हमारे कर्मठ कार्यकर्ता हैं, जो भी हमसे संबंधित व्यक्ति हैं, उनके अंदर मिशन की प्रेरणा, मिशन का संदेशा पहुँचाने में आप समर्थ हों।
इसके लिए मित्रो! करना क्या पड़ेगा? आपको ज्यादातर उनके संपर्क में रहना पड़ेगा। आपको उनसे दूर नहीं रहना चाहिए। नेता और जनता के बीच जो खाई पैदा हो गयी है, वह खाई आपको पैदा नहीं करना चाहिए। हमने जो संगठन किया है, उसका नाम सभा या सम्मेलन नहीं रखा है। हमारा यह मठ नहीं है और हमारे यहाँ उतनी गुरु-शिष्य परम्परा भी नहीं है। हमारे यहाँ तो परिवार प्रणाली है। कुटुम्ब में किस तरीके से भाई-बहन एक साथ रहते हैं, माँ-बाप एक साथ रहते हैं, बेटे और भतीजे एक साथ रहते हैं। उसी प्रणाली का, उसी परंपरा को हमने जन्म दिया है। आप भी उसी प्रणाली में अपने को फिट करने की कोशिश करना। जहाँ कहीं भी आप जायँ और वहाँ गायत्री परिवार के लोग और युग निर्माण परिवार के लोग मिलें, तो उन पर आपको ज्यादा ध्यान देना है और उन लोगों के साथ में आत्मीयता का विस्तार करना है और वह भी चापलूसी के द्वारा नहीं, लम्बी-चौड़ी लच्छेदार बात के साथ नहीं, क्योंकि आप उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वालों में से हैं। हमारी आत्मीयता का तरीका हमेशा से यही रही है। लच्छेदार बातें कभी किसी आदमी को आत्मीय नहीं बनाती हैं। आत्मीयता तब बनती है जब हम और आप कंधे से कंधा मिला करके, हाथ में हाथ मिला करके और पाँव से पाँव मिला करके साथ-साथ चलना शुरू करते हैं।
मित्रो! जो कुछ भी जहाँ कहीं भी आपको कार्यक्रम और क्रियाकलाप सौंपा गया है, उस सारे क्रियाकलाप और कार्यक्रम मे हम यही लोगों से सुनना चाहेंगे, देखना चाहेंगे और पूछना-चाहेंगे कि हमारे जो भेजे हुए कार्यकर्ता थे, वे आपके कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे कि नहीं। वे आपके हाथ से हाथ मिलाकर काम कर रहे थे कि नहीं और आपके पाँव से पाँव मिलाकर चल रहे थे कि नहीं। आप एक वालेण्टियर के रूप में जाना, एक कार्यकर्ता के रूप में जाना। आप नेता के रूप में मत जाना। आप गुरु के रूप में मत जाना। जहाँ कहीं भी आप गुरु का अन्दाज ले करके जायेंगे, नेता का अहंकार ले करके जायेंगे, तो फिर आप खाई पैदा करेंगे और खाई का कोई परिणाम आज तक अच्छा नहीं आया। आपको ऐसा ही करना चाहिए। जहाँ कहीं भी आप जाते हैं और हम भेजते हैं, वहाँ आपको इसी तरह से जाना चाहिए और आपको यही करना चाहिए, तो हमारा उद्देश्य पूरा हो जायेगा। और यही-सार्थक हो जायेगा, जिसके लिए हमने आपको बुलाया था और जिसके लिए हमने व्यवस्था बनाई थी। यह हुआ कार्य नम्बर एक।
संगठन बनाएँ, विश्वास अडिग रखें
कार्य नम्बर-दो यह है कि आप अपने मिशन को संगठित करना और अपने विश्वासों को डगमग मत होने देना। अपने विश्वासों को अस्त−व्यस्त मत होने देना। आपका विश्वास और आपका क्रियाकलाप असंख्य लोगों को आपके समान पैदा करके रहेगा। आप कच्चे आदमी होंगे, आप स्वयं कमजोर आदमी होंगे, तो आपका कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। मित्रो! प्रभाव वाणी का नहीं पड़ता है, प्रभाव व्यवहार कुशलता का नहीं पड़ता है। प्रभाव अगर वाणी का पड़ा होता और प्रभाव अगर व्यवहार कुशलता का पड़ा होता, तो न जाने क्या से क्या हो गया होता और न जाने क्या से क्या बन गया होता। लच्छेदार बात करने वालों और लम्बी-चौड़ी गप्पें हाँकनेवालों, रामायण की कहानियाँ कहने वालों और भागवत् की कहानियाँ कहने वालों और सतयुग की कहानियाँ कहने वालों की कमी है क्या? बरसात के मेढकों के तरीके से इसकी बाढ़ सी आ गयी है। आज संतों की, सत्संगियों की और बाबा जी की कथाओं की और कीर्तनों की बाढ़ आयी हुई है।
मित्रो! यदि उद्देश्य और दिशा सही होती, तो एक-एक संत एक-एक व्यक्ति को व्यक्तित्ववान बनाने में अपनी जिंदगी में समर्थ हो गया होता। हम छप्पन लाख संत-छप्पन लाख अच्छे व्यक्ति तैयार कर देते। फिर यह न कहना पड़ता कि यदि सौ आदमी हमारे पास होते, तो दुनिया को हम कष्टों से, दुखों से त्राण दिला देते। स्वामी विवेकानन्द दुनिया में चिल्ला-चिल्लाकर चले गये कि यदि सौ आदमी हमारे पास होते, जैसे कि मैं चाह रहा हूँ और जैसे की मैं तलाश कर रहा हूँ। मेरे हाथ में यदि सौ आदमी आ गये होते, तो सारी दुनिया में भारतीय संस्कृति की जड़ें जमा देता और भारतवर्ष में संस्कृति के प्रति जो अनास्था उत्पन्न हो गयी है, वह अनास्था उत्पन्न नहीं होने देता। विवेकानन्द की इच्छा पूरी न हो सकी। इसी तरह गाँधी जी की इच्छा पूरी न हो सकी और सौ आदमी उनको न मिल सके।
मित्रो! विवेकानन्द की इच्छा पूरी न हो सकी, क्योंकि उनको सौ आदमी न मिल सके और वे खाली हाथ चले गये। कैसे चले गये? क्योंकि उस तरह के आदमी तैयार न किये जा सके। अगर आदमी तैयार करने के साँचे हमारे पास होते, तो मित्रो! हम न जाने क्या से क्या करके दिखा देते और न जाने क्या से क्या हो जाता। मशीनें बनाना सरल है, पर मनुष्य को बनाना बहुत मुश्किल है। इन्सान अगर सही रूप में इंसान हो, तो उसके प्रभाव के बराबर किसी का प्रभाव नहीं हो सकता। अगर आप अपने आपमें सही हों तब और अपने आप में गलत हों, तब क्या हो सकता है? मित्रो! यदि आदमी अपने आप में गलत हो, तो उसके व्याख्यानों का किसी पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। ऐसा व्यक्ति किसी आदमी को पैदा करने में समर्थ हो सकता है? नहीं, किसी आदमी को पैदा नहीं कर सकता। क्यों नहीं पैदा कर सकता? क्योंकि उसके अंदर जो चुम्बकत्व होना चाहिए, मैग्नेट होना चाहिए, वह मैग्नेट उसके अंदर नहीं होता, आप इस बात पर ध्यान देना।
अंतःकरण की विशेषता
मित्रो! आप इस बात पर ध्यान देना कि जनता का स्वभाव इस तरह संभव हुआ कि नहीं। आपका चुम्बकत्व उन्हें प्रभावित कर सका कि नहीं कर सका। साथ ही इस बात पर भी ध्यान देना कि आपकी लगन और आपकी निष्ठा इस आस्था में लगी हुई है कि नहीं। अगर आपकी आस्था जमी हुई है, तो कोई चिन्ता की बात नहीं है कि कोई आदमी आपको सुनता है या नहीं और कोई आदमी आपको समझता है या नहीं और कोई आदमी आपकी ओर ध्यान देता है कि नहीं। आप अपने आपमें ही काफी हैं। आप स्वयं के द्वारा, अपने चरित्र के द्वारा, अपने क्रियाकलापों के द्वारा, अपनी भावना के द्वारा, अपने मस्तिष्क के द्वारा, अपने अन्तःकरण के द्वारा इस वायुमंडल में एक ऐसा वातावरण पैदा कर रहे होंगे, एक ऐसी हवा पैदा कर रहे होंगे और एक ऐसी फिजा पैदा कर रहे होंगे, जो आप चुपचाप रहते हुए भी न जाने क्या से क्या पैदा करके दिखा सकते हैं।
मित्रो! हमारे गुरुदेव भी इसी प्रकार के हैं। वे बहुत दूर रहते हैं। यहाँ से बहुत दूर, जहाँ मनुष्यों का कभी जाना संभव नहीं होता। उन्होंने अपनी जबान का-अपनी वाणी का कभी इस्तेमाल नहीं किया। शक्ति होते हुए भी अपनी जिंदगी में कभी व्याख्यान नहीं दिया। किसी को कभी गुरुदीक्षा नहीं दी। मुझे भी जब वे बुलाते हैं, तो ज्यादा से ज्यादा चार दिन के लिए बुलाते हैं और मौन बैठे रहते हैं। मुँह से-जबान से एक शब्द भी नहीं निकालते, लेकिन उनके पुण्य के प्रभाव से, शक्ति के प्रभाव से, तेज के प्रभाव से, ब्रह्मवर्चस के प्रभाव से समीप में जो कोई भी आदमी आता है, प्रभावित होता हुआ चला जाता है, बढ़ता हुआ, हिलता हुआ, काँपता हुआ चला जाता है। यह विशेषता उनकी वाणी की विशेषता नहीं है। उनकी क्रियाओं की विशेषता नहीं है। उनके पैसे की विशेषता नहीं है। यह उनके अंतःकरण की विशेषता है।
कौन है योगी, कौन है तपस्वी?
मित्रो! आप यहाँ से जाने के पश्चात् योगी बनकर रहना और तपस्वी बनकर रहना। योगी और तपस्वी की परिभाषाएँ आपको मैं कल बता चुका हूँ। आप भूलना मत। आप भूल जायेंगे तो मुश्किल हो जायेगी। आप फिर नाक में से पानी पीने को योग कहना शुरू कर देंगे और गले में से रस्सी डालने को योग कहना शुरू कर देंगे और टट्टी के रास्ते पानी चढ़ाने को योग कहना शुरू कर देंगे। आप नाक में से हवा निकालने को योग कहना शुरू कर देंगे। योग का यह आशय नहीं है, मैं आपको कितनी बार समझा चुका हूँ। योग का इन सबसे कोई ताल्लुक नहीं है। यह अभ्यास है, क्रियाकलाप है, जिससे शरीर को अच्छा रखा जा सके। यह सूत्र है, प्रक्रिया है, योग नहीं है। आप यहाँ से जाने के पश्चात् अपने आपको योगी बनाये रखने के लिए तप करना। आप अपने आपको भावनाओं में मत बहने देना। आप हमेशा यह विचार करना कि हम किसी व्यक्ति विशेष की सम्पत्ति नहीं हैं और हम किसी कुटुम्ब विशेष की सम्पत्ति नहीं हैं और हमारा मन किसी घर विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है और किसी खानदान विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है।
मित्रो! वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने के पश्चात् और पीला कपड़ा पहनने के पश्चात् आपको भले से ही किसी घर में रहना पड़े, इसके लिए मैं आपको मजबूर नहीं करता और यह भी नहीं कहता कि जो बच्चे आपके बाकी रह गये हैं, उनकी सेवा नहीं करना चाहिए। उनका पालन-पोषण नहीं करना चाहिए, मैं यह भी नहीं कहता, पर मैं यह अवश्य कहता हूँ कि आप अपनी मन की स्थिति को बदल देना। आप अपनी मनःस्थिति को इस प्रकार बदल देना कि हम किसी खास आदमियों की संपदा नहीं है और हमारा कोई खास घर नहीं है। हम किसी खास वस्तु से जुड़े हुए नहीं हैं। अब हमारा कायाकल्प हो गया है और हमारे जीवन की नयी दिशायें बन गयी हैं। अब हम समाज की संपत्ति हैं। अब हम धर्म की संपत्ति हैं। अब हम भगवान की संपत्ति हैं। अब हम राष्ट्र की संपत्ति हैं और हम संस्कृति की संपत्ति हैं। अब हम व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं हैं। अगर आप मन का यह कायाकल्प करने में समर्थ हो गये और मन का स्तर बदलने में समर्थ हो गये, तो मैं आपको सच्चा वैरागी कहूँगा और सच्चा संन्यासी कहूँगा।
गृहस्थ संन्यासी कैसे बनें
मित्रो! आप संन्यासी हो जायँ, आप वैरागी हो जायँ। आप गृहस्थ बने रहें, तो भी कोई हर्ज नहीं है। संतों, ऋषियों में से अधिकांश गृहस्थ थे। जितने भी देवी-देवता थे, सबके सब गृहस्थ थे, ऐसे मुझे मालूम पड़ता है। शंकर जी भी गृहस्थ थे। उनके दो बच्चे भी थे। दो बच्चों के अलावा उनके पास बैल था, शेर था, कबूतर था और उनके बेटों के पास चूहा था, मोर था। सारे का सारा सर्कस लेकर वे चलते थे। कौन? शंकर जी। बजाने के लिए डमरू, चलाने के लिए त्रिशूल और ढेर सारा सरंजाम लेकर शंकर जी और उनका खानदान चलता था। वे गृहस्थ थे। ऐसा नहीं है कि आप गृहस्थ रहते हैं, तो आप योग्य नहीं हो सकते और सुयोग्य व्यक्ति नहीं हो सकते, महामानव नहीं बन सकते। गार्हस्थ्य जीवन आपके मार्ग में बाधक नहीं बन सकता। मैं तो स्वयं गृहस्थ बनकर के रहा, ताकि मैं लोगों को यकीन दिला सकूँ, इस बात का विश्वास दिला सकूँ कि गृहस्थ रहने से किसी का कुछ बिगड़ने वाला नहीं है।
मित्रो! आदमी का नुकसान गृहस्थ होने से नहीं होता है। नुकसान आदमी का लोभी होने से होता है, मोहग्रस्त होने से होता है। आदमी का विनाश लोभी होने से होता है, गृहस्थ होने से नहीं होता है। संत-बाबा जी भी ऐसे हो सकते हैं, जिन्होंने ढेरों की ढेरों सम्पदा कमाई और मरने के समय तक धन का मोह, स्थान का मोह, आश्रम का मोह उन्हें बना रहा। उनको मैं गृहस्थ कहूँगा। उनको मैं संन्यासी नहीं कह सकता। मैं ऐसे असंख्य गृहस्थों को जानता हूँ जिन्होंने अपने बच्चों का तो पालन किया, जिन्होंने उसी तरीके से किया जिस तरीके से माली अपने बगीचे का पालन किया करता है। पालन करने के बाद वह समझ जाता है कि यह पौधा हमारा नहीं है, वरन् यह मालिक का है। हम मालिक के पौधे की देख−भाल इसलिए करते हैं क्योंकि वह हमें रोटी खिलाता है। इसलिए हमें उसके पौधों को सींचना चाहिए, पौधों को बड़ा बनाना चाहिए। यह संपदा हमारी कैसे हो सकती है?
मालिक नहीं, माली बनें
मित्रो! आप जहाँ कहीं भी रहें, जहाँ कहीं भी जायँ, मालिक बनकर नहीं, माली बनकर रहें। इससे आपका अहंकार गलता हुआ चला जायेगा और आपका प्रभाव बढ़ता हुआ चला जायेगा। अगर आपने ऐसी मनःस्थिति बना ली और इस बात पर ध्यान देना प्रारंभ कर दिया कि जो लोग आपके संपर्क में आये, उन पर आपने कैसी छाप डालने की कोशिश की और कैसा प्रभाव छोड़कर के आये। मैं इस बात की तलाश करूँगा कि जहाँ भी आप गये थे, वहाँ हिलने-मिलने का, व्यवहार करने का आपका क्रम क्या रहा? अगर आप यह छाप छोड़कर आये कि हम शान्तिकुञ्ज से आये हैं। वहाँ जो विचारधारा दी जाती है, जो प्रेरणाएँ दी जाती हैं, जो दिशायें दी जाती हैं, उन तीनों को लेकर आपने अपनी इज्जत को कैसे बढ़ाया और हमारी इज्जत को कैसे बढ़ाया और हमारे मिशन की इज्जत को कैसे बढ़ाया। हम यही देखना पसंद करेंगे। आपकी वाणी का व्यवहार कैसा रहा। लोगों के साथ में आपने अपनी वाणी की मिठास का किस तरह से इस्तेमाल किया। जहाँ आप गये थे, वहाँ बात-बात पर लड़ाई करके आये होंगे, बात-बात पर झगड़ा करके आये होंगे, तो हमको बुरा लगेगा।
मित्रो! आप अपनी वाणी का सही प्रयोग करना और ठीक रूप में इस्तेमाल करना। वहाँ इस बात का अहंकार मत होने देना कि हम पहले अमीर आदमी थे, मालदार आदमी थे, जमींदार थे। हम पहले वकील थे, डाक्टर थे, इंजीनियर थे। यह क्या है? अहंकार है। आप अपना अहंकार जितना ज्यादा अपने मुँह से बताने की कोशिश करेंगे, उतना ही समझदार व्यक्तियों की श्रेणी में आपका छोटापन जाहिर होता हुआ चला जायेगा कि यह आदमी बड़ी कच्ची तबियत का आदमी है और बड़ी कमजोर तबियत का आदमी है। पुराने जमाने में आप वकील थे, तो हम क्या कर सकते हैं? आप वकील थे तो आपने रुपये कमाये होंगे, आपने रोटी खायी होगी। इससे हमें क्या लेना-देना? हमें तो आप अभी की बात बताइये कि इस समय आपकी मनःस्थिति क्या मनुष्य सेवा के लिए तत्पर है? सेवा की वृत्ति आपके मन में है क्या? आप पुराने किस्से बताकर हमारे ऊपर रौबदारी क्यों करना चाहते हैं? आप तो हमें इस समय की बात बताइये कि आप इस समय क्या हैं?
इसलिए मित्रो! आप अपनी कमजोरियों को जाहिर न होने दें। आप श्रेष्ठ, समझदार और बलवान व्यक्ति हो करके वहाँ जाइये, जहाँ हम आपको भेज रहे हैं। आप सशक्त होकर जायँ जिससे लोगों के अंदर आप इतनी प्रेरणा उत्पन्न करने में समर्थ हो जायँ। लोगों को अज्ञान और लोभ-मोह से हटाने में कितने समर्थ हुए, कितनी सफलता प्राप्त की, यही आपकी कसौटी है। इस पर आपको अपने आपको, अपने कार्यों को, हमारे कार्यों को कसना चाहिए।
क्यों कहलाते थे हम जगद्गुरु
मित्रो! यह आपका मिशन, जिसके लिए आपने वक्त देना-समय देना मंजूर कर लिया, जिसके आप सरपरस्त हैं। इसकी महिमा और गरिमा के बारे में जितना ज्यादा आपका विश्वास होगा, जितनी ज्यादा आपकी निष्ठा होगी, उतना ही ज्यादा निष्ठा और विश्वास आप लोगों में पैदा करने में समर्थ होंगे। यह जमाना निष्ठाओं से रहित है। यह जमाना भावनाओं से रहित है। इस जमाने में वे उच्चस्तरीय सिद्धांत और आदर्श न जाने कहाँ से कहाँ गायब हो गये जो कि हमारे ऋषियों की विरासत थी, सम्पदा थी। उसे लोगों ने खो दिया। हम लोगों ने उन विशेषताओं को खो दिया, जिसके आधार पर हम सारे संसार के जगद्गुरु कहलाते थे।
मित्रो हमने वह विशेषताएँ खो दीं, जिसके आधार पर हम किसी समय दुनिया के चक्रवर्ती शासक कहलाते थे। वह विशेषताएँ हमने खो दीं, जिसके आधार पर हम किसी जमाने में स्वर्ण-संपदाओं के मालिक कहलाते थे। वह सब विशेषताएँ हमने खो दीं, जिसके आधार पर यहाँ का हर नागरिक देवता कहलाता था और यह देवताओं का देश कहलाता था। यहाँ के निवासियों में जो आध्यात्मिक विशेषताएँ थी वे सब खत्म हो गयीं। नष्ट हो गयीं। भौतिक विशेषताएँ बढ़ीं या नहीं बढ़ीं, मुझे नहीं मालूम। भौतिक विशेषताओं के बारे में जो मैं जानता हूँ, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि भौतिक विशेषताएँ यदि आदमी की बढ़ती हुई चली जायें, तो उससे बर्बादी के अलावा और क्या हासिल हो सकता है? मैं कई बार अमेरिका का उदाहरण दिया करता हूँ। बढ़ती हुई भौतिकता के कारण वहाँ के लोगों ने अपनी दिमागी सेहत को गँवा दिया है। वहाँ के अधिकांश आदमी ऐसे हैं, जो कि गोली खा करके सोते हैं; ताकि नींद आ जाये। वहाँ के लोगों ने अपना दाम्पत्य जीवन व पारिवारिक जीवन समाप्त कर दिया। अकेला आदमी कितना डरावना होता है, कितना खौफनाक होता है, आप इसी से अंदाज लगा सकते हैं कि भूत जंगल में अकेला रहता है। उसका कोई खानदान वाला, कोई मित्र, कोई सगा-संबंधी नहीं होता है। सबसे बड़ा कष्ट, सबसे बड़ा त्रास उसकी जिंदगी का यही है कि वह अकेला रहता है। अमेरिका, रूस ब्रिटेन जैसे संपन्न एवं भौतिकवादी देशों का जीवन कुछ ऐसा ही है, जहाँ आदमी अकेला है और वह किसी से जुड़ा हुआ नहीं है। वह किसी का नहीं है और उसका कोई नहीं है। इस तरह का जीवन जी करके आदमी क्लेश में फँसता हुआ चला जा रहा है और दुनिया तबाही की ओर भागती हुई चली जा रही है।
गायत्री परिवार से हैं मानवता को बड़ी उम्मीदें
मित्रो! आप यहाँ से उस स्थान पर चोट करने के लिए जाना जिसने कि हमारे सारे शरीर को, हमारे मन को और हमारी भावनाओं को डगमगा दिया है। जिसने मानव की सारी आस्था को डगमगा दिया है। आपके जिम्मे जो काम सौंपा गया है, वह सामान्य काम नहीं है। वह असामान्य काम है। आप अपने आपको असामान्य व्यक्ति मानकर चलना और यह मानकर चलना कि जो उत्तरदायित्व आपको सौंपा गया है, वह सामान्य उत्तरदायित्व नहीं है। आप असामान्य उत्तरदायित्व ग्रहण करके चले हैं। आप छोटी चीज लेकर के नहीं चले हैं। आप बहुत बड़ी चीज को लेकर के चले हैं। आप उसका ध्यान रखना और उसे पूरा करने के लिए उतनी गहराई, उतनी ईमानदारी और उतनी जिम्मेदारी के साथ कदम बढ़ाना, जिससे कि जो ख्वाब हमने देखे हैं, जो सपने हमने देखे हैं, उसे पूरा किया जा सके। समूची मानव जाति आपसे जो उम्मीद लगाये बैठी है और आशा लगाये बैठी है, उसके बारे में उसे थोड़ा सा भी प्रकाश मिल सके, आपके जिम्मे हम यह बहुत बड़ा काम सौंप रहे हैं। आप से लोग बहुत उम्मीद लगाये बैठे हैं।
मित्रो! आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, वहाँ आपको शिविरों का संचालन करना पड़ेगा। शुरू के तीन दिन तो आपको वहाँ के लोगों की रूपरेखाओं और व्यवस्थाओं को समझने में लगेगा। कार्यकर्ताओं को तो मालूम नहीं है। उन बेचारों पर तो हवन हावी रहता है। बस साहब! हम तो हवन करेंगे और यहाँ बस हवन होगा। हवन के अलावा उन्हें कोई दूसरी चीज दिखाई नहीं पड़ती। दूसरी चीज उनको समझ में नहीं आती। उनको यह बताना पड़ेगा कि हवन आवश्यक नहीं है। हवन हमारा लक्ष्य नहीं है, हवन हमारा उद्देश्य नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य ज्ञानयज्ञ है। ज्ञान हमारा पूज्य है। हवन के माध्यम से यज्ञ के माध्यम से हम लोगों में सत्प्रवृत्तियाँ पैदा करते हैं। इसलिए हमारे सारे के सारे क्रियाकलापों में उन सब बातों का समन्वय होना चाहिए, जिससे सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन होना संभव हो सके। इसलिए आप लोगों से कहना कि आप अपना श्रम दीजिए, समय दीजिए। आप यह कोशिश करना कि यज्ञशालाओं को बनाने के लिए कार्यकर्ता अपना श्रम और समय देना सीखें। परिश्रम करना सीखें, सहयोग देना सीखें। श्रम की कीमत है, समय की कीमत है। पैसों की कीमत नहीं है। पैसे के बिना हमारे कार्य न कभी रुके हैं और न कभी रुकेंगे। इसलिए आप प्रत्येक कार्यकर्ता को श्रमशील और श्रमनिष्ठ होने के लिए कहना, प्रेरित करना। असली कीमत समय की है, श्रम की है। श्रद्धा की है। श्रद्धा जो है, वह समय के साथ जुड़ी हुई है, श्रम के साथ जुड़ी हुई है। इन्हीं के आधार पर हमारे कार्यक्रम चलेंगे। श्रम का जहाँ अभाव दीखेगा, वहाँ हमारा कोई कार्यक्रम नहीं चलेगा, कोई मिशन नहीं चलेगा। कोई भजन नहीं होगा, कोई पूजन नहीं होगा।
अमूल्य है श्रम और समय
मित्रो! हमें आप के श्रम की और समय की बहुत आवश्यकता है। अगर हमें आप अपना श्रम और समय देना शुरू करेंगे, तो आपकी निष्ठा में बहुत हेर फेर हो जायेगा। तब फिर आपकी निष्ठाएँ परिपक्व होंगी। जो व्यक्ति मिशन की गंभीरता को समझता है और क्रियाशीलता की गंभीरता को समझता है उसके लिए श्रम और समय देना एक कसौटी है। मित्रो मिशन के कार्यों में परिजनों के परिश्रम का जितना बड़ा योगदान रहा होगा, मैं उतनी ही ज्यादा सफलता मानूँगा। आप लोगों को पसीना बहाना सिखाना और श्रेय उन्हीं लोगों को देना जिन्होंने पसीना बहाना शुरू किया है। आप गरीब हैं तो क्या, छोटे हैं तो क्या और अमीर हैं तो क्या? पसीना किसने लगाया-बहाया, हमको श्रेय पसीने को देना है। हम सम्मान पसीने को देना चाहते हैं, श्रम को देना चाहते हैं। हम अपने आदमी की निष्ठा की परख पैसे के साथ नहीं, वरन् पसीने के साथ करना चाहते हैं। इसलिए जहाँ कहीं भी जो भी कोई हो, उसमें आप यह प्रयत्न करना कि अधिक से अधिक लोगों का पसीना लग जाय और अधिक से अधिक लोगों की मेहनत लग जाय। मूलभूत सिद्धान्तों को आप ध्यान रखना कि हम विचारों का परिष्कार करने चले हैं और आपने विचारों का परिष्कार करने में किस हद तक सफलता पायी, यही आपकी सफलता की कसौटी है। यही आपकी क्रियाशीलता की कसौटी है। इसके लिए आवश्यक है कि आपकी विचारशीलता, आपकी भावना, आपकी निष्ठा और आपकी कर्तव्य परायणता इस हद तक होनी चाहिए जैसे कि ब्राह्मणों की और संतों की रही है।
मित्रो! आप ब्राह्मणत्व के प्रतीक है, आप संतत्व के प्रतीक हैं, आप शान्तिकुञ्ज के प्रतीक हैं। आप नवयुग निर्माण योजना के प्रतीक हैं। आप अपनी इन सब जिम्मेदारियों को समझना और इन सब जिम्मेदारियों को धारण करना। अगर आपने इन जिम्मेदारियों को धारण नहीं किया, तो लोग किससे अन्दाज लगायेंगे। हमारे बारे में अन्दाज, हमारे मिशन के बारे में अंदाज और हमारे क्रियाकलापों के बारे में, हमारी क्रियाशीलता के बारे में अंदाज लोग आपकी क्रियाशीलता के द्वारा ही लगायेंगे। आपके चरित्र से लगायेंगे। आपके स्वभाव से लगायेंगे, आपके कर्म से लगायेंगे, आपके गुणों से लगायेंगे। यह सब चीजें आपको प्रतीक मानकर लगायेंगे। इसलिए आप जहाँ कहीं भी जायँ, फूँक-फूँक कर कदम रखें। आप अपने खान-पान के सम्बन्ध में, उठने-बैठने के संबंध में, चलने-फिरने के संबंध में, बोलचाल के संबंध में, व्यवहार के संबंध में, निर्लोभता के संबंध में, आपकी प्रयत्नशीलता और क्रियाशीलता के सम्बन्ध में, लोगों से मिलने-जुलने के सम्बन्ध में और लोगों से आत्मीयता बनाने के सम्बन्ध में, लोगों के अंदर श्रमशीलता पैदा करने के सम्बन्ध में, लोगों की भावनाओं को उभारने के सम्बन्ध में जो जिम्मेदारियाँ ले करके जा रहे हैं, उन्हें निभाने की कोशिश करना। बेटे, हम आपकी सहायता करेंगे। हमारा मिशन आपके साथ है। हम आपके साथ हैं और हमारा गुरु आपके साथ है। सफलता आपको जरूरत मिलेगी।
प्रामाणिकता के आधार पर मिलती है सफलता
मित्रो! हमें छोटे-बड़े सभी आयोजनों में बहुत सफलतायें मिलती रही हैं, जन सहयोग मिलता रहा है। एक बार एक सहस्रकुण्डीय यज्ञ में हमने तीस-चालीस हजार रुपया खर्च कर डाला। हमारे पास कानी-कौड़ी भी नहीं थी, पर न जाने कहाँ से सब कुछ आता हुआ चला गया। न जाने कहाँ से व्यवस्था होती चली गयी। हमको यकीन था कि कोई महाशक्ति हमारे पीछे बैठी है। इसी तरह जब हमको विदेश जाना पड़ा तो किराये-भाड़े में चालीस-पचास हजार रुपये खर्च हो गये। उस समय हमारे पास रुपये-पैसों की दिक्कत थी और दूसरी बहुत सी दिक्कतें थीं, लेकिन हम जानते थे कि हम अकेले नहीं हैं और हमारे पास बहुत जबरदस्त बैंकिंग है। मित्रो! आप यकीन रखना कि यह सब आपके लिए भी सुरक्षित है, लेकिन शर्त केवल यही है कि आपको अपने को स्वयं सही सिद्ध करना होगा। अगर आप स्वयं सही सिद्ध न हो सके, तो ये जो बैंकिंग है, फिर आपको उसकी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। फिर आपको यह आशा नहीं करनी चाहिए कि कहीं से कोई ऐसा समर्थन, बैंकिंग और सहायता आपको मिलेगी। अगर आप सही व्यक्ति होंगे और पूरी ईमानदारी से काम करते हुए चले जायेंगे, तो हम आपको यह आशीर्वाद दे करके विदा करते हैं कि आप यह पायेंगे कि आप समर्थ हो करके गये हैं। फिर आपके क्रियाकलापों का कोई सहयोगी न हो, ऐसी बात नहीं है। हम यहाँ से आपकी सहायता करेंगे और यहाँ से आपका समर्थन करेंगे और हम आपको आगे बढ़ायेंगे।
मित्रो! हम आपकी हर तरह से सहायता करेंगे और हर तरफ सफलता देंगे, शर्त केवल एक ही है कि आप अपने स्थान पर सही बने हुए रहें। अगर आप अपने स्थान पर सही नहीं रहेंगे, तो हमारी सहायता आपसे टक्कर खा करके वापस हमारे पास आती जायेगी। फिर आप वह काम करने में समर्थ न हो सकेंगे, जो हम आपसे कराना चाहते हैं और जिम्मेदारियाँ आप लेकर के जा रहे हैं, उसको भी आप पूरा नहीं कर सकेंगे। आप अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों को ध्यान में रखकर जायें। कहाँ क्या सफलता मिली और कहाँ नहीं मिली, इस पर बहुत धन मत देना। आप अपना स्वयं का कर्तव्य पूरा कर लेना। अपनी जिन जिम्मेदारियों की भावना को ले करके जा रहे हैं, उसे ईमानदारी पूर्वक निभाने को आप काफी मान लेना। हमारे लिए यही काफी है और आपकी जीवात्मा के संतोष के लिए भी काफी है और हमारे भगवान के लिए भी काफी है। समाज में क्या सफलता मिली, क्या नहीं मिली, हम उसका लेखा-जोखा आपसे नहीं माँगने वाले हैं। आपके कार्यक्रम में कितने आदमी जाये, कितनी गुरुदक्षिणा मिली, कितना क्या मिला-यह सब जानकारी आप हमको मत भेजना। आप तो बस हमको यह भेजना कि हमारी निष्ठा में कोई कच्चाई तो नहीं आ गयी, कोई कमजोरी तो नहीं आ गयी। आपने अपने परिश्रम और पुरुषार्थ में कोई कमी तो नहीं रहने दी। आपने लोगों के अंदर निष्ठा जमाने में कहाँ तक सफलता पायी, हमारे लिए यही पर्याप्त है।
मित्रो! वास्तव में हम आपको लोकनिष्ठा जगाने के लिए भेजते हैं। हम आपको लोगों की मनःस्थिति बदलने के लिए भेजते हैं। हम आपको बड़े-बड़े आयोजन व उत्सव सम्पन्न कराने के लिए नहीं भेजते हैं। बड़े उत्सव सम्पन्न कराना होता, तो हमने आपको कष्ट नहीं दिया होता, फिर हम मालदारों की खुशामद करते और कहते कि एक लक्ष कुण्डीय यज्ञ होने वाला है। उसमें एक लाख रुपये लगने वाला है। तुम पाँच हजार रुपये दे दो। अच्छा गुरुजी! मैं दे दूँगा, पर यह बताइये कि मेरे सट्टे में फायदा हो जायेगा कि नहीं? हाँ बेटे, तेरे सट्टे में फायदा हो जायेगा, तू पाँच हजार रुपये निकाल दे और कहीं से इकट्ठा करवा दे। अच्छा गुरुजी! मैं टेलीफोन किए देता हूँ, उसके यहाँ से दो हजार आ जायेगा। दूसरा व्यक्ति भी हमारा मिलने वाला है, उसके यहाँ से भी पाँच हजार आ जायेगा।
मित्रो! हमें मालदार नहीं, निष्ठावान्, श्रद्धावान् व्यक्ति चाहिए। हम लोगों की निष्ठा जगाते हैं। निष्ठाएँ लोगों की खत्म हो गयी हैं, निष्ठाएँ मर गयी हैं। जो आस्तिकता मर गयी है, आध्यात्मिकता मर गयी, सो गयी है जो धर्म आदमी के भीतर से मर गया है, सो गया है, उसी को जगाने के लिए हम आपको भेजते हैं। मित्रो! आप जलते हुए दीपक की तरह से जाना और दूसरों को दीपक से दीपक की तरह जलाते हुए चले जाना। यही आपसे हमारी उम्मीद है और यही मेरी शुभकामना और यही आपके सहयोग का विश्वास और आश्वासन है। इन्हीं सब चीजों के साथ बड़े प्यार के साथ और बड़ी उम्मीदों के साथ और बड़ी आशाओं के साथ मैं आपको विदा करता हूँ। आपको मैं फिर मिलूँगा। अब आपसे विदा चाहूँगा। आज की बात समाप्त।
ॐ शान्तिः