उन दिनों कैसेट का प्रचलन खूब जोर-शोर से था। गीतों के व परम पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों के कैसेट तैयार किये जा रहे थे। कैसेट के इनले कार्ड में परम पूज्य गुरुदेव का चित्र देने का निर्णय हुआ। जब वं० माताजी को एक नमूना दिखाया गया तो वं० माताजी ने कैसेट को उलट-पलट कर देखा और बोलीं, ‘‘बेटा! मुझे और गुरुजी को कभी अलग मत समझना।’’ फिर बोलीं, ‘‘बेटा, आने वाले समय में दुनिया अपनी समस्याओं का समाधान मेरे गीतों में और पूज्य गुरुजी के प्रवचनों में (विचारों में) ढूँढ़ेगी।’’ — वं० माताजी
मित्रो! मैं व्यक्ति नहीं विचार हूँ।.....हम व्यक्ति के रुप में कब से खत्म हो गए। हम एक व्यक्ति हैं? नहीं हैं। हम कोई व्यक्ति नहीं हैं। हम एक सिद्धांत हैं, आदर्श हैं, हम एक दिशा हैं, हम एक प्रेरणा हैं।.....हमारे विचारों को लोगों को पढ़ने दीजिए। जो हमारे विचार पढ़ लेगा, वही हमारा शिष्य है। हमारे विचार बड़े पैने हैं, तीखे हैं। हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। दुनिया को हम पलट देने का जो दावा करते हैं, वह सिद्धियों से नहीं, अपने सशक्त विचारों से करते हैं। आप इन विचारों को फैलाने में हमारी सहायता कीजिए। —पूज्य गुरुदेव
धर्मतंत्र का आज का विकृत विडम्बना भरा रूप
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ—
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
एक विलक्षण वृत्तान्त
देवियो, भाइयो! दूसरा महायुद्ध समाप्त हुआ और रंगून शाखा-बर्मा के हमारे गायत्री परिवार के सब लोग लौटकर हिन्दुस्तान आये और मुझे अपना सारा वृत्तान्त सुनाने लगे। बर्मा में जिन दिनों हमला हुआ था, हमलावर जापान ने उसे छीन लिया था और वहाँ जो हालात उत्पन्न हुए थे, उसका हाल बताया। उसमें एक बड़े अचंभे की घटना थी और वह थी वहाँ की मुद्रास्फीति। वहाँ लोगों के पास बहुत करेन्सी हो गयी, बहुत पैसा फैल गया। इतना पैसा फैला कि उसको सँभालना मुश्किल हो गया। चीजों के दाम महँगे होते चले गये और पैसे की कीमत गिरती चली गयी। कमीज के दाम ३५० रुपये, जूते के दाम-१०० रुपये, एक दिन का खाना २५ रुपये और चाय तीन रुपये हो गयी। छोटे-छोटे कामों की बहुत करेन्सी हो गयी। वहाँ बहुत बड़ा क्राइसिस उत्पन्न हो गया। लोग नोट लिए हुए फिरते थे। १०० रुपये के नोट, १००० रुपये के नोट लोगों के बैगों में, बटुओं में भरे हुए पड़े थे। सामान लेने के लिए जाना हो, तो उससे खाने-पीने की चीजें मिल सकती थी। ये चलती-फिरती चीजें थीं, लेकिन टिकाऊ चीज बेचने के लिए कोई तैयार नहीं था। आपका मकान बिकाऊ है? हाँ! कितनी कीमत है? बीस लाख रुपये। अच्छा साहब! तैयार हैं? हाँ, कल रुपये लेकर आऊँगा। फिर उसने विचार किया और मना कर दिया कि हमको नहीं बेचना है। क्यों? क्या हुआ? साहब! यह झूठा पैसा है—फॉल्स करेन्सी है। इसके बारे में किसी को यकीन नहीं रह गया कि यह पैसा आगे चल कर हमारे काम आयेगा कि नहीं। वह मकान जो बीस लाख रुपये में बेचा जायेगा और रुपया हमको दिया जायेगा, क्या यह आगे भी काम देगा? हर आदमी को शक हो गया था।
झूठी करेन्सी ने बिगाड़ी अर्थव्यवस्था
मित्रो! पैसा यूँ ही भरा रहा और लोग नोट लिए फिर रहे थे। बंडल के बंडल नोट रखे हुए थे, लेकिन जो आवश्यक वस्तुएँ थीं, उनका मिलना मुश्किल हो जा रहा था। हर आदमी के दिमाग में यही था कि झूठे पैसे का यह व्यापार एक दिन बंद होने वाला है। जापान गवर्नमेन्ट ने बर्मा सरकार की करेन्सी को गिराने के लिए बोरों के बोरों नोट छापकर भेज दिए थे। हर दिन रुपया आ रहा था। हर व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता, उसके थैले नोटों से भरे हुए रहते। चारों तरफ नोटों की बहार ही बहार। १००० रुपये वाले नोट, ५०० रुपये वाले नोट, १०० रुपये वाले नोट छापेखाने छापते हुए चले जा रहे थे, जिससे बर्मा सरकार का आर्थिक ढाँचा अस्त−व्यस्त हो गया। यह सुनकर मुझे बहुत अचंभा हुआ।
फिर क्या हुआ? भाई साहब! जब बर्मा सरकार बनी, तो उसने सबसे पहला कदम यह उठाया कि उस तमाम फाल्स करेन्सी को खत्म किया। उन्होंने कहा कि बाजार में जिस भूत का उछाल आ गया है, उसके स्थान पर अपने देश का रुपया स्थापित होना चाहिए। उन्होंने एक हजार रुपयों के बदले में एक कयात निकाला। लोग १००० रुपये लेकर के बैंक में गये और उसके बदले में एक कयात (KYAT) का नोट थमा दिया गया। सारी की सारी झूठी करेन्सी खत्म हो गयी और जो नोटों के पुलिंदे थे, वे सब लोगों की आँखों से गायब हो गये। थोड़ा सा रुपया रह गया और कीमतें मुनासिब हो गयीं। गायत्री परिवार के शाखा संचालकों ने यह सब मुझे सुनाया। कुछ देर तक तो हमें भी हैरत हुई, पीछे मैंने सहमति जताई।
अध्यात्म क्षेत्र की मुद्रा स्फीति
मित्रो! हिन्दुस्तान में इसी तरह आध्यात्मिकता के नाम पर फाल्स करेन्सी, मुद्रास्फीति, झूठे लोग, बेकार लोग भरे पड़े हैं। किसी जमाने में सात ऋषि थे। सातों ऋषियों ने सारी दुनिया में तहलका मचा दिया था। सारी दुनिया में प्रकाश फैलाते थे। हर जगह से रोशनी आती थी। वे सातों व्यक्ति जहाँ कहीं भी खड़े हो जाते थे, जिधर को भी चल देते थे, दिशाएँ साथ होती हुई चली जाती थीं। आत्मा का तेज और उसके साथ में मिला हुआ परमात्मा का तेज, दोनों का सम्मिश्रण हो, तो क्या कहने का? बारूद और बंदूक दो अलग-अलग चीजें होती हैं, लेकिन दोनों को जब मिला देते हैं, तो जोरदार धमाका होता है। उससे दिये जलाये जा सकते हैं, मनुष्य मारे जा सकते हैं, शेर मारे जा सकते हैं और हाथी भी मारे जा सकते हैं।
विभिन्न हालात
मनुष्य क्या है? भगवान् का और देवताओं का सम्मिश्रण है। देवता कहाँ रहते हैं? स्वर्ग में। इस मशीन में जिससे हम बोल रहे हैं, दो तार हैं। एक को ठंडा तार—निगेटिव कहते हैं और दूसरे का पॉजिटिव—या गरम तार कहते हैं। दोनों तारों को जिस क्षण मिला देते हैं, उसी क्षण विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है और माइक के जरिये हमारी आवाज दूर-दूर तक फैलने लगती है। दोनों का मिल जाना सामान्य बात नहीं, असामान्य बात है। लेकिन फाल्स करेन्सी को कौन क्या कहे? छप्पन लाख इन्सान इस हिन्दुस्तान में भगवान् के नाम की धूनी रमाये हुए मारे-मारे फिरते हैं। यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ भीख माँगते हुए, गाँजा पीते हुए, चरस पीते हुए, चंडी खीर खाते हुए दरवाजे-दरवाजे पर हाथ पसारते हुए और अपना पेट दिखाते हुए फिरते रहते हैं। यदि इन लोगों के पास भगवान् का अथाह भक्ति प्रवाह रहता, प्रकाश रहता, तो मित्रो! आज परिस्थितियाँ कुछ अलग ही होतीं। छप्पन लाख भगवद् भक्तों वाला हिन्दुस्तान देश, दुनिया में न जाने क्या से क्या कर डालने में समर्थ हो गया होता। चीन वाले के पास पच्चीस लाख सेना है और पच्चीस लाख सेना के पास बन्दूकें हैं, तलवारें हैं, भाले हैं और उन पच्चीस लाख बन्दूकों, तलवारों वाली सेना हिन्दुस्तान वालों के नाक में दम किए हुए है। उनने बर्मा वालों को संधि करने के लिए मजबूर कर दिया। जापान वाला और पाकिस्तान वाला उसकी गोदी में चला गया। नेपाल वाला खुशामद करता है। तिब्बत को हजम कर लिया। सारे के सारे पड़ोसी देशों पर चीन का आतंक छाया हुआ है।
छप्पन लाख की हमारी सेना
मित्रो! चीन की पच्चीस लाख सेना क्या होती है? बहुत होती है और छप्पन लाख की इस हमारी आध्यात्मिक सेना के भीतर भगवान् की बात जाने दीजिए, इन्सान भी अगर इनके भीतर रहा होता, तो हिन्दुस्तान का कायाकल्प हो गया होता। हिन्दुस्तान में सात लाख गाँव हैं और छप्पन लाख हम पण्डे, जो तरह-तरह की रंगबिरंगी पोशाक पहने हुए जहाँ-तहाँ घूमते रहते हैं। यदि इन लोगों के पास थोड़ा भी अध्यात्म रहा होता, तो सात लाख गाँवों का वे कायाकल्प कर डालते। आठ आदमी हर गाँव के पीछे आते। इनमें से हर आदमी स्कूल चलाता। एक बाबाजी कन्या पाठशाला चला सकते थे। हर गाँव में एक कन्या स्कूल बन सकता था। एक बाबाजी प्रसूतिगृह चला सकते थे। गाँवों में हर साल लाखों महिलाएँ प्रसव में मर जाती हैं। प्रसूति गृह से हर साल की व्यवस्था हो गई होती और इनमें से एक बाबाजी ने गाँव की सफाई का जिम्मा लिया होता। एक बाबाजी गाँव से भीख माँग लाते और सारी व्यवस्था हो जाती। आज भी तो बाबाजी जिंदा हैं। भीख अभी भी माँगते हैं, हम दक्षिणा उन्हीं को देते हैं, कपड़ा पहनाते हैं, भीख देते हैं। इस तरीके से वे अपना गुजारा कर लिए होते और हमारे समाज के नव निर्माण के कार्य में लग गये होते।
कायाकल्प हो गया होता
मित्रो! इस तरह से हमारा यह देश बीस वर्षों में न जाने कब का कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता। क्यूबा ने पाँच वर्ष के भीतर अपने देश की अशिक्षा का समाधान किया था। उसने कानून बनाया था कि किसी आदमी को नौकरी तभी मिलेगी, जब वह पाँच अशिक्षित व्यक्तियों को पढ़ा देगा और तभी उसको क्लेम करने का मौका मिलेगा कि हमको नौकरी दी जाये। पाँच व्यक्ति की पढ़ाई का सर्टीफिकेट जब तक आदमी के पास न हो कि हमने पाँच अशिक्षित व्यक्तियों को साक्षर बना दिया है, तब तक किसी को नौकरी पाने का अधिकार नहीं है। क्यूबा गवर्नमेन्ट ने यह कानून बनाया था। मित्रो! पाँच वर्ष के भीतर क्यूबा की सारी की सारी निरक्षरता दूर हो गई और भारत वर्ष का यह दैत्य, जिसमें पचास करोड़ लोग निवास करते हैं अगर यहाँ साक्षरता आ जाती, शिक्षा आ जाती, विचार करने की प्रेरणा आ जाती, तो निरक्षरता का यह दैत्य मिट जाता। सोलह-सत्रह करोड़ लोग इसके एक तिहाई पेट में बसे होते। अमेरिका वाले—अठारह करोड़ लोग इसके एक जबड़े में बैठे रहते। महान् सरस्वती का धनी और विपुल संपदा का स्वामी भारत वर्ष का अध्यात्म यदि जाग गया होता, तो आज की परिस्थितियों मे वह जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता; लेकिन आज हर जगह झूठी करेंसी फैली हुई है।
एक विराट् तंत्र जुड़ा है इससे
मित्रो! आध्यात्मिकता के नाम पर मैंने रामायण का पारायण करते देखा है। अखण्ड कीर्तन करते देखा है और न जाने क्या क्या करते देखा है। यह सब देखकर बड़ा खेद होता है और बड़ा दुःख होता है। रामलीला के नाम पर बीस-बीस लाख आदमियों की भीड़ भागते मैंने देखी है। सोमवती अमावस्या के दिन पाँच-पाँच और दस-दस लाख आदमी एक-एक घाट पर स्नान करते देखे हैं। आध्यात्मिकता का यह प्रभाव मित्रो!, अगर सृजनात्मक दिशा में लग गया होता, तो हमारा देश भारत देश, अध्यात्मवादी देश सारे विश्व का कायाकल्प करने में समर्थ हो गया होता। अपना ही नहीं, वरन् सारे विश्व का इसने कायाकल्प कर दिया होता। परन्तु मैं क्या कहूँ इस फाल्स करेन्सी को, इस झूठी मुद्रा को, जो आज बेतरीके से हर जगह फैली हुई है। हर जगह मंदिर बने हुए हैं। पाँच हजार मंदिर हमारे वृन्दावन में बने हुए हैं। उनमें कम से कम पाँच हजार पुजारी रहते हैं, साथ ही साथ एक-एक झाड़ू वाला, एक सफाई वाला, बर्तन साफ करने वाला और रहता है। पाँच हजार मंदिरों में कम-से दस हजार आदमियों का प्रबंध होता है। कोई-कोई मंदिर तो ऐसे हैं, जिनमें २०० आदमियों का प्रबंध है। रंगजी के मंदिर में सेवा करने वालों की, पूजा करने वालों की संख्या दो सौ है। वृन्दावन जैसा अकेला यह गाँव जिसके भीतर दस हजार लोग काम में लगे हुए हैं। यदि इनके पास कुछ ठोस काम रहा होता, तो न जाने क्या से क्या हो जाता।
कहाँ गया वह सही अध्यात्म?
मित्रो! यदि अध्यात्म की सही दिशा हमको मालूम हो गई होती, तो अब तक न जाने हमारा देश कहाँ से कहाँ चला गया होता। ईसाई मिशन पैसा खर्च करता है और सारे संसार भर में यह फैलता चला जा रहा है। पिछले महीने मैं नागालैण्ड गया, तो देखा कि हर जगह ईसाई बैठे हुए हैं। तेज हवा, तेज वर्षा होती है। वहाँ हर दिन ढेरों वर्षा, इतनी विकराल वर्षा होती है कि क्या कहें। चेरापूँजी से लेकर दार्जीलिंग तक कितनी वर्षा होती है। ऐसे वातावरण में ईसाई पादरियों को मैंने रहते हुए देखा है। भजन करने वाले, ईसा पर विश्वास करने वाले, ईसा के सिद्धान्तों को दुनिया में फैलाने वाले पादरियों को देखा है। एक बार तो मुझे वहाँ बड़ा गुस्सा आया कि ये सारे कहाँ से आ गये और हमारे देश के हिन्दुओं को इन्होंने ईसाई बना दिया। नागालैण्ड बनने के लिए मजबूत कर दिया। क्या सोचा था, क्या कर डाला। थोड़ी देर के लिए मुझे बहुत खेद हुआ। लेकिन मेरे मस्तिष्क में जब दूसरा पहलू उठा, तो देखा कि इंग्लैण्ड के रहने वाले, फ्रांस के रहने वाले, स्विट्जरलैंड के रहने वाले, ठण्डे देशों के रहने वाले एम.ए. पास, पीएच.डी. पास लोग अच्छी तरह कमा सकते थे और अपना खर्च चला सकते थे लेकिन इन जंगलों में, इतनी ठंड में जहाँ साबुन की टिकिया मयस्सर नहीं होती, जहाँ घूमने के लिए पक्की सड़क नहीं है। जहाँ खच्चर के अलावा सवारियों का कोई प्रबंध नहीं है। मोटरें जहाँ जा नहीं सकतीं। साइकिल चलाने के लिए गुंजाइश नहीं है। इन पहाड़ी स्थानों पर जहाँ धोबी रहते नहीं, नाई रहते नहीं। वहाँ अपने हाथ से कपड़े धोने वाले उन ऊँचे शिक्षित पादरियों को देखा, तो मेरी आँखों में आँसू आ गये।
गंदी, विकृत मान्यताएँ निकलें
मित्रो! मन में आया कि इन पादरियों के चरण धोकर के ले जाऊँ और उन संतों के ऊपर छिड़क दूँ, तो शायद उनका उद्धार हो जायेगा और इससे उनकी सात पीढ़ियाँ तर जायेंगी। ये अभागे आध्यात्मिकता का मूल भूल गये। उनके दिमाग में एक ही गंदी चीज आ गयी कि भगवान् के नाम पर थोड़े से पेड़े चढ़ा करके और खुशामद करके उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है। इस खुशी में वह अपनी अकल भी खो बैठता है। अकल खो बैठने के बाद में चाहे जो चीजें भगवान् से माँगता चला जाता है। यह भी माँग लिया, वह भी माँग लिया। भगवान् के पास बस एक ही काम है—दे आशीर्वाद—दे आशीर्वाद। और दूसरा काम यह है कि क्षमा करो, क्षमा करो। तुम पाप करते जाओ और वह क्षमा करता जाये। फिर उसकी दंड की व्यवस्था का क्या होगा? फिर तो जेल में ताले डल जायेंगे। न्याय की व्यवस्था को बरख्वास्त किया जायेगा। हर आदमी क्षमा माँगता चला जायेगा और हर आदमी पाप के दंड से पिंड छुड़ाता हुआ चला जायेगा। फिर पाप के फलों का क्या होगा? फिर पाप करने वालों की रोकथाम कैसे होगी? फिर पाप से किसी को डर कैसे लगेगा? मैं चाहता हूँ कि इस गंदी चीज को, जो अध्यात्म के नाम पर लोगों के दिमाग में भर गयी है, उसे उखाड़ दिया जाय, नष्ट कर दिया जाय।
इस गंदे वाले अध्यात्म को, जिसने हमें सिखाया है कि छोटी सी प्रार्थना करने के बाद में भगवान् हरेक के अपराधों को माफ कर देता है। जिसमें यह बताया गया है कि थोड़ी देर हाथ जोड़ लीजिए, पाँव छू लीजिए, प्रार्थना कर लीजिए। हनुमान चालीसा का पाठ कर लीजिए और जो चाहे वरदान माँग लीजिए। मिनटों में सब कुछ मिलेगा, धन मिलेगा, रुपया मिलेगा, बेटा मिलेगा, बेटी मिलेगी। मित्रो! मैं चाहता था कि गंदे वाले इस अध्यात्म को उखाड़ कर फेंक दिया जाय और उस अध्यात्म की स्थापना की जाय, जो लाखों-करोड़ों वर्ष तक भारत में रहा। इस अध्यात्म की अमृत बूँदें जिस किसी पर भी पड़ीं, वह व्यक्ति तेजस्वी हो गया, तपस्वी हो गया।
लक्ष्य था तेजस्वी बनाना
मित्रो! हमारे भारतीय अध्यात्म का उद्देश्य मनुष्य को तपस्वी बनाना है, तेजस्वी बनाना है। मनुष्य को श्रेष्ठ बनाना है। भारतीय अध्यात्म का उद्देश्य मनुष्य को चरित्रवान् बनाना है। लोकमंगल के कार्य के लिए समर्थ बनाना है। यही था लाखों-करोड़ों वर्ष का भारतीय अध्यात्म। आज तो न जाने क्या हो गया? क्या स्वरूप बदल गया है? देवताओं की हमने कैसी-कैसी दुर्गति की? इसे देखकर रोना आता है। एक दिन एक देवी बैठे-बैठे रो रही थी। मैंने कहा—देवी! आपको क्या हो गया? आप क्यों रोती हैं? गुरुजी! चेलों ने हमारी बहुत मिट्टी पलीत की है। हमने कहा—क्या किया है? उन्होंने कहा, हम तो मारवाड़ियों की कुल देवी हैं। हमारा नाम खोरयाणी माता है। लोगों ने हमारे बारे में अफवाह फैला रखी है कि खोरयाणी वाली माता के पास बच्चों का मुंडन कराओ, तो वह बच्चों को छोड़ देती है। अगर वहाँ मुंडन नहीं कराया, तो वह बच्चों को मार देती है, बीमार कर देती है। इसलिए मुंडन वहीं कराना पड़ेगा, नहीं तो देवी छोड़ेगी नहीं किसी को, मार डालेगी। देवी बोली—आचार्य जी! मैं क्या पिशाचिनी हूँ? आप बताइये? मैंने कहा कि आप तो देवी हैं, आपकी शकल देवी जैसी है। तो क्या मैं बच्चे को मारने वाली हूँ? नहीं आप तो देवी हैं, आप बच्चे को कैसे मार सकती हैं? बच्चों के सिर के बाल लोग मेरे ऊपर पटक जाते हैं, तो क्या मैं इससे प्रसन्न होऊँगी? और नहीं पटकें तो मैं नाराज हो जाऊँगी? आप ही बताइये कि मेरे बारे में यह जो अफवाहें फैलाई हुई हैं, यह मेरे गौरव के अनुरूप हैं या नहीं? यह तो आपके गौरव को गिराती हैं। आपको समझदार लोगों की आँखों में गिराती हैं। समझदार आदमी तो यह समझेगा कि देवी नहीं, यह तो पिशाचिनी है, डाकिनी है, हत्यारिन है, कसाई है, जो बच्चों को इसीलिए बुलाती है कि इनके सिर के बाल नहीं दिये जायँ तो मार डालेगी, खा जायेगी।
प्राण सबसे ज्यादा कीमती
मित्रो! देवताओं के प्रति हमने कैसी-कैसी गलतियाँ की हैं। इस पर देवता फूट-फूट कर रोये हैं कि इन अध्यात्मवादियों ने, जिन्होंने आज अध्यात्म का बीड़ा उठाया हुआ है, अध्यात्म का नाम लिया हुआ है, उन्होंने अध्यात्म को सबसे ज्यादा बदनाम किया है। भगवान् को सबसे ज्यादा बदनाम किया है। मित्रो! अध्यात्म को—भगवान् को प्राप्त करने के लिए कल मैं आपको निवेदन कर रहा था कि इसके दो मार्ग हैं, दो माध्यम हैं—एक उपासना और एक साधना। साधना बहुत जरूरी है, उपासना से भी अधिक। उपासना जरूरी है, लेकिन साधना का उससे हजार गुना मूल्य है। शरीर का मूल्य है, लेकिन प्राण का मूल्य हजार गुना ज्यादा है। शरीर के बारे में, उसके केमिकल के बारे में—केमिस्ट्री के बारे में जो समझते हैं, उन रसायन विज्ञानियों ने हिसाब लगाकर बताया था कि यह शरीर पौने पन्द्रह आने का है। उन्होंने बताया कि इसमें जो फास्फोरस पाया जाता है, वह दस डिब्बी दिया सलाई बनाने के लायक है। इसकी कीमत दो आना है। इसमें जो चूना पाया जाता है, वह दस फुट लम्बी और दस फुट चौड़ी दीवार को पोत सकता है। वह तीन आने का होता है। शरीर के अन्दर जो लोहा पाया जाता है, उससे तीन कीलें बन सकती हैं। इसके अन्दर दो बाल्टी पानी है। उन्होंने और बताया कि इसके अन्दर इतना बारूद है कि इन सबका यदि हिसाब लगाया जाय, तो वह पौने पन्द्रह आने कीमत का बैठता है। यह शरीर बाजार में यदि जा करके बेचा जाय, तो उसके सारे सामान की कीमत पौने पन्द्रह आने मिलेगी। लेकिन मनुष्य की जीवात्मा करोड़ों रुपये की है।
साधना चली गयी कर्मकाण्ड रह गए
मित्रो! कर्मकाण्ड, जिसके पीछे हम पागल हैं और जिसके बारे में हमने यह ख्याल बनाकर रखा है कि यह छोटा सा कर्मकाण्ड कितने वरदान ले करके आया है? दुनिया में क्या-क्या चीजें लेकर के आया है? अगर आपको यह पता होता कि कर्मकाण्ड इतनी चीजें ले करके आ सकता है, तो उपासना का जो माध्यम साधना है, वह और भी चीजें लेकर आ सकता है। लेकिन हमारे देश से साधना का ज्ञान लुप्त होता हुआ चला गया और एकांगी साधना-उपासना हाथ लग गयी। फिर क्या हुआ? फिर पंडा, पुजारियों से ले करके और दूसरे लोगों तक, जिनके चरित्रों के लिए मैं क्या कहूँगा? मैं नहीं चाहता कि हमारी जुबान को गंदा कराइए। धर्मवालों के बारे में, पुजारियों के बारे में, पण्डों के बारे में, संतों के बारे में, महात्माओं के बारे में—उनके मुँह से लेकर के पेट तक के बारे में जो गाथा प्रचलित है, वह सामान्य मनुष्य की अपेक्षा बड़ी नीची है। किसान, मजदूर की यदि मुक्ति होने वाली होगी, तो वह एक दिन में हो जायेगी। लेकिन अगर पण्डों, संतों और बाबाजी को मुक्ति मिलनी होगी, तो कम से कम दस जन्म लगेंगे।
तप, सदाचार का हुआ क्षय
मित्रो! आज सारे के सारे संसार में कर्मकाण्ड का इतना अधिक महत्त्व बढ़ा दिया गया, जिसका परिणाम यह हो गया कि लोग उन मूल सिद्धान्तों को भूलते हुए चले गये, जिनका अर्थ होता है—तपश्चर्या! जिनका अर्थ होता है—संयम। जिनका अर्थ होता है—सदाचार, जिनका अर्थ होता है—लोकमंगल। यह सारी की सारी वृत्तियाँ हमारे देश में लुप्त होती चली गयीं और हम असहाय हो गये। एक बार मुझे गंगोत्री जाना पड़ा। मेरे गुरु ने मुझे बुलाया और कहा कि तुम्हें यहाँ एक साल तक तप करना होगा। मैं चला गया। छः महीने मुझे गंगोत्री में रहने का मौका मिला। जिस शिला पर बैठकर भगीरथ तप करते रहते थे और जिसके बल पर पृथ्वी पर गंगा को लाये थे, वहीं पर छः महीने तप करने के लिए मुझे आज्ञा हुई। उत्तरकाशी में, जहाँ भगवान शंकर ने परशुराम जी को कुल्हाड़ा दिया था और महर्षि जमदग्नि का आश्रम है, जहाँ परशुराम ने तप किया था, वहाँ भी छः-छः महीने निवास करने का आदेश मिला। एक कार्यक्रम बनाकर मैं चला गया और वहाँ रहने लगा।
गंगोत्री के दो महात्मा
मित्रो! गंगोत्री पर जब मैं रहा, तब वहाँ का वातावरण यहाँ के वातावरण से अलग था। वहाँ बर्फ पड़ती रहती है। तीन चार महीने ऐसे आते हैं, जब बर्फ पिघल जाती है और थोड़ी-थोड़ी जमीन निकल आती है, जिसमें लोग अपने लिए शाक-भाजी पैदा कर लेते हैं। यह शाक-भाजी उन संत-महात्माओं के लिए काम आती है, जो वहाँ हमेशा बने रहते हैं। इसे भगवान् की माया ही कहना चाहिए कि दो-ढाई महीनों के लिए बर्फ पिघलती है और जमीन में से सारे के सारे पौधे उग आते हैं। फल दे जाते हैं, और फिर सूख जाते हैं। सारी फसल दो-ढाई महीने में खत्म हो जाती है। वहाँ पर मैंने दो महात्माओं को देखा। जाड़े के दिनों में भी वे वहीं निवास किया करते थे। जब बर्फ गिरती थी, तो उनकी कुटिया बर्फ में दब जाती थी। पास में ही मेरी कुटिया थी। मैं भी वहीं पर रहता था। जब बर्फ पिघलने लगी, तो उनके पास जो थोड़ी सी जमीन थी, जिसमें शाक भाजी उन्हें बोनी थी। दोनों महात्माओं को आधी-आधी जमीन बोनी थी। छः महीने के लिए वे उसमें कुछ-न शाक-सब्जी उगा लेते थे। वहाँ शाक-भाजी साल भर के लिए रखे रहते हैं। आपके पास बैगन है, तो रख दीजिए, एक साल तक रखा रहेगा। इस तरीके से उन लोगों की चीजें रखी रहती हैं। कभी बकरी वाले पहुँच जाते हैं और दूध दे जाते हैं, तो वह रखा रहता है। वह न फटेगा और न जमेगा। चाय बनानी है, तो एक चम्मच दूध डालिए, बस आपका काम चल जायेगा। छः महीने तक एक मिट्टी के बर्तन में दूध भरा हुआ रखा रहेगा और काम चलता रहेगा। ऐसा है वहाँ का वातावरण।
बाजारू मनःस्थिति बाबाजी लोगों की
एक दिन दोनों महात्माओं ने अपनी शाक-भाजी बोने का सिलसिला शुरू किया। दोनों मौन रहते थे और कपड़े भी नहीं पहनते थे। नंगे रहते थे। जब वे बुवाई करने लगे, तो एक महात्मा को शक हुआ कि जहाँ तक बोया जा रहा है, मेरी जमीन दबाई जा रही है। यद्यपि वह जमीन फारेस्ट डिपार्टमेन्ट की थी। उनके पास कोई पट्टा भी नहीं था कि वे कह सकते कि यह मेरी जमीन है। फारेस्ट वालों ने भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया था कि एक-दो रुपये की शाक-भाजी पैदा कर लेंगे, तो इस पर क्या टैक्स लगायें। बस उन्होंने उस जमीन पर शाक-सब्जी बोना शुरू किया, तो एक महात्मा ने उसके पौधों को उखाड़ दिया और कहा कि तुम्हारी जमीन वहाँ तक है, यहाँ से हटाओ। दूसरा महात्मा भी गुस्से में आ गया। उसने उसके पौधों को उखाड़ दिया और कहा कि हमारी जमीन वहाँ तक है। वे लड़ते भी थे और बोलते भी थे। रोज एक दूसरे की जमीन से पौधे उखाड़ते और फेंकते। कई दिनों तक यह सिलसिला चला।
क्रोध-हिंसा का भाव समाप्त न हुआ, गंगोत्री में भी
एक दिन क्या हुआ? एक महात्मा ने दूसरे को गिरा दिया और गिराने के बाद में दाढ़ी पकड़कर बुरी तरह से खींचा और जहाँ से बाल थे, उसकी जटा में से मैंने खून बहते हुए देखा। अपने जीवन में मैंने बहुत खून बहते हुए देखा है। कलकत्ता जंग के जमाने में जब मैं छोटा वालंटियर था, मुझे भी मोर्चे पर भेजा गया। वहाँ मैंने ४००-४५० आदमियों की लाशें देखीं। गोलियों से मरते लोगों को देखा। लोगों का खून बहते हुए देखा। लोगों के मुँह से, नाक में से खून बहते हुए मैंने देखा। खून मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन पहली बार मैंने ऐसा खून बहते हुए देखा, जिसने मेरे ईमान को डगमगा दिया। मैंने देखा कि जो महात्मा मौन रहता है, भजन करता है, गंगाजी में रोज स्नान करता है और पूजा करता है। पूजा करने के बाद भी उसका क्रोध समाप्त नहीं हुआ, कम नहीं हुआ। मोह कम नहीं हुआ, लोभ कम नहीं हुआ। ऐसे आदमी को भगवान् कुछ नहीं दे सकता, जिसकी आत्मा शुद्ध नहीं है। स्वर्ग का वह दावेदार नहीं है, जिसकी आत्मा मलिन है, अपवित्र है। स्वर्ग का—मुक्ति का दावेदार वह व्यक्ति नहीं है, जिसके अंदर कषाय-कल्मष, पाप और ताप, शैतान और दुष्टता भरी पड़ी है। अभी उसको उस समय तक इंतजार करना पड़ेगा, जब तक कि उसके कषाय-कल्मष धुलते हुए न चले जायँ।
मैली चादर पर कैसे चढ़े रंग
मित्रो! भगवान् का रंग बहुत बढ़िया और बड़ा खूबसूरत है। लेकिन धुले हुए कपड़े पर ही रंग चढ़ाया जाता है। बसंती कपड़ा बनाया जाना चाहिए, लेकिन काले कम्बल के ऊपर बसंती रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। कीचड़ से भरे हुए, तेल से भीगे हुए कपड़े पर गुलाबी रंग नहीं चढ़ाया जा सकता। रंगने से पहले उस पर साबुन लगाना होगा, भट्टी पर चढ़ाना होगा, मैल काटना होगा। जब धुलकर कपड़ा साफ हो जाय, तब थोड़ा सा टिनोपॉल डाल दीजिए, थोड़ा सा नील डाल दीजिए, नीली झलक आ जायेगी। जरा सा रंग डाल दीजिए, चमक आ जायेगी। मैले कपड़े के ऊपर न हनुमान चालीसा चढ़ने वाली है और न संकीर्तन का रंग चढ़ने वाला है। जब सारा कपड़ा और काला कम्बल कीचड़ में डूबा हुआ है, तेल में डूबा हुआ है, तो वह रंगने पर भी ज्यों का त्यों बना रहेगा। लेकिन अगर वह साफ-सुथरा है, तो उस पर रंग अपने आप आते चले जायेंगे।
[क्रमशः]
आध्यात्मिकता के दो अंग-उपासना और साधना
(गतांक से आगे)
डगमगा गया ईमान
मित्रो! संतों का झगड़ा देखकर मेरा ईमान डगमगा गया। मैंने कहा कि यह कैसा भजन? यह कैसा गंगा स्नान? ये महात्मा इस गंगाजी में रोज स्नान करते हैं, परन्तु इनका क्रोध समाप्त न हो पाया और न इनका लोभ समाप्त हो पाया। मैं विचार करता रहा कि फिर तो यह गंगा दो कौड़ी की है, जिसको मैंने इतना माना और इसके सान्निध्य में इतना लम्बा समय व्यतीत किया। मैं विचार करने लगा कि यह राम का नाम दो कौड़ी का है, जिसने मनुष्य की सफाई की। इनको इतना लम्बा समय हो गया, फिर भी इनका वैराग्य और संन्यास दो कौड़ी का है। गृहस्थ जीवन में सामान्य परिस्थितियों में मनुष्य की जो मनोभूमि रहती है, वही मनोभूमि बनी रही, तो फिर इनका इतना व्रत करने का क्या फायदा? गंगा नहाने से क्या फायदा? और ढोंग करने से क्या फायदा? जब इन लोगों को इनसे फायदा नहीं हो सकता, तो हमारे जैसे आदमी कैसे आशा रख सकते हैं कि हमारे रोग-शोक और कषाय-कल्मष दूर होंगे? इसलिए मुझे निराश हो जाना चाहिए? मित्रो! मेरा ईमान काँप गया और मैं अनुभव करने लगा कि आज यह सब बातें बेकार हैं। कई दिनों तक मेरी मनोदशा ऐसी रही कि मुझे चैन नहीं पड़ा। रात भर नींद नहीं आई और मुझे लगा कि मुझे नास्तिक हो जाना चाहिए।
आस्था कसौटी पर
मित्रो! मैं बहुत विचारशील व्यक्ति हूँ और आस्थावान् हूँ। आस्थावान् ऐसा कि जिस बात के ऊपर विश्वास कर लेता हूँ, उस चीज के लिए अपने शरीर को बोटी-बोटी काट करके होम कर सकता हूँ। और मैं अविश्वासी भी उतना ही हूँ कि अगर भगवान् भी आये और यह कहे कि मैं विष्णु भगवान् हूँ और तुम्हें यह कहने आया हूँ, तो मुझे यह पूछना पड़ेगा कि क्या आपने मुझे तार भेजा है कि असली क्या है और नकली क्या है? कृपा करके दिखाइये? नहीं तो नहीं, फिर आप बहुरूपिया हो। कितने ही बहुरूपिया दो रंग की लकड़ी की बाँह लगाकर चले आते हैं, देवता का रूप रख करके चले आते हैं। चेहरा लगाकर आते हैं, काली बनकर चले आते हैं। मुँह पर लाल रंग की पट्टी लगाकर चले आते हैं। विष्णु भगवान् भी कहीं ऐसे आदमी तो नहीं हैं, जो नकली पन्नी लगाकर चले आये हों। जब तक मुझे विश्वास नहीं हो जाता, तब तक मैं यकीन नहीं कर सकता।
मिला प्रकाश
मित्रो! जब मेरी यह मनोदशा है, तो औरों की क्या कहूँ? इसलिए इन विषम परिस्थितियों में मैं हिमालय पर रहने के लिए गया था कि वहीं पर सेवा, भक्ति करूँगा; पर मेरा मानसिक स्तर उलटा हो गया। कई दिनों तक विचार करता रहा कि मैं पागल हो जाऊँगा क्या? नास्तिक हो जाऊँगा क्या? छोड़कर भागूँगा क्या? चला जाऊँगा क्या? मैं यही सोचता रहा। फिर एक दिन मेरे भीतर कुछ प्रकाश आया और उसने कहा कि डरने की कोई जरूरत नहीं है। भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है। फिर उस प्रकाश ने कहा कि क्या तू भूल गया कि आध्यात्मिकता के दो ही रंग होते हैं। साधना और उपासना दो सहेलियाँ हैं। दोनों संग रहती हैं। दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। एक के बिना दोनों की दोनों अधूरी रह जाती हैं। इसलिए दोनों का समन्वय जब तक न हो जाय, तब तक वहाँ प्रकाश कहाँ से आयेगा?
इन महात्माओं की उपासना एकांगी थी। जंगल में रहते हैं तो क्या? जप करते हैं तो क्या? गंगा में नहाते हैं, तो क्या? इनने केवल एक काम किया है—अधूरा काम और उसका नाम है—भजन। अकेला भजन अधूरा है, जब तक उसके साथ साधना जुड़ी हुई न हो। मुझे विश्वास हो गया कि मैं सही हूँ। महात्मा गलती पर थे, क्योंकि उन्होंने केवल पूजा पर ध्यान दिया। भजन करने की शैली पर ध्यान एकाग्र किया। जीवन की विभिन्न दिशा में फैली महानताओं को विकसित करने में न उनका ध्यान गया, न उन्होंने परिश्रम किया, न पुरुषार्थ किया और न मेहनत की। गंदा और निकृष्ट जीवन जैसे सामान्य मनुष्य का था, जब वे साधारण मनुष्य थे, उसी स्तर का लबादा ले करके चले आये। उनकी दुनिया जहाँ की तहाँ बनी रही। अपना सुधार करने के लिए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया। केवल भजन में लग गये। अधूरा प्रयत्न कहाँ सफल हो सकता है?
भजन से ज्यादा जरूरी साधना
मित्रो! मेरा समाधान हो गया। उस समय के बाद मैं धर्मग्रन्थों को तो पढ़ता ही था, लेकिन उसके बाद मेरा विश्वास और सुदृढ़ हो गया कि मुझे तो भजन करना चाहिए, परन्तु भजन से ज्यादा परिश्रम और ध्यान जिस चीज पर देना चाहिए, वह है—साधना। लोग कहते हैं कि आपने गायत्री उपासना की है। चौबीस पुरश्चरण किये हैं। चौबीस वर्षों में आपने लाभ भी पाये होंगे? हाँ, मैंने लाभ पाये हैं। लेकिन मैं ऐसे आदमियों को भी जानता हूँ, जो मुझसे भी ज्यादा भजन करने वाले हैं और चौबीस वर्षों की उपासना के बाद भी जिन्होंने लाभ नहीं पाये हैं। मैंने चौबीस साल तक छः घंटे उपासना की, लेकिन मेरी निगाह में ऐसे आदमी भी हैं, जो दस-दस, बारह-बारह घंटे उपासना करते हैं। मुझको चौबीस साल हो गये, लेकिन उनको तो और ज्यादा समय हो गया। बहुत लम्बा समय हो गया। मैंने उन्हें कपड़ा उतारते हुए देखा है, उनके पास कोई चीज नहीं थी। भजन मनुष्य के लिए कब लाभदायक हो सकता है, जब उसके साथ-साथ में उसके पास दूसरी चीज भी हो। और उस चीज का नाम है—साधना।
मित्रो! कल मैं आपसे यही तो निवेदन कर रहा था। कल मैंने आपको उपासना की विधियाँ बताई थीं और कहा था कि भगवान् के सामने चंदन, रोली, धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य ले करके आप जाया कीजिए और साथ-साथ अपनी भावनाओं का विकास किया कीजिए। इन वस्तुओं के—पदार्थों के जो कर्म हैं, गुण हैं, वे निश्चित रूप से हमारे भीतर विकसित होंगे। आपसे कल मैंने कहा कि भगवान् का ध्यान किया कीजिए और भगवान् के साथ तन्मय होने का प्रयत्न किया कीजिए। दूर से नहीं, अपने में भगवान् को घुला मिलाकर ही उन्हें पाया जा सकता है। लाठी से गाय का दूध नहीं दुहा जा सकता। नहीं साहब! बाँस या लाठी लेकर चले आयें और गाय के थन से लगायें। मित्रो! गाय के थन से दूध बाँस में होकर आने वाला नहीं। आपको हाथ लगाना पड़ेगा, गाय के पास जाना पड़ेगा। दुहना पड़ेगा। भगवान् को अपने पास रखना पड़ेगा। दूर बैठा हुआ भगवान् हमारे किसी काम का नहीं। उसे पास में बैठाना पड़ेगा।
पास बैठा भगवान—उपासना
उपासना का अर्थ है पास बैठना। कल भी मैंने आपसे निवेदन किया था कि हमें जो उपासना करनी है, वह इस तरह से करनी होगी जैसे पति और पत्नी की उपासना होती है। एक दूसरे के सामने मन खोलकर रख देते हैं। पति हत्या करके भी आता है, कत्ल करके भी आता है, डकैती डालकर के भी आता है, तो भी पत्नी से कह देता है कि यह सौ रुपये मैं लाया हूँ। वह पूछती है कि कहाँ से लाये हो? डकैती डालकर के लाया हूँ। कहाँ डकैती डाली? अयोध्या में डाली। लेकिन जब बाहर वाला पूछता है, तब इनकार कर देता है और कहता है कि हमने डकैती नहीं डाली। यह तो हमारे बाप-दादाओं की कमाई है। लेकिन पत्नी के सामने तो कह ही देता है। इस तरह से हम जी खोलकर अपने भगवान् के साथ अपनी बातें तो कह ही सकते हैं और भगवान् से अपनी समस्याओं को हल करने के बारे में पूछ ही सकते हैं, जिन्होंने हमारे भव्य जीवन को अशान्त और उद्विग्न बनाया हुआ है।
वैचारिक गरीबी
मित्रो! अशान्ति और उद्विग्नता हमारे जीवन के वास्तविक कारण नहीं हैं। वास्तविक कारण हैं—हमारे विचार करने के क्रम, जिन्होंने हमारे जीवन को अशान्त और उद्विग्न बना रखा है। बीमारियों की वजह से हम परेशान हैं क्या? बीमारियों की वजह से यदि हम परेशान रहे होते, तो जगद्गुरु शंकराचार्य और विनोबा भावे, जिन्होंने लम्बी बीमारी के कारण सबसे ज्यादा दुःख पाये, लेकिन बीमारियों को उन्होंने मुस्कराते हुए देखा, हँसते हुए देखा, कोई चिन्ता नहीं की और बराबर काम करते हुए चले गये। गरीबी के कारण हमारे काम रुके हुए हैं क्या? हम भगवान् से गरीबी दूर करने की प्रार्थना करते हैं। मित्रो! गरीबी के कारण गरीब नहीं है मनुष्य। वस्तुतः गरीबी के कारण हैं, मनुष्य के दोष और दुर्गुण। हमारे विचार करने के क्रम और दोष एवं दुर्गुणों ने हमारे जीवन के हर पहलू को शोक और संतापमय बना रखा है। नहीं साहब! हमारे पास विद्या नहीं है। विद्या के लिए आपको किसने रोका था?
मित्रो! एक सज्जन कह रहे थे कि जब हम ढाई साल के थे, तब हमारे पिताजी की मृत्यु हो गई और जब हम तीन बरस के हुए तो हमारी माताजी की भी मृत्यु हो गई। आपके पिताजी और माताजी की मृत्यु के बाद बाजार में कॉपियाँ मिलनी बंद हो गई क्या? कॉपियाँ तो बिकती थीं। और स्लेट? स्लेट भी बिकती थी। पेन्सिल? पेन्सिल भी बिकती थी, स्याही भी बिकती थी। और आपकी आँखें? हाँ, आँखें भी सही थीं। फिर पढ़ने में क्या हर्ज था? पढ़ने में कोई हर्ज नहीं था। विनोबा भावे के बाप जिंदा हैं? नहीं साहब! मर गये; लेकिन विनोबा भावे कई भाषाओं के विद्वान हैं। अभी भी अस्सी-पचासी साल की उम्र में चाइनीज भाषा सीख रहे हैं, जो दुनिया की सबसे मुश्किल भाषा है। वे इस उम्र में भी पढ़ते हुए चले जाते हैं। पचासी साल का बूढ़ा भी जिसका कमाने वाला बाप कब का मर गया था।
ज्ञान की चाह पैदा हो, काश
मित्रो! अगर हमारे भीतर विद्या की रुचि होती और हमारे भीतर यह उमंग रही होगी, कि हमको अपने जीवन में ज्ञान का सम्पादन करना चाहिए, तो विदेशियों के तरीके से, भड़भूँजे और दूसरे काम करने वाले लोग, झाड़ू लगाने वाले लोग तथा दूसरे लोग, जो फालतू काम या मेहनत मजदूरी का काम दिन में किया करते हैं और रात के समय नाइट स्कूल में पढ़ने के लिए चले जाते हैं। डेढ़ घंटे रोज पढ़ते हैं और जीवन के अंत तक एम.ए. हो जाते हैं, पी.एच.डी. हो जाते हैं, डी.लिट् हो जाते हैं, बुढ़ापा आने तक विद्या के धनवान हो जाते हैं। यह हमारे ही दोष-दुर्गुण हैं, जिन्होंने हमें आलस्य में जकड़कर रखा था और जिन्होंने विद्या के प्रति रुचि उत्पन्न न होने दी। अगर हमारे अंदर विद्या की रुचि उत्पन्न हो गई होती और हमारी समझ में आ गया होता कि हमें ज्ञान की आवश्यकता है, विद्या की आवश्यकता है, तो मित्रो हमारा इतना वक्त बरबाद न होता। आठ घंटे से ज्यादा आदमी काम कर सकता है। मेहनत-मजदूरी के लिए, रोटी कमाने के लिए आठ घंटे पर्याप्त हैं। आपने देखा होगा कि आठ घंटे में भी आदमी कैन्टीन में बैठे रहते हैं। दो घंटे काम करते हैं, टाइप करते हैं और छः घंटे दोस्तों की चापलूसी करते और मटरगस्ती करते हैं। ग्यारह बजे पहुँचते हैं और साढ़े तीन बजे चले जाते हैं। दो घंटे यहाँ गये, दो घंटे वहाँ गये और फिर चले गये। तीन-चार चिट्ठियाँ टाइप कर दी और कहा कि हमने काम कर दिया।
मैंने कभी समय का दुरुपयोग नहीं किया
मित्रो! आदमी आठ घंटे काम कर सकता है, ज्यादा नहीं। आठ घंटे काम करने के लिए और छः-सात घंटे सोने के लिए काफी होते हैं। आठ और सात—पंद्रह घंटे हो गये। चार-पाँच घंटे मटरगस्ती के लिए आप निकाल लीजिए, खाने के लिए, सोने के लिए, टहलने के लिए, बात करने के लिए निकाल लीजिए। इस तरह और निकाल लीजिए। तेरह और पाँच अठारह घंटे हो गए। चौबीस घंटे में से छः घंटे बचते हैं। छः घंटे अपना समय आदमी कब दे सकता है? जब वह अपना समय निकाल सकता है, तब? तब वह प्राणवान हो सकता है, विद्वान हो सकता है, ज्ञानी हो सकता है, तपस्वी हो सकता है और आचार्य जी के तरीके से पुरश्चरण भी कर सकता है। मैंने चौबीस पुरश्चरण किये हैं; पर मैं और भी काम करते आया हूँ। मैंने विद्यार्जन किया है और भी कई चीजों को पढ़ा है। साहस का काम किया है। राष्ट्रीय कर्तव्यों को पूरा किया है। व्यक्तियों से संपर्क करता रहा हूँ। गृहस्थी का संचालन करता रहा हूँ और न जाने क्या-क्या करता रहा हूँ। मैंने कभी समय का दुरुपयोग नहीं किया।
सिद्धियाँ पीछे दौड़ेंगी
मित्रो! मैं आपको जीवन की साधना सिखा रहा था कि आपको आध्यात्मिकता के साथ साधना को भी जोड़ना पड़ेगा। साधना के साथ अपने सद्गुणों को बढ़ाना पड़ेगा। जैसे-जैसे आपके सद्गुण बढ़ते हुए चले जायेंगे, विभूतियाँ आपके पास दौड़ती चली जायेंगी। सिद्धियाँ आपके पास दौड़ती चली जायेंगी। सिद्धियाँ बुलाने से नहीं आतीं। छाया को नहीं बुलाया जा सकता। छाया जी! हमारे साथ-साथ चलना? हाँ साहब! आप आगे-आगे चलिये और हम आपके पीछे-पीछे चलेंगे। अकेले छाया टस से मस होने वाली नहीं है। आप आगे-आगे चलना शुरू कीजिए और छाया को मना करते जाइये कि खबरदार! हमारे पीछे आई तो सिर फोड़ दूँगा। फिर भी छाया आपके पीछे-पीछे चलती हुई चली जायेगी। समृद्धियों के पागल लोगो! समृद्धियाँ और संपत्तियाँ अनायास ही नहीं आतीं। यह बीज का शुभारंभ है, जो गुणों के मूल्य पर जमती हुई, उभरती हुई आ जाती हैं।
गुणों की खेती
मनुष्य जब अपने अंदर गुणों का समायोजन करता हुआ चलता है, तब मालदार होता हुआ चला जाता है, विद्वान् होता हुआ चला जाता है, प्रतिभावान होता हुआ चला जाता है और न जाने क्या से क्या होता हुआ चला जाता है। जिन विभूतियों को आप चाहते हैं, वह सारी विभूतियाँ आपके गुणों की छाया हैं। हमारी आध्यात्मिकता का उद्देश्य सद्गुणों को बढ़ाया जाना होना चाहिए। आध्यात्मिकता के मूलभूत आधार इन गुणों को बढ़ा नहीं सकते, तो हम इस पथ पर आगे नहीं बढ़ सकते हैं। हमारा ध्यान गुणों की ओर जाना चाहिए और इस ओर आकर्षित होना चाहिए कि हमको अपना आत्मनिरीक्षण करना होगा और अंतःकरण का परिशोधन करना होगा। अपने अंदर जिन सद्गुणों की कमी है उन्हें एक-एक करके समाहित करना होगा। अगर यह बात आपको पसंद नहीं आती हो, तो मैं नहीं जानता।
अपने आप से युद्धः गीता
मित्रो! पहले मैं रामायण पढ़ा करता था। रामायण मुझे बहुत अच्छी लगती थी। बहुत दिनों तक मैंने इसे पढ़ा। फिर जब मैंने गीता पढ़नी शुरू की तो मेरे दिमाग में बड़ा भ्रम पैदा हुआ। मेरा दिमाग खराब हो गया। मैंने कहा कि यह कैसी किताब है? रामायण में मैंने पढ़ा कि भाई ने भाई के लिए अपना जीवन कुर्बान कर डाला। उसने कहा कि मैं वनवास में रहूँगा, कष्टों का सामना करूँगा और भाई राजगद्दी का सुख भोगेगा; लेकिन गीता में मैंने पढ़ा, जो उसमें शिक्षण दिया गया था कि भाइयों को मार, बाप को मार, बूढ़ों को मार, चाचा को मार, ताऊओं को मार, भतीजों को मार। सबको मार और अपना अधिकार प्राप्त कर ले। गीता तब मुझे बहुत गंदी लगी और मैंने कहा कि इसे बाहर फेंक दें। लेकिन मित्रो! मैं विचार करने लगा, जब मैंने पहला वाला श्लोक ध्यान से पढ़ा, तो पाया कि ‘‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।’’ में कुरुक्षेत्र का जो वर्णन किया गया है, वह धर्मक्षेत्र के लिए किया गया है और धर्मक्षेत्र यह मनुष्य का जीवन है और कुरुक्षेत्र मनुष्य का शरीर। मैं समझ गया कि गीता झगड़ने वाली किताब नहीं है, लड़ाई की किताब नहीं है; बल्कि इसमें बताया गया है कि हमारे अंदर में सौ कौरव भरे हुए बैठे हैं। हे अर्जुन! तू इनको मार। इसमें अंत में आया है कि हमारे अंदर निरंतर युद्ध चलता रहता है, लेकिन बेचारा अर्जुन निरंतर कैसे लड़ सकता था। अठारह दिन में तो सारा महाभारत खत्म हो जाता है, लेकिन अर्जुन को सिखाया गया था कि हमेशा युद्ध करना।
लेकिन मित्रो! अर्जुन हमेशा युद्ध किससे किया करे? द्रौपदी से हमेशा युद्ध किया करे? किससे? भीम से? हमेशा युद्ध किससे किया करे? बीबी से? हमेशा युद्ध किससे किया करे? कुन्ती से? हमेशा किससे लड़ा करे? भगवान् ने उसे क्या सलाह दी? लेकिन हमें हमेशा युद्ध करना है। किससे? अपने आप से, अपने आपे के साथ युद्ध करना है। अपना कर्तव्य पूरा करना है। अपनी छोटी-छोटी अहंताओं और छोटी-छोटी तुच्छताओं को विकसित करते हुए महानताओं में परिणत करना है। इसी का नाम अध्यात्म है। यह अध्यात्म जहाँ कहीं भी आया, जिस किसी के पास भी आया, उसका गौरव और वर्चस्व यहीं जमीन से लेकर के आसमान छूने लायक तक बढ़ता चला गया।
तीन सीढ़ियाँ अध्यात्म क्षेत्र की
मित्रो! कल मैंने तीन सीढ़ियों का वर्णन करते हुए आपसे निवेदन किया था और कहा था कि आपको तीनों सीढ़ियाँ पार करनी पड़ेंगी। स्थूल शरीर की साधना के सम्बन्ध में आपको आहार-बिहार के संबंध में बता रहा था कि हमारा आहार-विहार सात्विक होना चाहिए। आहार सात्विक वह नहीं होता, जो नहा-धोकर पकाया जाए और जिसको ब्राह्मण पकाएँ। केवल वही आहार सात्विक नहीं है, जो छुआ नहीं गया हो। आपको मालूम होना चाहिए कि कॉड लीवर ऑयल छुआ नहीं जाता। इसी तरह जो इंजेक्शन बनाये जाते हैं, वे हाथ से नहीं छुए जाते। सारे के सारे काम चिमटे के द्वारा होते हैं, हाथ से नहीं। उन्हें हाथ से छुआ नहीं जाता। नहीं साहब! हम तो ब्राह्मण के हाथ का बना हुआ खाते हैं, चौके में बैठ कर खाते हैं। यह काफी नहीं है। काफी है जो आपने कमाया है, वह किस वृत्ति और बुद्धि से कमाया है। उसके पीछे न्याय भरा हुआ है कि नहीं। अन्याय शामिल है या न्याय भरा है? अन्याय से कमाया हुआ धन है, तो उसके संबंध में अनेक तरह के विचार आते रहते हैं।
महात्मा आनन्द स्वामी आर्य समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में एक उदाहरण दिया है। उस समय वे मोहन आश्रम हरिद्वार में थे। एक दिन एक महात्मा आया और उनके पास बैठकर रोने लगा। उनने उससे पूछा कि क्या हुआ? वह बोला—महाराज जी! रात भर बड़े खराब-खराब सपने दिखते रहे। क्या सपना दिखा? यह दिखा कि मैं ब्याह करूँगा, बाल-बच्चे पैदा करूँगा। अब मैं बूढ़ा हो गया। रात भर मुझे यह ख्याल आता रहा कि मैं वहाँ गया, यहाँ गया और उसके पास गया। इस तरह के गन्दे ख्याल मेरे जी में आते रहे। महात्मा ने कहा कि बताइये इस बुढ़ापे में यह क्या हो रहा है। तब महात्मा आनन्द स्वामी ने उसके आहार के विषय में पूछा। किसने पकाया, यह पूछा। गंदे सपनों का कारण समझ में आ गया। मित्रो! इस प्रकृति में न जाने क्या-क्या भरा पड़ा है, जिससे शरीर का सम्बन्ध हो जाता है। खोजकर्ता एक से एक चमत्कारी चीजें खोजते हुए चले जाते हैं। खोजों का रूप क्या है? खोजों की नींव यह मस्तिष्क है। यह न जाने कैसा है? सारे के सारे क्रियाकलाप न जाने कहाँ-कहाँ से प्रवाहित होते रहते हैं। अनर्गल विचारधाराएँ प्रवाहित होती रहती हैं। इन विचारों को एक ध्येय पर केन्द्रित नहीं किया जा सकता। हजार तरह के विचार, अनर्गल विचार, अनायास विचार, बे सिर-पैर के विचार, बेसिलसिले के विचार, जो दिमाग में आते हैं, उसमें से पाँच फीसदी ही काम के होते हैं। पंचानवे फीसदी निरर्थक होते हैं।
अनर्गल विचार—विकृत चिन्तन
मित्रो! हम बाजारों में खड़े हो जाते हैं। चौराहों में फालतू में बैठे रहते हैं। मूर्तियाँ निकलती रहती हैं। काली की मूर्ति, दुर्गा की मूर्ति को देखने के लिए भीड़ लगी रहती है और हम उल्लू की तरह मुँह बनाये खड़े रहते हैं। किसलिए खड़े हैं? देखने के लिए खड़े हैं। अब जरा दिल की बात बता? इन सब स्त्रियों को तू देख रहा है। इनमें से ये खूबसूरत है कि वो खूबसूरत है? क्या करें? इन सबसे तुम्हारा ब्याह करा दें? बेकार ताकता रहता है। अरे उल्लू! एक औरत तो तुम्हारे समझ में नहीं आ रही है। उसके लिए तू वस्तुएँ मँगा नहीं सकता। कपड़े तू मँगा नहीं सकता, दवा-दारू तू मँगा नहीं सकता। बाजार में जिन स्त्रियों को तू देख रहा है, अगर इन सबसे तेरा ब्याह करा दें, तो तेरा उठकर बैठना मुश्किल हो जायेगा और बैठकर उठना मुश्किल हो जायेगा। उल्लूपन के विचार, जिनकी न दिशा है, न काम है, न कोई उद्देश्य है, न कोई संभावना है, न वे संभव हो सकते हैं, न कोई उसका तुक है। और मान लें अगर कोई तुक हो भी जाय, तो सिर के ऊपर जितने बाल हैं, उतने जूते पड़ेंगे और एक-एक जूते पर एक-एक बाल गिर जायेगा, तुम्हारे जो ख्याल हैं, उनको अगर मौका मिल जाय, तब। बेमतलब के विचार, बेतुके विचार, अनर्गल विचार, निरर्थक विचार, अनावश्यक विचारों को एक दिशा में लगाये जाने वाली प्रक्रिया का नाम है—एकाग्रता।
ध्यान की भूमिका
मित्रो! एकाग्रता, आध्यात्मिकता का महत्त्वपूर्ण अंग है। एकाग्रता सिखाने के लिए हमें अध्यात्म की भूमिका में प्रवेश करना पड़ता है और वह है ध्यान की भूमिका। ध्यान की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है और हमारे जीवन में यह बहुत उपयोगी है। इस भूमिका को अगर हम क्रियान्वित करने लगें, तो हमारे मस्तिष्क के चमत्कारिक केन्द्र जग पड़ेंगे और एक-एक चमत्कारिक केन्द्र के भीतर ऐसा कुछ है, जो हमको निहाल कर सकता है। हमारे मस्तिष्क में ‘आज्ञा चक्र’ नामक एक ऐसा स्थान है, जिसे ‘पीनियल ग्लैण्ड’ कहते हैं। डॉक्टरों ने इसे ध्यान से देखा और फिर यह कहा कि यह पीले रंग की गाँठ है। इसमें क्या है, हमें नहीं मालूम। लेकिन जिन लोगों ने शंकर जी के तीसरे आँख की तस्वीर देखी होगी, तीसरी आँख का निशान देखा होगा, उनको मालूम होगा कि यह एक ऐसी ही आँख है, जिसके अंदर ‘एक्सरे’ की किरणें रहती हैं। इससे हम जमीन में गड़ी हुई चीजों को देख सकते हैं, आकाश में घूमती हुई चीजों को देख सकते हैं। मन के भीतर काम करने वाली वस्तुओं को देख सकते हैं। भूतकाल को देख सकते हैं, भविष्य को देख सकते हैं। अपने अन्तर्मन को देख सकते हैं, अपने बहिरंग को देख सकते हैं। हमारी एक आँख ऐसी भी है। मस्तिष्क में न जाने क्या-क्या भरा हुआ पड़ा है। इसके भीतर अगणित दिव्य चमत्कार फैले हुए हैं। इस शरीर के भीतर इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना जैसी न जाने कितनी शक्तियाँ प्रवाहित होती हैं। इनको हम बाध्य नहीं कर सके। इनके अंदर हम बाँध नहीं बना सके। इनको हम जाग्रत नहीं कर सके। इनको प्राप्त करने के लिए ध्यान की आवश्यकता है।
जप के साथ ध्यान
उपासना का दूसरा वाला अंग है—ध्यान। ध्यान के लिए मैंने आपसे निवेदन किया था कि मस्तिष्क से आपको काम लेना पड़ेगा। मस्तिष्क को काम में लगाये बिना ध्यान में आपका मन नहीं लग सकता। अब तक हमने जो उपासना की है, क्रिया-कलाप से की है, नाम का जप किया है। गायत्री मंत्र का जप किया है। गायत्री मंत्र के बिना हमारा मन भजन में नहीं लगा। मन लगेगा भी कैसे? आपने कभी मस्तिष्क को काम दिया था? नहीं, मस्तिष्क को तो कोई काम नहीं दिया। हाथों को काम दिया है। पैरों को काम दिया है। पैरों से हमने पद्मासन लगाया है। इस तरह पैरों को काम बता दिया था, जीभ को काम बता दिया था, अँगुलियों को काम बता दिया था। आपने क्या कभी अपने मस्तिष्क को काम दिया था? नहीं। तो क्यों नहीं दिया? आपको अपने मस्तिष्क को काम देना पड़ेगा। काम देने का नाम है—ध्यान। ध्यान उस चीज का नाम है, जिसमें कि हम चित्त की वृत्तियों, अनर्गल प्रवाह को एक केन्द्र बिन्दु पर ले आते हैं। साकार उपासना इसी का नाम है।
नाम और रूप हो तो ही ध्यान हो
लोग कहते हैं कि भगवान् निराकार है, साकार नहीं है। थोड़ी देर के लिए मैं यह मान सकता हूँ कि भगवान् निराकार हैं, साकार नहीं। पर हम भगवान् के स्वरूप के प्रति, भगवान् के शरीर के प्रति यदि अपने भाव को उजागर करना चाहते हैं, तो हमको रूप की जरूरत है। ध्यान से हम कोई चीज कहें और दिमाग में कोई चीज लानी हो और उसका ध्यान करना हो, तो हमको नाम लेना होगा। मोहनलाल बड़े अच्छे हैं। महात्मा गाँधी बड़े अच्छे थे, जवाहरलाल जी बड़े अच्छे थे, सरदार पटेल बड़े अच्छे थे और नाथूराम गोडसे बहुत खराब था। रावण बहुत खराब था। यह ध्यान से तो कहना पड़ेगा, दिमाग में तभी तो कोई चीज आयेगी। ध्यान से आप नहीं कहेंगे, तो कोई चीज दिमाग में नहीं आयेगी। भगवान् का नाम क्या है? हमें नहीं मालूम; लेकिन भगवान् का रूप और भगवान् के स्वरूप की जानकारी करने के लिए हमको भगवान् का नाम रखना पड़ेगा और नाम के बाद में उसके गुणों की विशेषता को जोड़ना पड़ेगा, अन्यथा हमारा मस्तिष्क भगवान् के बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। कल्पना के बिना ध्यान नहीं हो सकता। भगवान् कैसा है? मुझे नहीं मालूम, लेकिन भगवान् का ध्यान जरूरी है। लेकिन भगवान् का ध्यान करने के लिए, भगवान् से सम्बन्ध कायम करने के लिए किसी नाम की जरूरत है और नाम के साथ-साथ में रूप की भी आवश्यकता है।
[क्रमशःसमापन अगले अंक में]
(समापन किश्त)
आपने विगत दो अंकों में पढ़ा कि एक क्रांतिकारी संत का चिन्तन क्या होता है। गंगोत्री में जो दृश्य आचार्यश्री ने देखा उसने उन्हें बेचैन कर दिया। फिर उनने सोचा कि निश्चित ही उनकी उपासना एकांगी थी। उपासना और साधना दो सहेलियाँ हैं। दोनों संग रहती हैं। एक के बिना दूसरी अधूरी है। वे भजन से अधिक साधना को महत्त्व देते हैं। उपासना की सही परिभाषा समझाते हैं और वैचारिक गरीबी से उपजी त्रासदी भी समझाते हैं। जीवन साधना ही व्यक्तित्व निर्माण की—अध्यात्म के जीवन में फलित होने की कुंजी है। यदि यह सध गयी तो सिद्धियाँ पीछे दौड़ने लगती हैं। आध्यात्मिकता को वे सद्गुणों की खेती के रूप में समझाते हैं। गीता के स्वाध्याय को अन्तर्जगत् का संग्राम कहते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण है विचार संयम—विकृत चिंतन पर रोकथाम। इसी प्रकरण में उनने ध्यान की भूमिका हमें समझाई थी। उसी का विस्तार इस समापन किश्त में है।
उपासना की आत्मा है ध्यान
मित्रो! अध्यात्म के विविध प्रसंगों पर मेरी बात आर्य समाज के प्रधान आनन्द स्वामी से अक्सर होती रहती थी। वे मेरे परम मित्र थे। उपासना के बारे में भी बातचीत हो जाती। कभी पूछता कि आप उपासना कैसे करते हैं? किसका ध्यान करते हैं? वे कहते कि हम प्रकाश का ध्यान करते हैं। तो मैंने कहा कि प्रकाश निराकार कहाँ है? प्रकाश साकार है। उसकी लम्बाई, चौड़ाई, गोलाई और मोटाई है? शक्ल बन जाने से वह साकार हो गया। निराकार कहाँ रहा? तो वह हँसते और कहते कि भाई! बात यह है कि ध्यान करने के लिए कोई न कोई आकार तो बनाना ही पड़ेगा।
माँ का ध्यान
मित्रो! आपको भी ध्यान केन्द्रित करने के लिए आकार बनाना पड़ता है, भगवान् का स्वरूप बनाना पड़ता है। आप शंकर जी का बनाइये, गणेश जी का बनाइये, विष्णु जी का बनाइये, आपकी अपनी मर्जी है। मैं तो गायत्री माता का बनाता रहता हूँ, पर आपकी अपनी मर्जी है। आप किसी और का बना सकते हैं। पर मैं आपसे एक बात कहूँगा कि माँ के पास सबसे ज्यादा प्यार है। माँ से ज्यादा प्यार और कहीं नहीं मिलता। हमें प्यार पाने की जरूरत है, इसलिए हमें ऐसा प्रेम प्राप्त करना चाहिए, जिसमें प्यार बिना किसी लाभ की आकांक्षा के हो। यदि दुनिया में प्यार मिल सकता है, तो वह माँ का प्यार है। यहाँ कहीं भी कलुष-कषाय नहीं हो सकता है। स्त्री के प्यार में और बच्चे के प्यार में कलुष-कषाय हो भी सकता है। उस बेचारी का रूप काला-कलूटा हो जाये, तो मनुष्य का मन खट्टा हो जाता है। कौआ जैसा काला हो जाय, तो नाराज हो जाता है, पर माँ कभी बच्चे से नाराज नहीं होती है। गायत्री माता के ध्यान की प्रक्रिया के बारे में मैंने संक्षेप में कई बार आपको बताया है। माँ के साथ में क्रियाकलाप कैसा हो? माँ की गोदी में खेलना, माँ के सीने से लिपट जाना, माँ का सिर पर हाथ फिराना, माँ की छाती से दूध पीना, माँ के साथ लिपटे रहना—यह ध्यान हमारे लिए बड़ा उपयोगी है।
ध्येय पर मन लगाइए
जो लोग ऐसा ख्याल करते हों कि हमको यह मुनासिब नहीं है, फिर हम माँ का ध्यान कैसे करेंगे? हम तो बड़े हो गये हैं तो मैं उनको दूसरा ध्यान बता देता हूँ। प्रातःकाल के सूरज का आप ध्यान किया कीजिए। आप सबेरे वाले लाल रंग के सूर्य को ध्यान से देखिये। क्षण भर के लिए देखिए, फिर आँख बंद कर लीजिये। सबेरे प्रातःकाल उसे स्मरण कर लीजिए और आँख बंद कर लीजिए। आपके ध्यान में वह लाल रंग का सूरज आने लगेगा। आप समझिए कि यह भगवान् का स्वरूप है और हम उसके समीप हैं। आप मस्तिष्क में गायत्री माता के स्वरूप की कल्पना कीजिये और उसका ध्यान किया कीजिये। मन भागे तो उसे रोकने के लिए एक बहुत अच्छी तरकीब है, जो कि हमने बहुत पहले ही बता दी थी। गायत्री माता का स्वरूप बना हुआ है। उसका वाहन हंस है। दुपट्टा ऐसा है, कान का जेवर ऐसा है, मुकुट ऐसा है, नाक का जेवर ऐसा है। आप मन को भागने दीजिए और यह कहिए कि चल भाग, पर इतना ही भागना, अन्यथा आगे बढ़ा, तो तेरे हाथ-पैर तोड़ दूँगा। आगे नहीं बढ़ने दूँगा। भाग यहाँ से। गायत्री माता की साड़ी ऐसी है। साड़ी का बॉर्डर ऐसा है। पाँव ऐसे हैं, नाखून ऐसे हैं, बिछुआ ऐसा है। गायत्री माता की नाक ऐसी है, बाल ऐसे हैं। कान में जेवर ऐसे पहने हैं। हाथ में अँगूठी ऐसी पहने हैं। हाथ में कमंडल ऐसे लगा हुआ है। हाथ में लिया हुआ कमंडल कितना लम्बा-चौड़ा है। आप यह मानिये कि आपका इम्तिहान आने वाला है और यही पर्चा आने वाला है कि बताइये भाई! आपने गायत्री माता की तस्वीर देखी थी, वह कैसी थी? बिछुआ कौन से पैर में था? कान में जेवर किस तरह का था? उनकी साड़ी कैसी थी? बॉर्डर कैसा था? बताना तो सही।
मन जंगली हाथी है, उसे बाँधिए
आप मान लीजिए, अगर यही सवाल अगले इम्तिहान में आये और इसी की तैयारी करनी पड़े, तो कितनी बारीकी और गौर से देखेंगे। उसी बारीकी और गौर से आप अपने मन को दिखा दीजिए। इतने गौर से भगवान् का चित्र हर पहलू से देखिये। बस मन के भागने वाली प्रक्रिया अपने आप बंद हो जायेगी। हाथी को पकड़कर जब जंगल में से लाते हैं और उसे छोटे से बाड़े में बंद कर देते हैं और कहते हैं कि भाग लो, जहाँ तुम्हें भागना हो। बस एक बार रस्सा बाँध लें, तब। फिर रस्सा तोड़कर हाथी भागेगा या अपने गले में फाँसी लगा लेगा। उसे थोड़ा भागने देते हैं। मित्रो! आपका मन जंगली हाथी के तरीके से है। आप उसको धीरे-धीरे इस्तेमाल कीजिए। एकदम से किसी का मन नहीं रुकता। इसीलिए भगवान् का साकार स्वरूप बना दिया। मन को भागने दीजिए माँ के कान के ऊपर, नाक के ऊपर, हंस के ऊपर, मोर के ऊपर, कबूतर के ऊपर, चूहे के ऊपर। ये सब देवताओं के वाहन हैं। भागने दीजिए मन को साँप के ऊपर, ध्यान कीजिए।
इस बहाने से मन को देखने दीजिए, चलने दीजिए, सूरज पर भागने दीजिए, तारों पर भागने दीजिए, चन्द्रमा पर भागने दीजिए, साँपों पर भागने दीजिए। साँप की पूँछ कैसी है? साँप की आँख कैसी है? बस बहुत सी चीजें देखने को मिल गयीं और आपका मन एक सीमाबद्ध हो गया। इसके बाद आप मन को उस केन्द्र से हटाते हुए चले जा सकते हैं। आप सारे शरीर में से केवल मुखड़ा में ध्यान कीजिए। मुखड़ा में कैसे? आप केवल आँख में ध्यान कीजिए। आँख में से उसके बीच जो पुतली काले तिल की तरह है, उसमें ध्यान करना शुरू कीजिए। मैस्मेरिज्म में जैसे काले बिन्दु के ऊपर ध्यान करते हैं और ध्यान में तन्मय हो जाते हैं। धीरे-धीरे मन को केन्द्रित करते हुए आप गायत्री माता की दाहिनी आँख के ऊपर ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं और आपका मन समर्पित हो सकता है। इस तरीके से ध्यान वाली भूमिका आपको मैंने बताई और मैंने आपको जप वाली भूमिका बताई। नाम और रूप की जानकारी आपको दी। अब मैं एक और उपासना में ध्यान लगाने वाली भावना का रूप बताऊँगा।
ब्रह्मार्पण, समर्पण ध्यान में
मित्रो! भावना के बारे में मैंने बताया था कि अपने इष्टदेव और भगवान् के साथ समर्पण का भाव होना चाहिए। हम भगवान् को अपने आपमें समझते हैं और भगवान् हमको अपने आपमें समझता है। यह आदान-प्रदान वाली प्रक्रिया जीवात्मा को आनन्द से ओतप्रोत कर सकती है। ब्रह्मार्पण उसी का नाम है, जो अर्पण किया जाता है। जो कुछ भी चीजें हमारे पास हैं, हम उसे भगवान् को अर्पण कर देते हैं और भगवान् हमको समर्पण कर देता है। दोनों का आदान-प्रदान हो जाता है। इसी का नाम योग है। आत्मा और परमात्मा को मिलाने का नाम योग है। योग माने जोड़ देना, मिला देना। जहाँ गंगा और यमुना मिल जाती हैं, वहाँ ईश्वर मिल जाता है। जहाँ प्रातःकाल और सायंकाल मिल जाता है, वहाँ संध्याकाल कहलाता है। इस समय हम उपासना के लिए जहाँ बैठ जाते हैं। रात्रि आई और अपना समर्पण करती गयी। दिनमान प्रातःकाल उदय हुआ। रात्रि ने कहा—हे प्रियतम! हमारा शरीर, हमारा अस्तित्व आपके लिए समर्पित है। रात्रि ने अपने आपको दिन के ऊपर समर्पित किया और दिन हँसने लगा, मुस्कराने लगा प्रातःकाल की लालिमा के रूप में। उषा हो गयी, अरुणिमा छा गयी। सूर्य खिलखिलाने लगा। सूर्य के साथी ने शंख फूँका। दुनिया में शंख बजने लगे। आरतियाँ उतारी जाने लगीं। लोग मंत्रोच्चारण करने लगे।
संध्याकाल के मिलन की तरह
दुनिया में सबके लिए कब प्रक्रिया जारी हो गयी, जब हर रात्रि ने अपने आपको दिनमान के ऊपर समर्पित किया था और दिनमान ने रात्रि को कलेजे से लगाने के लिए अपनी गोद पसार दी थी। आत्मा का समर्पण, परमात्मा का समर्पण जब कभी भी होगा, जहाँ कहीं भी होगा, जहाँ भी होगा, मित्रो! संध्याकाल के मिलन की तरह होगा। कैसे? सायंकाल की संध्या आई। दिनमान ने कहा—रात्रि! मैं अपने आपको तेरे चरणों में समर्पित करता हूँ। रात्रि ने अपना काला वाला आँचल पसारा और कहा—आ, तुझे अपने आँचल में लेकर बैठूँगी और सारी रात तेरा सिर दबाती रहूँगी। मैं तेरा सिर सहलाती रहूँगी। उसने अपना काला वाला आँचल अपने सीने में फहरा दिया, जिसमें हीरे-मोती जड़े हुए थे। दिनमान आया और चुपचाप सो गया। सूरज ने कहा कि आध्यात्मिकता उदय हो गयी। आध्यात्मिकता की शुभ घड़ी आ गयी। मित्रो! समर्पण के क्षण बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। सायंकाल की आरती हुई। पुजारियों ने जय-जयकार किया, आरती कर, शंख बजाये। लोगों ने संध्यावंदन के लिए पालथी जमाई और ध्यान करने लगे। संध्या का पुनीत समय बड़ा पुण्यशाली समय होता है। इसी में हम भजन करेंगे, इसी में हमारी मुक्ति होगी। यह समर्पण है रात्रि का दिनमान के लिए।
अब आता है आत्मा का समर्पण परमात्मा के लिए। उपासना के क्षण थोड़े से हैं, लेकिन अन्ततः तो उसका और भी विकास होने वाला है। अब मैं आपको उपासना की विधा सिखा रहा हूँ। उपासना की विधा में भी ध्यान करना आना चाहिए। हम भगवान् का ध्यान करते हैं और ध्यान के साथ-साथ अपने समर्पण की बुद्धि समर्पित कर देते हैं। ब्रह्मानन्द कैसा होता है? भगवान् के भजन में कैसा आनन्द आता है। इसका उदाहरण वेदों में मिलता है। लोगों ने कहा कि भगवान् के यहाँ आत्मा और परमात्मा जब मिलता है, तो कैसा आनन्द आता है? बता सकते हैं आप? ऋषियों ने कहा—क्या बतायें, कैसे बतायें, तुमने कभी चखा तो है नहीं। कैसे बता दें कि कैसा होता है? बहुत देर तक बहस चलती रही। कैसे बतायें कि ब्रह्मानन्द क्या होता है? आत्मा और परमात्मा का मिलन कैसा होता है? इसकी व्याख्या कैसे करें?
ब्रह्मानन्द कैसा?
उन्हें एक उदाहरण सूझ पड़ा। बच्चे ने पूछा—समुद्र कैसा होता है? पिताजी ने गड्डा खोदा और उसमें जरा-सा पानी डाल दिया। उन्होंने कहा गड्ढा है? हाँ। पानी से भरा है? हाँ। समुद्र कैसा होता है? गड्ढे जैसा। और समुद्र में पानी कैसे भरा होता है? ऐसे ही। समुद्र में लहर कैसे आती है। पिता ने छोटी सी कंकड़ी डाली और पानी में लहर उठने लगी। लहरें उठती हैं? हाँ! ज्वार-भाटा कैसा होता है? जैसे लहरें उठती हैं। बच्चा समझ गया। उसने अन्दाजा लगा लिया कि शायद ऐसा ही समुद्र होता होगा। समुद्र का छोटे गड्ढे से क्या मुकाबला? कोई मुकाबला नहीं; लेकिन अन्दाज से बता दिया।
ब्रह्मानन्द किस-किस तरीके से हो सकता है? इसका एक गंदा वाला बड़ा फूहड़ और निकम्मा उदाहरण है—नर का मिलन। नर-नारी अपने शरीरों का समर्पण कर देते हैं। उनके पास जो कुछ भी होता है, एक दूसरे को समर्पित कर देते हैं। शरीर का आकर्षण बिन्दुपात की सीमा तक खिंचता हुआ चला जाता है। यह आकर्षण इतना बड़ा होता है, कि इस आकर्षण को छोड़ना ऋषियों के लिए भी संभव न हो सका। यह संसार का छोटा वाला अंश है। मित्रो! महत्त्वपूर्ण सत्ता का, आध्यात्मिकता का एक ही अंग है, जिसका नाम है—ब्रह्मानन्द। इस ब्रह्मानन्द को प्राप्त करने के लिए, उसके साथ एक होने के लिए क्या करना होता है? जैसा कि मैंने अभी आपको एक उदाहरण में बताया है कि जीवात्मा को नंगा होना होता है। कैसे? मैंने यह कपड़ा उतार दिया, घूँघट उतार दिया, दुपट्टा उतार दिया। जीव सब कुछ उतारता हुआ चला जाता है। अहंकार उतारता हुआ, लोभ उतारता हुआ चला जाता है। तृष्णा उतारता हुआ चला जाता है। वासना उतारता हुआ चला जाता है। कामनाएँ उतारता हुआ चला जाता है। आत्मा हर कपड़ा उतार देता है और नंगा हो जाता है। वह कहता है कि जो कुछ तेरा दिया हुआ था, तेरे चरणों में, तेरी सेवा में समर्पित है, मेरी कामनाएँ तेरे लिए समर्पित हैं। मेरा मन तेरी इच्छा के अनुकूल है और मेरा शरीर तेरी इच्छा के अनुकूल है। मेरी भावनाएँ तेरी इच्छा के अनुकूल हैं। इन भावनाओं के साथ जब हम ध्यान करने के लिए बैठते हैं, तब मित्रो! मजा आता है।
दीपक और पतंगे की तरह
मित्रो! इस उपासना में हम दीपक और पतंगे का ध्यान बताते हैं। पहले अखण्ड ज्योति के पहले पन्ने के ऊपर एक तस्वीर निकलती थी। वह मुझे बहुत प्यारी लगती थी। मैं चाहता था कि हर पाठक उसी भावना के साथ उपासना किया करें। पतंगा गया, उसने कहा—दीपक! मेरे पास तरह-तरह की चीजें हैं। मैं चाहता हूँ कि मैं तेरा प्रकाश पाऊँ और मेरे यह पंख तेरी रोशनी की तरह से चमचमाने लगें। दीपक ने कहा—संभव तो है, मैं तुझे प्रकाश दे भी सकता हूँ, लेकिन तू धारण किसमें करेगा? सारे का सारा माँस का बना हुआ टुकड़ा, परों का बना हुआ टुकड़ा, बालों का बना हुआ टुकड़ा—कौन? पतंगा। उसने दीपक से कहा—देख मैं अपने को तुझे समर्पित करता हूँ और पतंगा उसकी ओर बढ़ता हुआ चला गया। लोगों ने कहा कि जल जाओगे, बलि हो जाओगे, बड़ा कष्ट होगा। पतंगा नहीं माना। लोगों ने कहा कि बड़ा बेवकूफ है। पतंगा दीपक के ऊपर समर्पित हो गया।
मित्रो! हर पतंगा इसी तरीके से भगवान् के ऊपर जला है। राजा हरिश्चन्द्र पतंगे की तरीके से जलते हुए आये। मोहम्मद साहब पतंगे की तरीके से जलते हुए आये। कर्ण पतंगे की तरीके से जलता हुआ आया। दधीचि पतंगे की तरीके से जलते हुए आये। ईसामसीह पतंगे की तरीके से जलते हुए आये। मीरा पतंगे की तरह से जलती हुई आयी। नरसी मेहता से लेकर सारे के सारे लोगों तक का इतिहास जलने वाला रहा है। भगवान् को पाने का अर्थ है—जलने वाला। इतिहास की पुनरावृत्ति होती है। जलने वाला पतंगा चला गया। अपने प्राणों की बलि देता हुआ, अपने प्रियतम को समर्पित करता हुआ चला गया। और दीपक ने कहा—समर्पित होने वाले का बदला चुकाया जायेगा। उसे प्रकाश का अंश दिया जायेगा। पतंगा जल गया, दीपक भी जलता रहा। ‘जलती है शमा भी, जलता है परवाना भी।’ परवाना भी जलता रहा। लोगों ने देखा—दोनों ही जल गये और जलते-जलते दोनों की आत्मा का अस्तित्व ऊपर आ गया।
आत्मा का ध्यान ऐसा
साथियो! पहली बार जो मैंने ध्यान किया था, उसे पहली बार अखण्ड ज्योति में छापा था। जो तस्वीर बनाई थी, उसमें एक बच्ची का चित्र था और एक लड़के का चित्र था। दोनों आत्मा और परमात्मा को हम प्रेमी, प्रेयसी और प्रियतम के रूप में पुकारते हैं। इसीलिए मैंने अखण्ड ज्योति के ऊपर छापने के लिए वैसी तस्वीर बनाई थी। तस्वीर छापने के लिए जब ब्लाक लगाया, तो छापने वाले ने मुझसे कहा कि यह तस्वीर अश्लील है। इसमें स्त्री-पुरुष का मिलन दिखाया गया है। लोग इसे अश्लील कहने लगेंगे और खराब बात सोचने लगेंगे। लोगों के सोचने के तरीके गलत हैं, इसलिए आप स्त्री-पुरुष वाले चित्र हटा दीजिए। तो मैंने कहा कि फिर क्या करना चाहिए। उन्होंने कहा कि दो लड़कों का चित्र बना दीजिए। मैंने राम और भरत का चित्र बना दिया। राम और भरत दीपक के प्रकाश में से निकलते हैं और आत्मा में मिल जाते हैं। यही आत्मा के ध्यान का चित्र है।
ध्यान का सार आत्म समर्पण
मित्रो! आप गायत्री माँ का ध्यान करते हैं कि वह हंस पर बैठी हुई है। हाँ महाराज जी! बैठी तो है, पर इतना ही काफी नहीं है। नहीं साहब! हम तो शंकर जी का ध्यान करते हैं। शंकर जी का ध्यान करने से क्या मिल जायेगा। शंकर जी का ध्यान करना है तो इस तरीके से कीजिए—जैसे पार्वती जी तप कर रही थीं शंकर जी को पाने के लिए, जिसमें एक ही लगन थी—‘जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआँरी॥’ (बालकाण्ड ८०/३) बस एक ही लगन थी, एक ही आराधना थी—प्रियतम को प्राप्त करना, सविता के तेजस् को प्राप्त करना, गर्मी को प्राप्त करना, सविता का वर्चस्व प्राप्त करना, सविता का फल प्राप्त करना और उस सत्ता को प्राप्त करने के लिए समर्पण करना। बीज गल जाता है और वृक्ष के रूप में परिणित होता रहता है। ध्यान की भूमिका में जो सार है, वह है—भावनाओं का आत्मसमर्पण, आत्मनिवेदन।
परमात्मा प्रेमरूप है
मित्रो! यदि उपासना विडम्बना बनी रह जायेगी, तो उपासना में आपको मजा नहीं आयेगा। उपासना में आकर्षण नहीं रहेगा। थोड़े ही दिनों में आपका मन खट्टा हो जायेगा। फिर आप कहेंगे कि गुरु जी! मन नहीं लगता। पहले हम उपासना में बैठते थे, तो महीने-दो महीने बहुत मन लगा, जब आपने शुरू में बताया था। ‘‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन।’’ नयी चीज तो हरेक को अच्छी लगती है। नयी संतोषी माता भी अच्छी होती है। नया गुरु भी अच्छा लगता है। पुराना गुरु बूढ़ा लगता है। जो नये गुरु हैं, इनको बैठाओ। इनके पास नये नये चमत्कार हैं और यदि यही पुराने हो जायें, तो देखो इनमें कोई चमत्कार नहीं है। नयी-नयी चीजों के लिए मन में आकर्षण बना रहता है। नयी उपासना में बहुत मन लगता है। हाँ गुरुजी! पहले तो बहुत मन लगा था, लेकिन अब खट्टा हो गया। बेटे, तुम्हारा क्या, दुनिया का यही कायदा है। मित्रो! उपासना, जिसमें कभी खोट नहीं आती, जो कभी बूढ़ी नहीं होती, जो कभी व्यर्थ नहीं जाती, वह है परमात्मा से प्रेम। परमात्मा प्रेम रूप है, परमात्मा भावनाओं के रूप में है। सच्ची भावना के साथ जब हम उपासना करते हैं, तो हमारे भजन में, भक्ति में कितना आनन्द आता है।
उपासना के साथ साधना
मित्रो! मैंने अभी आपको उपासना की प्रक्रिया बताई। साधना का क्रम इसके बाद आता है। आध्यात्मिक प्रगति का मिला हुआ स्वरूप है—उपासना और साधना का सम्मिश्रण। दो पहियों वाली साइकिल पर लम्बी यात्रा की जाती है, एक पहिए वाली पर नहीं। एक पहिए वाली साइकिल पर लड़कियाँ सर्कस में खेल दिखा सकती हैं, लेकिन यदि लम्बी यात्रा पर जाना हो, आगरा जाना हो, तो एक पहिए वाली साइकिल एक फर्लांग से अधिक नहीं जा सकती, लम्बा सफर तय नहीं कर सकती। इसी तरह एक पहिए वाली उपासना, जिसमें केवल पूजा ही पूजा भरी हुई हो, जिसमें केवल भजन ही भजन भरा हो, जिसमें केवल जप ही जप भरा हो, जिसमें केवल ध्यान ही ध्यान भरा हो, केवल आरती और नाम ही नाम भरा हो। मित्रो! इससे लक्ष्य को नहीं पाया जा सकता। उपासना के साथ साधना की भी जरूरत है। उपासना और साधना—दोनों का सम्मिश्रण बना देने से एक आध्यात्मिक प्रक्रिया का मार्ग बन जाता है।
कैसी है मेरी उपासना?
मित्रो! उपासना की थोड़ी वाली प्रक्रिया, उपासना का थोड़ा वाला ध्यान मैंने आपको बताया है। यह सिलेबस हमने 'अखण्ड ज्योति' में विस्तार से लिखा है। अब तक जो थोड़ी जानकारी दी और अपनी उपासना की विधि आपको बताई कि मैं किस तरह से उपासना किया करता हूँ। जब पूजा की कोठरी में बैठ जाता हूँ, तो भावनाओं की तरंगें हमें आकाश में उड़ाती हुई ले जाती हैं। जैसे आदमी हवाई जहाज में सवार हो जाता है और हवाई जहाज उड़ता हुआ चला जाता है। आसमान और तारों को चूमता हुआ चला जाता है। बस! यही मेरी भावना है। भावनाओं के साथ मैं उड़ता रहता हूँ और मेरा दीपक ऐसे दिखाई देता है जैसे सूरज चमक रहा हो, चाँद चमक रहा हो। इसके प्रकाश में मेरा अंतर्मन और बाह्य जीवन प्रकाश से आच्छादित हो जाता है। मेरे गुरुदेव का चित्र, गायत्री माता का चित्र मेरे सामने लगा रहता है। भगवान् जाने कि वह हँसता है कि नहीं; लेकिन मुझे यह मालूम पड़ता है कि वह हँसता रहता है, मुस्कराता रहता है, प्यार करता रहता है। आँख चलाता रहता है। गायत्री माता हँसती रहती है, मुस्कराती रहती है।
मेरा भगवान् मेरे साथ
मित्रो! मेरा भगवान् बहुत ही हँसता रहता है। मैं उसके लिए यहाँ बैठा रहता हूँ। भगवान् जाने यह मेरा दिमाग है या भगवान् ही ऐसा करता रहता है। वह गोदी में उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाता रहता है। खाना खिलाता रहता है। लगता है मेरे मुँह में कोई अन्न ठूँसता हुआ चला जा रहा किसी और का हाथ है, जो मेरे मुँह में डालता चला जा रहा है और मेरा हाथ स्वतः मुँह में चला जाता है, ऐसा मालूम पड़ता है। कई बार कम्बल लपेटकर सो जाता हूँ। अकेला सोया हुआ हूँ, पर कई बार ऐसा लगता है कि हम दो आदमी सोये हुए हैं। हाथ उठाकर देखता हूँ तो मुझे मालूम पड़ता है कि मेरा भगवान् सोया हुआ है। जगने के बाद देखता हूँ तो मुझे बड़ी झल्लाहट आती है। कैसा मजेदार सपना था? कैसा मजेदार मालूम पड़ रहा था। एक ही चारपाई के ऊपर, एक ही गद्दे, कम्बल के ऊपर लेटा हमारा भगवान् हमारे साथ सोया हुआ था। यह आनन्दित प्रसाद कहाँ से आया था? आँख खोली तो अन्तर्मन ने कहा कि यह है भावना का प्रवाह, जिसके द्वारा मैंने अपने भगवान् को पाया।
पायलट-बाडीगार्ड मेरा भगवान
मित्रो! मैं आगे-आगे चलता रहता हूँ और मेरा भगवान पायलट के तरीके से मोटर साइकिल पर दौड़ता हुआ आगे-आगे चलता है। आँख उठाकर जब पीछे देखता हूँ तो मालूम पड़ता है कि वह बॉडीगार्ड के तरीके से बंदूक लिए मेरे पीछे-पीछे चल रहा है। कहता है कि डरना मत, आगे-आगे चल और हम तेरे पीछे-पीछे चलेंगे और जो कुछ होगा, देख लेंगे। मेरा पायलट आगे-आगे रास्ता बनाता हुआ चलता रहता है। उन्होंने कहा कि हम सेवा कर रहे हैं, तू बेखतरे, बेखटके, बिना चिन्ता के चलता जा। मैं आगे-आगे चल रहा हूँ। जोखिम का मैं जिम्मेदार हूँ। पायलट भागता है आगे-आगे और बॉडी गार्ड चलता रहता है पीछे-पीछे। बगल में देखता हूँ, तो मुझे पी.ए. जैसा मालूम पड़ता है। एक पी.ए. इधर चलता है और एक पी.ए. उधर चलता है। भगवान् से सदैव बातें करता रहता हूँ, मुस्कराता रहता हूँ और सदैव हाथ में हाथ डाले हुए घूमता रहता हूँ। खेत-खलिहानों पर चलता रहता हूँ।
आपका और मेरा भगवान
मित्रो! मैंने भगवान् को अपनी भावनाओं की कीमत पर खरीदा है। आपने तो भगवान् को चावल खिलाकर खरीदना चाहा, रोली खिलाकर, अक्षत खिलाकर, २४ हजार जप करके, सवा लाख जप करके, तप करके खरीदना चाहा। ‘‘गाँव-गाँव सेर है, तू मन-मन सेर।’’ फलाँ जप करके खरीदना चाहते हैं भगवान् को। भावनाएँ लगाते नहीं हो। तुम्हारा जीवन, तुम्हारी भावनाएँ, तुम्हारा दिल अपने पेट के लिए, इन्द्रियों के लिए लगती रहती हैं। इससे ज्यादा और कोई भावना तुम्हारे पास नहीं है। कोई विचार तुम्हारे पास नहीं है। कोई आदर्श तुम्हारे पास नहीं है। कोई लक्ष्य तुम्हारे पास नहीं है। अरे लक्ष्यविहीन मनुष्यो! तुम्हारे पास भावनाएँ कहाँ से आयेंगी? तुम्हारे पास भावनाएँ आयेंगी कि दौड़-दौड़कर पैसा आना चाहिए। तेरा मन नहीं लगता। कहाँ भाग जाता है? आज के भगवान् में भाग जाता है। हमारा कौन सा भगवान्? कैसा भगवान्? आपके जीवन का लक्ष्य पैसा था और वह भाग-भाग कर उसी पैसे में लगा था। आप सिनेमा ही तो देखते थे न? ताश ही तो खेलते थे न? मन कहाँ गया था? अपने भगवान् के पास गया था। आपने भगवान् की शकल बना दी थी सिनेमा के रूप में, ताश के रूप में, चौपड़ के रूप में, शतरंज के रूप में, विलासिता के रूप में। यही भगवान् था आपका। इसी में आपका मन जाता रहा।
भावनाएँ सच्ची हों तो भगवान मिलेगा
मित्रो! आपकी क्या इच्छा है? आपका मन किस भगवान् में पड़ा हुआ है? भगवान् का जैसा स्वरूप आप निर्धारित कर लेंगे, वही तो आयेगा। आपने बनाया कब था भगवान को? निश्चित कब किया था भगवान को? भगवान् का स्वरूप था कब आपके जीवन में? भगवान् का प्रेम था कहाँ आपके पास? केवल कामनाएँ थीं, वासनाएँ थीं, तृष्णाएँ थीं, जिन्हें आप भगवान् मान रहे थे और उन्हीं के चरणों में फूल चढ़ा रहे थे, उन्हीं के लिए आपका सारा संसार था। उसी के लिए आपने सपने देखे थे और उन्हीं में आपका मन भागता रहा। फिर कहते हैं कि भगवान् में मेरा मन नहीं लगता। कैसे मन लगेगा और क्यों मन लगेगा? मन कैसे लगेगा, आपने स्वरूप ही ऐसा बना लिया है कि वह उसी में घूमता रहेगा, चलता रहेगा। आपने यह खिलौना वाला भगवान् केवल अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए, अपना उल्लू सीधा करने के लिए पकड़ लिया है। यह भगवान् तभी तक आपके पास है, जब तक आपका उल्लू सीधा नहीं हो जाता। उल्लू सीधा होते ही दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंक देंगे। जब तक कामनाएँ पूरी हों, तब तक मंदिर है। कामनाएँ पूरी हुई मंदिर गायब। मित्रो! जब तक आपकी भावनाएँ सच्ची और पवित्र नहीं होंगी, कोई सफलता मिलने वाली नहीं है। एक बार फिर ध्यान पूर्वक सुन लीजिए। उपासना का समूचा ढाँचा इसी पर खड़ा हुआ है। आज की बात समाप्त।
॥ॐ शान्तिः॥